आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।2।।

 

बतलाता विज्ञान सह तुझको वह सब ज्ञान

शेष न रहता जानना,उसे पूर्णतः जान।।2।।

 

भावार्थ :  मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।।2।।

 

I shall  declare  to  thee  in  full  this  knowledge  combined  with  direct  realisation,  after knowing which nothing more here remains to be known.।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप

☆ पहला दीप ☆
दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?
प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।
इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रंगोली, रंग बिखेर रही है।
रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।
सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे  खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी।  हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।
कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने  के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।
दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।
पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।
अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।
पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.49 बजे,  9.11.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ दीपावली विशेष – आइए जलते हैं ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक सामयिक कविता  “आइए जलते हैं”.)

 

☆ दीपावली विशेष – आइए जलते हैं ☆ 

 

आइए जलते हैं
दीपक की तरह।
आइए जलते हैं
अगरबत्ती-धूप की तरह।
आइए जलते हैं
धूप में तपती धरती की तरह।
आइए जलते हैं
सूरज सरीखे तारों की तरह।
आइए जलते हैं
अपने ही अग्नाशय की तरह।
आइए जलते हैं
रोटियों की तरह और चूल्हे की तरह।
आइए जलते हैं
पक रहे धान की तरह।
आइए जलते हैं
ठंडी रातों की लकड़ियों की तरह।
आइए जलते हैं
माचिस की तीली की तरह।
आइए जलते हैं
ईंधन की तरह।
आइए जलते हैं
प्रयोगशाला के बर्नर की तरह।

क्यों जलें जंगल की आग की तरह।
जलें ना कभी खेत लहलहाते बन के।
ना जले किसी के आशियाने बन के।
नहीं जलना है ज्यों जलें अरमान किसी के।
ना ही सुलगे दिल… अगर ज़िंदा है।
छोडो भी भई सिगरेट की तरह जलना!
नहीं जलना है
ज्यों जलते टायर-प्लास्टिक।
क्यों बनें जलता कूड़ा?

आइए जल के कोयले सा हो जाते हैं
किसी बाती की तरह।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18– मार्मिक संस्मरण – जीवन जीने की कला ……. ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  मार्मिक संस्मरण   “जीवन जीने की कला …….” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18☆

 

☆ मार्मिक संस्मरण –  जीवन जीने की कला ……. 

 

जीवन है चलने का नाम …..। जो लोग परेशानी भरी जिंदगी जीते है उनकी संवेदनाये मरती नहीं है, उनकी संवेदनाएं विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में शाखा प्रबंधक रहते हुए एक घटना रह रह कर याद आ जाती है, शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये ”रंगैया ” ने भी कुछ ऐसी छाप छोड़ी ……..

”रंगैया” जब खाता खोलने आया तो बेंकवाले ने पूछा – ”रंगैया” खाता क्यों खुलवा रहे हो? ‘ ‘

रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घर  मे दो-दो बेटियां …घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आयके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ-तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भूखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है, तह्सीलवाला बाबू बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेंगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब!” …. बैंक वाले ने पूछा – “सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया?”

‘रंगैया बोला – “कहाँ साब !  गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है, वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जाएगी और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबू को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है। तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दोगे तो ?………..” रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग है प्राण जाय पर वचन न जाही …साब, यदि नहीं दूंगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबू उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”

रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में सिटिजनशिप का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो, भीड़ को चीरता हुआ मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पेकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबान से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते है कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि खुशियाँ हमारे आस-पास ही छुपीं होती हैं यदि हम उनकी परवाह करें तो वे कहीं भी मिल सकती हैं ……….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य ☆ दीपावली विशेष ☆ पाडवा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । 

(इस  दीपावली  के पवन पर्व पर कविराज विजय जी  ने  अष्टाक्षरी विधा में  कुछ  विशेष कविताओं की रचना की है।   उनमें से  चार कवितायेँ  (1) वसुबारस (अष्टाक्षरी)  (2) धेनू  पूजा (चाराक्षरी)  (3) आली धन त्रयोदशी.. . ! (अष्टाक्षरी)  (4) नर्क चतुर्दशी  (अष्टाक्षरी) (5) लक्ष्मी पूजन  (अष्टाक्षरी) आप पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत हैं   कविता  पाडवा   (अष्टाक्षरी). शेष कवितायेँ  समय समय  पर प्रकाशित करेंगे। आपसे अनुरोध है कि आप इन कविताओं को इस दीपोत्सव पर आत्मसात कर  ह्रदय से स्वीकार करें। दीपोत्सव पर्व पर हृदय से  नर्क चतुर्दशीहार्दिक शुभकामनाओं सहित )

 

☆ दीपावली विशेष – पाडवा ☆

*अष्टाक्षरी*

 

कार्तिकाची प्रतिपदा

येई घेऊन गोडवा.

दीपावली दिनू खास

होई साजरा पाडवा. . . . !

 

तेल, उटणे लावूनी

पत्नी हस्ते शाही स्नान.

साडेतीन मुहूर्ताचा

आहे पाडव्याला मान. . . . !

 

रोजनिशी, ताळमेळ

वही पूजनाचा थाट

येवो बरकत घरा

यश कीर्ती येवो लाट. . . . !

 

सहजीवनाची  गाथा

पाडव्याच्या औक्षणात

सुख दुःख वेचलेली

अंतरीच्या अंगणात.. . . . !

 

भोजनाचा खास बेत

जपू रूढी परंपरा.

व्यापारात शुभारंभ

नवोन्मेष स्नेहभरा.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #21 – महिलायें समाज की धुरी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “महिलायें समाज की धुरी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 21 ☆

 

☆ महिलायें समाज की धुरी 

 

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है. अतः समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं अति महत्वपूर्ण है. समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई एक महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी,ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी पर ही समाज का महाप्रासाद अविचल खड़ा है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के घटक तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं (शस्त्र) एक स्थान पर रखे. शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

कवि ने कहा है….

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ” प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है,रणभुमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करती रहेंगी……

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 20 – भाकरी ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मानवीय रिश्तों  के साथ  रोटी  के मूल्य पर आधारित  एक भावप्रवण कविता  – “भाकरी। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 20☆ 

 

 ☆ भाकरी ☆

 

दिसरात राबतिया

माझी  माय ही बावरी।

तरी तिला मिळेना हो

चार घास ती भाकरी।।

 

बाप ठेऊनिया गेला

उभा कर्जाचा डोंगर।

उभी हयात राबून

गळा फासाचा हो दोर।

 

मार्ग सारेच खुंटले

भर दिसा अंधारले।

दोन्ही पिलांना पाहून

बळ  अंगी संचारले।

 

शेण पाणी झाडलोट

धुणी भांडी ही घासते।

अधाशीही मालकीण

पाने तोंडाला पुसते।

 

हाता तोंडाचं भांडण

काही सरता सरेना।

किती राबते तरीही

पोट सार्‍यांची भरेना।

 

कशी शिकवावी लेक

कसे करावे संस्कार ।

निराधार योजनेला

घूस  खोरीचा आधार।

 

कथा दारिद्रय रेषेची

असे फारच आगळी।

लाभार्थीच्या यादीला हो

दिसे दिग्गज मंडळी।

 

माय म्हणे बापा बरी

अर्धी कष्टाची भाकरी।

लाचारीच्या जिण्यापरी

लाख मोलाची चाकरी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (1) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।1।।

 

श्री कृष्ण ने कहा-

मुझ में अपना मन रमा,मेरे आश्रय आन

पार्थ! मुझे पहचानने का सुन पूरा ज्ञान।।1।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥

 

O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on me, practicing Yoga and taking refuge in Me!।।1।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #18 – उपदेशक और समुपदेशक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 18☆

☆ उपदेशक और समुपदेशक ☆

 

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ दीपावली विशेष – दीपावली ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  दीपावली पर्व पर रचित एक कविता “दीपावली”।)

 

 ☆ दीपावली विशेष – दीपावली ☆

 

दीवाली ऐसा शुभ त्यौहार जिसको सब मनाते है

गरीबो औ” अमीरो से पर, उसके भिन्न नाते है

अमीरो के महल नई रोशनी,रंग से नहाते है

मधुर मिष्ठान मेवे फल नये-नये लाये जाते है

दिखावे औ” प्रदर्शन के कई व्यवहार होते है

अलंकारो में धनतेरस को क्रय नये हार होते है

 

गरीबो के यहां लेकिन कुछ ऐसा हो न पाता है

सफाई सादगी से घर को लीपा पोता ही जाता है

जलाकर चार दीपक लक्ष्मी पूजा कर ली जाती है

बताशे खील फूलो भर से थाली भर ली जाती है

 

अमीरी अपने वैभव से गरीबी को चिढाती है

गरीबी किंतु अपने में ही खुश रह मुस्कुराती है

अटारी द्वार छज्जे महलो के जब जगमगाते है

गरीबो के घरो में दो चार दीपक टिमटिमाते है

 

कहीं रस रंग के संग कई पटाखे फोडे जाते है

वहीं कई झोपडियो में बच्चे भोजन को ललाते है

शहर तो एक होता किंतु दिखती दो अलग बस्ती

दिवाली एक की महंगी दिवाली एक की सस्ती

 

जमाना देखेगा कब तक जगत में दो व्यवस्थायें

दिवाली एक सी सबकी हो पायेगी क्या बतलाये

खुशी का दिन तो तब होगा जब हर मन भाव यह जागे

रहे न किसी बस्ती में विषमता ऐसी अब आगे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares
image_print