मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 22 – उत्तरायण ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “उत्तरायण.  सुश्री प्रभा जी की कविता  में जीवन के उत्तरायण की जो कल्पना की गई है वह वास्तव में कल्पना से परे है।  ऐसी कविता की कल्पना करने  के पश्चात कविता रचने के मध्य की प्रक्रिया  निश्चित ही कवि को दार्शनिक भाव से परिपूर्ण करने की क्षमता रखती है।  काल के सम्मुख कोई टिक नहीं सकता और उस पर कविता  रचने के लिए काल के कपाल पर  लिखने जैसा है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 22 ☆

☆ उत्तरायण ☆ 

माहीत नाही यापुढचं
आयुष्य कसं असेल?
वय उतरणीला लागल्यावर
आठवतात
तारुण्यातले अवघड घाट
वळण-वळसे…
स्वप्नवत्‌ फुलपंखी
अभिमंत्रित वाटा…
ठरवून थोडीच लिहिता येते
आयुष्याची कादंबरी?
काय चूक आणि काय बरोबर
हेही कळेनासं होतं
काळाच्या निबिड अरण्यातले सर्प
भिववतात मनाला
कुठल्या पाप-पुण्याचा
हिशेब मागेल काळ
मनात फुलू पाहताहेत
आजही कमळकळ्या
त्या उमलू द्यायच्या की
करायचं पुन्हा परत
भ्रूणहत्येचं पाप?
की निरीच्छ होऊन
उतरायचं नर्मदामैय्येत
मगरमत्स्यांचं भक्ष्य होण्यासाठी ?

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2 – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆ – अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण पर  प्रस्तुत है  श्री अरुण डनायक  जी का नर्मदा यात्रा  के संस्मरण की अगली कड़ी । ) 

ई-अभिव्यक्ति की और से सम्पूर्ण दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण के लिए शुभकामनाएं। 

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2  – श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से ☆

 

अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के साथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों, तो समझ लीजिए कि वे हमीं हैं – कांता और मैं।”
“कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साथ का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जन्म में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जन्म से करेंगे।”
श्रद्धेय अमृत लाल वेगड़ की पुस्तक तीरे-तीरे नर्मदा से।
वेगड़ बापू से तो नहीं मिला पर बा कांताजी के आशीर्वाद पिछली यात्रा शुरु करने से पहले लिये थे।अब जब कल से यह यात्रा दुबारा शुरु कर रहा हूं तो सौन्दर्य की नदी नर्मदा और तीरे तीरे नर्मदा के उन अंशों को बारम्बार  पढ़ रहा हूं जिनका संबंध हमारी यात्रा से होगा। रचनात्मक कार्यों की सूची में अब एक काम और जुड़ गया है , घाटों की सफाई। भगवान शक्ति दे और अमृतस्य नर्मदा के सृजक आदरणीय वेगड़ बापू आशीर्वाद दें कि यह संकल्प निर्विध्न पूरे हों। कल शरद से बात करूंगा। वे संत स्वरूपा ऋषि तुल्य आत्मा अमृत लाल वेगड़ के सुपुत्र हैं और मेरे मित्र भी। उनसे व दिलीप से मेरा परिचय 2000 से है जब मैं भारतीय स्टेट बैंक की कमला नेहरु नगर शाखा का मुख्य प्रबंधक था और दोनों भाई हमारे  ग्राहक। एकाधिक बार उनके घर गया पर बा-बापू से नहीं मिला। लेकिन अब जब परिक्रमा करता हूं और उनकी लिखी किताबें पढ़ता हूं तो लगता है वेगड़ बापू बगल में खड़े अपनी बूढ़ी आंखों से मुझे निहार रहे हैं और कह रहे हैं बेटा तू चलता चल , निर्भय होकर परकम्मा कर  मैं हूं न तेरे साथ।
नर्मदे हर!

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।11।।

बलवानों में बल हूँ मैं,राग द्वेष प्रतिकूल

सब तत्वों में कामना धर्मभाव अनूकूल।।11।।

भावार्थ :  हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।।11।।

 

Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna!।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆ पथरीली आँखें ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पथरीली आँखें ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆

☆ पथरीली आँखें

 

जब खुश होने पर

तुम्हारी आँखों में चमक न आये,

जब ग़म में डूबने पर

तुम न ही पलकें मीच सको,

न ही आंसू बहा सको,

जब तुम्हारी आँखें

पत्थर हो जाएँ,

तब तुम

डुबा देना ख़ुद को

जुस्तजू की चाशनी में…

 

सुनो,

इस जुस्तजू की इस चाशनी में

घुल जाएगा आँखों का

सारा पथरीलापन

और उन आँखों में आकर बस जायेंगे

जोश के जुगनू!

 

इन जुगनुओं की रौशनी से

तुम यूँ इतराकर चलना

कि सारी दुनिया

तुम्हें देखती ही रह जाए

और दाँतों तले उंगली दबा ले!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12 ☆संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  जिसकी 30 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं पर श्री विवेक जी  की चर्चा ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी 

पुस्तक – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी

हिन्दी अनुवाद –  The monk who sold his Ferari का  हिंदी संस्करण

लेखक – रोबिन शर्मा

मूल्य –  199 रु

किताब जिसकी दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिकी  

 

☆ संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

जूलियन मेंटले एक वकील थे, जो अनियमित जीवन शैली से निराश हो चुके थे. बाद में उन्होने अपने पेशे, धन दौलत घर को त्याग कर हिमालय की कन्दराओ में सिवाना के संतो के साथ ज्ञान प्राप्त किया. उनके जीवन का निचोड़ बताती यह पुस्तक जिसे दुनिया के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखको में से एक राबिन शर्मा ने लिखा है और जिस किताब की दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिक चुकी हैं पठनीय है व जीवन दर्शन सिखाती है. किताब बताती है कि कैसे हम अपने जीवन में आनंद का विस्तार कर सकते हैं. जीवन के उद्देश्य और आवश्यकता को समझ सकते हैं. जीवन में स्वयं अपने पर कैसे शासन किया जावे, अपने समय को किस तरह सुनियोजित करना चाहिये, तथा अपने रिश्तो को किस तरह निभाना चाहिये तथा जीवन को उसकी परिपूर्णता में कैसे जीना चाहिये यह इस किताब को पढ़कर ज्ञात होता है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 22 – रंगोली की दिवाली ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  एवं भावुक लघुकथा “रंगोली की दिवाली”

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 22 ☆

 

☆ रंगोली की दिवाली ☆

 

रामप्रताप अपने उसूलों के पक्के शिक्षक। सारा जीवन अनुशासन जाति धर्म को मानते हुए, अपने हिसाब से जीने वाले व्यक्ति थे। कड़क मिजाज के होने के, कारण उनकी धर्मपत्नी शांति देवी भी कभी मुंह खोल कर उनका विरोध नहीं कर सकती थी, चाहे वह सही हो या गलत अपने पतिदेव का ही साथ देती आई। शांति देवी जैसा नाम वैसा ही उनका स्वभाव बन चुका था।

रामप्रताप और शांति देवी के एक बेटा था। जिसका नाम सुधीर था। बड़ा होने पर वह पढ़ाई के सिलसिले में बाहर चला गया था। दीपावली की साफ सफाई चल रही थी। रामप्रताप की पुस्तकों की अलमारी साफ करते समय शांति देवी के हाथ एक पत्र लग गया। बहुत पुरानी चिट्ठी थी, उनके बेटे के हाथ की लिखी हुई, लिखा था: पिताजी मैंने एक गरीब अपने से छोटी जाति की कन्या जिसका नाम ‘रंगोली’ है, शादी करना चाहता हूँ। हम दोनों साथ में पढ़ते हैं, और शायद नौकरी भी साथ में ही करेंगे। आपका आशीर्वाद मिले तो मैं रंगोली को साथ लेकर घर आ जाऊं। यदि आपको पसंद हो तो मैं घर आऊंगा। अन्यथा मैं और रंगोली यहाँ पर कोर्ट मैरिज कर लेंगे। शांति देवी पत्र को पढ़ते-पढ़ते रोने लगी। क्या? हुआ जो अपनी पसंद से शादी कर लिया, खुश तो है क्यों नहीं, आने देते, माफ क्यों नहीं कर देते, अनेक सवाल उसके मन पर आने लगे। पत्र को हाथ में छुपा कर अपने पास रख ली, और सारा काम करने लगी।

दिन बीता दीपावली भी आई और त्यौहार भी खत्म हो गया। परन्तु, खुशियाँ जैसे रूठ गई थी। दोनों इस चीज को समझते थे। दो-चार दिन बाद एक दिन सुबह चाय पीते-पीते शांति हिम्मत कर अपने पति से बोली “आज मुझे बेटे बहू की बहुत याद आ रही है। माफ कर दीजिए ना उन्हें, घर बुला लीजिए” परन्तु रामप्रताप कुछ नहीं बोले। अपने आप गुमसुम घर से निकल गए। उनके मन में कुछ और बातें चल रही थी। जो वह शांति देवी को बताना नहीं चाह रहे थे। जाते-जाते कह गए मैं शाम को देर से आऊंगा। तुम खाना खाकर अपना काम कर लेना, मेरा इंतजार नहीं करना। दिन में खाना खाकर शांति देवी अपने कमरे में सोने चली गई।

संध्या समय अंधेरा हो आया था। सोचा चल कर दिया बत्ती लगा ले, और यह कब तक आएंगे, जाने कहाँ गए हैं? सोचते-सोचते अपने काम पर लग गई। भगवान के मंदिर में आरती का दिया लगा रही थी तभी, बाहर से अंग्रेजी बाजे की आवाज आई। लग रहा था जैसे दरवाजे पर ही बज रहा हो। जल्दी-जल्दी चल कर उसने दरवाजा खोला। सामने गेट पर बहुत बड़ी सुंदर सी रंगोली सजी हुई थी, और शहनाई और बाजे बज रहे थे। उसे कुछ समझ नहीं आया। रंगोली के बीचो-बीच थाली में दिए की रोशनी दीपक लिए उसकी बहू’ रंगोली ‘सोलह श्रृंगार कर खड़ी थी। साथ में बेटा भी था।

रामप्रताप ने कहा – “दीपावली नहीं मनाओगी!! रंगोली का स्वागत कर लक्ष्मी को अंदर ले आओ।“

आज भी शांति देवी मुँह से कुछ ना बोली।

बस मुस्कुराते हुए आँखों से आँसू बहाते पूजा की थाली लेकर अपने रंगोली का स्वागत कर उसे अंदर ले आई। दीपावली का त्यौहार फिर से आज रोशन हो गया। बहुत खुश हो अपने पति से बोली – “मैं आज तक आपको समझ ना पाई दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाई।” यह कहते हुए वह अपने पति के चरणों पर झुक गई।

शुभ दीपावली!

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 7– ☆ कविवर्य बा. भ. बोरकरांची कविता ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “कविवर्य बा. भ. बोरकरांची कविता”.  पद्मश्री सम्मान से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी एवं कोंकणी भाषा के साहित्यकार स्व बालकृष्ण भगवन्त बोरकर,  बा भ बोरकर के नाम से जाने जाते हैं। थे। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 7 ☆

☆ कविवर्य बा. भ. बोरकरांची कविता☆ 

काव्यदिंडीचा आजचा दिवस उजाडला तोच मुळी कविवर्य बा. भ. बोरकरांच्या या कवितेच्या आठवणीत. आज दिवसभर मन ह्या कवितेभोवती पिंगा घालत होतं. गोव्याच्या नितांतसुंदर निसर्गभूमीत वाढलेल्या ह्या कविश्रेष्ठाचं हे तितकंच सुंदर मुक्तायन इतकं सहजपणे मनात रूजतं ना, की खरंच चराचराची निर्मिती करणा-या त्या सृष्टीकर्त्याच्या सृजनातलं अचंबित  करणारं वैविध्य आणि सौंदर्य बघून नतमस्तक व्हावंसं वाटतं ! बकुळीचा गंध प्राजक्ताला नाही, की गुलाबाचा राजसी थाट तगरीला नाही, मोराचा डौल बदकाला नाही, की कोकिळेच्या स्वरातला गोडवा कावळ्याला नाही, मानवाची निर्मिती तर किती असंख्य मूषीतली…झाडं, पानं, फुलं, प्राणी पक्षी डोंगरमाथे, कडेकपारी, वाटावळणं या सा-यांनी चितारलेला ‘त्या ‘चित्रकाराचा विशाल कॅनव्हास आणि त्यात ‘त्याने’ केलेली विविध रंगंाची अनुपम पखरण आणि अत्यंत खुबीने प्रत्येकाचं अबाधित राखलेलं वेगळेपण केवळ थक्क करणारं ! त्याचबरोबर माणसाला श्रेष्ठत्व बहाल करून सौंदर्याचा मनमुराद आस्वाद घ्यायला दिलखुलासपणे बहाल केलेली मोकळीक तर काळोकाळ ‘ त्याच्या ‘ ऋणातच राहायला भाग पाडणारी !

माझं काव्य दिंडीतलं पाऊल बोरकरांचं बोट धरून !

☆ कविवर्य बा. भ. बोरकरांची कविता☆ 

प्रति एक झाडा, माडा त्याची त्याची रूपकळा
प्रति एक पाना, फुला त्याचा त्याचा तोंडावळा

असो पाखरू, मासोळी, जीव, जीवार, मुंगळी
प्रत्येकाची तेवठेव काही आगळीवेगळी

असो ढग, असो नग, त्याची अद्रुत रेखणी
जी जी उगवे चांदणी तिच्या परीने देखणी

उठे फुटे जी जी लाट तिचा अपूर्वच थाट
फुटे मिटे जी जी वाट तिचा अद्वितीय घाट

भेटे जे जे त्यात भरे अशी लावण्याची जत्रा
भाग्य केवढे! अपुली चाले यातूनच यात्रा

~बा भ बोरकर

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #22 – अर्घ्य सागरास ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “अर्घ्य सागरास”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 22 ☆

 

☆ अर्घ्य सागरास ☆

डोंगराला अभिषेक आहे घालतो पाऊस
किती दिस झाले तरी नाही घागरी या ओस
कातळाच्या चिरामधे कुणी पेरला कापूस
वाती सोडल्याचा होतो आहे समईला भास
काळ्या मेघाची तुटली शुभ्र मोत्यांची ही माळ
टपटप मातीवर मोती सारे रानोमाळ
कुणी अत्तर सांडले आला मातीला या वास
                 डोंगराला अभिषेक आहे…
डोंगराच्या माथ्यावर पहा पसरल्या गारा
सूर्य किरण पडता जसा चमकतो पारा
वाटे डोंगर म्हातारा झाले पांढरे हे केस
                 डोंगराला अभिषेक आहे…
झाला डोंगर सरडा त्याने बदलला रंग
चार दिसातच झाले त्याचे हिरवे हे अंग
त्याचा हिरवा पोषाख आणि हिरवाच श्वास
                 डोंगराला अभिषेक आहे…
कुठे निघाला पाऊस अशी गळा-भेट घेत
नदीकाठच्या पानांनी किती उंचावले हात
निळी नागमोडी नदी देई अर्घ्य सागरास
                 डोंगराला अभिषेक आहे…

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।।10।।

 

बुद्धिमान की बुद्धि हूँ तेजस्वी का तेज

सब भूतों के जन्म हित, काम भाव अभिलेख।।10।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।।10।।

 

Know Me, O Arjuna, as the eternal seed of all beings; I am the intelligence of the intelligent; the splendour of the splendid objects am I!।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 4. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  4.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चारवाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद भय, प्राणरक्षा और सत्तालिप्सा के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति श्रावण मास में कई मुस्लिमों से शिव जी का जलाभिषेक कराती है। अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। गैर हिंदू घरों की अनेक महिलाएँ पारिवारिक समस्याओं के निदान के लिए हिंदू तीज त्यौहार प्रत्यक्ष या छिपे तरीके से मनाती हैं और मंत्र, श्लोक, सूक्त का पाठ करती हैं। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी मिशनरियों के इसी एजेंडा का शिकार हुआ। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…….5

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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