हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 – एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 ☆

 

☆ एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती 

 

विरुपक्ष (अर्थ : एक महीने के एक पक्ष अथार्त 15 दिनों के लिए वीर) को भगवान ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि वह ‘चंद्रमा’ का एक ‘पक्ष’ या चंद्रमा का पृथ्वी के चारो और पूरे चक्कर का आधा समय जो की करीब 15 दिन होते है को चुन सकता है या तो कृष्ण पक्ष (काला या अँधेरा आधा मार्ग) या शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा मार्ग), अपने चुने हुए आधे चक्र के दौरान, वह कभी भी किसी के भी द्वारा पराजित नहीं होगा, और यदि उसने अपनी पसंद के एक महीने का एक आधा भाग चुना, जिसमें वह पराजित नहीं हो सका, तो वह उस माह के अगले या दूसरे आधे भाग या 15 दिनों में पराजित हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर उसने किसी के साथ लड़ने के लिए चंदमा के चक्र का उज्जवल आधा भाग या शुक्ल पक्ष चुना है, तो वह कभी भी पूरे 15 दिनों के इस उज्ज्वल आधे भाग में किसी से पराजित नहीं होगा। लेकिन जब चंद्रमा का अगला चरण अर्थात अँधेरा आधे भाग या कृष्ण पक्ष आयेगा तो वह उसमे पराजित हो सकता है। इसी तरह अगर वह अँधेरा भाग या कृष्ण पक्ष चुनता है तो 15 दिनों तक पराजित नहीं होगा और 15 दिनों बाद जब उज्जवल भाग या शुक्ल पक्ष शुरू होगा तो उसमे पराजित हो सकता है ।

विरुपक्ष अपने चुने हुए अंधेरे आधे भाग में युद्ध भूमि में आया, इसलिए वह उस आधे भाग में पराजित नहीं हो सकता था। उसने वानरों को बुरी तरह से मारना शुरू कर दिया।जल्द ही भगवान हनुमान विरुपक्ष के रास्ते में आ गए। भगवान हनुमान ने बहुत कोशिश की और विरुपक्ष के साथ लगातार लड़ते रहे,लेकिन भगवान ब्रह्मा जी से मिले वरदान की वजह से वह उसे हराने में असमर्थ थे।

भगवान राम के समूह में हर कोई चिंतित था। तब विभीषण ने भगवान राम को सुझाव दिया कि, “हम विरुपक्ष को तब तक पराजित नहीं कर सकते जब तक चंद्रमा अपने आधे अंधेरे चक्र को आधे उज्ज्वल चक्र में बदलकर हमारी सहायता नहीं करेंगे”

उसी समय भगवान इंद्र आकाश में दिखाई दिए और कहा, “हे राम, आपका युद्ध मानवता के लिए है। मैं चंद्रमा को आदेश देता हूँ, ताकि वह अपने चरणों को बदल दे और दूसरे आधे चक्र में चला जाए”

कुछ देर बाद चंद्रमा ने अपने मासिक चक्र के आधे अंधेरे भाग, कृष्ण पक्ष को आधे चमकीले या उज्जवल, शुक्ल पक्ष भाग में बदल दिया, और जल्द ही विरुपक्ष का शरीर घटना शुरू हो गया। चूंकि अब विरुपक्ष का शरीर कमजोर हो गया, तो भगवान हनुमान ने उसे पकड़ लिया और फिर उसे मार डाला।ऐसा कहा जाता है कि तब से चंद्रमा पृथ्वी के इर्दगिर्द अपने सामान्य आधे चक्र से आधे चक्र के अंतराल से अपना मासिक क्रम दोहरा रहा है।

भगवान राम ने अपने हाथों को आकाश में चंद्रमा की ओर बढ़ा कर चंद्रमा को प्रणाम एवं धन्यवाद किया।

जल्द ही चंद्रमा के देवता भगवान राम के सामने प्रकट हुए और उनसे अनुरोध में कहा, “हे भगवान! आप मुझे धन्यवाद क्यों दे रहे है? मेरी चमक शक्ति और शीतलता, आपका ही प्रताप है।यदि आप वास्तव में मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं, तो मुझे वचन दीजिये कि जैसे आप अपने इस युग के अवतार में सूर्य वंश में जन्मे है, वैसे ही अगले युग के अवतार में आप मेरे वंश अथार्त चंद्र वंश में जन्म लेंगे”

भगवान राम मुस्कुराये और चाँद से कहा, “यह मेरे लिए खुशी होगी। मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे अगले अवतार में मैं चंद्र वंश (चंद्रवंशी) में जन्म लूँगा ।

हम सभी जानते हैं कि अगले अवतार में, भगवान विष्णु का जन्म चंद्र वंश में भगवान कृष्ण के रूप में हुआ था ।

 

© आशीष कुमार  




मराठी साहित्य ☆ दीपावली विशेष ☆ आली धन त्रयोदशी.. . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । 

(इस  दीपावली  के पवन पर्व पर कविराज विजय जी  ने  अष्टाक्षरी विधा में छह विशेष कविताओं की रचना की है।   उनमें से दो कवितायेँ  (1) वसुबारस  (2) धेनू  पूजा” आप पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत हैं  अन्य दो सामयिक कवितायेँ  (1)  आली धन त्रयोदशी.. . ! (2)  नर्क चतुर्दशी . शेष कवितायेँ  समय समय  पर प्रकाशित करेंगे। कुछ कविताओं के प्रकाशन में विलम्ब के लिए खेद है। आपसे अनुरोध है कि आप इन कविताओं को इस दीपोत्सव पर आत्मसात कर  ह्रदय से स्वीकार करें। दीपोत्सव पर्व पर हृदय से  हार्दिक शुभकामनाओं सहित )

 

☆ दीपावली विशेष – आली धन त्रयोदशी.. . !

*अष्टाक्षरी*

 

दीपावली सणवार

अश्विनाची  त्रयोदशी

निरामय  आरोग्याची

आली धन त्रयोदशी.. . !

 

आरोग्याची धनवर्षा

वैद्य धन्वंतरी स्मरू

दान मागू आरोग्याचे

प्रकाशाची वाट धरू. . . . !

 

लावू कणकेचा दिवा

करू यम दीपदान

लाभो मनी समाधान

मागू आयुष्याचे दान . .. . . !

 

तन, मन, आणि धन

यांचे वरदान नवे .

धन त्रयोदशी दिनी

स्नान अभ्यंगाचे हवे.. . . !

 

धन, धान्य, आरोग्याने

घरदार सजलेले .

सुखी,  समृद्ध जीवन

अंतरात नटलेले.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 12 ☆ मयख़ाना  ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  “मयख़ाना “।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 12 ☆

☆ मयख़ाना 

मयखाने के पास में मेरी भी दुकान है,
हर रोज मैं शरीफों के चेहरे देखती हूँ ।

 

सफेदपोश लिपे हुए कमसिन चेहरें,
जेबें टटोलते हुए सहर देखती हूँ ।

 

हरी भरी सब्जियां सूखती हैं दुकानों में
और शाम को छलकते हुए जाम देखती हूँ।

 

भूख से बिलखते बच्चे हाथ फैलाते हैं
काँच से बच्चों की जान सस्ती पाती हूँ ।

 

लड़खड़ाते कदमों को थामे नन्हीं ऊँगलियाँ
डरे हुए चेहरों की जिंदगियाँ देखती हूँ ।

 

दर्दहीन कमजोर आँखों में खून खौलता है
मयखाने के दर पर उनका नसीब देखती हूँ ।

 

© सुजाता काळे,
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684



हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ दीपावली विशेष – दीया मिट्टी और मन का जलाएँ ☆ – श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं. प्रस्तुत है दीपावली पर्व पर उनकी विशेष कविता “दीया मिट्टी और मन का जलाएँ”.)

 

☆ दीपावली विशेष – दीया मिट्टी और मन का जलाएँ ☆

 

*एक दीया मिट्टी का जलाएँ ।

दूसरा दीया मन का जलाएँ ।।*

 

अन्धकार से प्रकाशित करे ।

मिट्टी के दीये प्रज्वलित करे ।।

ईर्ष्या, द्वेष,अहं से मुक्ति पाए ।

मन के दीये की रोशनी पाए । 1।

 

*एक दीया मिट्टी का जलाएँ ।

दूसरा दीया मन का जलाएँ ।। *

फुटपाथ हाट से दीये खरीदे ।

बूढ़ी अम्मा को मुस्कुराहट दे ।।

दिखावटी वस्तुओं से दूरी करे ।

स्वदेशी वस्तुओं का क्रय करे । 2।

*एक दीया मिट्टी का जलाएँ ।

दूसरा दीया मन का जलाएँ ।।*

कपड़े व मिठाइयाँ बंटे गरीबों में ।

चेहरे पर मुस्कुराहट दिखे गरीबों में ।।

भूखे सोये न कोई इस दीवाली में ।

ग़रीबों के घर दीप जले दीवाली में । 3।

 

*एक दीया मिट्टी का जलाएँ ।

दूसरा दीया मन का जलाएँ ।।*

प्रेम, मित्रता,अपनत्व का भाव रखे ।

प्रकाश पर्व का भाईचारा रखे ।।

आओ इस दीवाली पर एक प्रण ले ।

कोई अकेला दीप न जले दीवाली में । 4 ।

 

*एक दीया मिट्टी का जलाएँ ।

दूसरा दीया मन का जलाएँ ।।*

 

कुमार जितेन्द्र

(कवि, लेखक, विश्लेषक, वरिष्ठ अध्यापक – गणित)

साईं निवास मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान) मोबाइल न 9784853785




मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 11 ☆ चिंतामणी चारोळी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता चिंतामणी चारोळी जो श्री गणेश जी  का प्रासादिक वर्णन किया गया है।  श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 11 ☆

☆ चिंतामणी चारोळी ☆

(माझ्या “चिंतामणी चारोळी “संग्रहातील श्रीगणेशाचे प्रासादिक वर्णन करणाऱ्या न ऊ चारोळ्या)

पंच जगदीश्वरांच्या

पहा अनुग्रहास्तव

प्रकटले श्रीगणेश

श्रेष्ठतम मोरगाव !!१!!

 

श्रीगणेश सार्वभौम

असे वर्णिली देवता

स्तुती अखंड करुनी

पावते गणेश भक्ता !!२!!

 

सीता शोध घेण्यासाठी

रामे दण्डकारण्यात

भालचंद्रा प्रार्थियेले

लक्षुमणा समवेत !!३!!

 

सिद्धाश्रम परभणी

गणेश गुरुपीठत्व

नाम असे ते प्रसिद्ध

गोदावरी तीरी सत्व!!४!!

 

ओझरास विघ्नासुरा

गणेशाने संहारिले

असे त्या विघ्नेश्वरास

सार्वभौम गौरविले !!५!!

 

पाच भूमिका चित्ताच्या

करणारा चिंतामणी

ब्रह्मदेवे दिला हार

म्हणूनिया चिंतामणी!!६!!

 

ढुंढिराज काशीक्षेत्र

सोळा कला अधिपती

आद्य दैवत हिंदूंचे

कार्यारंभी पूजीताती !!७!!

 

हेळवीचा श्रीगणेश

तो प्रसिद्ध कोकणात

रुप ॐकार प्रधान

मान विशेष देशात !!८!!

 

स्वायंभूव गणेशाचे

अक्रा गणेश प्रकार

क्षेत्र स्तुती ही वेदांत

चिंता तो हरविणार !!९!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दि.२१-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।46।।

 

योगी तपसी से बड़ा ज्ञानियों से भी महान

योगी हो अर्जुन ! जो है कर्मीयों से विद्धान।।46।।

 

भावार्थ :  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।।46।।

 

The Yogi is thought to be superior to the ascetics and even superior to men of knowledge (obtained through the study of scriptures); he is also superior to men of action; therefore, be thou a Yogi, O Arjuna! ।।46।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जन्मदिवस विशेष – पापा जी यानी मेरे पिताजी: डॉ.सुमित्र ☆ डॉ.भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनके पिताश्री  एवं मेरे गुरवर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र ” जी के जन्मदिवस पर उनकी स्मृतियाँ। )

☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जन्मदिवस विशेष – पापा जी यानी मेरे पिताजी: डॉ.सुमित्र ☆

 

पिता को पापा कहना कब शुरू किया यह याद नहीं . लगता है यह संबोधन तुतलाहट से निकला होगा. हम भाई-बहनों को कभी-कभार डांट जरुर पड़ी है, मार नहीं. शायद एक आद बार भैया के कान पकड़े गए हों.  गर्व यह कि हमें पापा जी का लाड़ दुलार तो मिलता रहा किंतु, उन की व्यस्तता के कारण हमारी स्कूल की देखभाल का जिम्मा ममतामयी मां ही संभालती रहीं .

घर का वातावरण धार्मिक, साहित्यिक सांस्कृतिक था. घर में गोष्ठियां होती. हम शालीन श्रोता होते, सुनते सुनते सो जाते. कुछ बड़े होने पर तैयारियों में हाथ बटाने लगे. फिर जाना कि हमारे पिता कवि लेखक पत्रकार और शिक्षक हैं. मां भी शिक्षिका हैं लेखिका है.

(डॉ। राजकुमार तिवारी “सुमित्र” एवं उनकी बेटी डॉ भावना शुक्ल)

माँ बताती थी– भावना तुम्हारा जन्म एल्गिन अस्पताल में हुआ था. और पहले ही दिन पिताजी के कवि मित्र सरदार सरवण सिंह पैंथम ने तुम्हारे हाथों में चांदी का रुपया देकर शुभाशीष दिया था. पिता का परिचय संसार व्यापक सभी वरिष्ठ साहित्यकारों का स्नेहाशीष उन्हें प्राप्त था.  कविवर नर्मदा प्रसाद खरे, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, झंकनलाल वर्मा छेल जी, मनोज जी, श्रीबाल पांडे, गोविंद तिवारी उन्हें पुत्रवत मानते थे.

बाल्यकाल में ही मुझे महीयसी महादेवी वर्मा, डॉक्टर रामकुमार वर्मा, सेठ गोविंददास, व्यौहार राजेंद्र सिंह, कालिका प्रसाद दीक्षित जानकी वल्लभ शास्त्री, विद्यावती कोकिल, सरला तिवारी, शकुंतला सिरोठिया, रत्न कुमारी देवी आदि के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

घर की गोष्ठियों में रामकृष्ण दीक्षित विश्व, तरुण जी, पथिक जी, मधुकर खरे, ओंकार तिवारी, अजय वर्मा, डॉक्टर नरेश पांडे, देशभक्ति नीखरा, राज बिहारी पांडेय और चाचा गणेश प्रसाद नामदेव का स्नेह प्राप्त हुआ.

पिताजी शिक्षक भी रहे, प्राइमरी से लेकर महाविद्यालय-विश्वविद्यालय तक के. लेकिन कैसे शिक्षक? छात्र छात्राओं की ना तो ट्यूशन की ना उन से नाम इकराम लिया. बल्कि साल में एक माह का वेतन उनपर ही खर्च कर देते थे.

साथी शिक्षक ऐसे सगे कि क्या होंगे? सदा भाईचारा रहा.

पिताजी प्रारंभ से ही पत्रकारिता, विशेष रूप से साहित्य पत्रकारिता से जुड़े रहे. पहले अंशकालिक फिर पूर्णकालिक. नारी निकुंज के संपादन के समय में बारह-चौदह घंटे प्रेस में बिताते.

प्रतिष्ठितों को मान और नवोदिता को प्रोत्साहन इनका चलाएं एक संबोधन यही उनका संकल्प रहा. प्रेस में आने वालों की चाय तक कभी नहीं पी जो भेंट आती उसे बटवा देते.

सभी साहित्यकारों और संस्थाओं से जुड़ाव था. मित्र संघ की विशिष्ट गोष्ठियां, हिंदी मंच भारतीय अन्य आयोजन संचालनकर्ता यही होते. बहुत प्रचलित हुआ” एवं प्रयोजन|

गोष्ठी, आयोजन स्मारिका और सतत लेखन रात के दो-तीन बजे तक जागरण | सुबह फिर चुस्त-दुरुस्त|

पिता के मित्रों की संख्या बहुत है किंतु विरोधी स्वर मना रहे हो ऐसा भी नहीं. किंतु, उन्होंने कभी भी ना तो किसी के विरुद्ध कुछ कहा ना लिखा. उनका कहना है- समय उत्तर देगा|

पिताजी राज्य श्री परमानंद पटेल के प्रिय पात्र थे. लोगों ने उड़ाया की सुमित्र जी खूब माल काट रहे हैं जब की असलियत यह है उन्होंने कभी उनसे किसी भी प्रकार का आर्थिक लाभ नहीं लिया. बीमार होते हुए भी पटेल साहब अपनी पत्नी के साथ हमारे घर पधारे मेरी शादी में, पिताजी भेंट लेने को भी राजी नहीं थे. बामुश्किल उन्होंने शगुन की एक साड़ी स्वीकार की.

पिताजी का कहना है कि हमारी और कुछ तो नहीं है—– न लेने की शक्ति और संकल्प जरूर है.

व्यस्त दिनचर्या में पिताजी कब पढ़ लेते हैं कब लिख लेते हैं पता ही नहीं चलता.

वह केवल अपने ही नहीं पढ़ते ज्ञान का वितरण करते हैं, अधिकृत गाइड नहीं है. किंतु उन्होंने पीएचडी और एमफिल के 30-35 छात्र-छात्राओं का सामग्री प्रदान की .

पिता के जीवन का संघर्ष उनकी मां के देहावसान से शुरू हुआ और अब आयु के आठवें दशक में प्राण प्रिय पत्नी का वियोग, ऊपर से स्वस्थ, भीतर से टूटे. भैया हर्ष, भाभी मोहिनी उनकी देखभाल में तत्पर हैं. प्रियम उनकी जीवनशक्ति है. हम लोग फोन के माध्यम से संपर्क बनाए रहते हैं.

संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले पिता के स्वभाव में तुनकमिजाजी है. क्रोध कम होता है. आता है तो भयंकर. अच्छी बात यह कि पूरा जल्दी उतर जाता है.

स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है किंतु, भूल जाते हैं कि कल कौन आया था, चश्मा या किताब कहां रखी है.

यात्रा प्रिय रही है.

पिता की दुर्बलता को शक्ति बनकर संभालती थी मेरी मां.

मैं अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानती हूँ, मुझे विरासत में साहित्यिक निधि मिली. बचपन से मैंने साहित्य की उंगली पकड़कर भी चलना सीखा है. लेकिन तब से लेकर आज तक जो कुछ भी लेखन किया है बिना पिता को सुनाएं दिखाएं रचना पूर्ण  नहीं होती. आज भी गलतियों पर डांट पड़ती है.

मुझे गर्व है कि मैं साहित्यकार पिता डॉक्टर सुमित्र और साहित्य साधिका मां स्मृति शेष डॉक्टर गायत्री तिवारी की बेटी हूँ.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली विशेष – धनतेरस ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

प्रबुद्ध पाठकों के लिए आज दीपावली पर्व पर संजय दृष्टि के दूसरा सामयिक अंक भी आपके आत्मसात करने हेतु प्रस्तुत हैं।

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – धनतेरस

 

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।….गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए जगह कैसे बनती?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए  भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

 




हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 19 ☆ साक्षात्कार ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.

वरिष्ठ रचनाकार, काव्य जगत से अपने लेखन की शुरुआत करने वाली, श्रेष्ठ व्यंग्य लेखिका अनेक सम्मान से सम्मानित आज की श्रेष्ठ कथा लेखिका बहुमुखी प्रतिभा की धनी सूर्यबालाजी से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व तथा विविध लेखन विधा के संदर्भ में सूर्यबाला जी ने बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुति दी है। प्रस्तुत है सूर्यबाला जी से डॉ भावना शुक्ल जी की बातचीत…..

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार सूर्यबाला जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 19  साहित्य निकुंज ☆

☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है….)

डॉ भावना शुक्ल – आपके लेखन में स्त्रीत्व की सुगंध समाहित है आपका सम्पूर्ण लेखन स्त्री वाद पर ही आधारित है,  इस पर प्रकाश डालिए?

सूर्यबाला – सच पूछिए तो मैंने मात्र स्त्री-केंद्रित लेखन, यानी स्त्री समस्याओं से जुड़ा लेखन कम ही किया है। लेकिन यह सच है कि मेरे लेखन के केंद्र में स्त्रीत्व एक सुगंध की तरह व्याप्त है। मैं प्रकृति की इस रचना, स्त्री को बहुत अनूठे गुणों, और छबियों से युक्त मानती हूं, विलक्षण मानती हूं, स्त्री और, स्त्री-शक्ति को। मेरे पास मेरा अपना स्त्री-वाद है वह फार्मूले वाला वाद नहीं, स्त्री-भाव वाला स्त्री-वाद। इस भाव और वाद के केंद्र में वह स्त्री है जिसकी कोशिशों से ही यह विश्व सुंदर बन सकता है, स्त्री चाहेगी तभी, अन्यथा नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – ‘सुबह के इंतजार तक’ शीर्षक उपन्यास की मानू बलात्कार के अवांछित आघात को किस तरह वहन करती है ? क्या स्नेह और सहानुभूति ही उसका आधार है?

सूर्यबाला – इस छोटी की उपन्यासिका ‘सुबह के इंतजार तक…’ की किशोर नायिका मानू अपने भाई की पढ़ाई का छूट जाना (पिता की छंटनी के कारण) बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह आज से तीस वर्ष पहले की कहानी है। अपने मामा के कारखानें के किसी वर्कर के कुकृत्यों का अभिशाप भुगतती मानू, अपने माता-पिता को इस आघात से भी विगलित नहीं देख पाती और एक अंधेरी सुबह, छोटे भाई के साथ घर छोड़ देती है। एक तरह से माता-पिता को जैसे मुक्त कर देती है। असंभव सी लगती इस कहानी में मानू उस विनम्र लेकिन दृढ़ संकल्पी स्त्री की छवि निर्मित करती है जो आक्रामकता से नहीं बल्कि विनम्र आत्मस्वीकार से अपने आस-पास वालों को वश में करती है। मेरे पास ऐसी बहुत सी स्त्री छबियां है जो कंदील की तरह मेरे जीवन और लेखन में जहां तहां जगमगाती दिख जायेगी आपको। मेरे पहले उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ की शिवा ने भी अपने संवेदनशील स्त्री चरित्र से पाठकों को मुग्ध किया है। ये स्त्रियां आज के समय में भी लेने से ज्यादा देने के सुख में विश्वास करती हैं। यूं भी यह सिर्फ स्त्री का गुण नहीं, वरन मानवीय गुणों की श्रेणी में आता है।

डॉ भावना शुक्ल – आपका नया आया उपन्यास “कौन देस को वासी….वेणु की डायरी“ इन दिनों विशेष रूप से चर्चा में है? आपको क्या लगता है। इसकी किस विशेषता की वजह से पाठक इसे सराह रहे हैं?

सूर्यबाला – बहुत मुश्किल है बताना। स्वयं मुझे आश्चर्य हो रहा है। कभी सोचा नहीं था कि इस तेज रफ्तार समय में इस लगभग चार सो पृष्ठ वाले उपन्यास को पाठक इतने धैर्य से पढ़ेंगे और मुक्तभाव से सराहेंगे। लोगों को यह भी अच्छा लगा कि इस पूरे उपन्यास के इतने चरित्रों मैं किसी चरित्र के साथ जजमेंटल नहीं हुई हूं। वे इस उपन्यास के प्रमुख चरित्रों वेणु के साथ ही नहीं, बल्कि उसकी मां, तीनों बहनों वसुधा, वृंदा, विशाखा तथा विदेश में मिले स्त्री चरित्रों के साथ भी इतना जुड़ाव महसूस करेंगे। एक पाठक ने लिखा है, इस उपन्यास को मैंने सिर्फ पढ़ा नहीं जिया है। कभी वेणु बन कर तो कभी मां, कभी विशाखा बन कर तो कभी वसु…. एक कारण शायद यह भी हो कि मैंने मात्र पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों को कथा रूप में समांतर पाठकों के सामने रख दिया है और निर्णय उनके ऊपर छोड़ दिया है। मैं स्वयं निर्णायक नहीं हुई हूं। पाठक पूरी तरह स्वतंत्र है परंपराओं और आधुनिकता तथा पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के बीच से रास्ता निकालने के लिए।

डॉ भावना शुक्ल – इन दिनों विवाह स्थायी क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

सूर्यबाला – कोई एक स्थूल कारण नहीं। पर कुछ चीजें शीशे की तरह साफ है। समय की रफ्तार बहुत तेज है। किसी के पास आपसी संबंध, दायित्व निभाने का समय नहीं। समय नहीं तो ‘साथ’ नहीं, और साथ की कामना  की चाहना धीरे-धीरे रितती चली जाती हैं। हर किसी के लिए विश्वास और संबंधों से ज्यादा कैरियर प्रमुख हो गया है। जीवन के सारे बहुत महत्वपूर्ण संबंध भी ‘अर्थ शास्त्र से जुड़ गए हैं। सबसे बढ़कर अब स्त्री ने अपने साथ निभाने वाली भूमिका से, त्याग और समर्पण वाले आदर्शों से किनारा कर लिया है। तो विवाह संस्था औंधे मुंह गिरेगी ही। आज भी जहां स्त्री, परिपक्व समझदार होती है, वह पति परिवार को बखूबी संभाल ले जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है दिनोंदिन तलाक की समस्या का बढ़ते जाना। यूं भी असफल विवाह के लिए तलाक एक सीमित समधान है मैंने कहीं लिखा था, तलाक स्वर्ग की गारंटी नहीं।

हमें दूसरों की भावना को समझने उसकी पसंद नापसंद की कद्र करनी होगी। बात बड़ी नहीं होती, बड़ी बना दी जाती है। सिर्फ एक दूसरे की भावना और पसंद को समझ कर हम एक दूसरे का दिल जीत सकते हैं। आज हर व्यक्ति बेसब्र है, हर किसी को अपनी शर्तों पर जीना है। ऐसे में ‘सहभाव’ और सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

डॉ भावना शुक्ल – क्या आज की स्त्री मुक्त हो पाई है। या वह मार्ग तलाश रही है, क्यों?

सूर्यबाला – ये मुक्ति, मुक्ति का शोर मचाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो वास्तविक मुक्ति का मतलब भी नहीं जानते। ‘मुक्ति’ नापतौल कर, गज फुट से मापी और मांगी जाने वाली चीज नहीं है। मुक्ति एक मानसिकता है, एक विचार है जो आपकी दृष्टि को फैलाव देता है। इससे आप दूसरो को भी रोशनी देते हैं। मुझे नहीं लगता है कि बहुत सी स्त्रियों को पता भी है कि आखिर उनकी तलाश है क्या? कैसी मुक्ति? किससे मुक्ति? मैंने बहुत सी साक्षर, महिलाओं को इतनी तंग मानसिकता का देखा है कि आश्चर्य हुआ है….. उन्हें सिर्फ अपनी स्पेस चाहिए। मुक्त तो वह स्त्री हुई न जो दूसरों की ‘स्पेस’ की चिंता करती हो, या वह जो दूसरों की स्पेस पर भी अपना वर्चस्व चाहती हो।

डॉ भावना शुक्ल – आज के समय में पाठक की मर्मज्ञता क्या दृश्य माध्यम से पूर्ण हो सकती है?

सूर्यबाला – शायद आपका आशा यह है कि क्या दृश्य माध्यम आज एक मर्मज्ञ पाठक/श्रोता या दर्शक की अपेक्षा पूरी करने की स्थिति में हैं? तो बिलकुल नहीं। दृश्य माध्यम पूरी तरह हवाई, अतिशयोक्ति पूर्ण चीजें परस रहे हैं। उन्हें सिर्फ टी.आर.पी. की चिंता है। वे दर्शकों की रूचियों का परिष्कार नहीं उसे प्रदूषित कर रहे हैं। वे टी.आर.पी. का बहाना लगा कर अत्यंत फूहड़, अव्यवहारिक और सतही मनोरंजन दे रहे हैं, और  दोष दर्शकों के माथे मढ़ रहे हैं, यह कहकर कि उन्हें यही पसंद आता है। यदि दर्शकों को पसंद आ भी रहा हो तो भी उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का ध्यान रखकर वह देना चाहिए जो लोगों के लिए श्रेयस्कर हो। वह नहीं जो मात्र उनके आर्थिक लाभ का माध्यम बनें।

डॉ भावना शुक्ल – कहानी या उपन्यास लिखते समय आप किस मानसिक स्थिति से गुजरती है?

सूर्यबाला – मैं कभी पहले से विषय निश्चित कर, योजना बना कर नहीं लिखती। रचना, कृति मेरे अंदर वर्षों, महीनों बड़े सपनीले मनोरम और आभासी रूप में रहते रहे हैं तब किसी दिन भावना का आवेग चरम पर होने पर कलम कागज पर चलने लगती है। वह एक बेसुधी की सी स्थिति होती है उस स्थिति, भावना से जुड़ा सबकुछ हम उतारते चले जाते हैं…. वहां भावना और आवेग प्रधान होते हैं। समय, सुविधा और स्थितियां जितनी देर साथ देती हैं, उतना लिखती हूं। या फिर उस समय अंदर का भी आवेग थमा, ‘इंधन’ चुका तो कलम फौरन रोक देती हूं।

इस लिखे हुए को मैं पूरी तरह बंद कर आंखों से ओझल कर देती हूं। दो चार दिन या हफ्ते बाद खोल कर पढ़ती हूं…. जहां कहीं जो अटकता है, या बहुत भावावेगी लगता है, उसे काटती तराशती संतुलित करती हूं। प्रेशर या दबाव बाहर का नहीं मेरे अंदर बैठे अदृश्य आलोचक या पाठक का कह लीजिए, उसका होता है। यही होना चाहिए भी, ऐसा मैं मानती हूं।

डॉ भावना शुक्ल – आपने व्यंग्य विधा में भी कलम चलाई है आपकी दृष्टि इस ओर कैसे गई?

सूर्यबाला – व्यंग्य लेखन भी मेरी कलम की स्वतः स्फूर्त विधा है। मैंने कहानियां लिख चुकने के महीनों वर्षों बाद व्यंग्य लिखना नहीं प्रारंभ किया, बल्कि व्यंग्य, कहानियां और उपन्यास सब साथ साथ ही चले। वह आठवें नवें दशक का समय था जब मैं एक साथ कहानियां, व्यंग्य, उपन्यास और बाल साहित्य चारों विद्याओं के धाराप्रवाह लिख रही थी। अंदर जितना जो था, वह भी संभाषित विधाओं को सौंप रही थी।

लेखन में हमेशा मैंने एक अनुशासन भी बरता, जब जो विधा, जो रचना नहीं संभली, फौरन छोड़ दी। अतः मेरे पूरे लेखन में सायास कुछ भी नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – उपन्यास कहानी व्यंग पर आप ने धारदार कलम चलाई है क्या कभी आपके मन में कविता लिखने का भाव नहीं उपजा ?

सूर्यबाला – लीजिए, मेरी शरूआत ही कविताओं से हुई है। यह पहली कविता भी अनायास ही लिख गई। मैंने कभी उस आठ नौ वर्ष की उम्र में कविता लिखने की सोची भी नहीं थी। एक दिन अनायास ही अकेले में सूझ गई, कुछ कविता टाइप पंक्तियां-

तुम बांसुरी हमारी, हो प्राण से प्यारी….

उस उम्र के लिहाज़ से इस पहली कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी भी ठीक ठाक ही लगती है- कृष्ण की बांसुरी पर सम्मोहित गोपियों के लिए वे पंक्तियां हैं-

यदि मार्ग में कोई रोक सके
तो प्राण उठा रख देती हैं।
प्राणों की बलि रखकर फिर भी….
आना वे नहीं भूलती हैं।

किशोर वय की प्रायः सभी कविताएं उत्तर प्रदेश के उन दिनों के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र ‘आज’ में छपती रहीं। उन्हीं किन्हीं दिनों क्रमशः कविता का जादू उतरता गया, कहानियां अपना वर्चस्व बढ़ाती गयीं।

डॉ भावना शुक्ल – लेखन आपके जीवन में क्या मायने रखता है क्या यह आपका अनिवार्य अंग बन गया है?

सूर्यबाला – अब इसमें दुविधा संशय नहीं रह गया है कि लिखना मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन गया है। मुझे लिख कर शांति मिलती है सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है। जीवन में इससे बढ़ कर कुछ चाहिए भी नहीं। मेरी जरूरतें बहुत सीमित हैं। कुछ प्यार भरे रिश्ते, अपना भरापूरा कुटुंब और अपनी कलम, बस…..

लोग अकसर मुझे फोन कर करके दूसरों को मिले पुरस्कारों का हवाला देकर टटोलते भी हैं कि फलां फलां को मिल गया… अमूक पुरस्कार….. लेकिन आपको….. मुझे हंसी आती है…. उन्हें कैसे समझाऊं कि एक अच्छी रचना पूरी करने के बाद का सुख लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। उसे उसी नशे में धुत होना चाहिए। मेरी जिद् ही कहिए कि आधी सदी से ऊपर हो गए, मैंने आज तक किसी पुरस्कार के लिए अपनी कोई पुस्तक नहीं भेजी। किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ी। ऊपर ऊपर इसका नुकसान भी उठाया। पर इस जिद ने मुझे बहुत रिलेक्श रखा। अब तक के जीवन में, छोटे या बड़े, जो पुरस्कार स्वयं मेरे पास आए, उन्हें बेशक मैंने सरआंखों से लगाया। ये बिन मांगे मिले मोती थे।…..

डॉ भावना शुक्ल – अंत में आप अपनी किसी भी विधा का एक प्रेरणात्मक अंश हमारे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कीजिए ?

सूर्यबाला – मेरे नये आये उपन्यास ‘कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी’ के परिशिष्ट का एक अंश जहां वेणु का अमेरिका में पला बढ़ा और भारत पर हंसने वाला बेटा, बेटू अपने पिता को उस डच बॉस जॉन मार्टिन के बारे में बता रहा है कि किस तरह उसका ‘योगी बॉस’ इंडिया से प्रभावित है-

‘.—-’ एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो मद्राः’ और ‘संतोष परम् सुखम्’ कोट करता रहता है दूसरी तरफ ‘इंडियन वे ऑफ मगिंग’, ‘इंडियन वे ऑफ लर्निंग,’ ‘इंडियन वे ऑफ लिविंग’ तक विश्लेषित करते हुए कहता है कि- नाउ इज़ द टाइम जब ‘वेस्ट’ को ‘ईस्ट’ से जूझ कर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं इंडियंस। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन इंश्योरेंस ऐंड बैंकिंग तक…. दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियंस का ही बोलबाला है।’

सूर्यबाला

बी. 504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड देवनार मुंबई-88

मो. 9930968670, Email- [email protected]

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

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मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानदंड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Criterion ☆ published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – मानदंड

 

सफेद कैनवास पर

बिखर जाते हैं रंग

कैनवास रंगमिति से

उर्वरा हो जाता है,

सृजन की बधाई देने

समूह पहुँचता है…..

सफेद साड़ी पर

भूल से छितर जाती है

रंग की एकाध बूँद,

आँचल तनिक फहराता है

हाहाकार मच जाता है,

घुटते रहने की हिदायत देने

समूह पहुँचता है…..

कलमकार देखता है स्वप्न,

काश फ्रेम पर तान देता

सफेद साड़ी और

औरत को ओढ़ा पाता कैनवास!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 2:17 बजे, 30.8.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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