मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 10 ☆ श्रीदासबोधाची  शिकवण ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता श्रीदासबोधाची  शिकवण जो श्री दासबोध की शिक्षा पर आधारित है. यह शिक्षा सामजिक सरोकार से सम्बन्ध रखती है एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ समाज के सर्वांगीण उत्थान की प्रेरणा देती है. श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 10 ☆

 

☆ श्रीदासबोधाची  शिकवण ☆

 

श्रीरामाचा मंत्र जपोनि करुया शुद्धी चित्ताची  !

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची !!धृ.!!

 

धर्म भ्रष्टण्या काळ ठाकला !

उसळतसे हैवान पहा!

देव धर्म भगिनी मातांचा ,

विध्वंस मांडला कसा पहा !!

दुष्कृत्याच्या प्रतिकारास्तव कास धरुन हनुमंताची !!१!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची !!१!!

 

बुद्धी बलाच्या संगमताने

कुविचारांचा ऱ्हास करु

सुविचारांची करु पेरणी

सद्भावांना हाती धरु!

वाढवू शक्ती ऐक्याची !

संघटना करु नीतिची!!२!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!२!!

 

शिक्षणाच्या पवित्र क्षेत्री!

लुडबुड लबाड लांडग्यांची !

ज्ञानयज्ञातही सत्ता चाले!

राजकारणी धनदांडग्यांची!

उभे ठाकूया तोंड द्यावया

असल्या पढतमूर्खांची !!३!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!३!!

 

शिकवू मुलगी करु हुषार !

दुबळी मुळी नच ती राहणार !

स्वाभीमानाचा करुनीजागर !

हिंमत तिची वाढवणार!

स्वसंरक्षाणास्तव स्वयंसिद्धा ती होणार !

सुवर्ण पदके जिंकून आणून!

होई देशाची ती शान !

होई देशाची ती शान !!४!!

 

श्रीरामाचा मंत्र जपोनि !

करुया शुद्धी चित्ताची!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!

आपण दासबोधाची!!

 

“जय जय रघुवीर समर्थ “!

©®
उर्मिला इंगळे
!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।।39।।

 

मेरे इस संदेह को करने दूर समर्थ

सिवा आप के कृष्ण हे ! कौन कहेगा अर्थ।।39।।

 

भावार्थ :  हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।।39।।

 

This doubt of mine, O Krishna, do Thou completely dispel, because it is not possible for any but Thee to dispel this doubt. ।।39।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 20 ☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  उम्मीद: दु:खों की जनक. यह जीवन का कटु सत्य है कि हमें जीवन में किसी से भी कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. हम अपेक्षा रखें और पूरी न हो तो मन दुखी होना स्वाभाविक है. इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्त जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है. ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 20 ☆

 

☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆

 

यदि शांति चाहते हो तो कभी दूसरों से उनके बदलने की अपेक्षा मत रखो बल्कि स्वयं को बदलो। जैसे कंकर से बचने के लिए जूते पहनना उचित है, न कि पूरी धरती पर रैड कार्पेट बिछाना… यह वाक्य अपने भीतर कितना गहरा अर्थ समेटे है। यदि आप शांति चाहते हो तो अपेक्षाओं का दामन सदैव के लिए छोड़ दो..अपेक्षा, इच्छा, आकांक्षा चाहे किसी से कुछ पाने की हो अथवा दूसरों को बदलने की…सदैव दु:ख,पीड़ा व टीस प्रदान करती हैं।मानव का स्वभाव है कि वह मनचाहा होने पर ही प्रसन्न रहता है। यदि परिस्थिति उसके विपरीत हुई, तो उसका उद्वेलित हृदय तहलका मचा देता है,जो मन के भीतर व बाहर हो सकता है। यदि मानव बहिर्मुखी होता है, तो वह अहंतुष्टि हेतू उस रास्ते पर बढ़ जाता है… जहां से लौटना असंभव होता है। वह राह में आने वाली बाधाओं व इंसानों को रौंदता चला जाता है तथा विपरीत स्थिति में वह धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है… सब उससे रिश्ते-नाते तोड़ लेते हैं और वह  नितांन अकेला रह जाता है। एक अंतराल के पश्चात् वह अपने परिवार व संबंधियों के बीच लौट जाना चाहता है, परंतु तब वे उसे स्वीकारने को तत्पर नहीं होते। वह हर पल इसी उधेड़बुन में रहता है कि यदि वे लोग ज़िन्दगी की डगर  पर उसके साथ कदम-ताल मिला कर आगे बढ़ते तो अप्रत्याशित विषम परिस्थितियां उत्पन्न न होतीं। उन्होंने उसकी बात न मान कर बड़ा ग़ुनाह किया है। इसलिए ही उसने सब से संबंध विच्छेद कर लिए थे।

इससे स्पष्ट होता है कि आप दूसरों से वह अपेक्षा मत रखिए जो आप स्वयं उनके लिए करने में असक्षम-असमर्थ हैं। जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। मानव को पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है। यदि उसमें आत्म-संतोष है तो वह निर्धारित मापदंडों पर खरा उतर सकता है, अन्यथा वह अपने अहं व क्रोध द्वारा आहत होता है और अपना आपा खो बैठता है। अक्सर वह सबकी भावनाओं से खिलवाड़ करता… उन्हें रौंदता हुआ अपनी मंज़िल की ओर बेतहाशा भागा चला जाता है और कुछ समय के पश्चात् उसे ख्याल आता है कि जैसे कंकरों से बचने के लिए रेड कार्पेट बिछाने की की आवश्यकता नहीं होती, पांव में जूते पहनने से मानव उस कष्ट से निज़ात पा सकता है। सो! मानव को उस राह पर चलना चाहिए जो सुगम हो, जिस पर सुविधा-पूर्वक चलने व अपनाने में वह समर्थ हो।

यदि आप शांत रहना चाहते हैं, तो अपनी इच्छाओं- आशाओं, आकांक्षाओं-लालसाओं को वश में रखिए  उन्हें पनपने न दीजिए…क्योंकि यही दु:खों का मूल कारण हैं। सीमित साधनों द्वारा जब हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो अवसाद होता है और अक्सर हमारे कदम गलत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हम अपने मन की भड़ास दूसरों पर निकालते हैं और सारा दोषारोपण भी उन पर करते हैं। यदि वह ऐसा करता अर्थात्  उसकी इच्छानुसार आचरण करता, तो ऐसा न होता। वह इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि उसके कारण ही ऐसी अवांछित-अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं।

प्रश्न उठता है कि यदि हम दूसरों से अपेक्षा न रख कर, अपने लक्ष्य पाने की राह पर अग्रसर होते हैं तो हमारे हृदय में उनके प्रति यह मलिनता का भाव प्रकट नहीं होता। सो ! जिस व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वही व्यवहार हमें उनके प्रति करना चाहिए। सृष्टि का नियम है कि’ एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो’ से गीता के संदेश की पुष्टि होती है कि मानव को उसके कर्मों के अनुसार फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए उसे सदैव शुभ कर्म करने चाहिए तथा गलत राहों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। गुरूवाणी में ‘शुभ कर्मण ते कबहुं ना टरहुं’ इसी भाव की अभिव्यक्ति करता है। सृष्टि में जो भी आप किसी को देते हैं या किसी के हित में करते हो, वही लौटकर आपके पास आता है। अंग्रेज़ी की कहावत ‘डू गुड एंड हैव गुड’ अर्थात् ‘कर भला हो भला’ भी इसी भाव का पर्याय-परिचायक है।

महात्मा बुद्ध व भगवान महावीर ने अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि ‘आवश्यकता से अधिक संचित करना, दूसरों के अधिकारों का हनन है। इसलिए लालच को त्याग कर, अपरिग्रह दोष से बचना चाहिए। आवश्यकताएं तो सुविधापूर्वक पूर्ण की जा सकती हैं, परन्तु अनंत इच्छाओं की पूर्ति सीमित साधनों द्वारा संभव नहीं है। यदि इच्छाएं सीमित होंगी तो हमारा मन इत-उत भटकेगा नहीं, हमारे वश में रहेगा क्योंकि मानव देने में अर्थात् दूसरे के हित में  योगदान देकर आत्म-संतोष का अनुभव करता है।

संतोष सबसे बड़ा धन है। रहीम जी की पंक्तियां ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ में निहित है जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की कला। संतुष्ट मानव को दुनिया के समस्त आकर्षण व धन-संपत्ति धूलि सम नज़र आते हैं क्योंकि जहां संतोष व संतुष्टि है, वहां सब इच्छाओं पर पूर्ण विराम लग जाता है… उनका अस्तित्व नष्ट हो जाता है।

आत्म-परिष्कार शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम उपाय है। दूसरों को सुधारने की अपेक्षा, अपने अंतर्मन में झांकना बेहतर है,इससे हमारी दुष्प्रवृत्तियों काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर स्वयंमेव ही अंकुश लग जाता है। परिणाम-स्वरूप इच्छाओं का शमन हो जाने के उपरांत मन कभी अशांत होकर इत-उत नहीं भटकता क्योंकि इच्छा व अपेक्षा ही सब दु:खों का मूल है। शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है…जो हमें मिला है, उसी में संतोष करना तथा उन नेमतों के लिए उस अलौकिक सत्ता का धन्यवाद करना।

भोर होते ही हमें एक नयी सुबह देखने का अवसर प्रदान करने के लिए, मालिक का आभार व्यक्त करना हमारा मुख्य दायित्व है। वह कदम-कदम पर हमारे साथ चलता है, हमारी रक्षा करता है और हमारे लिए क्या बेहतर है, हमसे बेहतर जानता है। इसलिए तो जो ‘तिद् भावे सो भलि कार’ अर्थात् जो तुम्हें पसंद है, वही करना, वही देना…हम तो मूढ़-मूर्ख हैं। गुरुवाणी का यह संदेश उपरोक्त भाव को प्रकट करता है। मुझे स्मरण हो रहा है सुधांशु जी द्वारा बखान किया  गया वह प्रसंग…’जब मैं विपत्ति में आपसे सहायता की ग़ुहार लगा रहा था,उस स्थिति में आप मेरे साथ क्यों नहीं थे? इस पर प्रभु ने उत्तर दिया कि ‘मैं तो सदैव साये की भांति अपने भक्तों के साथ रहता हूं। निराश मत हो, जब तुम भंवर में फंसे आर्त्तनाद कर रहे थे, बहुत हैरान-परेशान व आकुल- व्याकुल थे—मैं तुम्हें गोदी में उठाकर चल रहा था— इसीलिए तुम मेरा साया नहीं देख पाए’…दर्शाता है कि परमात्मा सदैव हमारे साथ रहते हैं, हमारा मंगल चाहते हैं, परंतु माया-मोह व सांसारिक आकर्षणों में  लिप्त मानव उसे देख नहीं पाता। आइए!अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा, दूसरों से अपेक्षा करना बंद करें…परमात्म सत्ता को स्वीकारते हुए, दूसरों से किसी प्रकार की अपेक्षा न करें तथा उसे पाने का हर संभव प्रयास करें, क्योंकि उसी में अलौकिक आनंद है और वही है जीते जी मुक्ति।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बिटवीन द लाइन्स ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – बिटवीन द लाइन्स

 

वे समझते रहे-
मेरी माँ
समझ नहीं पाती
कविता में प्रयुक्त
मेरे भारी-भरकम
शब्दों के अर्थ,
मैंने उन्हें
कुछ जताया नहीं
कभी कुछ
समझाया भी नहीं..,
अलबत्ता उस रोज
मेरे काव्यपाठ के समय
श्रोताओं की वाह के बीच
माँ की आँखों से
प्रवाहित आह ने
उन्हें झूठा साबित कर दिया,
सारी भीड़
मेरी ‘पोएटिक लाइन्स’
पढ़ती रही,
केवल मेरी माँ
‘बिटवीन द लाइंस’
समझती रही।

(जब पढ़ो,’बिटवीन द लाइन्स’ पढ़ो।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है जल की महत्ता पर आधारित श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  का आलेख  पानी कहीं कहानी ना बन जाए.)

 

पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆

 

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

पानी बिना ना ऊबरे मोती मानुष चून।।

 

बचपन से पढते आए हैं और पानी के महत्व को समझकर भी नासमझी का ढोंग करते आए हैं। मगर आज ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका और उससे होने वाले दुष्प्रभावों ने  सोचने पर मजबूर कर दिया है कि “पानी कहीं कहानी ना बन जाए”कुछ उसी तरह जिस तरह आज वह ” पानी” भी लुप्तप्राय है – – भारत से ही नहीं पूरी पृथ्वी पर से – – – वह है इंसानियत का पानी, सद्भाव का पानी, निःस्वार्थ भाव- विभाव – अनुभाव का पानी, एक दूसरे के लिए मर मिटने की लगन का पानी, मानवता के नाम निष्ठा का पानी, सृष्टि के प्रति नैतिक जिम्मेदारी का पानी- – – और जिस दिन उपरोक्त सारे आब उर्फ पानी को हम बचा लेंगे निःसंदेह गले की प्यास बुझाने वाला पानी स्वयंमेव हमारे आंगनों, हमारे घरों और हमारे होठों की पहुंच में होगा।

भौतिकता की दौड़ में मानव-जाति जिस तरह कांक्रीट के जंगल निर्माण कर रही है – -पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है कि–

कटी हुई हर शाख से, चीखा एक कबीर!

मूरख आज इस आरी से, अपना कल मत चीर।!

कबीर की सीखों पर चलते हुए समाज में बहुत सकारात्मक बदलाव आए हैं अतः आज कबीर के नाम पर पुनः इस ईश सीख को अपना लें तो इस धरती पर  पानी कहानी नहीं जीवन की रवानी बन कर प्रवाहित रहेगा— हमेशा हमेशा हमेशा– आदि से अनादि तक, शून्य से अनंत तक, अणु से विराट तक, कण से ब्रम्हांड तक – और जल है तो जीवन है  की कहानी चलती रहेगी, चलती रहेगी अनवरत मानव जाति के साथ क्योंकि पंचभूतात्मक सत्य है – – कि क्षिति जल पावक गगन समीरा पंचतत्व विधि रची सरीरा!!—“और पानी कभी कहानी नहीं बनेगा “

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 18 ☆ मन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  एक अतिसुन्दर आलेख  “मन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ मन

 

“मन” क्या है?

मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.

मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.

सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.

जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है.  एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.

कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.

कबीरदास जी  का यह कथन याद आता है  .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆ वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆

☆  वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆

होती है इंसान की,वाणी से पहचान ।

वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ।।

 

मीठी वाणी से मिले,सामाजिक सम्मान ।

जीवन में रक्खें सदा,इसका समुचित ध्यान ।।

 

सोच समझ कर खोलिये,अपना मुँह श्रीमान ।

वाणी कभी न लौटती, रखें हमेशा ध्यान ।।

 

मीठी वाणी संग जो,रखे मधुर मुस्कान ।

दुश्मन भी अनुकूल हो, करता है सम्मान।।

 

वाणी से ही पनपता,सामाजिक सद्भाव।

वाणी से झगड़ा,कलह,वाणी से विलगाव ।।

 

मृदु वाणी ही कराती,सबसे अपना मेल ।

जिसके सहज प्रभाव से,चलते जीवन-खेल ।।

 

मधुर बोल ‘संतोष’ के,लगते विनत प्रणाम।

रिश्तों में भी मधुरता,आती है अभिराम।।

 

बिन बोले होती नहीं,बोली की पहचान ।

कोयल के हैं मधुर स्वर,कर्कश काक-समान।।

 

धन-दौलत फीकी समझ,होते शब्द महान ।

पीर पराई जो पढ़े जीते सकल जहान ।।

 

वाणी कटु जो बोलता,मिले न उसको मान ।

मधुर वचन अति प्रिय लगें,रखें हमेशा ध्यान ।।

 

बोलें सोच विचार कर,वाणी तत्व महान ।

इससे ही कटुता बढ़े, मिलता इससे मान ।।

 

कच्चा धागा प्रेम का,रहे हमेशा ख्याल।

वाणी से यह टूटता,वाणी रखे सँभाल।।

 

वशीकरण का मंत्र है,मीठे रखिये बोल ।

जीवन में “संतोष” नित तोल मोल के बोल ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प एकोणिसावा # 19 ☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी  का आलेख है  “वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट”। ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकोणिसावा# 19 ☆

 

☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆

 

 

काळ बदललाय, माणूस बदललाय , जमाना बदललाय. . . नेहमी ऐकतो  आपण. कोणी घडवले हे बदल? माणसानच आपली विचारसरणी बदलली  आणि दोष बदलत्या काळाला देऊन मोकळा झाला. आपण समाजात रहातो. . . समाजाचे देणे लागतो. . .

ही संकल्पना प्रत्येकाने सोइस्कर अर्थ लावून बदलून घेतली. स्वतःची जीवनसंहिता ठरवताना प्रत्येकाने माणसापेक्षा पैशाला  अधिक महत्त्व दिले  अन तिथेच नात्यात परकेपणा आला.

चार पायाच्या प्राण्यांना

हौसेने पाळतात माणसं

दोन पायाच्या  आप्तांना

मोलान सांभाळतात माणसं

हे आजचं वास्तव.  विभक्त कुटुंब पद्धतीतून जन्माला आलेली ही विचार सरणी. आज ”हम दो हमारा  एक”  चा नारा लावणारे सुशिक्षित पाळीव, मुक्या प्राण्यांवर अतोनात भूतदया दाखवतात.  अन जन्मदात्या आईवडिलांना मात्र वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवतात. मी मी म्हणणारे सुशिक्षित पतीपत्नी दिवसरात्र घराबाहेर रहातात. नवी पिढी सोशल मिडिया नेटवर्किंग मधून स्वतःचे भविष्य साकारताना दिसते.  एकविसाव्या शतकातील घर संवाद साधताना कमी पण वाद घालताना जास्त दिसतात.  वाद वाढले की माणस माणसांना टाळायला लागतात. अशी नात्यातली अंतरेच नात्यात विसंवाद  आणि दरी निर्माण करतात.

 आज प्रत्येकाला पैसा हवा आहे. पैशामुळे माणसाला दुय्यम ठरवणारी स्वार्थी विचारसरणी जीवनाचा अविभाज्य भाग बनली आहे.

इथे कोण लेकाचा कुणाची देशसेवा पाहतो

तू मला ओवाळ आता, मी तुला ओवाळतो.

हे ओवाळणं ,  एकमेकांची तळी उचलून धरणं या प्रवृत्तीतून माणूस माणसाशी स्पर्धा करतो आहे. आर्थिक दृष्ट्या दुर्बल घटकात  आता ज्येष्ठ नागरिकांचा समावेश होतो हे आपले दुर्दैव म्हणावे लागेल. वास्तल्य , ममत्व या भावनेने ज्येष्ठ ,आपल्या  अपत्यांना  आपल्या जवळील आर्थिक धन देऊन टाकतात.  आपला लेक वृद्धापकाळी आपला सांभाळ करील,  आपल्या म्हातारपणाची काठी बनेल या संकल्पना आता कालबाह्य बनू पहात आहेत.

वृद्धाश्रम काळाची गरज हा विचार पुढे आला आणि मग नवीन पिढीला रान मोकळे झाले.

नवीन पिढीला  आता संस्कारापेक्षा व्यवहार जास्त महत्वाचा वाटतो. पैसा  असेल तर माणूस ताठ मानेने जगू शकतो हा  अनुभव त्याला  आपल्या माणसात दुरावा निर्माण करायला भाग पाडतो. जुन्या पिढीतील नातवंडे सांभाळणारी जुनी पिढी ,त्यांचे विचार ,  नव्या पिढीला नकोसे वाटतात. ”पैसा फेको तमाशा देखो ”

हे ब्रीद वाक्य घेऊन नवीन पिढी माणुसकी पेक्षा  मतलबी पणाला प्राधान्य देताना दिसते.

जुन्या पिढीचा स्वभाव दोष हे कारण पुढे करून ज्येष्ठ नागरिकांना वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवला जातो. पण नवी पिढी स्वतःच्या पायावर उभे करण्यासाठी त्यांनी केलेले कष्ट, जबाबदारी नवी पिढी व्यवहारी दृष्टीने तोलते. आमच पालन पोषण करण त्यांची जबाबदारी होती त्यात जगावेगळे  असे काय केले?  अशी मुक्ताफळे  उधळली जातात.  घर  उभे करताना घरातल्या माणसाला  आपलेस करण्याचा संस्कार पैसा नामक द्रव्याने काबीज केल्याने ही वैचारिक दरी निर्माण झाली आहे.  आणि या दरीवर सेतू बंधनाचे कार्य वृद्धाश्रमाने केले आहे.

वृद्धापकाळी हवा  असलेला मायेचा  ओलावा, समदुःखी ,  समवयस्क व्यक्ती कडून मिळाल्यावर  एकटा जीव वृद्धाश्रमात आपोआप रुळतो. स्वतःच दुःख विसरायला शिकतो.  प्रत्येक व्यक्ती  आपला राग  आपल्या व्यक्ती वर किंवा पगारी नोकरावर काढू शकते. .वृद्धाश्रमात या दोन्ही गोष्टी शक्य नसल्याने माणूस नव्याने जगायला शिकतो. स्वतःच्या विश्वात रममाण होण्यासाठी स्वतःच्या भावनांना  आवर घालतो आणि हा नवा घरोबा स्विकारतो.

नवीन पिढीला घडविण्यात  आपण कुठेतरी कमी पडत  आहोत का? याचा विचार करण्याची गरज  आता निर्माण झाली आहे. कारण  आईवडिलांना सांभाळण्याचे दायित्व नाकारून नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट कुटुंब व्यवस्थेला हानीकारक आहे. आज  आई बापांना वृद्धाश्रमात पाठविण्याचा आदर्श पुढील पिढीने घेतला तर  नातेसंबंध अजूनच मतलबी होतील.

या स्पर्धेच्या युगात स्वतःचा निभाव लागण्यासाठी नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट नातेसंबंधाला सुरूंग लावणारी आहेच पण त्याच बरोबर दिखाऊ पणाचे समर्थन करणारी आहे.  आज  आई बाबा वृद्धाश्रमात रहातात ही गोष्ट ताठ मानेने सांगितली जावी यासाठी काही समाज कंटक प्रयत्न शील आहेत.  आपण वृद्ध झाल्यावर  आपल्याला सन्मानाने जगता यावे यासाठी शोधलेली वृद्धाश्रमाची पळवाट नात्यातले स्नेहबंध कमी करीत आहे हेच खरे  आहे.

आपण कुणाचा  आदर्श घ्यायचा? कुणाचा आदर्श समोर ठेवायचा?  आपली जबाबदारी ,आपली कर्तव्ये हे सारे जर  आपण  आपल्या  आर्थिक परिस्थितीशी निगडीत केले तर हा गुंता सोडवायला  अतिशय कठीण जाईल.

आपण  आणि आपली जबाबदारी यात जोपर्यंत  ”आई बाबा ‘, यांचा समावेश होत नाही तोपर्यंत ही पळवाट आडवाटेन या समाजव्यवस्थेला ,  कुटुंब व्यवस्थाला दुर्बल करीत रहाणार यात शंका नाही.

मी माणसाचा  आहे,  माणूस माझ्या  आहे त्याच मन जपणे ही माझी जबाबदारी  आद्य कर्तव्य आहे हे जोपर्यंत नवीन पिढी मान्य करीत नाही तोपर्यंत ही पळवाट अशीच निघत रहाणार.

आपण घडायचं की आपण बिघडायचं हे  आता ज्याचं त्यानचं ठरवायचं.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।38।।

 

असफलता से कहीं हो छिन्न आत्म विश्वास

ब्रम्ह प्राप्ति के मार्ग पर पाता नहीं विनाश।।38।।

 

भावार्थ :  हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?।।38।।

 

Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman? ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11 – A butterfly woman ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “A butterfly woman”.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11

 

☆ A butterfly woman ☆

Let them

Keep looking at your bodily beauty-

The luminous colour of your skin,

The pretty patterns on your wings,

The magnificent gait while you fly!

 

You should concentrate

Only upon your wings

And its innate strength!

 

One day,

You will have touched the sky

And that’s what

A butterfly woman

Is meant to do!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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