ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 44 ☆ ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद ☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–44

☆ ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद

 प्रिय मित्रों,

आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।

‘ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’ शीर्षक से आपके साथ संवाद करना निश्चित ही मेरे लिए गौरव के क्षण हैं।  इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में  स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ आपके अपार स्नेह के लिए।  आप सबका हृदयतल से आभार। 

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वैसे तो मुझे कल ही आपसे विमर्श करना था जब आगंतुकों की संख्या 1,00,000 के पार हो गई थी। किन्तु, हृदय कई बातों को लेकर विचलित था। उनमें कुछ आपसे साझा करना चाहूंगा। कल मेरे परम पूज्य पिताश्री टी डी बावनकर जी की पुण्य तिथि थी, जिनके बिना मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं होता। यह सप्ताह भोपाल गैस त्रासदी का गवाह था जिसमें कई निर्दोष लोगों की जान गई जिनकी स्मृतियाँ उनके परिजनों के अतिरिक्त किसी के पास नहीं हैं। यह सप्ताह ‘एक और निर्भया’ की हृदयविदारक पीड़ा को समर्पित था। और कल के ही दिन भारत के संविधान निर्माता डॉ भीमराव आम्बेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस था। भला ऐसे में लेखनी कैसे चलती?

मेरे पास ‘एक और निर्भया’ से सम्बंधित और समय समय पर ‘जीवन के कटु सत्य’ को उजागर करती  रचनाएँ आती हैं किन्तु, स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति की सीमाएं मुझे प्रकाशित करने से रोकती हैं जिसके लिए मैं सम्माननीय लेखकगणों से करबद्ध क्षमा चाहूंगा। इस सन्दर्भ में मैं अपने परम आदरणीय गुरुवर डॉ राजकुमार ‘ सुमित्र’ जी की आशीर्वाद स्वरुप कविता उद्धृत करना चाहूंगा जो मेरी मार्गदर्शक हैं और इस वेबसाइट के मुखपृष्ठ पर अंकित हैं।

सन्दर्भ : अभिव्यक्ति 

संकेतों के सेतु पर, साधे काम तुरन्त ।
दीर्घवायी हो जयी हो, कर्मठ प्रिय हेमन्त ।।

काम तुम्हारा कठिन है, बहुत कठिन अभिव्यक्ति।
बंद तिजोरी सा यहाँ,  दिखता है हर व्यक्ति ।।

मनोवृत्ति हो निर्मला, प्रकट निर्मल भाव।
यदि शब्दों का असंयम, हो विपरीत प्रभाव।।

सजग नागरिक की तरह, जाहिर  हो अभिव्यक्ति।
सर्वोपरि है देशहित, बड़ा न कोई व्यक्ति ।।

 –  डॉ राजकुमार “सुमित्र”

आपसे काफी कुछ कहना है और अब मेरा प्रयास रहेगा कि मैं आपसे नियमित संवाद करूँ। आशा है ईश्वर मुझे मेरी लेखनी को आपसे जोड़ने की शक्ति प्रदान करे।  अंत में मैं गैस त्रासदी पर अपनी रचना के कुछ अंश के माध्यम से श्रद्धांजलि देते हुए लेखनी को क्षणिक विराम देता हूँ।

गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

और …. दूर

गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।
ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।
अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।
उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।
जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।
धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।
सबको श्रद्धांजलि!
 – हेमन्त बावनकर

आपसे अनुरोध है कि हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को यदि हम अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी से साझा करें तो उन्हें निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। इस प्रयास में हमने आचार्य भगवत दुबे जी एवं डॉ राजकुमार ‘ सुमित्र’ जी की चर्चा की है। इस रविवार हम प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  ससम्मान आलेख प्रकाशित कर रहे हैं।  आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम  पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के कार्यों को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें। 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7 दिसंबर  2019




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संतुलन

 

लालसाओं का

अथाह सिंधु,

क्षमताओं का

चिमुक भर चुल्लू,

सिंधु और चुल्लू का

संतुलन तय करता है

सिमटकर आदमी का

ययाति रह जाना

या विस्तार पाकर

अगस्त्य हो जाना!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆ मत का दान ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “मत का दान”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆

☆ मत का दान

मत का दान दे उनको
जो करें मत का राज।

मत का दान न देना उनको
जो करें मन का राज।

गरीब को भी जी जाने दो
ऊँगली में स्याही लगने दो।

ना मस्तवाल का राज हो
जी भर जीवन जीने दो।

गणतंत्र का राज हो
वाणी अधिकार मिलने दो।

राम राज्य अब आ जाए
हर जीवन में खिलने दो।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684



हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित” ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी  द्वारा लिखित नवनीत के दिसम्बर अंक में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश जी दीक्षित की स्मृति में एक लेख प्रकाशित हुआ है।  हमारे आग्रह पर श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा यह लेख  हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षितआपसे साझा कर रहे हैं।  ) 

 

☆” हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित”  – श्री संजय भारद्वाज

5 नवंबर 2019 को हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष और रस सिद्धांत के पुरोधा आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित का निधन हो गया। पुणे विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन करने वाले डॉक्टर दीक्षित 1985 में हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। तत्पश्चात वर्ष 2010 तक वे प्राध्यापक के रूप में सक्रिय रहे।

आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित

डॉक्टर दीक्षित का जन्म माघ शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत 1980 (अंग्रेजी वर्ष 1923/24) को हुआ था। माता-पिता के अलावा घर में तीन भाई और थे, दो उनसे बड़े और एक छोटा। पिता संस्कृत के अध्यापक थे। दोनों बड़े भाई भी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए थे। फलत: साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से मिला। नवीं में पढ़ते थे तब मासिक ‘दीपक’ में ‘मातृस्नेह’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। आरंभिक दिनों में वे ‘सर्वजीत’ उपनाम से लिखा करते थे। उन दिनों बच्चन जी की ‘सप्तरंगिणी’ प्रकाशित हुई थी। इस पर दीक्षित जी का  आलोचनात्मक लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली वाले ‘विश्वबंधु’ ने पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। पंडित विजयशंकर भट्ट ने एस लेख की प्रशंसा की थी। यहीं से कविता की आलोचना के क्षेत्र में उनकी रुचि, उनका जीवन बन गई।

वर्ष 2016 में हिंदी आंदोलन परिवार की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। रुचि को जीने की इस यात्रा पर इस साक्षात्कार में उन्होंने भाष्य किया था। बकौल डॉ. दीक्षित, “कविता में अर्थ की जो गहनता हम पाते हैं, वह किसी दूसरी विधा में नहीं मिलती। पहली बार तो कविता का केवल ऊपरी अर्थ समझ में आता है, उसके प्रति आसक्ति जागृत होती है। यदि आप विचारक हैं तो उसका अर्थ समझने के लिए आगे बढ़ेंगे। उसके लिए बार-बार कविता पढ़नी पड़ेगी। बार- बार पढ़ने से कविता ऐसी रच जाएगी कि अर्थ पर अर्थ निकलने लगेंगे। तब कविता चमत्कारी चीज़ हो जाती है।”

समकालीन कविताओं को लेकर उनका मानना था कि आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके छंद और उक्ति में परिवर्तन है। पुरानी कविता में कोई सूक्ति रहती थी, कोई ना कोई उपमान रहता था जिससे सौंदर्य आता था। उसकी विशेषताएं आकर्षित करती थीं। अब कविता पत्रकारिता की तरह हो गई है। वर्तमान का वर्णन करके वे चुप हो जाती हैं। जब आप घटित के बारे में लिखने लगते हैं तो इससे एकरूपता आ जाती है। इनसे इतिहास तो हमें मिल जाएगा लेकिन भविष्य में इनसे जीवन का दृश्य क्या मिलेगा?

अलबत्ता कविता की प्रयोजनीयता सर्वदा बनी रहेगी। कविता अच्छी नहीं है तो निष्प्रयोजन हो जाएगी लेकिन इससे सारी कविताएँ  निष्प्रयोजन नहीं हो जातीं। आदमी सदैव कविता पढ़ना चाहेगा।

आलोचना की मीमांसा करते हुए उन्होंने टिप्पणी दी, “आलोचना दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार अध्ययन करके गहनता से आलोचनात्मक लेख लिखना है तो दूसरा प्रकार समीक्षाएँ लिखना है। समीक्षा ऊपरी तल पर रह जाती है। विवेकपूर्ण लंबी आलोचना जो समझदारी से लिखी जाती है, उसका महत्व होते हुए भी मैं यह मानता हूँ कि आलोचक दूसरे दर्जे का नागरिक बनता है। आलोचक तब लिखेगा जब उसके सामने सर्जन होगा। सर्जनात्मकता पहली चीज़ है। सर्जनात्मकता में भावुकता है, आलोचना में विवेक को संभालना पड़ता है। तर्क-वितर्क संभालना पड़ता है, शास्त्र का ध्यान रखना होता है। आलोचना बहुत कठिन कर्म है।”

कवि की अनुभूति और आलोचक द्वारा ग्रहण किये गए भाव के अंतर्सम्बंध पर उनका कहना था कि कई बार आलोचक वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। लेकिन यह भी है कि कई बार कवि का सोचा हुआ भी नहीं होता।

उनसे बातचीत में अनेक पहलू खुलते गए। आज का लेखक अपनी कमजोरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस पर चर्चा नहीं करना चाहता। अपना अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि  जिन भी कवियों को उन्होंने उनकी कविता की कमजोरियों के बारे में बताया, उनमें से अधिकांश बुरा मान गए।

आचार्य जी भाषा के क्रियोलीकरण के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि इसके पक्षधर विशेषकर समाचारपत्र यह दिखाना चाहते हैं कि व्यवहार में इस तरह की भाषा चलती है। अख़बारवालों को लगता है कि ऐसी मिली-जुली भाषा के उपयोग से युवा वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। वस्तुतः हमें इस बात का अभ्यास नहीं है कि हम शुद्ध भाषा का उपयोग कर सकें।  हम कभी शब्दकोश देखने या सोचने का भी प्रयत्न नहीं करते। सत्य तो यह है कि दुभाषिया भी शब्दश: अनुवाद न करके सार अपनी भाषा में कहता है।

हिंदी विषय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तुलनात्मक रूप से घटती संख्या का सबसे बड़ा कारण उन्हें इस विषय को  पढ़कर विद्यार्थियों को रास्ते खुलते हुए नहीं दिखाई देना लगता था। विडंबना है कि ज्ञान के लिए जो हिंदी पढ़ना चाहता है उसे केवल साहित्य पढ़ाया जाता है। साहित्य तो बिना पाठशाला या कॉलेज में पढ़े अलग से पढ़ा जा सकता है। लोगों को इंजीनियर या टेक्नीशियन बनना है तो केवल साहित्य पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हिंदी को समुचित स्थान दिलाने के लिए जो किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया जा सका है।

हिंदी वालों से एक शिकायत उन्हें सदा रही कि हिंदीक्षेत्र में काम करने वाले लेखक को ही वे लेखक मानते हैं लेकिन जो बाहर निकल आए हैं या अहिंदीभाषी प्रदेशों के रहनेवाले हैं, उन्हें वे लेखक नहीं मानते। जब आप हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते हैं तो सभी प्रदेशों के लोगों का सहयोग चाहिए। हिंदी के विस्तार को हमने खुद ही रोक दिया है। एक बात और, जो मराठीभाषी हिंदी पढ़ कर हिंदी में लिख रहा है, मराठी मंच उसे स्वीकार नहीं करता। यहाँ बस गए हिंदी के लेखकों को हिंदी प्रदेशों के मंच अब याद नहीं करते। ऐसे लेखक दोनों ओर से तिरस्कृत हैं।

सांप्रतिक जीवन में संवाद के अभाव को लेकर वे चिंतित थे। “आजकल संवाद नहीं हो रहा है।  बिना संवाद के बुद्धि विकसित नहीं होती। संवाद से तर्क-वितर्क सामने आते हैं। मालूम होता है कि आप जो सोच रहे हैं, उसके प्रतिपक्ष में कोई सोच सकता है। शास्त्र में दो पक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति जब शास्त्र लिखता है तो दोनों पक्षों को लिखता है। इसका अर्थ है कि विवेक जागृत करने के लिए दूसरे पक्ष को भी सामने रखना आवश्यक है।”

“लोग कहते हैं कि मैं रसवादी हूँ। मैं रस में विश्वास नहीं करता। यदि वादी हूँ तो मैं विवेकवादी हूँ। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ‘विवेक’ शब्द का प्रचुर प्रयोग किया है। विवेक क्या है? भले बुरे को समझना, क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इन दोनों के बीच से सही रास्ते को ढूँढ़ना, निरंतर शोध करना ही विवेक है। विवेक मंथन करने के बाद आता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए आत्ममंथन आवश्यक होता है।”

भविष्य को लेकर वे सदा आशावादी रहे। “जीवन में बहुत कुछ करना अभी बाकी है। हमारी संस्कृति को मिली-जुली कहा जाता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए मैं संस्कृत ग्रंथों का पारायण करना चाहता हूँ। अपने संस्कारों से हमें कितना जुड़ाव है, कितना होना चाहिए, कितना हम उन से हटे हैं, इसका विवेक पैदा करना ज़रूरी है। मैं इस्लाम की मूल पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ। इस्लाम की पूरी जानकारी करना चाहता हूँ। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि अगर यह मिली-जुली संस्कृति है तो हम आपस में इतना लड़ते क्यों हैं? आपसी लड़ाई से बचाव के लिए मैं इस तरह का अध्ययन आवश्यक मानता हूँ।”

भाषाविज्ञान, संपादन, अध्यापन, अनुवाद, लेखन, पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य दीक्षित का योगदान बहुमूल्य रहा। उनके अनेक विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हुए। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई अध्येता हो जिसने डॉ. दीक्षित की कोई पुस्तक संदर्भ के लिए न पढ़ी हो। ‘आलोचना-रस सिद्धांत : स्वरूप विश्लेषण’,   ‘साहित्य : सिद्धांत और शोध’  त्रेता : एक अंतर्यात्रा’,  ‘हिंदी रीति परंपरा : विस्मृत संदर्भ’, ‘रसचिंतन के विविध आयाम’ (मराठी के 15 लेखकों के साहित्य का अनुवाद), ‘हरिचरणदास ग्रंथावली’ (काव्यखंड), ‘प्रताप पचीसी’, ‘दौलत कवि ग्रंथावली’, ‘आज के लोकप्रिय कवि शिवमंगल सिंह सुमन’, ‘कबीर ग्रंथावली’ ‘मैथिलीशरण गुप्त’  ‘सुमित्रानंदन पंत : आलोचना, प्रक्रिया और स्वरूप’,  ‘कबीरदास : सृजन और चिंतन’, ‘मराठी संतों की हिंदीवाणी’ जैसे अन्यान्य ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद हिंदी साहित्य को उनकी महती देन है।

सरकारी और गैरसरकारी अनेक संस्थाओं और संस्थानों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें प्राप्त प्रमुख अलंकरणों में साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’, हिंदी साहित्य समिति इंदौर द्वारा ‘अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार’,  साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’  हिंदी साहित्य समिति कानपुर द्वारा ‘साहित्य भारती’ आदि सम्मिलित हैं।

हमारे एक आयोजन में उन्होंने कहा था कि लिखने के लिए वे दो सौ वर्ष जीना चाहते हैं। अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ वे जीवन के अंत तक सक्रिय रहे। जब मैंने उनसे जानना चाहा कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर खुद डॉ. दीक्षित के मन में किस तरह का चित्र उभरता है तो उनका उत्तर था, ” मुझे अच्छा लगता है लेकिन ऐसा कोई भाव पैदा नहीं होता जिसे मैं अहंकार कह सकूँ। हाँ, लगता है कि मैं जीवित हूँ।”

अपने सृजन के रूप में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित सदा जीवित रहेंगे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं? ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं. आज प्रस्तुत है उनका एक आलेख  “हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं?”.)

 

☆ हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं? ☆

 

कर्तव्य* अर्थ – किसी भी कार्य को पूर्ण रूप देने के लिए सजीव व निर्जीव दोनों नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हैं l तथा दोनों  कर्तव्य के साथ अपनी भागीदारी का पालन करते हैं l हम जानते हैं कि कर्तव्य से किया गया कार्य हमे एक विशेष परिणाम उपलब्‍ध करवाता है l जो वर्तमान एवं भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है l इंसान को कर्तव्य का प्रभाव केवल इंसानों में ही नजर आता है l परन्तु इस धरा पर इंसान के अलावा पशु – पक्षी और निर्जीव वस्तुएँ भी अपना महत्वपूर्ण कर्तव्य अदा कर रहे हैं l यह किसी को नजर नहीं आता है l क्योकि वर्तमान में इंसान अपने स्वार्थ को पूरा करने में दिन – रात दौड़ भाग कर रहा है l उसके लिए एक पल भी किसी को समझने का नहीं है l

आईए *कुमार जितेन्द्र* के साथ *कर्तव्य* को विभिन्न विश्लेषण के साथ समझने का प्रयास करते हैं :-

*मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति कितना प्रतिबद्ध है और कितना नहीं यह हम सब जानते हैं l सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य “माँ” के रूप में निभाया जाता है l माँ अपने बच्चे को गर्भ से लेकर बड़े होने तक सभी भूमिकाओं को अपना कर पूरा करती है l क्योकि माँ के दिये गये संस्कार से बच्चा अपना भविष्य तय करता है l बच्चा अपना सबसे ज्यादा वक्त माँ के पास गुजारता है l तथा दूसरे नंबर पर देखा जाए तो पिता भी बच्चे के जीवन को दिशा देने के लिए अपने कर्तव्य का पूर्ण निर्वाह करता है l तीसरे स्थान पर नजर डाली जाए तो शिक्षक भी अपना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाता है l वह बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर भविष्य के लिए तैयार करता है l मनुष्य के रूप में कर्तव्य का पालन परिवार, समाज और संस्कृति सब समय – समय भूमिका अदा करते हैं l परन्तु वर्तमान में एक नजर डाली जाए तो मनुष्य ने कर्तव्य की परिभाषा बदल दी है l सब अपने अपने कर्तव्य से पीछे हट रहे हैं l केवल औपचारिक रूप कर्तव्य को अपने का कार्य कर रहे हैं l वर्तमान में मनुष्य के अंदर एक भयंकर बीमारी स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष ने कर्तव्य को बहुत पीछे तक धकेल दिया है l हर कोई अपने कर्तव्य से पीछे भाग रहा है l समय रहते इंसान को अपने जीवन के महत्‍वपूर्ण भाग कर्तव्य को समझना होगा l

*पशु – पक्षी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* क्या यह सही है कि पशु पक्षी भी अपने कर्तव्य का पालन करते हैं l जिस हाँ हम सही पढ़ रहे हैं l इस धरा पर केवल मनुष्य ही नहीं पशु – पक्षी भी समय समय अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं l जैसे सुप्रभात वेला में मुर्गा, गाय और सभी पक्षी अपनी मीठी मीठी वाणी से इंसान को जगाने का कार्य करते हैं l प्रभात वेला में मानो ऎसा लग रहा होता है जैसे कोई प्यारी सी आवाज में संगीत सुना रहा हो l दूसरी ओर देखा जाए तो कुत्ता भी रात के वक्त अपने घर, मोहल्ले में अनजान व्यक्ति के प्रवेश करने या कुछ घटती होने पर हमे सावधान होने के सचेत करता है l यानी पशु पक्षी भी अपने कर्तव्य का पालन सही तरीके से करते हैं l परन्तु वर्तमान में इनमे भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा है l जो चिंतनीय है l

*पेड़ – पौधे अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध*  इस धरा पर कर्तव्य के प्रति पेड़ – पौधे भी प्रतिबद्ध है l जैसे इंसान को जीवन रखने के लिए हर वक्त स्वच्छ प्राण वायु उपलब्ध करवाते हैं l अपने आसपास का वातावरण शुद्ध रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं l इंसान को प्राण वायु के साथ भोजन पकाने के लिए ईधन के रूप लकड़ी, गर्मी के मौसम बैठने के लिए छाया, ठंडी हवा और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विभिन्न प्रकार के फल और अपने आसपास के वातावरण को खुशबूदार बनाने के लिए फूल हमे प्रदान करते हैं l यानी तक देखा जाए तो इंसान के अंतिम समय में भी पेड़ – पौधे लकड़ी के रूप जलकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान ने पेड़ – पौधो की ऎसी स्थिति पर लाकर खड़ा कर दिया है l जिसके बारे में निःशब्द हूँ l यानी पेड़ – पौधों का अस्तित्व धीरे धीरे खत्म हो रहा है l जिस पर इंसान को चिंतन मनन करने की जरूरत है l

*निर्जीव वस्तुएँ भी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* जी हां हम यह भी सही पढ़ रहे हैं l निर्जीव वस्तुएँ भी अपना कर्तव्य निभाने में कोई कमी नहीं रखते हैं l जैसे पहाड़ जो इस धरा पर सदियों से अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है l इंसान के जीवन में हर पल सहयोग करता आ रहा है l जैसे तेज तूफान को अपनी ओट में रोक कर इंसान को नुकसान होने से बचाता है l बारिश के मौसम में पानी को नाले के रूप एकत्रित कर पीने योग्य बनाता है l तथा रहने के लिए अपने को टुकड़े टुकड़े में बांट कर मकान के रूप में खड़ा कर देता है l दूसरे रूप में निर्जीव इस धरा पर विभिन्न प्रकार के पदार्थों के रूप में समय – समय इंसान के जीवन में उपयोगी बन कर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं l यानी निर्जीव भी अपने कर्तव्यों को सही तरीके से से निभाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान ने इनको भी अपने कर्तव्यों से भटका दिया है l यह भी चिंतनीय विषय है l

*प्राकृतिक परिवर्तन भी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* कर्तव्य को निभाने में प्राकृतिक परिवर्तन भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं l जैसे जैसे समय अपने पथ की ओर चल रहा है वैसे वैसे प्राकृतिक परिवर्तन भी समय – समय पर हो रहे हैं l जैसे बारिश अपने चक्र के अनुसार सही समय पर होती है l इसी प्रकार सर्दी, गर्मी सभी परिवर्तन अपने तय समय और सीमा पर होते हैं l और इंसान को सभी सुविधाओं को उपलब्ध करवाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान के स्वार्थ के प्रति भावना के कारण इसमें भी बदलाव देखने को मिल रहा है l समय से पहले बारिश, गर्मी और सर्दी का आना   और जाना l कभी अत्यधिक बारिश तो कभी सूखा देखने को मिल रहा है l इस पर विचार करने योग्य है l समय रहते इन समस्याओं से समाधान ढूढना होगा l अन्यथा भविष्य के परिणाम कुछ और ही होंगे l

*आओ हम सभी मिलकर अपने कर्तव्य के प्रति संकल्प ले* इस आलेख में हमने सजीव से लेकर निर्जीव तक अपने कर्तव्यों के पालन के बारे में समझने की कोशिश की है l अंत में कहने का तात्पर्य यह है कि जो पहले समय में कर्तव्य देखने को मिलता था अब उसमे बहुत कुछ परिवर्तन आ गया है l यह परिवर्तन इस धरा पर सभी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है l अगर समय रहते उचित कदम न उठाए तो l और हम सब अपने स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष और दूसरो को गिराने की भावना को त्याग कर जीवन को सर्वश्रेष्ठ कैसे बनाए इस पर चिन्तन करे और भविष्य को उज्ज्वल बनाए l यही हमारा इस जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य है l

 

कुमार जितेन्द्र

(कवि, लेखक, विश्लेषक, वरिष्ठ अध्यापक – गणित)

साईं निवास मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान) मोबाइल न 9784853785




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 – लक्ष्मी प्राप्ति  ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “लक्ष्मी प्राप्ति ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 ☆

☆ लक्ष्मी प्राप्ति 

 

तब भगवान राम ने भगवान हनुमान को देवी सीता को उनकी जीत के विषय में सूचित करने और सम्मान के साथ लाने के लिए भेजा। देवी सीता यह खबर सुनकर बहुत खुश थीं और भगवान हनुमान से पूछा कि वह वांछित किसी भी वरदान के लिए पूछें। भगवान हनुमान उन राक्षसों के खिलाफ क्रोध से भरे हुए थे जो देवी सीता की रक्षा कर रहे थे क्योंकि वे हमेशा उनके लिए परेशानी पैदा करते रहते थे और उन्हें डराने का प्रयत्न करते रहते थे। तो भगवान हनुमान देवी सीता से उन्हें सबक सिखाने की अनुमति चाहते थे। देवी सीता ने अपनी असीम करुणा और महानता का प्रदर्शन करते हुए भगवान हुनमान से कहा कि ये राक्षस रावण के सेवकों के रूप में केवल असहाय रूप से अपना कर्तव्य पालन कर रहे थे, और हमें इन्हें दंडित करने का अधिकार नहीं है, तब देवी सीता ने भगवान हुनमान को एक कहानी सुनायीं:

एक बार वन में एक शिकारी एक शेर का शिकार करते हुए गिर गया और अपने हथियार को खो दिया। शेर ने शिकारी का पीछा करना शुरू कर दिया। शिकारी भाग कर एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसने वृक्ष पर देखा कि एक भालू बैठा था। आदमी पूरी तरह से असहाय और डरा हुआ था और उसने भालू के आश्रय में अपने जीवन को छोड़ने के लिए अनुरोध किया । इस बीच शेर वृक्ष के नीचे आया और भालू को आदमी को धक्का देने के लिए प्रेरित किया ताकि वे दोनों आदमी को खा सके । भालू ने इनकार कर दिया और कहा कि उस आदमी ने उसके घर आश्रय लिया है और इसलिए वह उसे नीचे नहीं फेकेगा। कुछ समय बाद भालू सो गया और शेर ने शिकारी से कहा, “मुझे बहुत भूख लग रही है, इसलिए आप सोते हुए भालू को वृक्ष से नीचे धकेल दो ताकि मैं उसे मार सकूं और उसे खा सकूं और जिससे आपकी जान बच जायगी”

असभ्य शिकारी अपने जीवन के विषय में इतना चिंतित था, कि उसने सोते हुए भालू को पेड़ से धक्का दे दिया। गिरने के दौरान भालू किसी तरह जाग गया और वृक्ष की एक शाखा को पकड़ लिया, और वो बच गया। शेर ने भालू को बताया कि भालू ने शिकारी को बचाने की कोशिश की, फिर भी उसने उसे नीचे धक्का दे दिया। इसलिए अब भालू को शिकारी को नीचे धक्का देकर शेर की सहायता करनी चाहिए । संत भालू ने उत्तर दिया कि महान आत्माओं के पास दूसरों के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण नहीं होता है, और उनकी यह दयालु प्रकृति दूसरों की बुरी प्रकृति होने के बावजूद भी रहती है। इस प्रकार, भालू अपने सिद्धांतों पे खड़ा था और उसने शिकारी को नुकसान नहीं पहुँचाया जो अब बहुत शर्मिंदा था”

 

© आशीष कुमार  




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।।11।।

 

जिसे बताते हैं वेद अक्षर विदागी जिसमें है लीन रहता

ब्रम्हचर्य आचरते जिसको पाने उस पद से संबंध तुझे बनाना।।11।।

 

भावार्थ :  वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाश कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षेप में कहूँगा।।11।।

 

That which is declared imperishable by those who know the Vedas, that which the self-controlled (ascetics) and passion-free enter, that desiring which celibacy is practiced-that goal I will declare to thee in brief.।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हर समय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  हर समय

 

समय सबसे धनवान है, समय बड़ा बलवान है। समय से दिन है, समय से रात है। जीवन समय-समय की बात है।

समय दौड़ता है। बच्चा प्राय: समय के आगे-आगे दौड़ता है। बच्चे की खिलखिलाहट से आनंद झरता है। युवा, समय के साथ चलता है। वह वर्तमान से जुड़ता है, सुख भोगता है। सुखभोगी मनुष्य धीरे धीरे तन और मन दोनों से धीमा और ढीला होने लगता है। यथावत दौड़ता रहता है समय पर  राग, अनुराग,भोग, उपभोग से बंधता जाता है मनुष्य। समय के साथ नहीं चल पाता मनुष्य। साथ न चलने का मतलब है कि पीछे छूटता जाता है मनुष्य।

मनुष्य बीते समय को याद करता है। मनुष्य जीते समय को कोसता है। ऊहापोह में जीवन बीत जाता है, जगत के मोह में श्वास रीत जाता है। आनंद और सुख के सामने अपने अतीत को सुनाता है मनुष्य, अपने समय को मानो बुलाता है मनुष्य। फिर मनुष्य का समय आ जाता है। समय आने के बाद क्षण के करोड़वें हिस्से जितना भी अतिरिक्त समय नहीं मिलता। मनुष्य की जर्जर काया  द्रुतगामी समय का वेग झेल नहीं पाती। काया को यहीं पटककर मनुष्य को लेकर निकल जाता है समय।

समय आगत है, समय विगत है। समय नहीं सुनता समय की टेर है। जीवन समय-समय का फेर है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ कितनी और निर्भया ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “कितनी और निर्भया ”.     डॉ  मुक्ता जी ने  इस आलेख के माध्यम से यौन अपराध  और उससे सम्बंधित तथ्यों पर विस्तृत विमर्श किया है। यह समझ से परे है कि इस तथ्य को सामयिक कहें या असामयिक, यह निर्णय आप पर है। किन्तु,  दुखद यह है कि अगली दुर्घटना होते तक या दुखद ब्रेकिंग न्यूज़ आते तक समाज निष्क्रिय क्यों रहता है ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।  )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ कितनी और निर्भया

 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या, उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख, मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं, चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा, गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं। लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद-हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे अपराध की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए? संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा। और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं। वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे, तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि भय  बिनु होइहि न प्रीति तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए कठोर दंड व्यवस्था का प्रावधान करना हमारा प्रमुख दायित्व होगा, ताकि समाज में सत्यम्,  शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878




हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता  ‘अनुरागी’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]