आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।।9।।

 

 प्राचीन,सर्वज्ञ जग नियंता अतिसूक्ष्म जो जग का प्राणदाता

 अचिन्य सूर्य प्रभा सा भा स्वर तमस जहाँ पर फटक न पाता।।9।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है।।9।।

 

Whosoever meditates on the Omniscient, the Ancient, the ruler (of the whole world), minuter than an atom, the supporter of all, of inconceivable form, effulgent like the sun and beyond the darkness of ignorance.।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अंतर्मन की व्यथा ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक भावप्रवण  एवं सामयिक कविता अंतर्मन की व्यथा .)

 

कविता – अंतर्मन की व्यथा  ☆

 

एक नदी बह रही है भीतर कहीं

लेकिन भीगती नहीं है अंतर्मन की जमीं।

तुम हर बार एक नया कंकर फेंक कर

जगा देते हो मेरे भीतर की खामोशी

 

छेड़ते रहे हो हाहाकार की धुन और तब

इस अंतः सलिला के उफनते भंवर–प्रवाह

लील लेना चाहते हैं मेरी संपूर्णता – मेरा   – –

समन्वय,मेरा सृजन,मेरा जुड़ाव।

 

कर देना चाहते हैं बंटवारा मेरी जिंदगी का

वे बुलबुले – – जो पल-पल बनते बिगड़ते हैं

अंतर्मन में उदासी दया सहानुभूति संवेदन

आर्त शोक के आदिम बहुरूपी स्वांग लिए

 

मधु गंधा स्मृतियों की लहरें हिलोरें लेतीं

तोड़ देना चाहतीं हैं बरबस बांधे तटबंधों को

अंतर्मन के संदेश मिलते रहे हवा के परों पर

संध्या घर लौटती पंछियों की पांतों के साथ

 

पर भीतर बहती बेचैन धारा के हाहाकारों ने

पंगु कर दिया है अंतर्मन के एहसासों को

भीतर की गंगा में शेष हैं बधिर जल प्रवाह

गुने जाने वाले वेदनार्त सुरों के महोत्सव

 

और बीते पलों के अशोभन शव देह मात्र

जाग जाती है नदी पुनः साक्ष्य देने के लिए

उन निर्वासित क्षणों की घनीभूत प्रगाढ़ पीड़ा

साथ ही सूख जाती है अंतर्मन सलिला

महाप्रलय की शांति लेकर ………

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 26 – जर….. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  जर…...    सुश्री प्रभा जी  ने सत्तर वर्ष की  वय में  जिस  परीकथा को लिखने की कल्पना की थी, उन्हें पता भी नहीं चला और उन्होंने इस कविता के माध्यम से लिख ही दिया। इसका आभास उन्हें तब होगा जब वे इस कविता को पुनः पढेंगी। वास्तव में कवि अपनी परिकल्पना में इतना खो जाता है  कि उसे पता ही नहीं चलता है कि वह एक कालजयी रचना कर रहा है। अतिसुन्दर परी कथा की  रचना एक मधुर स्मृति  की तरह संजो कर रखने लायक।  मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 26 ☆

जर….. ☆ 

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे….

तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…

कुणाला आवडो न आवडो…

त्यात असेल एक गाव….

परीकथेतला….

आजोबा म्हणायचे,

“तुम्ही काहीही सांगाल, आम्हाला खरं वाटलं पाहिजे ना? ”

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी,

परीकथेत असतील इतरही प-या,

यक्ष, जादू च्या छड्या, चेटकिणी,

घडेल काही आक्रित,

नियती वाचवेल प्रत्येकवेळी परीला…..

परीला पडतील स्वप्न….अगदी साधीसुधी….

ती खेळेल भातुकलीचा खेळ

बाहुला बाहुलीचे लग्न ही लावेल….

 

ती हरवेल कधी जंगलात, कधी गर्दीत….

तिला सापडणार नाहीत हवे ते रस्ते…

ती रस्ता चुकेल, रडेल,

दुखेल, खुपेल तिलाही…

ती सहन करेल तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार…

 

आयुष्यात प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्ध च घडणार आहे,

हे माहित असूनही,

ती लावेल पत्त्यांचे

नवे नवे डाव आणि हरत राहिल वारंवार!

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी, गाईल गाणी,

खेळेल  ऐलोमा पैलोमा….

 

ती करेल स्वयंपाक, थापिल भाकरी, कधी सुगरण असेल ती तर कधी करपेल तिचा भात,पोळी कच्ची राहिल,

आडाचं पाणी काढायला जाताना…तिचे पडतील ही दोन दात…

केस पांढरे होतील, सुरकुत्या पडतील चेह-यावर…..

परी म्हातारी होईल, तरीही तिला काढावसं वाटेल आडाचं पाणी….

कुणी म्हणेल ही सहजपणे….

“धप्पकन पडली त्यात”

ती पडेल आडात,पाण्यात की खडकावर माहित नाही…..

तिने हातात गच्च धरून ठेवलेला शिंपला पडेल त्याच आडात…

 

आणि आजूबाजूच्या फेर धरणा-या तरूण प-या म्हणतील….

आडात पडला शिंपला…..तिचा खेळ संपला!

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…..

जी आली होती जन्माला बाईच्या जातीत…..आणि मेली ही बाई म्हणूनच!

 

आणि ही कथा तुम्हाला नक्कीच खरी वाटेल

परीकथा असूनही..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – परिचय ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  परिचय 

 

अपना परिचय

भेज दीजिए,

आयोजक ने कहा,

मैंने भेज दी

अपनी एक रचना,

कैसा परिचय भेजा है

बार-बार पढ़ता हूँ

हर बार अलग अर्थ

निकलकर आता  है,

शिकायत सुनकर

मेरा समूचा अस्तित्व

शब्दब्रह्म के आगे

दंडवत हो जाता है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 24 – कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “कुर्सी जब भी नई बनाई है। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆  

 

कुर्सी जब भी नई बनाई है

पेड़ की  ही, हुई  कटाई है।

 

बांस सीधा खड़ा जो जंगल में

मौत  पहले, उसी की आई है।

 

उछलने कूदने वालों के हैं दिन

पढ़े लिखों को, समझ आई है।

 

जान सकता वो दर्द को कैसे

पांव में  तो,  मेरे  बिवाई  है।

 

रोटी दिखलाते हुए, भूखों को

फोटो  गमगीन हो, खिंचाई है।

 

बाढ़ नीचे, वो आसमानों पर

देख लो  कितनी, बेहयाई है।

 

दस्तखत, पहले दवा देने के

ट्रायलों पर, टिकी कमाई है।

 

एकमत से बढ़ा लिए वेतन

खुद प्रसूता,वे खुद ही दाई है।

 

पेड़ आंगन में जो बचा अब तक

उम्मीदें कुछ, वहीं से पाई है।

 

खाद-पानी, बने रहे तन्मय

फसल जो खेत में उगाई है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 8 ☆ उल्लू ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “उल्लू ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 8 – उल्लू ☆

 

विद्वान ने कहा- उल्लू में

बड़े ऊ की

मात्रा लगती है

मैंनें, छोटे उल्लू में

बड़े ऊ की मात्रा

लगा कर पूछा-अब

कैसा लगा आपको

आपना,उल्लू ?

—  विद्वान ने

चौंक कर कहा-

क्या मतलब ?

—मतलब यह कि

मात्रा बदलने के बाद

क्या अंतर पड़ा

उल्लू में?

—बोलने में अंतर पड़ा

और काहे में

अंतर पड़ेगा ?

—देखने से तो

कोई अंतर नहीं पड़ा

उल्लू में ?

—क्या मतलब ?

—मतलब यह कि

मात्रा बदलने के बाद

एक ही साइज में

दिख रहे हैं / दोनों उल्लू

या अलग-अलग

साइज में ?

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

– ब्रम्हघाट पर रात विश्राम में,उल्लू की आवाज सुन कर –  

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 2 ☆ कविता ☆ कृष्णा के दोहे ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है इस  कड़ी में  आपके दोहे  “कृष्णा के दोहे ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 2 ☆

☆ कविता – कृष्णा के दोहे  ☆ 

चंचला
द्युति भर चंचल चंचला,  दमक रही पुर जोर।
रिमझिम बरसे घन-घटा, पुरवा दे झकझोर।
पिपीलिका
चलती सदा पिपीलिका, मिलजुल साध कतार।
धैर्य कभी खोती नहीं, मन में साहस धार।।
वागीश
भानु दृष्टि भी कम पड़े, देखें जो वागीश।
अक्षर-अक्षर देव के, रखते पग रज शीश।
राघव
आत्मसात कर लिजिए, राघव के सब त्याग।
वनवासी सिय-राम ने, निर्मित किये प्रयाग।।
कुंचन
घने केश कुंचन किये, चली चंचला गाँव।
कितनीआँखें तक रहीं, लिए सुरुचि सा ठाँव।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 6 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 6 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :- आप पश्चिमी सभ्यता को निकाल बाहर करने की बात कहते हैं, तब तो आप यह भी कहेंगे कि हमें कोई भी मशीन नहीं चाहिए।

उत्तर :-  मुझे जो चोट लगी थी उसे यह सवाल करके आपने ताजा कर दिया है। मि. रमेशचंद्र दत्त की पुस्तक ‘ हिन्दुस्तान का आर्थिक इतिहास’ जब मैंने पढी, तब भी मेरी ऐसी हालत हो गयी थी। उसका फिर से विचार करता हूँ, तो मेरा दिल भर आता है। मशीन  की झपट लगने से ही हिन्दुस्तान पागल हो गया है। मैंनचेस्टर ने जो हमें नुकसान पहुंचाया है, उसकी तो कोई हद ही नहीं है। हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है।

लेकिन मैं भूलता हूँ। मैनचेस्टर को दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपडे पहने तभी तो उसने कपडे बनाए। बंगाल की बहादुरी का वर्णन जब मैंने पढ़ा तब मुझे हर्ष हुआ। बंगाल में कपडे की मिलें नहीं हैं, इसलिए लोगों ने अपना असली धंधा फिर से हाथ में ले लिया। बंगाल बम्बई की मिलों को बढ़ावा देता है वह ठीक ही है; लेकिन अगर बंगाल ने तमाम मशीनों से परहेज किया होता, उनका बायकाट- बहिष्कार किया होता तब और भी अच्छा होता।

मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिन्दुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी हैं और वह महा पाप है, ऐसा मैं तो साफ़ देख सकता हूँ।

बम्बई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गए हैं। जो औरतें उनमे काम करती हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा। जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थी। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिन्दुस्तान की बुरी दशा होगी। मेरी बात आपको कुछ मुश्किल मालुम होती होगी। लेकिन मुझे कहना चाहिए कि हम हिन्दुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैनचेस्टर को और भी रुपये भेजकर उसका सडा हुआ कपड़ा काम में लें; क्योंकि उसका कपड़ा लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जायेंगे। हिन्दुस्तान में अगर हम मैनचेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिन्दुस्तान में ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा; क्योंकि वह हमारी नीति को बिलकुल ख़त्म कर देगा। जो लोग मिलों में काम करते हैं उनकी नीति कैसी है, यह उन्ही से पूंछा जाय। उनमे से जिन्होंने रुपये जमा किये हैं, उनकी नीति दुसरे पैसेवालों से अच्छी नहीं हो सकती। अमेरिका के रॉकफेलरों से हिन्दुस्तान के राकफेलर कुछ कम हैं, ऐसा मानना निरा अज्ञान है। गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा।

मुझे तो लगता है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी राज्य को यहाँ टिकाये रखने वाले यह धनवान लोग ही हैं। ऐसी स्थिति में ही उनका स्वार्थ सधेगा। पैसा आदमी को दीन बना देता है। ऐसी दूसरी चीज दुनिया में विषय-भोग है। ये दोनों विषय विषमय हैं। उनका डंक साँप के डंक से ज्यादा जहरीला है। जब साँप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता है। जब पैसा या विषय काटता है तब वह शरीर, ज्ञान, मन सब कुछ ले लेता है, तो भी हमारा छुटकारा नहीं होता। इसलिए हमारे देश में मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।

प्रश्न:- तब क्या मिलों को बंद कर दिया जाय।

उत्तर:- यह बात मुश्किल है। जो चीज स्थायी या मजबूत हो गयी है, उसे निकालना मुश्किल है। इसलिए काम न शुरू करना पहली बुद्धिमानी है। मिल मालिकों की ओर हम नफरत की निगाह से नहीं देख सकते। हमें उनपर दया करनी चाहिए। वे यकायक मिलें छोड़ दें यह तो मुमकिन नहीं है; लेकिन हम उनसे ऐसी बिनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढाए नहीं। अगर वे देश का भला करना चाहे, तोखुद अपना काम  धीरे धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने, प्रौढ़, पवित्र चरखे देश के हज़ारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों से बुना हुआ कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।

अगर वे ऐसा न करें तो भी लोग खुद मशीनों का कपड़ा इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं।

मेरी टिप्पणी : मशीनों को लेकर गांधीजी के विचार आज से चार दिन तक चलेंगे फिर पांचवे दिन मैं कोशिश करूंगा कि आज के सन्दर्भ में गांधीजी के विचारों की उपयोगिता पर कुछ लिख सकूँ । मैं इस पोस्ट के पाठकों से भी अनुरोध करूंगा कि वे अपने विचार लिखें.।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌।।8।।

 

पृथापुत्र ! अभ्यास से ,चित्त में ईश्वर धार

साधक पाता ईश को ,तज तम मनोविकार।।8।।

 

भावार्थ :  हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।।8।।

 

With the mind not moving towards any other thing, made steadfast by the method of habitual meditation, and constantly meditating, one goes to the Supreme Person, the Resplendent,  O Arjuna!।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ कालजयी कविता ☆ नदी नीलकंठ नहीं होती ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “नदी नीलकंठ नहीं होती”।  मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। इस रचना को तो सामयिक भी नहीं कह सकता। सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए इस कालजयी रचना का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे आज के अंक में आप निम्न लिंक पर भी पढ़ सकते हैं। )

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 

☆ नदी नीलकंठ नहीं होती ☆

 

नदी नीलकंठ नहीं होती

कभी वह थी चंचला नदी,

और मैं बेलगाम अरमानों वाली अल्हड़,

मैं उसके पावन जल का आचमन करती

सब तृष्णाओं, कुंठाओं को सिराती उसकी उद्दाम उर्मियों में

खड़ी थी उसके दाहिने किनारे पर

बनकर सतर चट्टान

मैं खुश थी, नदी के किनारे की चट्टान होकर

एक दिन तुम आए और

मेरी देह का परिरम्भ कर, लांघ गए सब सीमाएं

तुम्हारा वह गंदला स्पर्श,

भाया नहीं था मुझे

मैं झर गई थी पल में, कण – कण रेत सी

जा पसरी थी नदी की सूनी छाती पर

तब जानी थी मैं कि नदी,

नहीं थी सिर्फ बहता पानी

वह तो थी इतिहास लिपिबद्ध करती निपुण इतिहासकार,

संस्कृतियां रचकर, परम्पराएं सहेजती जिम्मेदार पुरखिन,

अपनी मर्ज़ी से रास्ते बदलती सशक्त आधुनिका भी थी वह

और थी धरती का भूगोल साधती साधक

वह तो थी सदेह रचयिता ममतामयी माँ,

तभी तो जानी थी मैंने पीड़ा नदी की

उसकी देह से कोख, अंतड़ियों और दिल के साथ

निकाल ली थी तुमने मास – मज्जा तक उसकी

कई बार महसूस की थीं मैंने उसकी सिसकिया अट्टालिकाओं में

देखी थी कई बार मैंने

सड़कों की भीतरी सतह में आँसू बहाती, वह नदी

वह बिखर जाना चाहती थी होकर कण – कण

ठीक मेरी तरह

बचकर तुम्हारे गंदले स्पर्शों से

पर जाती किधर, समाती कहाँ ?

उसके पास नहीं थी कोई नदी, खुद उसके जैसी

मैं उसकी सूनी छाती पर निढाल पड़ी

चुपचाप देखती उसके मुंह पर मैला कपड़ा रख

उसकी नाक का दबाया जाना

देखती उसका तड़पना एक – एक सांस के लिए

मेरे कण – कण रेत हो जाने से

कहीं दुखकर थी उसकी वह तड़पन

नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से

पर इस सदी, शेष थीं बस चंद सांसें उसमें

दुर्गंध भरी, हाँफती, अंतिम, चंद सांसें

मैंने कितनी मिन्नतें की थीं तुमसे

भर दो कुछ सांस उसके सीने में

अपने अधर रखकर उसके अधरों पर

लौटा दो उसकी सकल सम्पदा

जो बलात छीन ली थी तुमने

जो चाहो मेरे कणों तक का शेष रह जाना

तो खींच लो सिंगियां लगाकर

उसकी देह में फैला, सारा का सारा विष

सुनो,

नदी जी नहीं सकती विष पीकर

क्योंकि,

नदी नीलकंठ नहीं होती

नदी शिव नहीं होती ।

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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