हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15☆ वार्तिकायन – स्मारिका 2019 ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है जबलपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘ वर्तिका’ के वार्षिकांक/ स्मारिका   “वार्तिकायन – स्मारिका 2019 पर  श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा ।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15 ☆ 

☆ पुस्तक पर साहित्य चर्चा – वर्तिकायन

पंजीकृत साहित्यिक संस्था वर्तिका की वार्षिक स्मारिका

संपादन – विजय नेमा अनुज, सोहन सलिल, राजेश पाठक प्रवीण, दीपक तिवारी

प्रकाशक – वर्तिका जबलपुर

संस्करण २०१९

 

साहित्य के संवर्धन, साहित्यकारो को एक मंच पर लाने में संस्थागत कार्यो की भूमिका निर्विवाद है. तार सप्तक जैसे संकलन भी केवल साहित्यकारो के परस्पर समन्वय से ही निकल सके थे जो आज हिन्दी जगत की धरोहर हैं. स्मारिका वर्तिकायन ऐसा ही एक समवेत प्रयास है जो वर्तिका के साहित्यकारो को सृजन की नव उर्जा देती हुई मुखरित स्वरूप में वर्तिका के वार्षिकोत्सव में १७ नवम्बर को भव्य समारोह में विमोचित की गई है. पत्रिका की प्रस्तुति, मुद्रण, कागज बहुत स्तरीय है, जिससे संयोजक विजय नेमा अनुज की मेहनत सार्थक हो गई है. वर्तिका के ७६ वरिष्ठ, कनिष्ठ सभी सदस्यो की कवितायें वर्तिकायन में समाहित हैं. स्वामी अखिलेश्वरानंद, सांसद राकेश सिंह जी, विधायक अजय विश्नोई जी, सांसद विवेक तंखा जी, एडवोकेट जनरल शशांक शेखर, वित्तमंत्री श्री तरुण भानोट जी, विधायक लखन घनघोरिया जी, विधायक श्री सुशील तिवारी इंदु, विधायक श्री अशोक रोहाणी, विधायक श्री विनय सक्सेना, व्यवसायी श्री मोहन परोहा, महापौर श्रीमती स्वाति गोडबोले, श्री रवि गुप्ता अध्यक्ष महाकौशल चैम्बर आफ कामर्स, कमिश्नर जबलपुर श्री राजेश बहुगुणा, जिलाधीश श्री भरत यादव, डा सुधीर तिवारी, डा जितेंद्र जामदार, इंजी डी सी जैन डा अभिजात कृष्ण त्रिपाठी, आचार्य भगवत दुबे, श्री अशोक मनोध्या, श्री एम एल बहोरिया, श्री शरद अग्रवाल तथा वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ के शुभकामना संदेश का प्रकाशन यह प्रमाणित करता है कि वर्तिका की समाज में कितनी गहरी पैठ है.

संयोजक श्री विजय नेमा अनुज ने वर्तिका की विजय यात्रा में एक तरह से वर्तिका का सारा इतिहास ही समाहित कर प्रस्तुत किया है. अध्यक्ष सोहन परोहा ने अपने दिल की बात अध्यक्ष की कलम से, में कही है. श्री दीपक तिवारी दीपक, श्री राजेश पाठक प्रवीण, ने अपने प्रतिवेदन रखे हैं. विवेक रंजन श्रीवास्तव ने साहित्यिक विकास में साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका लेख के जरिये अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु प्रकाश में लाने का सफल प्रयत्न किया है. डा छाया त्रिवेदी ने गुरु पूर्णिमा पर वर्तिका के समाज सेवी आयोजन का  ब्यौरा देकर विगत का पुनर्स्मरण करवा दिया.

इस वर्ष सम्मानित किये गये साहित्यकारो के विवरण से स्मारिका का महत्व स्थायी बन गया है. इस वर्ष साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हेतु  शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति  वर्तिका साहित्य अलंकरण मण्डला से आये हुये श्री कपिल वर्मा को प्रदान किया गया. उक्त अलंकरण श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के सौजन्य से प्रदान किया जाता है.  पान उमरिया से पधारे हुये डा आर सी मिश्रा को एवं  इसी क्रम में मुम्बई के श्री संतोष सिंह को श्री सलिल तिवारी के सौजन्य से उनके पिता स्व श्री परमेश्वर प्रसाद तिवारी स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री के के नायकर स्टेंड अप कामेडी के शिखर पुरुष हैं, उन्होने हास्य के क्षेत्र में  जबलपुर  को देश में स्थापित किया है. श्री नायकर को श्रीमती ममता जबलपुरी के सौजन्य से श्रीमती अमर कौर स्व हरदेव सिंह हास्य शिखर अलंकरण प्रदान किया गया. व्यंग्यकार श्री अभिमन्यू जैन को स्व सरन दुलारी श्रीवास्तव की स्मृति में व्यंग्य शिरोमणी अलंकरण दिया गया. इसी तरह श्री मदन श्रीवास्तव को स्व डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री सुशील श्रीवास्तव द्वारा अपने माता पिता स्व सावित्री परमानंद श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण , प्रभा विश्वकर्मा शील को दिया गया. श्रीमती विजयश्री मिश्रा को स्व रामबाबूलाल उपाध्याय स्मृति अलंकरण दिया गया जो श्रीमती नीतू सत्यनारायण उपाध्याय द्वारा प्रायोजित है. श्री अशोक श्रीवास्तव सिफर द्वारा स्व राजकुमरी श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण, श्री संतोष नेमा को उनकी राष्ट्रीय साहित्य चेतना के लिये दिया गया. सुश्री देवयानी ठाकुर के सौजन्य से स्व ओंकार ठाकुर स्मृति कला अलंकरण से श्री सतीश श्रीवास्तव को सम्मानित किया गया. गाडरवाड़ा से पधारे हुये श्री विजय नामदेव बेशर्म को श्री सतीश श्रीवास्तव के सौजन्य से स्व भृगुनाथ सहाय स्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया. वर्तिका प्रति वर्ष किसी सक्रिय साथी को संस्था के संस्थापक साज जी की स्मृति में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित करती है, इस वर्ष यह प्रतिष्ठा पूर्ण सम्मान श्री सुशील श्रीवास्तव को प्रदान किया गया. इसके अतिरिक्त श्रीमती निर्मला तिवारी जी को कथा लेखन तथा युवा फिल्मकार आर्य वर्मा को युवा अलंकार से वर्तिका अलंकरण दिये गये. वर्तिका ने सक्रिय संस्थाओ को भी सम्मानित करने की पहल की है, इस वर्ष नगर की साहित्य के लिये समर्पित संस्थाओ पाथेय तथा प्रसंग को सम्मानित किया गया.

“हे दीन बंधु दयानिधे आनन्दप्रद तव कीर्तनम, हमें दीजीये प्रभु शरण तव शरणागतम शरणागतम “, पहली ही रचना प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की है जो मनोहारी प्रभाव अंकित करती है.

श्री ज्ञान चंद्र पंडा की पंक्तियां “ए कायनात मैं तेरा वजूद नापूंगा, मेरी चाहत का परिंदा उड़ान लेता है “, श्री मोहन शशि ने वर्तिका के संस्थापक साज जबलपुरी के प्रति काव्य में अपने उद्गार कहे हैं. किस तरह एक संस्था के माध्यम से  व्यक्ति चिरस्थाई पदचिन्ह छोड़ सकता है, यह बात वर्तिका के ध्वजवाहक साज जबलपुरी जी को स्मरण करते हुये  बहुत अच्छी तरह  अनुभव करते हैं. राजेंद्र रतन ने कम शब्दो में “सरहद पर गूंजी शहनाई गूंजा सारा देश, सैनिक सरहद पर खड़े स्वर सबके समवेत” लिखकर अपनी कलम की ताकत बता दी है. श्रीमती मनोरमा दीक्षित ने “सरसों के फूलो से मधुॠुतु मनाते हम” मधुर गीत रचा है. श्रीमती निर्मला तिवारी की गजल से अंश है “वारों से तेरे खुद को बचाना नहीं आता, खंजर हमें अपनो पे उठाना नहीं आता”, वरिष्ट रचनाधर्मी इंजी अमरेंद्र नारायण की पंक्तियां “लेकिन मानव की जिव्हा तो प्रतिदिन लम्बी होती जाती वह पार जरूरत के जाती वह स्वार्थ तृपति में लग जाती” जिस दिशा में इशारा कर रही है वह मनन योग्य बिंदु है. रत्ना ओझा जी ने “कब्र खोदें राजनीति में एक दूजे की लोग” लिख आज की सचाई वर्णित की है. श्रीमती चंद्र प्रकाश वैश्य ने आजादी शीर्षक से उम्दा रचना प्रस्तुत की है. श्री केशरी प्रसाद पाण्डेय वृहद ने “कृष्ण गली जो भी गया” मनोहारी लेखनी से अपनी बात कही है. श्रीमती प्रभा पाण्डे पुरनम “धुंआ” में कम में ज्यादा अभिव्यक्त करने में सफल हैं. श्री एम एल बहोरिया अनीस की गजल की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं” लिपट के मुझसे भी रोने को दिल किया होगा उदास परदे में बेबस वफा रही होगी”. सुभाष जैन शलभ के छंद बेहतरीन हैं. डा सलपनाथ यादव ने मध्यप्रदेश स्थापना दिवस पर काव्य प्रस्तुति की है. डा राजलक्ष्मी शिवहरे ने “गुरु बिन जीवन बिन पतवार हो जैसे नाव” लिखकर गुरु का महत्व प्रतिपादित किया है. श्री सुरेश कुशवाहा तन्मय लिखते हैं “स्वयं से सदा लड़े हैं जग में रहकर भी जग से अलग हम खड़े हैं”. बसंत ठाकुर लिखते हैं “जब जब मिले हैं उनसे यही वाकया हुआ वापस चले तो जाहिल नजर लेके नम चले”..

मदन श्रीवास्तव की “कुंए में भांग”, सतीश कुमार श्रीवास्तव की “प्रकृति”, श्रीमती मिथिलेश नायक की “बिन हरदौल ब्याह न हौबे”, डा मीना भट्ट की पंक्तियां “जमीं पर चांद हमें भी एक नजर आया कि जिसके नूर से हम खुद निखरते जाते हैँ” स्पर्श करती हैं. मनोज कुमार शुक्ल “मन का पंछी उड़े गगन है खुद में ही वह खूब मगन है” सशक्त रचना है. श्री सुशील श्रीवास्तव लिखते हैं “प्यार का दीप जलाओ बहुत उदासी है गीत प्यारा सा गुनगुनाओ  बहुत उदासी है”. श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल “अपना रास्ता बनाना होगा” के जरिये स्वयं को सफलता से अभिव्यक्त करती हैं. श्री राजेंद्र मिश्रा “गंगा माँ तेरी जय जय हो” के साथ उपस्थित हैं.

मनोहर चौबे आकाश ने “प्यार की संभावना का पाश हूं”, राजसागरी ने “सुख और दुख दोनो साथी हैं दोनो को अपनाओ तुम भेदभाव न रहे जगत में ऐसी अलख जगाओ तुम”, श्रीमती राजकुमारी रैकवार ने “मेरी प्यारी लेखनी”, श्री अभय कुमार तिवारी ने लिखा है “हिन्दी उर्दू अंग्रेजी से उत्तर दक्षिण बांट रहे, जिस डाली पर हम बैठे उसी डाल को काट रहे”, शशिकला सेन ने “कली की पीड़ा” को कलम बंद किया है. विजय बागरी ने “तुमसे ही प्रियतम घर मथुरा काशी है”, प्रमोद तिवारी मुनि की गजल से पंक्तियां हैं “जब पहला कदम उठता देखा मेरा, माँ मेरी रात भर मुस्कराती रही” श्रीमती सलमा जमाल लिखती हैं “हम सब हैं ईश्वर के बंदे अब गायें ऐसा गान, मस्जिद में गूंजे आरती गूंजे मंदिरो में अजान”, ऐसी सुखद कल्पना कवि की उदार कलम ही कर सकती है जिसकी राष्ट्र को आज सबसे अधिक जरूरत है. श्रीमती सुशील जैन ने “भ्रूण हत्या” पर सशक्त रचना की हे. श्रीमती किरण श्रीवास्तव ने “बेटी”, श्री सुरेंद्र पवार ने “पानी तेरे नाना रूप”, गणेश श्रीवास्तव ने “कारगिल विजय”, अर्चना मलैया ने “धुंध”, श्री गजेंद्र कर्ण ने “मेरा मन मंदिर बने सदगुरु चरण निवास प्रति पल हो हरि रूप का जप तप प्रेम प्रयास”, विजेंद्र उपाध्याय ने “नर्मदा माँ”, विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “मैं” शीर्षक से रचनायें की हैं. नरेंद्र शर्मा शास्त्री ने “बुढ़ापे की व्यथा” लिखी है. श्री उमेश पिल्लई ने “इंतजार” शीर्षक से गहरी बात कही है. सूरज राय सूरज की गजल से उधृत करना उचित होगा “कहा सुबह से ये बुझते हुये दिये ने, मैं सूरज बन के वापस आ रहा हूं”.

श्री अशोक सिफर  ने बड़ी गहरी बात की है वे लिखते हैं “यह इश्क मिजाजी और ये गमगीनी, यह तो पहचान है मुहब्बत होने की”. सलिल तिवारी अपने गीत में शाश्वत सत्य लिखते हैं “प्यार एहसास है, एहसास निभाना सीखो, साजे दिल को इसी सरगम पे बजाना सीखो”. श्रीमती संध्या जैन श्रुति ने “पश्चिम की आंधी”, श्रीमती कृष्णा राजपूत ने “शिक्षक हूं”, श्रीमती सुनीता मिश्रा ने बहुत महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित करती रचना की है वे लिखती हैं “महकी जूही चमेली चम्पा कली आज मेरी बेटी स्कूल चली”. संतोष कुमार दुबे ने “जबलपुर नगर हमारा”, श्रीमती ममता जबलपुरी ने “शब्द शब्द से खेला भावो को अंजाम मिला”, आषुतोष तिवारी ने “अनुमानो से बहुत बड़ा दिन अनुभव की है रात बड़ी”, बसंत शर्मा ने गजल कही है “यूं सूरज की शान बहुत है पर दीपक का मान बहुत हैं”. डा मुकुल तिवारी ने दे”श के नौजवानो आगे बढ़ो”, संतोष नेमा की सशक्त अभिव्यक्ति है “कहां गया माथे का चंदन”, राजेश पाठक प्रवीण लिखते हैं “कभी लगे सुख सागर जैसी कभी गले का हार जिंदगी, कभी दुखो की गागर जैसी और कभी त्यौहार जिंदगी”.  विनोद नयन लिखते हैं “हमदर्दी जताने के लिये लोग यहां पर, हम लोगों के उजड़े हुये घर ढ़ूंढ़ रहे हैं”. अर्चना गोस्वामी “प्यार का बागवां” डा अनिल कुमार कोरी “भूल गया क्यो ?”, विनीता पैगवार ने  “सदगुरु ओशो को समर्पित” रचना प्रस्तुत की है. सपना सराफ ने “कुछ मीठे बोसे हवा हर रोज मुझे दे जाती है” लिखकर गजल को उंचाईयां दी हैं. मनोज जैन ने “यह वर्ण व्यवस्था भंग करो”, प्रभा विश्वकर्मा शील ने “जुगनू”, और आलोक पाठक ने “सच है”, डा आशा रानी ने छोटी सी चाहत की है “कामयाब देखना होकर रहूंगी, मुश्किलो को हराना जानती हूं”. युनूस अदीब जी ने बहुत उम्दा गजल कही है, “जहां को रौशनी देना मजाक नही चराग बनके वो खुद को यहां जलाता है” डा राजेश कुमार ठाकुर ने “गड्ड मड्ड”, अशोक झारिया शफक ने गजल में कहा है “सितम बेवजहा ढ़ाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं, किसी का दिल दुखाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं”, अर्चना जैन अम्बर ने “संघर्ष”, दीपक तिवारी दीपक ने “न जाने कौन सा जादू है उस खुश रंग चेहरे में के जिसकी झलक पाकर हमें मुस्कराना पड़ता है.” मिथिलेश वामनकर ने “वेदना अभिशप्त होकर जल रहे हैं गीत देखो” अत्यंत झंकृत करने वाली छंद बद्ध रचना दी है. विनीत पंत यावर का गीत “कौन था मुझमें मेरे नाम से पहले”, मीनाक्षी शर्मा की “अल्पना”, और देव दर्शन सिंह की रचना “शाम का अलग ही  जलवा था वो दिये की बाती कुछ कहती थी”, डा वर्षा शर्मा रैनी की रचना “अश्कों के सूख जाने से” में वे लिखती हैं “तुझे संवांर दिया हादसों ने ए रैनी, वफा का रंग बिखरता है चोट खाने से”.

स्मारिका में लगभग २८ महिला रचनाकारो की उपस्थिति यह बताती है कि साहित्य के क्षेत्र में महिलाओ की भागीदारी उल्लेखनीय है. वर्तिका को गौरव है कि इतने विविध क्षेत्रो से अंचल के बिखरे हुये रचनाकर्मियो को वर्तिकायन के द्वारा एक जिल्द में लाने का सफल प्रयास किया गया है. वर्तिकायन अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल प्रस्तुति है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #25 – उध्वस्त जगणे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “उध्वस्त जगणे ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 25 ☆

 

☆ उध्वस्त जगणे ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

 

जे लिहावे वाटले ते, मी लिहू शकलो कुठे ?

आशयाच्या दर्पणातुन, मी खरा दिसलो कुठे

 

कायद्याच्या चौकटीचे, दार मी ठोठावले

आंधळ्या न्यायापुढे या, सांग मी टिकलो कुठे ?

 

मी सुनामी वादळांना, भीक नाही घातली

जाहले उध्वस्त जगणे, मी तरी खचलो कुठे

 

गजल का नाराज आहे, शेवटी कळले मला

जीवनाच्या अनुभवाला, मी खरा भिडलो कुठे

 

एवढ्यासाठीच माझी, जिंदगी रागावली

मी व्यथेसाठी जगाच्या, या इथे झटलो कुठे

 

टाकले वाळीत का हे, सत्य माझे लोक हो

सांग ना दुनिये मला तू, मी इथे चुकलो कुठे

 

सरण माझे पेटताना, शेवटी कळले मला

जगुनही मेलो खरा मी, मरुनही जगलो कुठे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८




सूचनाएँ/Information – ☆ 16 वां बहुभाषी नाट्य महोत्सव – निर्णायक की कलम से – – ☆ श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है 16 वें बहुभाषी नाट्य महोत्सव में निर्णायक के रूप श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी के उदगार.)

 

निर्णायक की कलम से -श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  ☆

 

विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन ,मोरभवन झांसीरानी चौक नागपुर और कला सागर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 16 वें बहुभाषी नाट्य महोत्सव में निर्णायक के रूप में पिछले छः दिनों के स्वर्गिक आनंद का अनुपम आस्वाद – – अवर्णनीय है

पूरे पंद्रह नाटक 200 से अधिक कलाकार और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सुधि जनों के साथ बड़े ही जोश उत्साह और जिज्ञासा से पूरित  नाट्य महोत्सव का भव्य समापन समारोह अनेकानेक गौरवान्वित पलों के साथ संपन्न हुआ। मानो एक विशाल साहित्य महायज्ञ में अपने अपने हिस्से की समिधा समर्पित कर हर कलाकार चंदन की महकती खुशबू सा निरामय हो उठा— कला गौरव की गमकती यज्ञाग्नि में स्वयं की कला की समिधा अर्पण कर समाज ऋण – – देश ऋण और मानवीय  ऋण चुका कर तृण कण सी निरागस नम्रता से पूरित हो गया– हर चेहरा प्रफुल्लित खिले पुष्प सा।

परिणाम की उत्सुकता अपनी जगह पर परंतु उल्लास हर चेहरे पर हिलोरें ले रहा। सुधि जनों, स्वनाम धन्य मनीषियों तथा महनीय अतिथियों का स्वागत–  निर्णायक मंडल का सत्कार इत्यादि महनीय पलों का साक्षी बना विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रांगण और कला सागर का गरिमामय ग्रुप।

विशाल कला रसिक जनसमूह की उत्सुकता शांत हुई  पुरस्कारों की घोषणा के साथ और नामों की घोषणा के पूर्व ही जनसमूह में से उठते स्वर – – – निर्णायक गणों के निर्णय को  सही निर्णय की मुहर लगा देते।

कृतज्ञता ज्ञापन की पारंपरिक मगर दिली अदायगी के साथ विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कला सागर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सोलहवें बहु-भाषी नाट्य महोत्सव का समापन घोषित किया गया।

संपन्न हुआ एक चिरंजीवी महोत्सव एक शाश्वत आशीर्वाद के साथ – – – कि फिर मिलेंगे। आमीन।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र




हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 ☆ घर/नवगीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर/नवगीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 – घर/नवगीत ☆

 

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–मेरा घर तो, नदी किनारे

घने नीम की, छाया में था

जिस में बैठ, परिंदे दिन भर

गाना गाते थे..

–इस घर में वह, छांव कहां है?

लिपा-पुता, आँगन था मेरा

धूप, हवा, पानी की जिसमें

कमी नहीं थी..

मेरा घर तो, फूलों वाला

खुशबू वाला, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–हंस-हंस कर हम, सुबह-शाम

मिलते थे खुल कर

बिना बात की, बात नहीं थी

मेरे घर में…

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है

 

(नर्मदा की वैचारिक यात्रा में गरारूघाट पर लिखा गीत)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 25 – वेदना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  शिक्षाप्रद एवं भावनात्मक लघुकथा    “वेदना ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 25 ☆

☆ लघुकथा –  वेदना ☆

 

शहर से थोड़ी दूर अपार्टमेंट बनना शुरू हुआ। वहां पर पहले से थोड़ी दूर पर एक गरीब परिवार “सोनवा” रहता था। ठेकेदार ने उसके बारे में पता लगा वहां की देखरेख के लिए रख लिया और बदले में उसे थोड़ा बहुत काम करने को कहता। ठेकेदार अच्छी सोच वाला था। उसके लिए एक हाथ ठेला देकर बोला यहीं पर सब्जी भाजी बेचना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम्हारी रोजी रोटी चलने लगेगी।

देखते-देखते कुछ सालों में अपार्टमेंट बनकर तैयार हो गया। सभी रहवासी उसमें आकर शिफ्ट हो गए। सोनवा को एक बेटा था। क्योंकि वही दिन भर खेलता और सभी को पहचानने लगा था इसलिए सभी ने प्यार से उसका नाम प्रीतम रख दिया।

प्रीतम धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पढ़ने में होशियार था। इसी बीच ठेकेदार वहां से चला गया और सभी अपार्टमेंट वाले रहने लगे। सोनवा वहीं सब्जी का ठेला लगाता रहा। प्रीतम की पढ़ाई की फीस के लिए एक बार थोड़े बहुत पैसों की जरूरत थी। जो सोनवा के लिए इकट्ठे कर पाना मुश्किल हो रहा था। उसने सोचा कि मैंने यहां रहते रहते उम्र का पड़ाव तय कर लिया। सभी जानते पहचानते हैं। उनसे जाकर मांग लेता हूं। 25 फ्लैट वाले अपार्टमेंट में किसी ने दिया किसी ने कोई सहायता नहीं की। इसका सोनवा को कोई अफसोस नहीं था परंतु एक घर जिसको वो हमेशा अपना समझता था। उनका काम कर देता था वहां पर जाने पर मकान मालिक ने अपनी पत्नी के साथ कह दिया कि हम तुम पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम हमारा पैसा कभी नहीं लौटा पाओगे। नौकर का बेटा नौकर ही रहेगा। यह बात सोनवा की वेदना बन गई और हार्टअटैक से उसका देहांत हो गया। मरने से पहले इस परिवार के बारे में अपने प्रीतम को बताया था।

प्रीतम अपनी मां को लेकर शहर चला गया। पढ़ाई खत्म होने पर अच्छे व्यक्तित्व के कारण और उसकी योग्यता को देखते हुए अच्छी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। उन दिन जिस कंपनी में काम कर रहा था वहां पर भर्ती के लिए आवेदन पत्र जमा हो रहे  थे। और लाइन में सभी प्रतिभागी खड़े थे। नियुक्ति करने वाला और कोई नहीं प्रीतम ही था। अपार्टमेंट से वही सज्जन जो कभी नौकर का बेटा कहकर प्रीतम को अपमान किया था वह भी अपने बेटे को लेकर पेड़ के नीचे खड़े थे। बड़े होने और ऊंची पदवी के कारण वह प्रीतम को नहीं पहचान सके। प्रीतम ऑफिस में जा रहा था उसी समय वह महिला पुरुष दिखाई दिए। प्रीतम तो पहचान गया परंतु वे लोग नहीं पहचान सके। चलते चलते दोनों प्रीतम को हाथ जोड़कर खड़े हो गए और पैरों पर झुक कर बोले सर हमारे लिए जीना मुश्किल हो रहा है। कहीं से कोई आसरा नहीं है। बेटे को नौकरी पर रख लीजिए। अनसुना कर प्रीतम ऑफिस चेंबर में जाकर बैठ गए। जब लड़के का नंबर आया तो उनको बुलाया गया। तीनों को सामने खड़े देख वह अपने पिताजी की वेदना को याद कर थोड़ा परेशान और दुखी हुआ परंतु अपने ओहदे को ध्यान में रखते हुए प्रीतम ने कहा -“आंटी में वही नौकर का बेटा हूं जिसको आपने थोड़े से रुपए के लिए घर से भगा दिया था। मेरे पिताजी तो इस वेदना को सह ना सके और खत्म हो गए परंतु पिताजी का साया उठने के बाद क्या होता है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं आप दोनों को इस वेदना से मरने नहीं दूंगा। कह कर प्रीतम चेंबर से वापस निकल गए। प्रीतम को पहचान दोनों दंपत्ति शर्म और पश्चाताप से हाथ जोड़े खड़े उसको जाते देखते रहे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।।30।।

 

जो अधिभूत अधिदेव औ” यज्ञ के विज्ञ

मृत्यु समय भी मुझे याद रखते है वे तेज्ञ।।30।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।।30।।

 

Those who know Me with the Adhibhuta (pertaining to the elements), the Adhidaiva (pertaining to the gods), and Adhiyajna (pertaining to the sacrifice), know Me even at the time of  death, steadfast in मंद। ।।30।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]




हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ  ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

12.11.2019 आज कार्तिक पूर्णिमा है और हम गरारू घाट पर हैं, कहते हैं कि इसी घाट पर गरुड़ ने तपस्या की थी।

सुबह-सुबह उठकर गांव की ओर निकल गये दो पुराने मंदिरों का अवलोकन किया। शिव मंदिर इन्डो परसियन शैली में मकबरानूमा इमारत है। इसे सम्भवतः चौदहवीं पन्द्रहवीं सदी में गौड़ राजाओं ने बनवाया था और बाद में सत्रहवीं शताब्दी में गौड़ नरेश बलवंतसिंह ने इनका जीर्णोद्धार किया। चौकोर गर्भगृह में शिव  पिंडी विराजित है। दूसरा गरुड़ मन्दिर मूर्त्ति विहीन है। यह इन्डो इस्लामिक शैली में बना है। इसका भी जीर्णोद्धार राजा बलवंतसिंह ने कराया था।  हमने, पाटकर जी व अविनाश ने मंदिर में फैले कचरे को साफ करने की एक कोशिश की।

लौटकर आए तो पंडाल में कथा व्यास सुन्हैटी के पं ओम प्रकाश शास्त्री मिल गये। उनसे हमें ज्ञात हुआ कि नर्मदा पुराण कथा सबसे पहले मार्कंडेय ऋषि ने पांडवों को सुनाई थी। गरारु घाट पर कार्तिक पूर्णिमा पर मड़ई मेला भरता है। दुकानदारों के बीच आपस में दुकान की जगह को लेकर वाद विवाद होता है पर शीघ्र  मेल-मिलाप भी हो जाता है। वे सब वर्षों से उसी जगह पर दुकान लगाते हैं। सरस्वती बाई कोरी, जमुना चौधरी  की जनरल स्टोर्स की, तो दशरथ अग्रवाल की मिठाई दुकान है वे कागज में मिठाई देते हैं। अंकित पटवा और अन्य की मनिहारी की दुकान।

आगे बढ़े नर्मदा के तीरे तीरे चलते बम्हौरी गांव पहुंचे। वहां से गांव के अंदर होते हुए दोपहर को केरपानी पुल के पास पहुंचे। केरपानी गांव नर्मदा के उत्तरी तट पर है। दूर से ही एक किले के भग्नावशेष दीखते हैं। यह किला पिठौरा गांव के शासक मंगल सिंह गौड़ ने केरपानी पर आक्रमण उपरांत बनाया था। यहां केरपानी गांव के दो लोग भूपत सेन और कनछेदी लाल नौरिया परिक्रमा उठा रहे हैं। कनछेदी लाल तो चौथी बार परिक्रमा कर रहे हैं और पांचवीं परिक्रमा की आशा करते हैं।

हमने पूरे कर्मकांड को ध्यान से देखा। मुंडन उपरांत गणेश पूजन, नवग्रह पूजन, नर्मदा जल , शंकरजी आदि का पूजन हुआ, नर्मदा को झंडा चढ़ाया गया। मां नर्मदा की आरती गाई “ॐ जय जगदानंदी, मैया जय आनंदकंदी, ब्रह्मा-हरि-हर-शंकर, रेवा हरि हर शंकर, रुद्री पालन्ती।।”  फिर कन्या भोजन हुआ तत्पश्चात  ग्रामीणों के साथ हम सबने दाल, बाटी, भरता, सूजी हलुआ का भोग लगाया। सभी ने दोनों परकम्मावासियों को रुपये नारियल से विदाई दी। दोनों के परिवारों के लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से विदाई दी। ग्रामीणों ने दोने पत्तल एकत्रित कर उसमें आग लगा दी। नदी को प्रदूषणमुक्त रखने की कोशिश सराहनीय है। यहां प्रभुनारायण गुमास्ता मिले। बताते हैं कि गुमास्ता, लिखा-पढ़ी के काम की एवज,   अंग्रेजी शासन से मिली पदवी है।

यहां से हमारे साथी प्रयास जोशी भोपाल चले गए और हम पांच नदी के तीरे तीरे चलकर समनापुर पहुंचे। कार्तिक पूर्णिमा के स्नान हेतु नरसिंहपुर जिले के विभिन्न स्थानों से लोग आये थे घाट पर भीड़ थी और नदी का प्रवाह धीमा और शांत था। पास ही श्री श्री बाबाश्री जी का आश्रम था। यहां रात्रि विश्राम तय किया। बाबाश्री के सेवक को परिचय देते हुए पटवाजी के मुंह स्टेट बैंक का पदनाम निकल गया। बाबाश्री के सेवक ने फौरन टोका आप मां नर्मदा के परिक्रमावासी हैं और यही आपकी पहचान है।

शाम को निर्विकारेश्वर महादेव की आरती में सम्मिलित होने मंदिर गये तो नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई दी। लगा कि मां अपने पुत्रों को सुलाने मधुर कंठ में धीमे-धीमे लोरी सुना रही है। रात कोई नौ बजे सेवक आरती से फुर्सत हुए और फिर हम सबने खिचड़ी का सेवन कर रात्रि विश्राम इसी आश्रम में किया।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆☆

 

वे जब बाहर निकले तो उनकी आँखों में चमक, होठों पर स्मित मुस्कान, चेहरा दर्प से दीप्त और चाल में विजेता का बांकपन था. वे खुदरा मंडी में सब्जी बेचनेवालों को परास्त करके बाहर निकल रहे थे. आज पूरे चार रुपए पैंतीस पैसे बचाये. वे मानते हैं कि सब्जी खरीदना एक कला है जिसमें वे निष्णात हैं. हर सुबह उनका सामना एक ऐसे विपक्ष से होता है जो न केवल भाव ज्यादा लगाता है बल्कि तौल में दंडी भी मारता है. एक बार जमीन पर छबड़ी लगाकर बैठी बूढ़ी अम्मा से खरीदी गई ढाई सौ ग्राम भिंडी चेक कराने पर एक तौला कम निकली, तब से अतिरिक्त सावधानी रखते हैं. कुछ प्रेक्टिकल प्रॉब्लेम्स नहीं होते तो वे तराजू बाँट जेब में रखकर चलते.

उनका मानना कि देश में सबसे बड़े बेईमान व्यापारी अगर कहीं पाये जाते हैं तो वे सब्जी मंडी में पाये जाते हैं और उनसे निपटना सिर्फ वे जानते हैं. सो रोजाना, सब्जी खरीदने वे स्वयं आते हैं. उनका एक बेटा है, बड़ी फेक्ट्री में जनरल मैनेजर (परचेस) पोजीशन पर. सब्जी खरीदने के मामले में वे उस पर भी भरोसा नहीं करते. बोले – ‘शांतिबाबू, इन लाटसाब को एकबार भेजा था मंडी. ढाई रूपे की पालक की गड्डी तीन रूपये में उठा लाये. पढ़ लिख लेने से अकल नहीं आ जाती. आदमी बड़ा मनीजर हो जाये और सब्जीवाला ही लूट ले तो बेकार है ऐसी पढ़ाई. तब से सब्जी खरीदने मैं खुद जाता हूँ.’

मंडी में वे ऐसे ग्राहक हैं जिसे अपनी दुकान की ओर आता देखकर विक्रेता को खुशी नहीं होती. कुछेक सब्जीवालियाँ भाव बताने से भी मना कर देती हैं – ‘रेने दो सेठजी – तम खरीदीनी सकोगा, आगे की दुकान पे देखी लो.‘ ऐसे कमेंट्स उनके लिये तमगों की तरह हैं. उन्हें ठीक से याद नहीं कभी धनिया और मिर्च खरीद कर लिया हो. तुल जाने के बाद एक-दो गिल्की-तौरई झोले में यूँ ही डाल लेने का विधान पालते हैं. पचास-सौ ग्राम फाल्से, जामुन तो वे चखने में ही खींच देते हैं. वे उनसे सब्जी नहीं खरीदते जो छांटने नहीं देते. करीने से जमाया गया वो हरा टिंडा जो उन्हें लुभाता है जमावट बिगड़ने के डर से दुकानदार उसे देने से मना कर देता है. वे मन ही मन दुकानदार को गरियाते हुये आगे निकल जाते हैं.

हरदिन वे मंडी के मिनिमम चार राउंड लगाते है, पहले राउंड में कहाँ क्या है. दूसरे में, वे हर सब्जी का हर दुकान से ओरल कोटेशन लेकर कम्पेरेटिव स्टडी करते हैं. तीसरे राउंड में बारगैन और फ़ाइनल में खरीदी करके विजेता की मानिंद बाहर निकलते हैं. आज फिर चार रुपए पैंतीस पैसे बचाकर, चाल में विजेता का बांकपन लिये, वे बाहर निकल रहे हैं.

लेकिन आप रुकिये जनाब, पार्ट-टू बाकी है अभी. कभी-कभी वे वाईफ के इसरार पर मेगा स्टोर तक जाते हैं. यहाँ अदरक नहीं मिलता, ज़िंज़र परचेस करना पड़ता है. ब्रोकोली, ब्रिंजल्स, पोटेटो, टॉमेटो हर पीस अपने उपर चिपके प्राईस स्टीकर पर लेकर, बिलिंग काऊन्टर की ओर  ठेला धकाते हुये वे खुश हैं. फॉर्टी-टू रूपीस एक्स्ट्रा हुये तो क्या परचेसिंग मेगा स्टोर्स से जो की है. चाल में अंकल सैम की अदाओं का बांकपन लिये, वे दोनों बाहर निकल रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22 – खिचड़ी और खुचड़ ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक लघुकथा  “खिचड़ी और खुचड़। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22☆

 

☆ लघुकथा – खिचड़ी और खुचड़  

 

जब उनकी राजनीतिक खिचड़ी पक रही थी तो वे दर्द से कराह उठे, बड़े नेता थे तो लोग दौड़े और उनको अस्पताल में भर्ती कर दिया। डाक्टर ने जैसई देखा कि ये तो पैसे कमाने वाले भूतपूर्व मंत्री भी रहे हैं तो डॉक्टर की नियत खराब हो गई, झट से कह दिया गंभीर हार्ट अटैक।

नेता जी का खाना पीना बंद  खिचड़ी चालू……. चटोरी जीभ में गरीब खिचड़ी रास नहीं आई तो रात को चुपके से उनके भक्त ने गर्मागर्म बटर मसाला वाला मुर्गा सुंघा दिया, छुपके पेट भर खा गए और सो गए फिर सबेरे सबेरे खुदा को प्यारे हो गए। दूसरे दिन भीड़ उबरी। दाह संस्कार हुआ फिर पूरे खानदान और भक्तों ने बिना नमक की खिचड़ी बेमन से खायी। खानदान के जो लोग उस रात बिना नमक की खिचड़ी खाने नहीं आए उनको जाति से निकाल दिया गया।

कई भक्तों ने इच्छा जतायी थी कि जब भविष्य में खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन का दर्जा मिलेगा तो योजना उनके नाम पर चलायी जावे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765



हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 ☆ नर्मदा की आवहवा ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “नर्मदा की आवहवा”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 – नर्मदा की आवहवा ☆

बेटे ने,

सामान उठाते हुये कहा-

पापा! अपनी आदत के बोझ को

थोड़ा कम करिये

—पिता ने, हंसते हुये कहा-

बेटा! समय के उधड़े होने के बावजूद

इस झोले में मुझे

यादों का भार बिल्कुल नहीं लगता…

—मैं, तो सिर्फ इसलिये कह रहा हूँ पापा

कि जब आप पिछली बार आये थे

तो होशंगाबाद, इटारसी की

कितनी सारी सब्जियाँ लाद लाये थे

परेशानी उठाने की कोई

फालतू जरूरत नहीं है पापा

यहां बेंगलौर में,

सब मिलता है

इस बार मम्मी ने कहा-

लेकिन बेटा ! इस बार हम

करेली का गुड़,

नरसिंहपुर की मटर

और

जबलपुर के सिंघाड़े लाये हैं…

—बेटा, हँसा….

— पिता ने कहा-

मैं, क्या यह नहीं जानता कि

दुनिया में हर जगह,

हर चीज मिलती है?

लेकिन इन में नर्मदा का पानी

मिट्टी और आवहवा है

जिसके दम पर तुम

दुनिया भर में उड़ते-फिरते हो,

समझे …

पापा! आप भी बस..

—पापा ने बहू से कहा—

मेरे इस झोले को

संभाल कर रखना, संध्या!

लौटते समय मैं/

इसी झोले में

कावेरी का पानी

मिट्टी और आवहवा लेकर

भोपाल जांउगा मैं…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश