हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆ विसाल ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “विसाल”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆

☆ विसाल

ज़ाफ़रानी* शामों में

मैं जब भी घूमा करती थी

नीली नदी के किनारे,

नज़र पड़ ही जाती थी

उस बेक़रार से दरख़्त पर

और उस कभी न मानने वाली

बेल पर!

 

आज अचानक देखा

कि पहुँचने लगी है वो बेल

उस नीली नदी किनारे खड़े

अमलतास के

उम्मीद भरे पीले दरख़्त पर,

एहसास की धारा बनकर|

 

शायद

वो खामोश रहती होगी,

पर अपनी चौकन्नी आँखों से

देखती रहती होगी

उस दरख़्त के ज़हन के उतार-चढ़ाव,

महसूस किया करती होगी

उस दरख़्त की बेताबी,

समझती होगी

उस दरख़्त की बेइंतेहा मुहब्बत को…

 

एक दिन

बेल के जिगर में भी

तलातुम** आना ही था,

और आज की शाम वो

अब बिना किसी बंदिश के

बह चली है

एहसास की धारा बनकर

विसाल*** के लिए!

 

*ज़ाफ़रानी = saffron

**तलातुम = waves

***विसाल = to meet

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  स्त्रीत्व

 

उन आँखों में

बसी है स्त्री देह,

देह नहीं, सिर्फ

कुछ अंग विशेष,

अंग विशेष भी नहीं

केवल मादा चिरायंध,

सोचता हूँ काश,

इन आँखों में कभी

बस सके स्त्री देह..,

केवल देह नहीं

स्त्रीत्व का सौरभ,

केवल सौरभ नहीं

अपितु स्त्रीत्व

अपनी समग्रता के साथ,

फिर सोचता हूँ

समग्रता बसाने के लिए

उन आँखों का व्यास

भी तो बड़ा होना चाहिए!

 

समाज की आँख का व्यास बढ़ाने की मुहिम का हिस्सा बनें। आपका दिन सार्थक हो।

 

संजय भारद्वाज
[email protected]

प्रात: 9.24 बजे, 5.12.19

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #27 – वासनांचे कोपरे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “वासनांचे कोपरे”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 27 ☆

 

☆ वासनांचे कोपरे ☆

 

केवढे हे कौर्य घडते रोज येथे बाप रे

मी मुलीचा बाप आहे येत नाही झोप रे

 

पावसाळा गाळ सारा घेउनी गेला जरी

स्वच्छ नाही होत यांच्या वासनांचे कोपरे

 

जाळण्या कचऱ्यास बंदी जाळती नारीस हे

वृत्तपत्रे छापतांना अक्षरांना कापरे

 

फलक हे निर्जीव त्यांच्या चेहऱ्यावर वेदना

झुंडशाहीला कुठे या कायद्याचा चाप रे

 

घोषणा अन् मागण्यांचे हे निखारे चालले

राजभवनाच्या पुढे हे घेत नाही झेप रे

 

येउद्या शिवराज्य येथे वा शरीयत कायदा

शीर वा हे हात तोडा थांबवा हे पाप रे

 

या सुया देतात जखमा आणि फिरती मोकळ्या

जन्मभर नाही मिळाला या कळ्यांना लेप रे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ कर्मभूमि के लिए बलिदान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  प्रो सी बी श्रीवास्तव जी की प्रसिद्ध पुस्तक “कर्म भूमि के लिये बलिदानपर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – कर्म भूमि के लिये बलिदान  

पुस्तक – कर्म भूमि के लिये बलिदान

लेखक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध

मूल्य –  30 रु

प्रकाशक –  बी एल एण्टरप्राईज जयपुर
ISBN 978-81-905446-1-0

 

☆ कर्म भूमि के लिये बलिदान – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

बच्चो के चरित्र निर्माण में अच्छे बाल साहित्य की भूमिका निर्विवाद है.  बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘एक शिक्षा शास्त्री व बाल मनोविज्ञान के जानकार विद्वान मनीषी हैं. उनकी यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है.

नन्हें बच्चो के मानसिक धरातल पर उतरकर उन्होंने सरल शब्द शैली में कहानियां कही हैं.  बच्चे ही नही बड़े भी इन्हें पढ़ते हैं तो  पूरी कहानी पढ़कर ही उठ पाते हैं. कारगिल युद्ध के अमर शहीद हेमसिंह की शहादत की कहानी कर्मभूमि के लिये बलिदान के आधार पर पुस्तक का नाम दिया गया है. सभी कहानियां सचित्र प्रस्तुत की गई हैं. पुस्तक विशेष रूप से बच्चो के लिये पठनीय व संग्रहणीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।।15।।

 

मुझे प्राप्त कर जन्म फिर पाते नहीं महान

पर मुक्ति पाते जगत तो है दुख की खान।।15।।

 

भावार्थ :  परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।।15।।

 

Having attained Me these great souls do not again take birth (here), which is the place of pain and is non-eternal; they have reached the highest perfection (liberation).।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]`




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – देह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  देह 

आत्मतत्व है तो

देह प्राणवान है,

बिना आत्मतत्व

देह निष्प्राण है..,

दो पहलुओं से

सिक्का ढलता है

परस्परावलंबिता से

जगत चलता है,

माना आत्मऊर्जा से

देह प्रकाशवान है

पर देह बिना आत्म

भी मृतक विधान है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 24 – ज़िन्दगी ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कविता  “ज़िन्दगी। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 24 ☆

☆ कविता – ज़िन्दगी    

 

किसी ने कहा

जिंदगी है खेल

कोई पास

कोई फेल

पर उन्होंने

जिंदगी खपा दी

शब्दों को चुनने में

शब्दों को तराशने में।

 

उन्हें गर्व हुआ

अपनी होशियारी पर

तभी नासमझ समय

अट्टहास करते बोला

“मूर्ख!

तुमने नष्ट की है जिंदगी

अपने स्मारक के

पत्थर जुटाने में।”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765



मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 26 – आजची युवा पिढी आपल्या मुळ संस्कृतीपासुन दुरावत चालली आहे…? ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है एक आदर्श शिक्षिका के कलम से  मात्र युवा पीढ़ी ही नहीं अपितु हमारी पीढ़ी के लिए भी एक सार्थक सन्देश  देता आलेख  “आजची युवा पिढी आपल्या मुळ संस्कृतीपासुन दुरावत चालली आहे…?”  यह आलेख साहित्यधारा साहित्य समुह अमरावती व्दारा आयोजित भव्य लेख स्पर्धा में प्रविष्टि स्वरुप  प्रेषित किया गया था। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 26 ☆ 

 ☆ आजची युवा पिढी आपल्या मुळ संस्कृतीपासुन दुरावत चालली आहे…? 

 

नशीब  म्हणायचं की, डोळ्यासमोर स्वतःसाठी वृद्धाश्रम दिसायला लागल्या नंतर तरी आपल्याला संस्कृतीची आठवण झाली. आणि युवा पिढीला संस्कार नाहीत संस्कृती पासून दुरावत चालली हे म्हणणे कितपत बरोबर आहे.  कारण संस्कार आणि संस्कृती पुस्तके वाचून शिकायची नव्हे तर आचरणातून घडवायची बाब आहे. मुलं जे पाहातं तेच शिकत असतं.

मुलांना नावं ठेवणाऱ्या पालकांना माझा साधा प्रश्न आहे.. किती आईवडील संध्याकाळी आपल्या मुलांना घेऊन शुभंकरोती म्हणतात?  बोधकथा सांगतात, मुलांसमोर आई वडील सासू सासरे इतर मोठी माणसं यांचा मान ठेवतात. निःस्वार्थ शेजार धर्म पाळतात, किती गरजू लोकांना मदत करतात  हाहीप्रश्नच आहे.

शिवाय मुलांना फास्ट फूड,कोल्ड्रिंक्स, पिझ्झा बर्गरची, सवय कुणी लावली?

किती जणांच्या घरी आज घरी बनवलेले लोणचे, पापड, कुरडई, साखर आंबा, आवळ्याचा मुरंबा, तिळाची, पोळी गुळाची, पोळी, तीळ / शेंगदाण्याचे लाडू असे पदार्थ बनवलेले असतात ?  जे आपण लहानपणी भरपेट खाल्ले,….

अनेक माता आज मुलांना डब्यात चक्क मॕगी करून देतात. काहीजण मुरमुरे तेलमीठ लावून तर काहीजणी चक्क दहा रूपये देऊन मुलांना कुरकुरे,चक्के पे चक्का घ्यायला सांगतात.  मग त्या पैशात मुलांनी नेमकं काय केलं हे पाहायची सुद्धा तसदी घेत नाहीत. … मी मुलांना डब्यात पोळी भाजीची सक्ती केली तेव्हा  घरी बसणाऱ्या एका माऊलीने चक्क एक रूपयाची लोणच्याची पुडी आणि एक पोळी देऊन पाठवलं.  रोज पोहे चालणार नाहीत असा निरोप दिल्या नंतर मला तीनचार डबे द्यावे लागतात “मह्यानं व्हतं नाही” असं उत्तर दिलं.  आम्ही काही देऊ मॕडमला काय करायचं अशी आपलीच  भावना असते, आणि मग यातूनच जो रोज नवनवीन फास्ट फूड आणणार  तोच श्रेष्ठ आदर्श बनतो ते पाहून बाकीचे घरी हट्ट करून तेच आणतात.  दिलेल्या दहा रूपयातून  चौथी पर्यंतचा मुलगा पाच रूपयाची माजाची किंवा थम्सअपची बॉटल विकत घेतो, यात जर आई वडीलांना काही वावगे वाटत नसेल, तर बारावीत त्याने ड्रिंक्स घेतले तर त्यात नवल  ते काय !

एखाद्या वेळी सर मॕमनी मारलं, की दंड थोपटून आपणच भांडायला तयार. …..! आम्हाला वेळ नाही आणि शाळेतल्यांना काय करायचं……. यातूनच शिक्षक फक्त अभ्यासक्रम पूर्ण करणे एवढेच आपले काम समजतात. . ….बाकी अभ्यासाचं गुत्ते ट्युशनचे . ….. आणि मग आम्ही झालो आदर्श पालक! हे झालं श्रीमंती थाटाचे लक्षण.

याशिवाय गरीबांनाही मुलं इंग्रजी शाळेतच हवे असतात.  तिथं मुलं काय शिकतात हे यांना कळत नाही, हे मुलांना कळायला फार वेळ लागत नाही.  मग मुलं श्रीमंत मुलांची बरोबरी करण्याच्या नादात अनेक भलेबुरे मार्ग अवलंबतात. शिवाय गरीब असो की श्रीमंत आई वडीलां पेक्षा आपणच हुशार आहोत ते बिन डोकं असा समज झाल्यानंतर सुरूवातीला ते आईला तुला काही कळत नाही म्हणतात, त्यात काही वावगं आहे असं कोणालाही वाटत नाही  मग हळूहळू वडीलांचा नंबर , मग अशा आई वडीलांच काही ऐकण्याचा प्रश्न येतोच कुठे? अशी  मुलांची हळूहळू  मानसिकता बनते आणि यातूनच मुलं  उद्धट,  उद्दाम होतात. पुढे नकळतच   मोकाट होतात यात शंकाच नाही.

आजी आजोबा शिवाय घर असण्याची ही तिसरी पिढी आहे खरंतर. ..परंतु आपण एवढे दिवस आई बाबा आणि मुलं या चौकोनी घरात खुश होतो. पण आता आपलाच पत्ता काटला जात आहे याचं टेन्शन आल्या मुळे मुलं संस्कार आणि संस्कृती पासून दूरावत असल्याची जाणीव आपल्याला व्हावी ही खेदाची बाब आहे

आदरनिय बाबा आमटे यांची सलग तिसरी पिढी त्यांचे कार्य अविरत पुढे चालवत असेल. … आणि तेही आपल्या मते आजच्या रसातळाला पोहचू पाहणाऱ्या संस्कृतीत……!  तर कुठेतरी आत्मपरीक्षण करण्याची नक्कीच गरज आहे.  यासाठी प्रबोधन हवेच असेल तर अगोदर प्रौढांचे करण्याची गरज आहे, कारण हे संस्काराचे बीज त्यांच्याच आदर्शातून उगवलेले आहे असं माझं स्पष्ट मत आहे.

कारण सकाळच्या वेळी सुंदर भजन लावून ठेवायला, देव पूजा करायला,एक टिकला गंध लावायला, घरातील मोठ्यांच्या पाया पडायला, घरी आलेल्यांची अस्थेने चौकशी करायला, घरी आणलेली नवीन वस्तू शेजारी किंवा निदान कामवालीला तरी घासभर द्यायला,फारसा वेळ किंवा पैसा लागत नाही. परंतु याची आपल्याला गरजच वाटत नसेल तर मुलांच्या नावाने ओरडण्यात काय अर्थ आहे.

दिवसभर व्यस्त आहात ठीक आहे पण निदान रात्रीचे जेवण सर्वांनी मिळून  टीव्ही लावून न करता आपल्या लहानपणी करत असू तसं गप्पा गोष्टीत करायला काय हरकत. तोही वेळ आपण मुलांसाठी देत नसू तर मुलांना सांभाळणारी आया किंवा गर्लफ्रेंड/बॉयफ्रेंड जवळचे वाटले तर त्यात नवल काय?

थोडं आपलं लहानपण आठवून पाहा अशा कितीतरी गोष्टी असायच्या ज्या पळत येऊन ताई- दादा, आई- बाबा,आजी- आजोबांना सांगायच्या असायच्या आणि त्या बदल्यात ढीगभर प्रेम किंवा तोंडभर खाऊ घेऊन आपण नाचत पळायचो.  दंगामस्ती करायला घरचं काय अख्खी गल्ली सुध्दा कमी पडायची.. … चिखल,माती, दगड, वाळू, पाऊस कशाचीही तमा नसायची.  ओलसर मातीचे किंवा वाळूचे खोपे बणवण्यात तासन् तास गुंग असायचे आणि मोठेही कौतुकानं पाहायचे तोंडभर कौतुक करायचे…. मूठभर मास चढायचं…..

नुसतं पास झालो कळालं तरी पेढ्यांचा पुडा घेऊन गल्लीभर वाटायचो. ….जसं काही एव्हरेस्ट सर केले एवढा आनंद असायचा. सागळ्यांच्या कौतुकानं छाती फुगून यायची. .. केवढा!! आत्मविश्वास वाढलेला असायचा. आज मुलं घाबरतात. ….स्वच्छ आई बाबांना…! मुलांना शी घाण च्या नावावर माती, पाणी, पाऊस, वाळूपासूनच नव्हे तर स्वच्छंदपणा पासूनच तोडलं आहे आपण,  घरात घाण नको,पसारा नको, मोठ्याने आवाज नको, घरी कुणी,सोबती नको बाहेरची मुलं घरात नको. ….

मग. …..पुस्तकात,नजर चुकवून मोबाईल किंवा टीव्हीला डोळे लावून बसतात. …. बऱ्याच माऊली सुद्धा मुलगा  शांत बसतो म्हणून मोबाईल हाती देऊन धन्यतेचा अनुभव घेत असतात.

मुलांना 80%,90% मार्क्स मिळाले तरी कुणाला तरी 95% मिळाल्यामुळे कमीपणाची भावना आणि पालकांची भिती वाटत असते.  मुलं म्हणजे काय मशीन आहेत का?  आणि सगळ्यांनाच 99% टक्के कसे पडतील सगळेच डॉक्टर झाले तर कसं चालेल हो…. अन् क्लासवन अॉफिसर सोडले तर बाकी लोक जगतात ते  काय जीवन नसतं. ….! नंबर वनच्या नादात आपण आपलं जीवन हरवून बसतं आहोत हेच मुळी आपल्याला समजेनासे झाले आहे.  मुलांशी मुक्त संवाद नाही त्यांच्या आवडी, निवडीचा विचार नाही, अपेक्षांच्या ओझ्याखाली मुलं चक्क गुदमरून जाऊन टोकाची पाऊले उचलतात. मग ती आत्महत्या असो की व्यसनाधिनता……!

नातेवाईकांचे येणे जाणे नाही कुणी आलं गेलं तरीसुद्धा हातचं राखून. …..! प्रत्येक वेळी प्रत्येक गोष्ट पैशात मोजून, तुसडेपणाणे  आपले वागणे….

मुल जेव्हा मावस चुलत आत्ते भावंडे जमतात तेव्हा हिशोब करतात त्यांच्यापासून वस्तू लपवून ठेवतात त्यांना नीट बोलत नाहीत  ते कधी जातील याची वाट पहातात तेव्हा आपल्याला मजा आणि त्यांच्या हुशारीचं कौतुक सुद्धा वाटतं, परंतु हीच मुलं जेव्हा आपल्या बाबतीत हिशोब लावतात तेव्हा आपल्याला संस्कृतीचा ऱ्हास जाणवायला लागतो. परंतु ही संकुचित वृत्ती निर्माण कोणी केली याचा विसर आपल्याला पडलेला आसतो.  पेराल तेच उगवते हाच जगाचा नियम आहे हेच सत्य आहे. याचं भान प्रत्येकाला असायलाच हवं.आणि तरीदेखील संस्कार /संस्कृती ऱ्हासाचं खापर आपण त्यांच्याच माथी फोडत असू तर हा चक्क कृतघ्नपणा ठरेल.

अर्थातच हे मत माझें आहे आणि याला अनेक अपवाद सुद्धा असू शकतात. परंतु बहुतांशी हेच चित्र सत्य आहे.

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

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