आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ।।3।।

 

लोग सहस्त्रों में कोई करता एक प्रयत्न

मुझे जानता तत्वतः कोई किंतु नर रत्न।।3।।

 

भावार्थ :  हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है।।3।।

 

Among thousands  of  men,  one  perchance  strives  for  perfection;  even  among  those successful strivers, only one perchance knows me in essence.।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 14 ☆ पहचान ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पहचान”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 14 ☆

☆ पहचान  

कभी महकती हूँ,

कभी चहकती हूँ;

एक दुनिया खोयी है,

एक दुनिया पायी है!

 

अँधेरे पीछे छूट रहे हैं,

खुशियों के झरने फूट रहे हैं;

कभी तन्हाई थी,

अभी रौशनाई है!

 

अमावस्या ढल रही है,

धूप निकल रही है;

आँखें बनी हैं महताब,

चाल में हैं कई आफताब!

 

ए साईं! तू ही है रखवाला!

ए मौला! इस  रूप में तू ने ही ढाला!

मेरी जब से खुद से पहचान हुई,

दुनिया लग रही है नई नई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 2. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज दूसरा शब्ददीप ☆

आज बलि प्रतिपदा है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि। देश के अनेक भागों में बोलचाल की भाषा में इसे पाडवा कहते हैं।

शाम के समय फिर बाज़ार में हूँ। बाज़ार के लिए घर से अमूमन पैदल निकलता हूँ। दो-ढाई किलोमीटर चलना हो जाता है, साथ ही पात्र-परिस्थिति का अवलोकन और खुद से संवाद भी।

दीपावली यानी पकी रसोई के दिन। सोचता हूँ फल कुछ अधिक ले लूँ ताकि पेट का संतुलन बना रहे। मंडी से फल लेकर मेडिकल स्टोर की ओर आता हूँ। एक आयु के बाद फलों से अधिक बजट दवाइयों का होता है।

सड़क खचाखच भरी है। दोनों ओर की दुकानों ने सड़क को अपने आगोश में ले लिया है या सड़क दुकानों में प्रवेश कर गई है, पता ही नहीं चलता। दुकानदार मुहूर्त की बिक्री करने में और ग्राहक उनकी बिक्री करवाने में व्यस्त हैं। जहाँ पाँव धरना भी मुश्किल हो उस भीड़ में एक बाइक पर विराजे ट्रिप्सी ( ट्रिपल सीट का यह संक्षिप्त रूप आजकल खूब चलन में है)  मतलब तीन नौजवान गाड़ी आगे ले जाने की नादानी करना चाहते हैं। कोलाहल में हॉर्न की आवाज़ खो जाने से कामयाबी कोसों दूर है और वे बुरी तरह झल्ला रहे हैं। भीड़ मंथर गति से आगे बढ़ रही है। देह की भीड़ में मन का एकांत मुझे प्रिय है। मन खुद से बातें करने में तल्लीन है और देह भीड़ के साथ कदमताल।

किर्रररर .. किसी प्राणी के एकाएक आगे आ जाने से कोई बस ड्राइवर जैसे ब्रेक लगाता है, वैसे ही भीड़ की गति पर विराम लग गया। कौतुहलवश आँखें उस स्थान पर गईं जहाँ से गति शून्य हुई थी। देखता हूँ कि दो फर्लांग आगे चल रही लगभग अस्सी वर्ष की एक बूढ़ी अम्मा एकाएक ठहर गई थीं। अत्यंत साधारण साड़ी, पैरों में स्लीपर, हाथ में कपड़े की छोटी थैली। बेहद निर्धन परिवार से सम्बंध रखने वाली, सरकारी भाषा में ‘बीपीएल’ महिला। हुआ यों कि विपरीत दिशा से आती उन्हीं की आयु की, उन्हीं के आर्थिक वर्ग की दूसरी अम्मा उनके ठीक सामने आकर ठहर गई थीं। दोनों ओर का जनसैलाब भुनभुना पाता उससे पहले ही विपरीत दिशा से आ रही अम्मा भरी भीड़ में भी जगह बनाकर पहली के पैरों में झुक गईं। पूरी श्रद्धा से चरण स्पर्श किये।

पहली अम्मा के चेहरे पर मान पाने का नूर था।  स्मितहास्य दोनों गालों पर फैल गया था। हाथ उठाकर पूरे मन से आशीर्वाद दिया। प्रणाम करने वाली ने विनय से ग्रहण किया। दोनों अपने-अपने रास्ते बढ़ीं, भीड़ भी चल पड़ी।

दीपावली की धोक देना, प्रतिपदा को मिलने जाना, प्रणाम करने की परम्पराएँ जाने कहाँ लुप्त हो गईं! पश्चिम के अंधानुकरण ने सामासिकता की चूलें ही हिलाकर रख दीं। ‘कौवा चला हंस की चाल’.., कौवा हो या हंस हो, हरेक की दृष्टि में दोनों का संदर्भ भिन्न-भिन्न हो सकता है पर संदर्भ से अधिक महत्वपूर्ण है  दोनों का होना।

वर्तमान में सर्वाधिक युवाओं का देश, भविष्य में सर्वाधिक वृद्धों का होगा। परम्पराओं की तरह उपेक्षित वृद्ध या वृद्धों की तरह उपेक्षित परम्पराएँ!  हम अपनी परम्पराओं को धोक देंगे, उनका चरणस्पर्श करेंगे, उनसे आशीर्वाद ग्रहण करेंगे या ‘हाय’ कहकर ‘बाय’ करते रहेंगे?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 11 ☆बेनजीर भुट्टो..मेरी आप बीती”  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है पुस्तक “बेनजीर भुट्टो..मेरी आप बीती”  पर  श्री विवेक जी  की चर्चा ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 11  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – बेनजीर भुट्टो..मेरी आप बीती

पुस्तक – बेनजीर भुट्टो..मेरी आप बीती

हिन्दी अनुवाद –  अशोक गुप्ता और प्रणय रंजन तिवारी

मूल्य –  225 रु

प्रकाशक – राजपाल प्रकाशन, दिल्ली

☆ डाटर आफ द ईस्ट – बेनजीर भुट्टो- मेरी आप बीती– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

पाकिस्तान से हमारी कितनी भी दुश्मनी क्यो न हो, हमेशा से वहाँ की राजनीति, लोगों और संस्कृति भारतीयो की रुचि के विषय रहे हैं. यही वजह है कि  बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा का हिन्दी रूपांतर राजपाल पब्लिकेशन्स ने प्रकाशित किया. काश्मीर के नये हालात ने मुझे अपने बुकसेल्फ से यह पुस्तक निकाल कर एक बार पुनः नये सिरे से पढ़ने के लिये प्रेरित किया. मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का हिन्दी अनुवाद अशोक गुप्ता और प्रणय रंजन तिवारी ने किया है. पब्लिक फिगर्स द्वारा आत्मकथा लिखना पुराना शगल है, डाटर आफ द ईस्ट, शीर्षक से  बेनजीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा १९८८ में लिखी थी, जिसमें मार्क सीगल ने उनके साथ मिलकर १९८८ से २००७ तक के घटनाक्रम को जब वे पाकिस्तान वापस लौटी को जोड़ा. अंततोगत्वा उनकी हत्या हुई. किताब बताती है कि पाकिस्तान के हालात हमेशा से अस्थिर व चिंताजनक रहे हैं. मेरे पिता की हत्या, अपने ही घर में बंदी, लोकतंत्र का मेरा पहला अनुभव, बुलंदी के शिखर छूते आक्सफोर्ड के सपने, जिया उल हक का विश्वासघात, न्यायपालिका के हाथो मेरे पिता की हत्या, मार्शल ला को लोकतंत्र की चुनौती, सक्खर जेल में एकाकी कैद, कराची जेल में अपनी माँ की पुरानी कोठरी में बंद, सब जेल में अकेले दो और वर्ष, निर्वासन के वर्ष, मेरे भाई की मौत, लाहौर वापसी और १९८६ का कत्लेआम, मेरी शादी, लोकतंत्र की नई उम्मीद, जनता की जीत, प्रधानमंत्री पद और उसके बाद, उपसंहार, इन उपशीर्षको में बेनजीर भुट्टो ने अपनी पूरी बात रखी है.  पुस्तक में वे लिखती हैं कि आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर पाकिस्तान को खतरे में डाल रहे हैँ… फौजी हुकूमत छल कपट और षडयंत्र के खतरनाक खेल खेलती है.. किंबहुना बेनजीर के वक्त से अब पाकिस्तान में आतंक और पनपा है, वहां के हालात बदतर हो रहे हे हैं, जरूरत है कि कोई पैगम्बर आये जो  जिहाद को सही तरीके से वहां के मुसलमानो को समझाये, अमन और उसूलो की किताब  कुरान की मुफीद व्याख्या दुनियां की जरूरत बन चुकी है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ दीपावली विशेष –  मेरे देश में रामराज आ जायेगा ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय  स्तर ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की  दीप पर्व पर  एक  कविता  “मेरे देश में रामराज आ जायेगा।”)

☆ दीपावली विशेष –  मेरे देश में रामराज आ जायेगा ☆

 

जिस दिन अंतर्मन का सारा कलुष दूर हो जाएगा,

जिस दिन मानव का जीवन शोषण से बच जाएगा,

 

जिस दिन भाई विह्वल हो भाई को गले लगाएगा

जिस दिन धवल चंद्रमा नभ में  प्रेम राग ही गायेगा,

 

जिस दिन कहीं किसी को कोई कुत्सित न बहकायेगा,

जिस दिन नीला अम्बर आतिशबाजी से मुस्कायेगा,

 

जिस दिन हर घर बाग सरीखा खुशबू से भर जाएगा

जिस दिन कान्हा की बंशी में मधुर राग छिड़ जाएगा,

 

जिस दिन अहंकार का जग में भाव नहीं भरमायेगा

सच कहता हूँ मेरे देश में रामराज आ जायेगा।

 

आओ हम सब मिलकर के संकल्प यही अब दोहराएं

दीवाली पर हर देहरी को जगमग जगमग कर आये।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236




हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ दीपावली विशेष –  माटी के दीपक जलें ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  आज प्रस्तुत है  उनकी  एक सामयिक रचना  “माटी के दीपक जलें”. ) 

☆ दीपावली विशेष –  माटी के दीपक जलें ☆

 

दीपक से दीपक जला, हुआ दूर अँधियार।

दीवाली में सभी के,रोशन हैं घर द्वार।।

 

लौटे थे वनवास से,आज अवध श्री राम।

झूम उठी नगरी सकल,हुई धन्य अभिराम

 

सदियों से ही हो रही,अच्छाई की जीत

नहीं बुराई ठहरती,यह सनातनी रीत

 

रहे स्वच्छ पर्यावरण,रखें हमेशा ध्यान

बारूदी माहौल से,रखें बचाकर मान।।

 

माटी के दीपक जलें,माटी ही पहचान

माटी से मानव बना,रख माटी का मान

 

आज रोशनी से भरी,घनी अमावस रात

नन्हा दीपक दे रहा,अँधियारे को मात

 

दीवाली की रात का,जगमग है परिवेश

लक्ष्मी माता कर रही,गृह में सुखद प्रवेश।

 

दीवाली की रोशनी,हर लेती अँधियार।

देखो दस्तक दे रहीं,खुशियाँ हर घर द्वार

 

दीपों की यह रोशनी,सबके लिए समान

ऊँच-नीच या पंथ का,कभी न रखती भान।।

 

खूब खरीदी कर रहे,सजा हुआ बाजार

जेब भरे धनवान के,है गरीब लाचार

 

दीप ज्ञान का जब जले,हटे तिमिर अज्ञान

दीप ब्रह्म है दीप शिव,दीप हृदय का गान

 

माँ लक्ष्मी द्वारे खड़ीं,सज्जित वन्दनवार

मिले शरण”संतोष” को,माँ की करुणाधार

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 21 – दीपावली उपहार ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “दीपावली उपहार”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  स्वस्थ मित्र संबंधों का सन्देश दिया है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 21 ☆

 

☆ दीपावली उपहार ☆

 

विजय और शंकर दोनों बचपन के परम मित्र। कक्षा 1 में जब से एडमिशन लिया था तभी से दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। साथ-साथ पढ़ना-लिखना खेलना-कूदना यहां तक कि टिफिन में क्या है दोनों मिलकर खाते थे। बच्चों की दोस्ती की घर में बात होती थी। स्कूल में पैरंट्स मीटिंग के दौरान माता-पिता से बातचीत होते-होते घर परिवार सभी एक दूसरे को अच्छी तरह जानने लगे थे। कभी अनबन भी हो जाती दोनों में परंतु, एक दिन से ज्यादा नहीं चल पाता था। क्योंकि विजय और शंकर दोनों का एक दूसरे के बिना साथ अधूरा लगता था।

धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई बढ़ती गई और उनकी समझदारी भी बढ़ने लगी। साथ ही साथ मित्रता भी बहुत ही प्रगाढ़ हो गई। उनके साथ उनके और भी दोस्त जुड़ गए थे। जिनका आना जाना सभी के घर बराबर से होता रहता था। कभी किसी के यहां बैठ दिन भर मस्ती और पढ़ाई तो कभी किसी दूसरे दोस्त के घर मस्ती। परंतु विजय और शंकर एक दूसरे के घर जाना ज्यादा पसंद करते थे।

हाई स्कूल पढ़ाई सब्जेक्ट चॉइस के बाद दोनों की दिशा पढ़ाई एवं लक्ष्य अलग-अलग हो चुका था परंतु दोस्ती बेमिसाल रही। विजय ने अपने लिए विज्ञान विषय लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वही शंकर ने अपने लिए इंजीनियरिंग का कोर्स पसंद किया। दूर-दूर रहने के बाद भी फोन पर हर बात और यहां तक कि दिवाली पर क्या शर्ट लेना है तक की बातें होती थी। दोनों बच्चों की सादगी और दोस्ती पर घर परिवार भी गर्व करता था।

ऐसे ही एक साल दिवाली का समय था। धनतेरस के दिन शंकर के पिता जी ने उसके लिए एक अच्छी सी गाड़ी ले कर दिया। शोरूम से गाड़ी घर आ गई। पिताजी ने कहा तुम अपनी नई गाड़ी चलाकर मंदिर ले जाओ और मिठाई प्रसाद चढ़ा देना भगवान को। यह कहकर पिताजी अपनी ड्यूटी पर निकल गए।

दिवाली का दिन शुभ होता है। शाम को गाड़ी ज्यों की त्यों खड़ी मिली। पूछने पर पता चला कि कल लेकर जाऊंगा। पिताजी ने भी हामी भरकर डांटते हुए कहा कोई काम समय पर नहीं करते हो। आज अच्छा दिन था। परंतु शंकर तो कुछ और ही सोच कर बैठा था। रात को माँ पिता जी से कहा कि सुबह जल्दी उठा देना मेरा दोस्त आ रहा है विजय। उसको लेने स्टेशन जाना है। सुबह जल्दी उठ अपनी नई गाड़ी निकाल शंकर स्टेशन अपने दोस्त को लेने पहुंच गया। पिताजी उठे नहा धोकर तैयार हो सोचा कि आज दिवाली है। मैं ही गाड़ी से मंदिर होकर आ जाता हूं। नई गाड़ी है शुभ काम होना चाहिए। परंतु देखा की गाड़ी की चाबी नहीं है। घर में पूछने पर पता चला कि शंकर लेकर गया है।

शंकर की नई गाड़ी देख विजय बहुत खुश हुआ। ट्रेन से उतरने पर और गाड़ी चलाकर सामान के साथ दोनों दोस्त घूम कर आ गए। विजय को उसके घर छोड़ते हुए शंकर अपने घर आया। माँ पिताजी ने कहा नई  गाड़ी लेकर स्टेशन क्यों चला गया था। शंकर बहुत खुश होकर बोला आप ही कहते हैं कोई भी चीज के शुभ दिन और शुभ समय होना चाहिए। मेरी गाड़ी में मेरा दोस्त पहले बैठ चला कर आया है। मेरे लिए तो ये बहुत ही शुभ है। मेरा दोस्त पहले मेरी गाड़ी में बैठा है मेरे लिए ये मंदिर जाने से भी बढ़कर है।

माँ पिताजी भी उसकी खुशी देख बहुत खुश हुए और दोनों की दोस्ती की सलामती के लिए ईश्वर से बार-बार प्राथना करने लगे। विजय और शंकर के लिए *शुभ दीपावली* हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 – ☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  अनाम वीरा – कुसुमाग्रज ” .   ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी  साहित्यकार  स्व विष्णु वामन शिरवाडकर अपने  उपनाम कुसुमाग्रज के नाम से जाने जाते हैं। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 ☆

☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज  ☆ 

श्वेता, तुमच्या ह्या अनोख्या काव्यदिंडीत मला चार पावलं चालायची संधी दिल्याबद्दल तुला मनापासून धन्यवाद ! ठेक्यात कविता म्हणता म्हणता तिच्या रस, रंग, गंधाची मोहिनी मनाला कधी पडली हे कळलंच नाही. आणि सुरू झाली एक रसयात्रा ! गदिमा, बाकिबाब, विंदा या शब्दप्रभूंच्या प्रासादिक शब्दवैभवाने कधी मनावर गारूड केले तर कधी शांताबाई, बालकवि, ना. धों.च्या वासंतिक शब्दलावण्याची मनाला भुरळ पडली. दिंडीतली पावलं कोणाचं बोट धरून टाकावीत हा माझ्यासाठी मोठा यक्षप्रश्न ! माझे आराध्यदैवत कुसुमाग्रज यांच्या कवितेचं बोट धरून पहिलं पाऊल टाकायला मला खुप आवडेल !

अत्यंत तरल आणि संवेदनक्षम अभिव्यक्ती लाभलेल्या ह्या कविश्रेष्ठाने केलेलं हे एक कृतज्ञ स्मरण. तहान भूक विसरून, मायापाश तोडून, सीमेवर लढणा-या, आणि युद्धात कामी येणा-या जवानाच्या कर्तव्य बुद्धीचं, बलिदानाचं, प्रखर वास्तवाचं ह्या कवितेतील वर्णन वाचतांना, अंगावर रोमांच उभे राहतात, डोळ्यांच्या कडा पाणावतात, शब्द मूके होतात, आणि फक्त आणि फक्त हात उचलला जातो, त्या अनामवीराला सॅल्यूट ठोकण्यासाठी !

 

☆ अनाम वीरा ☆

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्‍त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात!

 

धगधगत्या समराच्या ज्वाला या देशाकाशी

जळावयास्तव संसारातून उठोनिया जाशी!

 

मूकपणाने तमी लोपती संध्येच्या रेषा

मरणामध्ये विलीन होसी, ना भय ना आशा!

 

जनभक्‍तीचे तुझ्यावरी नच उधाणले भाव

रियासतीवर नसे नोंदले कुणी तुझे नाव!

 

जरी न गातिल भाट डफावर तुझे यशोगान!

सफल जाहले तुझेच हे रे, तुझेच बलिदान!

 

काळोखातुनि विजयाचा ये पहाटचा तारा

प्रणाम माझा पहिला तुजला मृत्युंजय वीरा!

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)




मराठी साहित्य ☆ दीपावली विशेष ☆ भाऊबीज ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । 

(इस  दीपावली  के पवन पर्व पर कविराज विजय जी  ने  अष्टाक्षरी विधा में  कुछ  विशेष कविताओं की रचना की है।   उनमें से  चार कवितायेँ  (1) वसुबारस (अष्टाक्षरी)  (2) धेनू  पूजा (चाराक्षरी)  (3) आली धन त्रयोदशी.. . ! (अष्टाक्षरी)  (4) नर्क चतुर्दशी  (अष्टाक्षरी) (5) लक्ष्मी पूजन  (अष्टाक्षरी)  (6) पाडवा  (अष्टाक्षरी) आप पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत हैं कविता  भाऊबीज  (अष्टाक्षरी). आपसे अनुरोध है कि आप इन कविताओं को इस दीपोत्सव पर आत्मसात कर  हृदय से स्वीकार करें। दीपोत्सव पर्व पर हृदय से हार्दिक शुभकामनाओं सहित )

☆ दीपावली विशेष – भाऊबीज ☆

*अष्टाक्षरी*

कार्तिकात द्वितीयेला

आली आली भाऊबीज

म्हणे बहिण भावाला

जरा आसवात भीज.. . . !

 

भाऊ बहीणीचा स`ण

औक्षणाचा थाटमाट

आतुरल्या अंतरात

भेटवस्तू पाहे वाट. . . . !

 

दोन घास जेवूनीया

आशिर्वादी मिळे ठेव

दीपोत्सव ठरे सार्थ

आठवांचे फुटे पेव. . . . !

 

किती दिले किती नाही

हिशोबाचा नाही सण

एकमेकांसाठी केले

आयुष्याचे समर्पण. . . . !

 

अशी स्नेहमयी वात

घरोघरी  उजळावी.

मांगल्याची भाऊबीज

मनोमनी चेतवावी.. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #21 – माझा परिचय ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

((वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “करू दिवाळी साजरी”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 22 ☆

 

☆ करू दिवाळी साजरी ☆

उठू पहाटेच्यापारी

करू दिवाळी साजरी

स्नान उरकले आता

जाऊ दर्शना राऊळी

 

आनंदाची ही दिवाळी

गाली आणते हो खळी

साऱ्या संसारा सोबत

नटे फुलांची डहाळी

 

आज अभ्यंगस्नानाला

न्हाऊ घालते ती मला

ओवाळणीत मागते

नवी साडी आणि चोळी

 

माहेराहून येईन

माझी लाडकी बहीण

आणि भरून नेईल

प्रेम नात्यांची ही झोळी

 

रंगीबेरंगी फटाका

मारी आकाशी धडका

आनंदाने ही लेकर

बघा वाजवती टाळी

 

दारामधे ही रांगोळी

हाती फराळाची थाळी

पाडव्याच्या मुहुर्ताला

नवी सोन्याची साखळी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

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