हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #27 – संवाद संजीवनी है ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवाद संजीवनी है”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 27 ☆

 

☆ संवाद संजीवनी है

 

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है.  वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिता देता है.  जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती हे.  इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से खुलापन आता है, परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है.  कठनाईयां मिटती हें.  बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

प्रधानमंत्री मोदी जी ने संवाद के महत्व को समझा व उसे अपनाया है.  वे आम जनता से सीधा संवाद मन की बात के जरिये करते हैं यह अभिनव प्रयोग है. विभिन्न कंपनी प्रमुख मैनेजमेंट के इस गुर को अपनाते हैं व अपनी कंपनी के कर्मचारियो में सर्क्युलेशन के लिये आंतरिक पत्रिका आदि प्रकाशित करते हैं. यद्यपि संवाद द्विपक्षीय होना चाहिये, इंटरनेट ने बिना सामने आये द्विपक्षीय संवाद को सरलता से  संभव बना दिया है. फीडबैक की व्यवस्था वेबसाइट में की जा सकती है.  आवश्यक है कि प्रत्युत्तर  में प्राप्त फीड बैक को संज्ञान में लिया जावे व उन पर कार्यवाही हो जिससे परस्पर विश्वास का वातावरण बन सके.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं.  डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये. यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंल भटकना न पड़ता.  विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी  एवं डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’  जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ विगत रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

 

☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

 

(आज ससम्मान प्रस्तुत है मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1, जबलपुर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श उनके सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की कलम से। मैं श्री विवेक जी का हार्दिक आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। श्री विवेक रंजन जी को साहित्य की विभिन्न विधाएँ विरासत में मिली हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी अभियांत्रिकीय शिक्षा एवं कार्य के साथ निरंतर संजो कर रखा है। वे ही नहीं हम भी उनके पिताश्री को .. एक सफल पिता, शिक्षाविद, राष्ट्रीय भावधारा के निर्झर कवि, संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्य अनुवादक, अर्थशास्त्री और सहज इंसान के रूप में अपना आदर्श मानते हैं। उनकी जीवन यात्रा  एवं कृतियों/उपलब्धियों की जानकारी  आप इस  लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं   >>>> प्रो  चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘)

(प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

मेरे पिता उम्र के दशवें दशक में हैं, परमात्मा की कृपा, उनका स्वयं का नियमित रहन सहन, खान पान, व्यायाम, लेखन, नियमित टहलना, पठन, स्वाध्याय, संयम  का ही परिणाम है कि वे आज भी निरंतर सक्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं. जब तक माँ का साथ रहा, पिताजी के समय पर  भोजन, फल, दूध की जम्मेदारी वे लिये रहीं, माँ के हृदयाघात से दुखद आकस्मिक निधन के बाद मेरी पत्नी ने बहू से बेटी बनकर ये सारी जिम्मेदारियां उठा ली. समय पर दवा के लिये ३ डिबियां बना दी गई हैं, जिनमें नियम से दवाई निकाल कर रख दी जाती हैं, जिन्हें याद दिलाकर पिताजी को खिलाना होता है. पिताजी की दिनचर्या इतनी नियमित है कि मैं कहीं भी रहूं समय देखकर बता सकता हूं कि वे इस वक्त क्या कर रहे होंगे.

मैं उन्हें एक  सिद्धांतो  के पक्के, अपनी धुन में रमें हुये सहज सरल व्यक्ति के रूप में ही पहचानता हूं. वे एक सफल पिता हैं, क्योकि उन्होने माँ के संग मिलकर हमें, मुझे व मेरी ३ बहनो को  तत्कालीन औसत सामाजिक स्थितियों से बेहतर शिक्षा दी, हम सबको जीवन में सही दिशा उचित संस्कार देकर सुव्यवस्थित किया. उनके स्वयं के सदा भूख से एक रोटी कम खाने की आदत,  भौतिकता की दौड़ के  समय में भी संतोष की वृत्ति के कारण ही वे आज हमारे बच्चो तक को निर्देशित करने की स्थिति में हैं. वे स्वयं के लिए जरूरत से ज्यादा मितव्ययी हैं, पर हम लोगों को जब तब लाखो के चैक काटकर दे देते हैं । कागज व्यर्थ करना उन्हें पसंद नही आता हर टुकड़े पर लिखते हैं।

मण्डला में गौड़ राजाओ के दीवानी कार्यो हेतु मूलतः मुगलसराय के पास सिकंदरसराय से मण्डला आये हुये कायस्थ परिवार में मेरे पिता प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” का जन्म २३मार्च १९२७  को स्व श्री सी एल श्रीवास्तव व माता श्रीमती सरस्वती देवी के घर  हुआ था. पिताजी उनके भाईयो में सबसे बड़े हैं. मण्डला में हमारा घर महलात कहलाता है, जिसका निर्माण व शैली किले के साथ की है, घर नर्मदा तट से कोई २०० मीटर पर पर्याप्त उंचाई पर है. बड़ा सा आहाता है, इतना बड़ा कि वर्ष १९२६ में जब नर्मदा जी में अब तक की सबसे बड़ी बाढ़ आई थी तब वहां हजारो लोगो की जान बची थी. घर पर इस कार्य के लिये तत्कालीन अंग्रेज प्रशासको का दिया हुआ प्रशस्ति पत्र भी है. पिताजी बताते हैं कि जब वे बच्चे थे तो स्टीम एंजिन से चलने वाली बस से जबलपुर आवाजाही होती थी. नर्मदा जी के उस पार महाराजपुर में मण्डला फोर्ट नेरो गेज रेल्वे स्टेशन टर्मिनस था.जो नैनपुर जंकशन को मण्डला से जोड़ती है. अब नेरो गेज बंद हो चुकी है, ब्राड गेज लाईन डाली जा चुकी है. यह सब लिखने का आशय मात्र इतना कि  पिताजी ने विकास के बड़े लम्बे आयाम देखे हैं, कहां आज वे मेरे बच्चो के साथ दुबई, श्रीलंका, आदि हवाई विदेश यात्रायें कर रहे हैं और कहां उन्होने लालटेन की रोशनी में पढ़ा,पढ़ाया है. स्वतंत्रता के आंदोलन में छात्र जीवन में सहभागिता की है. मण्डला के अमर शहीद उदय चंद जैन उनकी ही डेस्क पर बैठने वाले उनके सहपाठी थे. मेरे दादा जी कांग्रेस के एक्टिव कार्यकर्ता थे, छोटी छोटी देशभक्ति के गीतो की पुस्तिकायें वे युवाओ में वितरित करते थे, प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि आजादी के इन तरानो का संग्रह हमने जिला संग्रहालय मण्डला में भेंट किया है, जो वहां सुरक्षित है. पिताजी के आदर्श ऐसे, कि जब १९७० के आस पास स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो की सूची बनी और ताम्र पट्टिकायें, पेंशन वगैरह वगैरह लाभ बटें तो न तो पिताजी ने स्वयं का और न ही हमारे दादा जी का नाम पंजीकृत करवाया.

पिताजी ने शालेय शिक्षा मण्डला के ही सरकारी स्कूल में प्राप्त की. एम.ए. हिन्दी, एम.ए.अर्थशास्त्र, साहित्य रत्न, एम.एड.की उपाधियां प्राप्त की.वे चाहते तो रेवेन्यू सर्विसेज में जा सकते थे, किन्तु जैसा वे चाहते थे,उन्होंने शिक्षण को ही अपनी नौकरी के रूप में चुना . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमांक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे. शिक्षा विभाग में दीर्घ कालीन सेवाये देते हुये प्रांतीय शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से प्राध्यापक के रूप में  सेवानिवृत  हुये हैं. उस पुराने जमाने में उनका विवाह लखनऊ में हुआ. इतनी दूर शादी, मण्डला जैसे पिछड़े क्षेत्र में  सहज बात नही थी. माँ, पढ़ी लिखी थीं. फिर मां ने नौकरी भी की, मैं समझ सकता हूं यह तो मुहल्ले के लिये अजूबा ही रहा होगा. मम्मी पापा ने साथ मिलकर पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. नौकरी में तत्कालीन सी पी एण्ड बरार के अमरावती, खामगांव आदी स्थानो पर निकले, मुझे लगता है उनका यह संघर्ष आज मेरे बच्चों के दुबई, न्यूयार्क और हांगकांग जाने से बड़ा था.

(ट्रू मीडिया द्वारा प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ पर केंद्रित विशेषांक का आवरण पृष्ठ )

१९४८ में सरस्वती पत्रिका में पिताजी की पहली रचना प्रकाशित हुई. निरंतर पत्र पत्रिकाओ में कविताये, लेख, छपते रहे हैं.आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक प्रसारण होते रहे हैं. दूरदर्शन भोपाल ने एक व्यक्तित्व ऐसा नाम से उन पर फ़िल्म बनाई है । ट्रू मीडिया ने उन पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया है । ईशाराधन, वतन को नमन,अनुगुंजन,नैतिक कथाये,आदर्श भाषण कला,कर्म भूमि के लिये बलिदान,जनसेवा, अंधा और लंगड़ा, मुक्तक संग्रह,अंतर्ध्वनि,  समाजोपयोगी उत्पादक कार्य, शिक्षण में नवाचार  मानस के मोती, अनुभूति, रघुवंश हिंदी भावानुवाद, भगवत गीता हिंदी काव्य अनुवाद, मेघदूतम, हाल ही प्रकाशित शब्दधारा आदि साहित्यिक व शैक्षिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. संस्कृत तथा मराठी से हिन्दी भावानुवाद के क्षेत्र में आपने उल्लेखनीय कार्य किया है. संस्कृत न जानने वाली युवा पीढ़ी के लिये भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद, महा कवि कालिदास के अमर ग्रंथो मेघदूतम् का हिन्दी पद्यानुवाद तथा रघुवंशम् पद्यानुवाद एवं मराठी से हिन्दी अनुवादित प्रतिभा साधन प्रमुख अनुवादित पुस्तकें हैं. समसामयिक घटनाओ पर वे नियमित काव्य विधा में अपनी अभिव्यक्ति करते रहते हैं. उन्हें दूरदर्शन देखना ही भरोसेमंद लगता है. उनके कमरे से आस्था व उस जैसे चैनलो की आवाजें ही हमें सुनने मिलती हैं. अखबार बहुत ध्यान से देर तक दोपहर में पढ़ा करते हैं. उनके सिराहने किताबो, पत्रिकाओ का ढ़ेर लगा रहता है. रात में भी कभी जब उनकी नींद खुल जाती है, पढ़ना उनका शगल है. मेरी पत्नी कभी कभी मुझसे कहा करती है कि यदि पापा जी जितना पढ़ते हैं उतना कोई बच्चा पढ़ ले तो कई बार आई ए एस पास हो जाये . वे व्यवहार में इतने सदाशयी हैं कि आदर पूर्वक बुला लिया तो आयोजन में समय से पहुंच जायेंगे, साहित्य ही नही किसी भी जोड़ तोड़ से हमेशा से बहुत दूर रहते हैं. जबलपुर आने के बाद से उम्र के चलते व हमारे रोकने से अब वे स्वयं तो बागवानी नही करते किंतु पेड़ पौधो में उनकी बड़ी रुचि है. उनकी बागवानी के शौक को मेरी पत्नी क्रियान्वयन करती दिखती है ।मण्डला में वे नियमित एक घण्टे प्रतिदिन सुबह घर पर बगीचे में काम करते, व इसे अपना व्यायाम कहते. युवावस्था में वे हाकी, बालीबाल, खेला करते थे, उनके माथे पर हाकी स्टिक से लगा गहरा कट का निशान आज भी है. वे अपने परिवेश में सदैव साहित्यिक वातावरण सृजित करते रहे, जिस भी संस्थान में रहे वहां शैक्षणिक पत्रिका प्रकाशन, साहित्यिक आयोजन करवाते रहे. उन्होने संस्कृत के व हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वर्धा, तथा बुल्ढ़ाना संस्कृत साहित्य मण्डल के साथ बहुत कार्य किये. अनेक पुस्तकालयो में लाखो की किताबें वे दान दे चुके हैं. प्रधानमंत्री सहायता कोष, उदयपुर के नारायण सेवा, तारांशु व अन्य संसथानो में घर के किसी सदस्य की किसी उपलब्धि, जन्मदिन आदि मौको पर नियमित चुपचाप दान राशि भेजने में उन्हें अच्छा लगता है. वे आडम्बर से दूर सरस्वती के मौन साधक हैं. मुझे लगता है कि वे गीता को जी रहे हैं.

 

संप्रति..

प्रो चित्र भूषण  श्रीवास्तव  विदग्ध

बंगला नम्बर ए १

विद्युत मंडल कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.

[email protected]

मो. 7000375798

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 27 – व्यंग्य – दुआरे पर गऊमाता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन+ सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की  व्यंग्य  दुआरे पर गऊमाता । यह  सामयिक व्यंग्य  हमारे सामाजिक ताने बाने की सीधी साधी तस्वीर उकेरती है।  एक सीधा सादा व्यक्ति एवं परिवार आसपास की घटनाओं  जीवन जीने के लिए क्या कुछ नहीं  करता है? ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 27 ☆

☆ व्यंग्य – दुआरे पर गऊमाता ☆

 

दरवाज़े से झाँककर गिन्नी ने माँ को आवाज़ लगायी, ‘माँ! दुआरे पर गऊमाता खड़ी हैं।’

माँ बोली, ‘मेरे हाथ फंसे हैं। डिब्बे में से निकालकर दो रोटियाँ खिला दे।’

दो मिनट बाद गिन्नी हाथ में रोटियाँ लिये वापस आ गयी, बोली, ‘नहीं खा रही है।सूँघ कर मुँह फेर लिया।’

माँ बोली, ‘आजकल गायें भी नखरे करने लगी हैं। सामने डाल दे। थोड़ी देर में खा लेगी।’

आधे घंटे बाद माँ ने जाकर देखा तो रोटियाँ वैसे ही पड़ी थीं और गाय आँखें मूँदे खड़ी थी।लौट कर बोली, ‘लगता है इसकी तबियत ठीक नहीं है ।कमज़ोर भी कितनी दिख रही है।’

थोड़ी देर में गिन्नी ने फिर रिपोर्ट दी, ‘माँ,वह बैठ गयी है। बीमार लग रही है।’

सुनकर पिता फूलचन्द के कान खड़े हुए। बाहर निकल कर गाय का मुआयना किया।गाय ने गर्दन एक तरफ लटका दी थी।आँखें बन्द थीं।

फूलचन्द चिन्तित हुए। कहीं गाय ज़्यादा बीमार हो गयी तो! पत्नी से चिन्तित स्वर में बोले, ‘ये तो यहीं बैठ गयी है। कहीं कुछ हो न जाए।’

पत्नी बोली, ‘हो जाएगा तो नगर निगम वालों को  बता देना। आकर उठा ले जाएंगे।’

फूलचन्द बोले, ‘तुम समझती नहीं हो। आजकल समय दूसरा चल रहा है। गाय ने दरवाजे पर प्रान छोड़ दिये तो फौरन गऊ-सेवक डंडा पटकते आ जाएंगे। हमारी मरम्मत करेंगे और पुलिस को भी सौंप देंगे। फोटोग्राफर  फोटो उतारकर अखबार में छापेंगे। शायद टीवी वाले भी आ जाएंगे। पुलिसवाले आजकल पिटने वालों पर पहले मुकदमा कायम करते हैं, पीटने वालों की तफ्तीश चलती रहती है। ‘ऊपर’ से जैसा इशारा मिलता है वैसी कार्रवाई होती है। पिटने वाले की कोई नहीं सुनता।’

पूरा घर चिन्ता में डूब गया। आधे आधे घंटे में गाय की तबियत का मुआयना होने लगा। गाय की तबियत में कोई सुधार नज़र नहीं आता था। उसकी गर्दन और ज़्यादा ढलकती जा रही थी। आँखें भी वैसे ही बन्द थीं।

फूलचन्द ने दो तीन बार उसे उठाने का यत्न किया। हाथ से पीठ पर थपकी दी, टिटकारा, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। इससे ज़्यादा कुछ करने की उनकी हिम्मत नहीं हुई।

शाम होते होते फूलचन्द की हिम्मत जवाब दे गयी। पत्नी से बोले, ‘तुम बच्चों को लेकर भाई के घर चली जाओ। यहाँ मैं देखता हूँ। पता नहीं भाग्य में क्या लिखा है।’

पत्नी बच्चों को समेट कर चली गयी। फूलचन्द के लिए खाना-सोना मुश्किल हो गया। हर आधे घंटे में दरवाज़े से झाँकते रहे। गाय वैसे ही पड़ी थी। थोड़ी थोड़ी देर में पत्नी और साले साहब फोन करके कैफ़ियत लेते रहे।

गाय की ड्यूटी करते करते सुबह करीब चार बजे फूलचन्द को झपकी लग गयी। करीब सात बजे आँख खुली तो धड़कते दिल से सीधे दरवाज़े की तरफ भागे। झाँका तो गाय अपनी जगह से ग़ायब थी। दरवाज़ा खोलकर बाहर खड़े हुए तो गाय चार घर आगे वर्मा जी के दरवाज़े पर खड़ी दिखी।

फूलचन्द ने दौड़कर पत्नी को फोन लगाया। हुलस कर बोले, ‘आ जाओ। गऊमाता उठ गयीं। अभी वर्मा जी के घर के सामने खड़ी हैं। भगवान को और गऊमाता को लाख लाख धन्यवाद।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #24 – पहाड़ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 24☆

☆ पहाड़ ☆

‘पहाड़ के पार एक एक राक्षस रहता है। उसकी सीमा में प्रवेश करने वालों को वह खा जाता है।’ बचपन में सुनी कहानियों में प्रायः इस राक्षस का उल्लेख मिलता है। बालमन यों भी कच्चा होता है। जो उकेरा गया, वह अंकित हो गया। यह अंकित डर जीवन भर पहाड़ लांघने नहीं देता।

मज़े की बात यह है कि पहाड़ के उस पार रहने वालों के बीच, इस पार के राक्षस के किस्से हैं। इस पार हो या उस पार, पार उतरने वाले नगण्य ही होते हैं।

पहाड़ भौगोलिक संरचना भर है। जलवायु को अधिनियमित करने और प्रकृति के संतुलन के लिए पहाड़ होना चाहिए, सो है। पहाड़ को पार किया जा सकता है। थोड़ा अपभ्रंश का सहारा लिया जाए तो पहाड़, पहार, पार…! जिन्हें पार किया जा सकता है, वे ही पहाड़ हैं। ये बात अलग है पृथ्वी पर के पहाड़ों की सफल चढ़ाई करनेवालों में भी बिरले ही हैं जो मन का पहाड़ पार कर पाए हों।

मन के पहाड़ कई प्रकार के होते हैं। वर्जना से ग्रस्त, लांछना से भयभीत। वर्जना और लांछना, वांछना से दूर करते हैं। परिणामस्वरूप खंडित व्यक्तित्व जन्म लेने लगता है।

किसी कार्य के संदर्भ में एक उपासिका से मिलने गया। उन्हीं के एक ग्रंथ का काम था। वे प्रवचन कर रही थीं। प्रवचन उपरांत चर्चा हुई। कुछ पृष्ठ मैंने उन्हें दिये। पृष्ठ देते समय उनकी अंगुली से स्पर्श हो गया होगा। मुझे तो पता भी नहीं चला पर वे असहज हो उठीं। सहज होने में कुछ समय लगा। पता चला कि पंथ के नियमानुसार उपासिका के लिए पुरुष का स्पर्श वर्जित है।

सत्य तो यह है कि स्त्री या पुरुष का क्रमशः पुरुष या स्त्री से स्पर्श एक विशिष्ट भाव जगाता है, यह वर्जना उनके अभ्यास में कूट-कूट कर भर दी गई थी। धर्म के पथ पर जिस ईश्वर की आराधना की जा रही है, अधिकांश पंथों में वह पुरुष देहाकार ही है। पुरुष होना दैहिक रचना है, पिता, भाई, मामा, चाचा, ताऊ, दादा, नाना, पुत्र या पति होना आत्मिक भाव है। स्पर्श के पार का राक्षस उपासिका के मन में बसा दिया गया था। फलतः उनके चेहरे पर कुछ देर भय छलका था।

मनुष्य का सामर्थ्य अपार है, बस वह पार जाने का मन बना ले। साथ चाहिए तो एक समर्थ मित्र, गुरु या मार्गदर्शक चुने। मार्गदर्शक भी ऐसा जो आगे नहीं, साथ चले। जिसके सानिध्य में एक निश्चित दूरी के बाद पथिक को भी मार्ग का दर्शन होने लगे। मार्गदर्शन होने लगे तो पहाड़ के पार जाना कौनसा पहाड़-सा काम है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – विशाखा की नज़र से ☆ निर्वासित ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना निर्वासित अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – विशाखा की नज़र से

☆ निर्वासित  ☆

 

पहले वो ज्वार उगाती थी

वही खाती और खिलाती थी ।

पर कई बरस सूखा पडा ,पानी दुश्वार हुआ ।

धरती तपी और बहुत तपी

 

फिर उसने कपास ऊगाया

उसे ओढा औरों को ओढ़ाया

पर इस बदलाव से धरती का सीना छलनी हुआ

उसके हर बूँद का दोहन हुआ

फिर ना उसमें कपास ऊगा ।

 

कुछ थे इसी फ़िराक में ,जमीन के जुगाड़ में

उन्होंने कंक्रीट का जंगल बुना

खरपतवार सा उसे फेंका गया

पर उसी जगह उसे काम मिला

परिचय पत्र पर नया नाम मिला

 

पर कितने ही बर्तन वो साफ़ करें

हर वक्त उसे फटकार मिले

कोने में माटी का संसार मिले

माटी की थी देह उसकी

माटी में ही मिल गई ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ ग़ज़ल – सूखे फूल के पत्ते . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल सूखे फूल के पत्ते . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ कविता – सूखे फूल के पत्ते . . .☆ 

सूखे फूल के पत्ते उड़ाया करता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं,

रेत के घरोंदे जो बनाये थे हमने साहिल में ,

बेदर्द लहरों से उनको बचाया करता हूँ मैं ,

न जाने कौन सी बात थी तुम में ,

जिसके लिए आज भी  आहें भरा करता हूँ मैं ,

तेरे आने की आहट आज भी है जहन में ,

जिसके लिए तरसा करता हूँ मैं ,

तेरी हंसी की किलकारियां आज भी हैं सहरा में ,

उनके ही सहारे तो जिया करता हूँ मैं ,

तेरा गम जो खाया करता है अकेले में ,

सरी महफ़िल में सबसे छुपाया करता हूँ मैं ,

बदनाम न हो जाए तू ज़माने में ,

इसलिए अजनबी सा गुजर जाया करता हूँ मैं ,

सूखे फूल के पत्ते उड़ाता रहता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं..

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #31 – ☆ Generation Gap ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  ‘Generation Gap‘.  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  सुश्री आरुशी जी का आज का आलेख दो  पीढ़ियों के बीच मानसिक द्वंद्व का पर्याय ही तो है।  यह आलेख पढ़ कर हमें अपनी पिछली पीढ़ी का यह वाक्य  कि “हमारे  जमाने में तो …” अनायास ही  याद आ जाता है और हम अगली पीढ़ी को भी अपने अनुभव ऐसे ही उदाहरण देकर थोपने की कोशिश करते हैं। यह पीढ़ियों से चला आ रहा है। हम भूल जाते हैं कि हमारे समय मैं वह कुछ नहीं था जो आज की पीढ़ी को मिल रहा है चाहे वह रहन सहन से सम्बंधित हो, रुपये का अवमूल्यन हो या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ‘ मीडिया’  का तकनीकी विकास हो। यदि हम इन तथ्यों पर विचार कर आपसी सामंजस्य  बना लें तो  दो पीढ़ियों के बीच के  Generation Gap की प्रत्येक समस्या का हल संभव हो जावेगा। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #31 ☆

☆ Generation Gap☆

 

काय ही आजकाल ची मुलं, आमच्या वेळी असं नव्हतं बाई !

आपल्याला हे वाक्य आधीच्या पिढीच्या तोंडून बऱ्याच वेळा ऐकायला मिळतं. आणि ते खूप अंशी खरं ही आहे. कारण गोष्टी बदलत असतात, दगडासारखं दगडही बदलतो, त्याचं रूप, रंग बदलतो. वातावरणाचा परिणाम गडदामध्येही नैसर्गिक रित्या बदल घडवून आणतो… मानव निर्मित बदल तर खूप होतात… काही आवश्यक, काही अनावधानाने, काही दुर्लक्ष केल्यामुळे…

आता बघा ना, पूर्वी स्त्रिया रोज साडी नेसत असत, पण आता बऱ्याच स्त्रिया रेग्युलर बेसिस वर ड्रेस घालतात. ह्यात साडीला कमी दर्जा द्यायची भावना नसते, पण ड्रेस जास्त सोयीस्कर असल्याने त्याचा वापर वाढला आहे.

पूर्वी फ्रीज नव्हते, दिवे नव्हते, मिक्सर नव्हते पण मानवाने ह्या गोष्टींचा शोध लावून आपले आयुष्य सोपे करायचा मनापासून प्रयत्न केला आहे, ह्यात काहीच वावगं नाही.

पण म्हणतात ना अति तिथे माती, ही म्हण कायम लक्षात ठेवायला हवी. नवीन गोष्टी आत्मसात करताना निसर्गाची हानी होणार नाही ह्याची खबरदारी घेणं तितकंच आवश्यक आहे. नाही तर आज आपण जी दुष्काळाची परिस्थिती भोगतो आहोत अशा अनेक कठीण प्रसंगांना आपल्याला तोंड द्यावं लागेल आणि ही हानी थांबली नाही तर गोष्टी कंट्रोल च्या बाहेर जायला वेळ लागणार नाही.

आपल्या खूप सखोल अशी भारतीय संस्कृती मिळाली आहे, त्यात सुद्धा मानव आणि निसर्ग ह्याचा समतोल कसा राखता येईल ह्याची योग्य शिकवण आहे, पण आपण सोय आणि पैसा ह्यापुढे काहीच बघत नाही. ते मिळवण्यासाठी इतर नुकसान झाले तरी त्या कडे कणा डोळा केला जातोय, जे भविष्यासाठी खूप घटक आहे. मानवी संस्कृती टिकवण्यासाठी फक्त स्वार्थ उपयोगी पडणार नाही. कितीही जागतिकीकरण झाले, तरी मूळ मूल्यांना विसरून चालणार नाही. आधीची पिढी किती बुरसटलेली होती असे म्हणणे योग्य ठरणार नाही, कारण त्यांच्या वेलची जीवन व्यवस्था आणि आजच्या पिढीची जीवन व्यवस्था ह्यात आणि विचारसरणी ह्यात खूप फरक असतो, आणि हा फरक स्वीकारला तरंच दोन्ही पिढ्यामधील अंतर कमी व्हायला मदत होईल. दोन्ही पिढ्यांनी एकमेकांना थोडं तरी समजून घ्यायला हवं. ओपन minded असायला हवं, दोन्ही पिढ्यांमध्ये सुसंवाद असायला हवेत.

म्हणून जून तेच योग्य हाही विचार सोडला पाहिजे, किंवा त्या पिढीची मते अयोग्य आहेत हेही मनात ठेवून वागता कामा नये, तेव्हाच नवीन गोष्टी आत्मसात करू शकतो. नाही तर विकासाचे मार्ग बंद राहतील, कोणीच आपल्या बुद्धीचा वापर करणार नाही, त्यातून प्रगती होणार नाही… सगळं जैसे थे राहील … आणि मग जीवन कदाचित कंटाळवाणं होईल, नाही का? एकाच ठिकाणी असून न राहता, जुन्यातील योग्य, नव्यातील फायदे लक्षात घेऊन पावलं पुढे टाकली पाहिजेत.

ही Generation Gap खूप काही घडवून आणते, निदान वैचारीक उलाढाल नक्की घडते…

Generation Gap हा कधीही न संपणारा विषय आणि पण त्यातून होणारे वाद विवाद नक्किच कमी करता येऊ शकतात. त्यासाठी दोन्ही पिढ्यांमध्ये मैत्रीचं नातं एडेल तर सुसंवाद घडू शकतो आणि दोघांमधील वैचारिक दरी कमी होऊ शकते. ह्यासाठी दोन्ही गटांना किंवा व्यक्तींना फकेक्सिबल किंवा open minded असणं उपयुक्त ठरेल. जून तेच योग्य हा हेका थोडा बाजूला ठेवून नवीन घडणाऱ्या गोष्टींकडे सकरतामक दृष्टीने पाहिलं तर अनेक समस्या दूर होतील. तसेच लहान मोठा, गरीब श्रीमंत, उच्च नीच हा भेदभाव दूर ठेवला तर वादाचे मुद्देच कमी होतील. माणूस म्हणून त्याच्या मताचा आदर करणे, मीच फक्त बरोबर, हा हट्ट न करणे, तो कोण मला सांगणारा हा अहंकार जवळ येऊ न देणे, ह्यातूनच दोन पिढीतील अंतर कमी होऊन योग्य निर्णय घेतले जातील.

 

© आरुशी दाते, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 1 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – भाग 1 – बचपन ☆

 

जी हाँ यह कहानी है उस पगली माई की जो त्याग, तपस्या, दया, करूणा तथा प्रेम जैसे गुणों की साक्षात् प्रतिमूर्ती थी। उस में हिमालयी चट्टानों का अटल धैर्य था, तो कार्य के प्रति  समर्पण का जूनूनी अंदाज भी।  वह हर बार परिस्थितिजन्य पीड़ा से टूट कर बिखर जाती लेकिन फिर संभलकर अपने कर्मपथ पर अटल इरादों के साथ चल पड़ती। उसकी जीवन मृत्यु सब समाज के लिए थी।

दमयंती के चेहरे पर सारे जमाने का भोलापन था। वह किसान परिवार में पैदा हुई अपनी माँ बाप की इकलौती संतान थी।

बचपन में उसका अति सुंदर रूप था। गोरा-गोरा रंग ऐसा जैसे विधाता ने दूध में केशर घोल उसमें नहला दिया हो। चेहरे के बड़े बड़े नेत्र गोलक किसी मृगशावक के आंखों की याद दिला देते।  उसके चेहरे का कोमल रूप-लावण्य देखकर लगता जैसे प्रातः ओस में नहाई गुलाब कली खिल कर मुस्कुरा उठी हो। जो भी उसे देखता
उस सुन्दर परी जैसी जीवन्त गुड़िया को गोद में उठाकर नांच उठता। उसकी  खिलखिलाहट भरी हंसी सुनते-सुनते मन  की वीणा के तार झंकृत हो उठते। उस का जन्म का नाम तो दमयन्ती था, पर माता-पिता प्यार से  उसे पगली कह के बुलाते। तब उन्हें कहाँ पता था कि उनका संबोधन एक दिन सच हो जायेगा। वह बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन गृह कार्य में दक्ष तथा मृदुभाषी थी। बहुधा कम ही बोलती।

धीरे धीरे समय बीतता रहा। बचपना कब बीता, किशोरावस्था कब आई समय के प्रवाह में किसीको पता ही नही चला।

उसी गाँव में एक सूफी फकीर रहा करते थे। सारा गाँव उन्हें प्यार से भैरव बाबा कह के बुलाता था। उनकी वेशभूषा तथा दिनचर्या अजीब थी। उनका आत्मदर्शन  तथा जीवन जीने का अंदाज़ निराला था। वे हमेशा खुद को काले लबादे में ढंके कांधे पर  झोली टांगे हाथ में ढपली लिए गाते घूमते रहते थे। वे हमेशा बच्चों के दिल के करीब रहते, बच्चों को बहुत प्यार करते थे।

जब कोई भी बच्चा उनके पैरों  को छूता तो वो उसका माथा चूम लेते तथा उसे एक मुठ्ठी किसमिस का प्रसाद अवश्य मिल जाता। वे जब भिक्षाटन पर जाते तो सिर्फ एक घर से ही पका अन्न लेते और उसे वही बैठ खा लेते। कभी पगली के दरवाजे पर “माई भिक्षा देदे” की आवाज लगाते तो पगली भीतर से ही “आयी बाबा कह उनसे दूने जोर से चिल्लाती तथा आकर बाबा के पावों मे लेट जाती। उस दिन उसे मुठ्ठी भर प्रसाद अवश्य मिल जाता खाने को।

वह भी घर में बने भोजन से थाली सजाती  और उसी भाव से खिलाती मानों भगवान का भोग लगा रही हो।  इस प्रकार खेलते खाते समय कब  बीत चला किसी  को पता नही चला।

अब पगली जवानी की दहलीज पर कदम  रख चुकी थी।  पिता ने संपन्न सजातीय वर देख उसका विवाह कर  दिया।

वह जमाना भारत देश की गुलामी से आजादी का दौर था। देश स्वतंत्र था, फिर भी देश पिछडापन, अशिक्षा, नशाखोरी, गरीबी, तथा रूढिवादी विचारधाराओं का दंश झेल रहा था।  उन्ही परिस्थितियों में जब माता पिता ने उसे विवाह के पश्चात डोली में बिठाया तो पगली छुई मुई सी लाज की गठरी बन बैठ गई थी। उसे माता पिता तथा सहेलियों का साथ छूटना, गाँव की गलियों से दूरी खल रही थी। वह डोली  में बैठी सिसक रही थी कि सहसा उसके कानों में ढपली की आवाज के साथ  भैरव बाबा की दर्द भरी  आवाज में बिदाई गीत गूंजता चला गया।

उस बेला में भैरव बाबा की आंखें  आंसुओं से बोझिल थी, तथा ओठों पे ये दर्द में डूबा गीत मचल रहा था—–

ओ बेटी तूं बिटिया बन,
मेरे घर आंगन आई थी।
उस दिन सारे जहाँ की खुशियाँ,
मेरे घर में समाई थी।
मुखड़ा देख चांद सा तेरा,
सबका हृदय बिभोर हुआ।
तू चिड़िया बन चहकी आंगन में,
घर में मंगल चहुं ओर हुआ।
हम सबने अपने अरमानों से,
गोद में तुमको पाला था।
पर तू तो धन थी पराया बेटी,
बरसों से तुझे संभाला  था।
राखी के धागों से तूने,
भाई को ममता प्यार दिया।
अपनी त्याग तपस्या से,
माँ बाप का भी उद्धार किया।
तेरी शादी का दिन आया,
ढ़ोलक शहनाई गूंज उठी।
मंडप में वेद मंत्र गूंजे,
स्वर लहरी गीतों की फूटी।
मात-पिता संग अतिथिगणों ने,
तुझको ये आशीष दिया।
जीवन भर खुशियों के रेले हो,
तू सदा सुखी रहना  बिटिया।
जब आई घड़ी बिदाई की,
तब मइया का दिल भर आया,
आंखें छलकी गागर की तरह,
दिल का सब दर्द उभर आया।
द्वारे खड़ी देख पालकी,
पिता की ममता जाग उठी।
स्मृतियों का खुला पिटारा,
दिल के कोने से आवाज उठी।
ओ बेटी सदा सुखी रहना,
तुम दिल से सबको अपनाना।
अपनी मृदु वाणी सेवा से,
तुम सबके हिय में बस जाना।
जब उठी थी डोली द्वारे से,
नर-नारी सब चित्कार उठे।
बतला ओ बिटिया कहां चली,
पशु पंछी सभी पुकार उठे।
तेरे गाँव की गलियां भी,
सूनेपन से घबराती हैं।
पशु पंछी पुष्प लगायें सब,
नैनों से नीर बहाते हैं।
ये विधि का विधान है बड़ा अजब,
हर कन्या को जाना पड़ता है।
छोड़ के घर बाबुल का इक दिन,
हर रस्म निभाना पड़ता है।
खुशियों संग गम के हर लम्हे,
हंस के बिताना पड़ता है।

उस दर्द में डूबे गीत को भैरव बाबा गाये जा रहे थे। आंखों से आंसू सावन भादों की घटा बन बरस पड़े थे। इसी के साथ सारा गाँव  रो रहा  था।  इसी के साथ पगली की डोली सर्पाकार पगडंडियो से होती हुई ससुराल की तरफ बढ़ चली थी।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -2 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ ओ सम्मान वालो ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय  स्तर ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की  एक सार्थक एवं कटु सत्य को उजागर करती एक  कविता  “ओ सम्मान वालो ।” इसमें कोई दो मत नहीं है कि  पुरस्कारों/सम्मानों की लालसा और इस दौड़ में अक्सर ऐसा हो रहा है। किन्तु, यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि वास्तव में जो सम्मान के हकदार हैं वे  इससे वंचित रह जाते हैं और सभी समान दृष्टि से देखे जाते हैं।  फिर कई ऐसे भी हैं जो बिना किसी लालसा के शांतिपूर्वक स्वान्तः सुखाय साहित्य सेवा किये जा रहे हैं, जो कदापि इस रचना के पात्र नहीं हैं । श्री मनीष तिवारी जी को उनकी इस बेबाक कविता के लिए हार्दिक बधाई। )

☆ ओ सम्मान वालो  ☆

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

लेना है शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र

तो रुपये निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान करने वाली

थोक दुकान पर आओ

फुटकर सम्मान वाली

दुकान पर मत जाओ

हमसे यश पा लो

अपना चेहरा चमका लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे कोई मतलब नहीं

रचनाएं आपकी हैं

या आपके बाप की हैं

जिन रचनाओं को सुनकर

जनता आपको सर पर

उठा लेती है

उनमें आपकी कम

माँ बाप की छवि

ज्यादा दिखाई देती है,

पास आओ, बैठो

थोड़ा मुस्करा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे क्या लेना देना

कि, आपने अपनी

उधार ली हुई प्रतिभा

सबको दिखाई है,

और पूर्वजों की रचनाएं लेकर

पुस्तक अपने नाम से छपवाई है।

तुम तो बस हमारे पास आओ

शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र पा लो

खुद सम्हलो और हमें सम्हालो

कार्यक्रम का खर्च निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान के संयोजक महोदय

आपने जिन जिन विभूतियों का

सम्मान किया है,

विधाता ने भी

उनके भाग्य में क्या रचा है

समाज में उनका

सम्मान ही नहीं बचा है।

फिर भी,

आपने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को

अनेकानेक विशेषण लगाकर

तथाकथित रूप से

जितनी तेजी से

पुरस्कृत और परिष्कृत किया है।

समाज ने उतनी ही तीव्र गति से

उसी दिन से उन्हें तिरस्कृत किया है।

आपसे निवेदन है

उनकी इज्ज़त बचा लो

अपना सम्मान पत्र, शाल, श्रीफल

उनके घर से

सरेआम उठा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (12-13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ।।12।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ।।13।।

 

संयम से सब द्वार रूंध मन से हदय निरोध

प्राणों को धर शीर्ष में साधक साधे योग।।12।।

ओंकार का नाद कर मुझे जो करते याद

जो तजता है देह वह पाता पद अविवाद।।13।।

            

भावार्थ :  सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है ।।12 – 13।।

 

Having closed all the gates, confined the mind in the heart and fixed the life-breath in the head, engaged in the practice of concentration,।।12।।

Uttering the  monosyllable  Om-the  Brahman-remembering  Me  always,  he  who departs thus, leaving the body, attains to the supreme goal.।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]`

Please share your Post !

Shares
image_print