हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #25 – नये चेहरे ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नये चेहरे”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 25 ☆

☆ नये चेहरे

 लाये हैं  हम तूफान से कस्ती निकाल के

 इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के

पिछली पीढ़ी ने उनके समय में जो श्रेष्ठ हो सकता था किया, किन्तु वर्तमान में देश की राजनीति का नैतिक अधोपतन हुआ है, सारे घपले घोटाले दुनिया में हमें नीचा देखने पर मजबूर कर रहे हैं, हमारी युवा पीढ़ी ने कारपोरेट जगत में, संचार जगत में क्रांति की है, अमेरिका की सिलिकान वैली की प्रत्येक कंपनी भारतीयो के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान के बिना सफलता पूर्वक नही चलती. बहुराष्ट्रीय कंपनियो में युवाओ ने लाभ के कीर्तिमान स्थापित कर दिखायें हैं. अब बारी राजनीति की है. नये चेहरे ही बदल सकते हैं देश की राजनीति की दिशा ! राजनैतिक निर्णयो का कारपोरेट जगत पर गहरा प्रभाव पड़ता है, न केवल व्यवसायिक लाभ हानि वरन कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और देश की प्रगति भी इससे प्रभावित होती है अतः सही सोच से टैक्स, निवेश नीतियो आदि को लेकर दूरगामी राजनैतिक निर्णय जरूरी हैं.

किसी धर्म ग्रंथ में कही भी कोई गलत शिक्षा नही दी गई है, किन्तु धार्मिक अंधानुकरण व गलत विवेचना तथा अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की प्रतिस्पर्धा में भारत ही नही सारी दुनिया में सदा से झगड़े फसाद होते रहे हैं, ठीक इसी तरह प्रत्येक राजनैतिक दल का लिखित उद्देश्य आम आदमी के हितकारी कार्य करने का ही होता है, पर उसी पावन उद्देशय की आड़ में जो स्वार्थ की गंदी राजनीति खेली जाती है उससे टेलीकाम घोटाले जैसे विवादास्पद निर्णय लिये जाते हैं, खनन माफिया या भूमि माफिया सरकारी संपत्ति को कौड़ियो में हथिया लेता है.  वोट देने वाले हर बार ठगे जाते हैं. अगले चुनावो में वे चार चेहरो में से फिर किसी दूसरे चेहरे को चुनकर परिवर्तन की उम्मीद करते रह जाते हैं…. लेकिन यदि कार ही खराब हो तो ड्राइवर कोई भी बैठा दिया जावे, कार कमोबेश वैसे ही चलती है. यह हमारे लोकतंत्र की एक कड़वी सचाई है. हमें इन्ही सीमाओ के भीतर व्यवस्था में सुधार करने हैं. अन्ना जैसे नेता जब आमूल चूल संवैधानिक व्यवस्था में परिवर्तन की पहल करते हैं तो, राजनेता तक बाबा आंबेडकर की सोच से उपजी संवैधानिक व्यवस्था में रत्ती भर भी सामयिक परिवर्तन स्वीकार नही कर पाते और येन केन प्रकारेण ऐसे आंदोलन ठप्प कर दिये जाते हैं, क्योकि इस व्यवस्था में राजनेताओ के पास प्याज के छिलकों की तरह चेहरे बदलने की क्षमता है.

ऐसी स्थितियो में भी इतिहास गवाह है कि जब जब युवा, नये नेतृत्व ने झंडा संभाला है, कुछ न कुछ सकारात्मक कार्य हुये हैं. चाहे वह राजीव गांधी द्वारा की गई संचार क्रांति रही हो या क्षेत्रीय दलो के नेतृत्व में हुये राज्य स्तरीय परिवर्तन हो. गुजरात का नाम यदि आज देश के विकसित राज्यो में लिया जाता है तो इसमें नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता का बड़ा हाथ है. हमने अपने नेता में जो अनेक शक्तियां केंद्रित कर रखी हैं उसी का परिणाम है कि राजनीति आज सबसे लोकलुभावन व्यवसाय बन गया है.राजनेताओ के गिर्द जो स्वार्थी उद्योगपतियो, और बाहुबलियो की भीड़ जमा रहती है उसका बड़ा कारण यही सत्ता है. आज शुद्ध सेवा भाव से राजनीति कर रहे नेता अंगुलियो पर गिने जा सकते हैं.

हर सरकार किसानो के नाम पर बजट बनाती है पर जमीनी सच यह है कि आज भी वास्तविक किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाता है.  सरकारी सुविधाओ को लेने के लिये जो मशक्कत करनी पड़ती है उसे देखते हुये लगता है कि यदि किसान स्वयं समर्थ हो तो शायद वह ये सब्सिडी लेना भी पसंद न करे. यही कारण है कि आज सरकारी स्कूलो की अपेक्षा लोग बच्चो को निजी कांवेंट स्कूलो में पढ़ा रहे हैं, सरकारी अस्पतालो की अपेक्षा निजी अस्पतालो में भीड़ है. सरकारें आरक्षण के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण करने और वर्ग विशेष को अपना पिछलग्गू बनाने का प्रयास करती नही थकती पर क्या आरक्षण की ऐसी विवेचना संविधान निर्माताओ की भावना के अनुरूप है ? क्या इससे नये वर्ग संघर्ष को जन्म नही दिया जा रहा ?

मंहगाई सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है, आम आदमी फिर फिर से अपनी बढ़ी हुई चादर में भी अपने पैर सिकोड़ने को मजबूर हो रहा है ! व्यापक दृष्टिकोण से यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की असफलता का द्योतक ही है. राजनेताओ की नैतिकता का स्तर यह है कि बड़े से बड़े आरोप के बाद भी बेशर्मी से पहले तो उसे नकारना, फिर अंतिम संभव क्षण तक कुर्सी से चिपके रहना और अंत में हाइकमान के दबाव में मजबूरी में नैतिकता का आवरण ओढ़कर इस्तीफा देना प्रत्येक राजनैतिक दल में बहुत आम व्यवहार बन चुका है. राजनेताओ के एक गलत निर्णय से पीढ़ीयां तक प्रभावित होती है. मुफ्त बिजली, कब्जाधारी को जमीन का पट्टा, अस्थाई सेवाकर्मियो को नियमित किया जाना आदि ऐसे ही कुछ विवादस्पद निर्णय थे जो ९० के दशक में लिये गए थे, उन्होने जनता की तात्कालिक वाहवाही लूटी, चुनाव भी जीते उनकी देखादेखी अन्य राज्यो में भी यही सब दोहराया गया. इसकी अंतिम परिणिति क्या है ? देश में अराजकता का माहौल विकसित हुआ. आज बिजली क्षेत्र की कमर टूटी हुई है जिसे पटरी में लाने के लिये देश को विदेशी बैंको से अरबो का कर्जा लेना पड़ रहा है.

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में युवा चेहरो की जीत से आशा है कि राजनीति की दिशा बदलेगी. क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा, पर आशा से संसार टिका है, और मै सदा से युवाओ के आक्रोश का पक्षधर रही हूँ.  नई कोंपलें फूट चुकी हैं, देखे कि कितनी हरियाली आती है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 24 – स्त्री अभिव्यक्ती ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  शिक्षिका के कलम से एक भावप्रवण कविता / गीत  – “स्त्री अभिव्यक्ती। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 24 ☆ 

 

 ☆ स्त्री अभिव्यक्ती ☆

 

अभिव्याक्तीच्या  नावावरती, उगाच वायफळ बोंबा  हो।

चढणारीचा पाय ओढता, उगा कशाला थांबा हो।

जी sssजी र जी

माझ्या राजा तू रं माझ्या  सर्जा तू रं  ssss.।।धृ।।

 

गर्भामधी कळी वाढते, प्राण जणू तो आईची।

वंशाला हवाच दीपक , एक चालेना बाईची।

काळजास सूरी लावूनी, स्री मुक्तीचा टेंभा हो।।

जी जी रं जी…,।।१।।

 

आरक्षण दावून गाजर, निवडून येता बाई हो।

सहीचाच तो हक्क तिला,अन् स्वार्थ साधती बापे हो।

संविधानाची पायमल्ली की, स्री हाक्काची शोभा हो।

जी जी रं जी….।।३।।

 

स्री अभिव्यक्ती बाण विषारी,घायाळ झाले बापे ग।

सांग साजणी कशी रुचावी ,स्त्रीमुक्तीची नांदी ग।

कणखर बाणा सदा वसू द्या , नको भुलू या ढोंगा हो।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।

ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌।।29।।

 

जरा मरण से मुक्ति हित जो मेरे आधीन

करते यत्न वे बरतते अस्य ब्रम्ह में लीन।।29।।

 

भावार्थ :  जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।।29।।

 

Those who strive for liberation from old age and death, taking refuge in Me, realise in full that Brahman, the whole knowledge of the Self and all action.।।29।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #22 – जहर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 21☆

☆ जहर ☆

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”,  ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़बान पर होता है ज़हर। ज़बान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगी भर टीसता है। ..जो ज़िंदगी भर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.31 बजे, 2.8.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 25 – लघुकथा – चुनाव के बाद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की लघुकथा में  डॉ परिहार जी ने चुनाव के पूर्व एवं चुनाव के बाद नेताजी के व्यवहार परिवर्तन का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है।  यह  किस्सा तो हर के बाद का है यदि जीत के बाद का होता तो भी शायद यही होता ? ऐसी सार्थक लघुकथा  के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनकी  का ऐसे ही विषय पर एक लघुकथा  “चुनाव के बाद”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 25 ☆

☆ लघुकथा – चुनाव के बाद ☆

 

महान जनसेवक और हरदिल-अज़ीज़ नन्दू बाबू चुनाव में उम्मीदवार थे। आठ दिन में वोट पड़ने वाले थे। नन्दू बाबू के घर में चमचों का जमघट था—-तम्बाकू मलते चमचे, चाय पीते हुए चमचे, सोते हुए चमचे, बहस करते चमचे, मस्का लगाते हुए चमचे। दीवारों से तरह तरह की इबारतों वाली तख्तियां टिकीं थीं—-‘नन्दू बाबू की जीत आपकी जीत है’, ‘नन्दू बाबू को जिताकर प्रजातंत्र को मज़बूत कीजिए।’

एकाएक नन्दू बाबू के सामने उनकी पत्नी, आठ साल के बेटे का हाथ थामे प्रकट हुईं। उनके मुखमंडल पर आक्रोश का भाव था। चमचों से घिरे पति को संबोधित करके बोलीं, ‘सुनो जी, तुमने इन छोटे आदमियों को खूब सिर चढ़ा रखा है। उस दो कौड़ी के हरिदास के लड़के ने बल्लू को मारा है।’

नन्दू बाबू उठकर पत्नी के पास आये। मीठे स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करती हो गुनवन्ती? वक्त की नज़ाकत को पहचानो। तुम राजनीतिज्ञ की बीवी होकर ज़रा भी राजनीति न सीख पायीं। यह वक्त इन बातों पर ध्यान देने का नहीं है।’

इतने में एक चमचे ने खबर दी कि बाहर हरिदास खड़ा है। नन्दू बाबू बाहर गये। हरिदास दुख और ग्लानि से कातर हो रहा था। बोला, ‘बाबूजी, लड़के से बड़ी गलती हो गयी। उसने छोटे बबुआ पर हाथ उठा दिया। लड़का ही तो है, माफ कर दो।’

नन्दू बाबू हरिदास की बाँहें थामकर प्रेमपूर्ण स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हो हरिदास? उन्नीसवीं सदी में रह रहे हो क्या? अब कौन बड़ा और कौन छोटा? सब बराबर हैं। और फिर बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’

चुनाव का परिणाम निकला। नन्दू बाबू चारों खाने चित्त गिरे। सब मौसमी चमचे फुर्र हो गये। स्थायी चमचे दुख में डूब गये। घर में मनहूसी का वातावरण छा गया।

परिणाम निकलने के दूसरे दिन हरिदास अपने घर में लेटा आराम कर रहा था कि गली में भगदड़ सी मच गयी। इसके साथ ही कुछ ऊँची आवाज़ें भी सुनायी पड़ीं। उसके दरवाज़े पर लट्ठ का प्रहार हुआ और नन्दू बाबू की गर्जना सुनायी पड़ी, ‘बाहर निकल, हरिदसवा! तेरे छोकरे की यह हिम्मत कि मेरे लड़के पर हाथ उठाये?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से ☆ पाठशाला ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पाठशाला अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से 

☆ पाठशाला ☆

 

लगती है परिंदों की पाठशाला ,

वृक्ष की कक्षाओं में ।

गूँज उठती हैं हर दिशा ,

इस पाठ के दुहराव में ।

 

चीं -चीं करती माँ चिड़ियाँ ,

क्या कुछ नन्हे को सिखलाती है ।

कुछ आरोहित स्वर में ,

घटनाक्रम समझाती है ।

 

मैं खिड़की से देख दृश्य ,

भ्रमित हर बार हो जाती हूँ ।

इतने शब्द है मेरे पास ,

पर ना अंश को समझा पाती हूँ ।

 

नन्हे परिन्दें माँ की सीख

आत्मसात कर जाते है ।

अंश मेरी सीख पर

प्रश्न चिन्ह लगाते है ।

 

क्या मस्तिष्क का विकसित होने

विकास की निशानी है ।

या परिदों सा जीवन जीना ,

जीवन  की कहानी है ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # सात ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # सात ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

11.11.2019 सुबह-सुबह घुघरी से यात्रा पुनः प्रारंभ हुई। नदी किनारे रास्ता सफर करने लायक न था सो गांव से होकर निकले।

कोई दो किलोमीटर दूर एक गौड़ परिवार के आशियाने में रुके। उसने सीताफल खाने को दिया और भैंस का ताजा दूध पीने को। उनके भोजन में शाकाहार और मांसाहार दोनों हैं। बटेर, खरगोश और मछली भोजन हेतु आसानी से मिल जाते हैं। आगे बढ़े  तो अन्नीलाल लोधी पत्नी व दो पुत्रों के साथ अपने खेत में आलू बोते दिखे।  उन्होंने नर्मदे हर के साथ हमारा स्वागत किया और चाय पिलाई ।

डांगर टीले पार करते हुए महादेव पिपरिया गांव पहुंचे। गांव में नर्मदा तट पर भगवान शंकर की विशालकाय लिंग है और यह  शिव मंदिर इस गांव की पहचान बन गया है।  लोग इसे मोटा महादेव भी कहते हैं। अन्य देवी देवताओं के  भी मंदिर हैं पर वे अपेक्षाकृत नये हैं।

यहां से हमें पुनः नदी के किनारे पर चलने का मौका मिला। उत्तरी तट की ओर एक छोटी पर्वत माला ने हमें आकर्षित किया। ग्रामीणों ने बताया यह झिल्पी ढाना है, भोपाल तक गई है। हमें मैकलसुता के दादा विन्ध्य पर्वत की एक और श्रृंखला के दर्शन हो गये। पौराणिक कथाओं के अनुसार नर्मदा का उद्गम स्थल मैकल, विन्ध्य पर्वत का पुत्र है।  कुछ दूर चले होंगे कि एक अद्भुत चट्टाननुमा आकृति ने आकृष्ट किया। समीप जाकर देखा तो समझ में आया कि यह करोड़ों वर्ष पूर्व किसी प्राकृतिक हलचल का साक्षी वृक्ष का जीवाश्म है।

नदी किनारे खेती-बाड़ी की तैयारियों में अब तेजी दिखने लगी है। जगह जगह किसानों ने तट पर बबूल आदि कंटीले वृक्षों की बारी लगा दी है तो कहीं कहीं बोनी के पहले स्प्रिकंलर से सिंचाई भी  हो रही है। रास्ता फिसलन भरा होने से सम्भल कर चलना पड़ता है। कहीं कहीं छोटे छोटे नाले भी हैं वहां जमीन दलदली है, हमारे एक साथी असावधानी वश ऐसे ही दलदल में फंस गये और किसी तरह बाहर निकलने में सफल हुए।

नदी किनारे चलते चलते-चलते हम करहिया गांव पहुंचे। नदी का तट रेतीला था अतः हम सबने स्नान किया और समीप ही  ग्राम पंचायत द्वारा निर्मित सामुदायिक भवन में विश्राम हेतु व्यवस्था की। गांव का मिडिल स्कूल भी सामने था व स्कूल की शिक्षिका रजनी मेहरा से अपना प्रयोजन बता बच्चों से गांधी चर्चा की इच्छा जताई वे सहर्ष तैयार हो गई। मैंने और प्रयास जोशी ने मोर्चा संभाला बच्चों को गांधी जी की जीवनी और संस्मरण सुनाए। सामने प्राथमिक शाला के बच्चों ने अविनाश को घेर लिया और पढ़ाने का आग्रह किया। बच्चों की बात भला कौन टालता है। हमने स्मार्ट कक्षा का टीव्ही देखा। कमलेश पटैल, शिक्षक ने बताया कि बच्चे स्कूल आते नहीं हैं और वे स्मार्ट टीवी से कार्टून आदि दिखाकर बच्चों को स्कूल आने आकर्षित करते हैं।

मेरे पास गांधी जी एक पुस्तक ‘ रचनात्मक कार्यक्रम’ बची थी वह मैंने कमलेश पटेल को दे दी।  उधर सामुदायिक भवन में हमें मुन्नालाल लोधी मिल गये, उन्होंने दोपहर के भोजन दाल बाटी की व्यवस्था कर दी। हमने कुछ देर आराम किया और नदी किनारे चलते चलते गरारु घाट पहुंचे। यहां तट पर नरेश लोधी मिल गये। वे गांव में नर्मदा पुराण कथा के आयोजन में शामिल हैं। हमें आग्रह पूर्वक चांदनी पंडाल के नीचे रात्रि विश्राम हेतु रोक लिया। बिछाने को गद्दे लेकर हम लेट गये। जब करहिया में दाल बाटी बनी तो अविनाश के पास घी था उसे गुड़ में मिलाकर चूरमा बना लिया था। यहीं चूरमा हमारा डिनर था ।

गरारू तट से नर्मदा की कल-कल करती प्रवाहमान थी, कल-कल की यह ध्वनि केवल घाट पर ही सुनाई देती थी। उधर आकाश में चौदहवीं का चांद अपनी छटा बिखेरते हुए दर्शन दे रहा था। हमने कोई एक बजे रात उसे अपने कैमरे में कैद किया।आज परिक्रमा में तट पर सोने का आनंद लिया।

 

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हिन्दी साहित्य – कविता/ग़ज़ल ☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

 

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य  की ,गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी एक आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल  “मेरे घर का मंज़र देखना ”. )

 

☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆

 

तुम कभी  आकर के मेरे घर  का मंज़र देखना,

दर्द के बिस्तर पे  फ़ैली ग़म की चादर देखना।

 

रात की तन्हाई में जब मैं लिखूंगी खत कभी,

आग में लिपटे  हुए  अक्षर उठाकर देखना।

 

खुद समझ जाओगे तुम पीडा मेरे मन की जनाब,

एक पल मेरी जगह पर खुद को लाकर देखना।

 

आईनो को छोडकर खुदको कभी तन्हाई में,

दीन-ओ-ईमान की मूरत बना कर देख्नना।

 

लोग धोखा खायेंगे इस बार भी ‘शुभदा’ सुनो

खोखली मुस्कान चेहरे पर सजाकर देखना।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ।।28।

 

किन्तु द्वन्द से मुक्त जो सदाचारी सज्ञान

नष्ट पाप हो मुझे ही जपते ईश्वर जान।।28।।

 

भावार्थ :  परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।।28।

 

But those men of virtuous deeds whose sins have come to an end, and who are freed from the delusion of the pairs of opposites, worship Me, steadfast in their वोस। ।।28।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  मृत्यु!

मृत्यु क्या है..?

फोटो का फ्रेम में टँक जाना,

जीवन क्या है…?

फ्रेम बनवाना, फोटो खिंचवाना,

एक सिक्के के दो पहलू हैं,

कभी इस ओर आना

कभी उस पार जाना…!

आजका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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