हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी ☆

*प्रश्न:* चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।

*उत्तर:* साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केन्द्रित करना होता है। केन्द्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।

…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – विजयादशमी विशेष – ☆ विजयादशमी – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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“विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

रावण के लिए यह आखिरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़े भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानरों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनोंलोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुंचाने के लिए उनका उपयोग नहीं करेंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आप लोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋती मृत्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति,  रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक  नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाता है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ काली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।

रावण ने उत्तर  दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु की नहीं”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध  लड़ें  कि  आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 18 – जीवन साथी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “जीवन साथी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि –  पति पत्नी अपने परिवार के दो पहियों की भाँति होते हैं ।  यदि वे  मात्र आपने परिवार ही नहीं अपितु एक दूसरे के परिवार का भी ध्यान रखें तो जीवन कितना सुखद हो सकता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 18 ☆

 

☆  जीवन साथी ☆

 

जीवनसाथी कहते ही मन प्रसन्न हो जाता है।  दोनों परिवार वाले और पति पत्नी का साथ सुखमय होता है। ऐसे ही ममता और विनोद की जोड़ी बहुत ही सुंदर जोड़ी। ममता अपने गांव से पढ़ी लिखी थी और विनोद एक इंजीनियर।

ममता के घर खेती बाड़ी का काम होता था। भाई भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। सभी खेती किसानी में लगे थे परंतु सभी खुशहाल थे। ममता के पिताजी यदा-कदा ममता के यहां शहर आना-जाना करते थे। ममता को अपने ससुराल में सभी के साथ घुल मिल कर रहता देख पिताजी खुश हो जाते थे। बात उन दिनों की है जब स्मार्टफोन का प्रचलन शुरू हुआ था।

गांव में भी किसी किसी के पास फोन हुआ करता था परंतु ममता के मायके में फोन अभी तक नहीं आया था। कुछ दिनों बाद ममता के भाइयों ने स्मार्ट फोन ले लिया परंतु पिताजी को नहीं देते थे। उनका भी मन होता था फोन के लिए। एक दिन शहर आए थे ममता के घर बड़े ही उदास मन से बेटी से बात कह रहे थे कि उनका भी मन फोन लेने को होता है परंतु अभी पैसे नहीं हो पा रहे हैं दूसरे कमरे से विनोद चुपचाप पिताजी और ममता की बात सुन रहे थे।  अपने समय पर वह ऑफिस निकल गए। ममता पिता जी की बातों से दुखी थी। दिन भर अनमने ढंग से काम कर रही थी।

शाम होते ही विनोद ऑफिस से घर आए। चाय बनाकर ममता ले आई पिताजी साथ में बैठे थे। विनोद ने बैग से पैकेट निकाल पिताजी को देते हुए कहा-  पिताजी आपके लिए। ममता आश्चर्य से देखती रह गई उनके हाथ में स्मार्टफोन का डिब्बा था। ममता की आंखों से आंसू निकल आए। पिताजी भी कुछ ना बोल सके खुशी से विनोद को गले लगा लिया।

ममता दूसरे कमरे में चली गई विनोद ने जाकर कंधे पर हाथ रख कर कहा कि क्या तुम्हारे पिताजी के लिए मैं इतना भी नहीं कर सकता। तुम दिन भर मेरे घर परिवार की देख भाल करती हो आखिर वह भी हमारे पिताजी हैं।

इतना समझने वाला जीवन साथी पाकर ममता बहुत खुश है। ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करती रही सुखमय जीवन के लिए और विनोद जैसा जीवन साथी पाने के लिए।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 – ☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 ☆

 

☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ 

 

काव्यदिंडीच्या निमित्ताने कवयित्री पद्मा गोळेंच्या अनेक कवितांची सौंदर्ययात्रा झाली. ‘ चाफ्याच्या झाडा’शी साधलेला सुरेल तरल संवाद मनाला भिडला, अफाट आकाशाला डोळ्यांत सामावून घेत गगनभेदी निळया स्वप्नांचा वेध घेणारी ‘आकाशवेडी’ची झेप डोळे दीपवून गेली, शब्दाच्या सामर्थ्याची प्रचीति ‘मौना’ तून आली ‘बकुळीची फुलं’ गंधभारल्या आठवणी पालवून गेलीत, तर ‘स्वप्न, रात्र, निद्रा’ गोड समर्पणभाव मनात जागवून गेली. पद्मा गोळेंच्या हळुवार स्त्री मनाची स्पंदनं टिपतांनाच माझं लक्ष वेधून घेतलं  लोभस रूपड्यातल्या ‘ माझ्या पाठच्या बहिणी’ ने. मोठ्या बहिणीच्या अंतरीच्या जिव्हाळ्यात आरपार भिजलेली, हळुवार भावनांच्या साजाने नटलेली ही पाठची बहिण!

 

*माझ्या पाठच्या बहिणी*

 

माझ्या पाठच्या बहिणी

तुझ्या संगती सोबती

आठवणी पालवती

शैशवाच्या

 

तुझ्या संगती सोबती

मज माहेर भेटले

आणि मनात दाटले

काहीतरी

 

गडे आलीस पाहुणी

ग्रीष्मी झुळुक वाऱ्याची

आसावल्या मानसाची

तृप्ती झाली

 

बाळपणीची ममता

आंबा पाडाचा मधुर

अजुनही जिव्हेवर

रूची त्याची

 

तुझे माझे घरकुल

उभे अजून माहेरी

जणू पऱ्यांची नगरी

शोभिवंत

 

आज भिन्न तुझे गांव

भिन्न तुझे माझे नांव

परि ह्रदयीचा भाव

तोच राही

 

तुझे दाट मऊ केस

विंचरले माझे हाती

सुवासिक त्यांची स्मृति

अजूनही

 

तुझ्या संगती सोबती

भांडलेही कितीकदा

वाढे भांडून ममता

पटे अाज

 

चार दिवस बोललो

आठवणी उजळीत

चिंचा आवळे चाखीत

शैशवीचे

 

चार दिवस हिंडलो

वेष सारखा करूनी

पुन्हा कुणीही बहिणी

ओळखाव्या

 

चार दिस विसरलो

तू, मी, माता नि गृहिणी

विनोदाने हूडपणी

बोलतांना

 

तुझी माझी गं ममता

वेळ गोड पहाटेची

मना तजेला द्यायची

निरंतर

 

घरी निघाली पाहुणी

टाळते मी तुझी दृष्टी

वाटे अवेळीच वृष्टी

होईल की…..

 

पाठीला पाठ लावून आलेल्या, बरोबरीने लहानाच्या मोठ्या होणाऱ्या बहिणींचे भावबंध म्हणजे सुबक वीणीची, आकर्षक रंगसंगतीची मऊ सूत शालच नव्हे काय ? अविरत मायेची शिंपण करत, फुलवणारं, जोपासणारं दोघींचं लडिवाळ माहेरही एक आणि रुणझुणत्या संवादाच्या गळामिठीला, कुरकुरत्या वादाच्या कट्टी बट्टीला साक्षी असलेलं अंगणही एकच !

शैशव, किशोरावस्थेचा टप्पा बरोबरीने पार करतांना तारूण्यात पदार्पण होतं, माहेरचा उंबरा ओलांडतांना जडशीळ झालेली पावलं, सासरच्या उंबऱ्यावरचं माप ओलांडायला अधीर होतात, सासरी हळूहळू स्थिरावतात, रमतात. कधी तरी सय येते थोरल्या बहिणीची  धाकलीला आणि पावलं वळतात तिच्या घरट्याच्या दिशेला. भेटीला आलेल्या धाकट्या बहिणीबरोबर, पुन: बालपणीचे सुखद स्मृतींचे शंखशिंपले वेचतांना, संपन्न माहेराची  चांदणझूल पांघरतांना, शैशवीच्या आंबटगोड आठवणींचा आस्वाद घेतांना, थोरलीच्या आयुष्यातला तोच तो पणा, मनाला आलेली मरगळ कुठल्या कुठे पळून जाते. जणू धाकलीचं तिच्या घरी येणं म्हणजे..जणू ऐन ग्रीष्मातली  शीतल  वाऱ्याची झुळुकच…आसावल्या मनाला शांतवणारी..सुखविणारी !

आज दोघींची ओळख नावगावासकट  जरी बदलली असली तरी दोघींच्या मनीचा ओढाळ ममत्वभाव अगदी तस्साच आहे..अगदी मधुर पाडासारखा ! कर्तेपणाची, मोठेपणाची झूल उतरवत, मनात दडलेल्या मुलाला हाकारत, एकमेकींच्या संगती खळखळून हंसतांना, बालपणीचं झुळझुळतं वारं पुन्हा एकदा अंगावर घेतांना वास्तवाचा विसर दोघींना पडतो ! लहानपणीच्या रूसव्या फुगव्यांनी जणू एकमेकींना अधिकच जवळ आणलंय याची खूणगाठ अंतरी पक्की होते, बहिणीचे दाट मऊ केस विंचरल्याच्या सुवासिक स्मृतींभोवती मन भिरभिरतं. पुन: एकदा बालपण जागवत सारखा वेष करत बहिणी बहिणी म्हणून  मिरवण्याचा मोह होतो. आपलं घट्ट नातं आपण दिमाखात मिरवावं, जगानेदेखील कौतुकाने बघावं असा मोह ह्या मायेच्या बहिणी बहिणींना नाही झाला तरच नवल !

काळ वेळ आणि वास्तवाचं भान करून देणारा निरोपाचा अटळ क्षण शेवटी येऊन ठेपतो. मन अधिकच हळवं होतं. पुन: कधी भेट…?

..अशी ओठावरच्या शब्दांची जागा घेणारी  व्याकूळ नजर..नजरानजर होताच बांध फुटेल की काय अशी अवस्था..!

बहिणी बहिणींचं प्रेमाचं नातं खुलवतांना विविध उपमांतून किती  सुरेख रंग भरलेत कवयित्रीने ! बालपणीच्या निरागस लळ्याला, पाडाला आलेल्या मधुर  आंब्याची उपमा देणं,  तिच्या येण्याला ग्रीष्मात अवचित आलेली सुखावणारी शीतल वाऱ्याची झुळुक मानणं, त्यांचा आपसातला जिव्हाळा म्हणजे मनाला टवटवी देणारी पहाटवेळ मानणं ! अशा समर्पक उपमांनी ह्या नात्याचे रंग अधिकच गहिरे होतात आणि नजरेत भरतात.

जरी काळ बदलला, संदर्भ बदलले तरी बहिणी बहिणींचा आपसातला अनेक पदरी जिव्हाळा खरंच फारच लोभस असतो. आणि त्याच्या छटा आपल्या विलोभनीय रूपाने मनाला भुरळ घालतातच, अगदी पद्मा गोळेंनी शब्दरूपाने साकारलेल्या ‘माझ्या पाठच्या बहिणी’ सारख्याच !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)




मराठी साहित्य – ☆ मराठी कविता ☆ अष्टादशभुजा देवी महिषासुरमर्दिनी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है.  आज उनकी कविता  धार्मिक एवं सामयिक है.  आज प्रस्तुत है उनकी कविता  – “अष्टादशभुजा देवी महिषासुरमर्दिनी”.)

 

☆ अष्टादशभुजा देवी महिषासुरमर्दिनी ☆

 

महिषमर्दिनी लक्ष्मी

अष्टादशभुजा देवी

सर्व देवांचे तेज ही

हीच महालक्ष्मी देवी !!१!!

 

ही श्रेष्ठ उत्तम गुणी

वध महिषासुराचा

करण्यास अवतार

केलासे धारण हिचा !!२!!

 

वधुनिया महिषाला

देवकार्य तिने केले

महिषासुर मर्दिनी

म्हणुनचि संबोधिले !!३!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #19 – नऊ रंगांची वस्त्रे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एकसामयिक एवं सार्थक कविता “धूर्त सारथी”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 19 ☆

 

 ☆ नऊ रंगांची वस्त्रे ☆

 

नऊ दिवस नऊ रंगांची वस्त्रे लेऊन

ती समाजात मिरवते आहे

तरीही मला नाही वाटत

ती माझी जिरवते आहे

 

अक्षराच्या माथ्यावर असलेल्या

अनुस्वाराइतकी लाल टिकली

आणि स्लीवलेस ब्लाउजवर

नेसलेली तिची लाल भडक साडी…

मी कपाळभर रेखाटलेलं भाग्याचं कुंकू

ते मात्र तिला असभ्य पणाचं लक्षण वाटतं

 

आजच्या पिवळ्या रंगालाही

मी सांभाळलंआहे

हळदी कुंकाच्या साक्षीने

 

हिरव्या रंगाची साडी नसली तरी

हातभार हिरव्या रंगाचा चुडा

असतो माझ्या हातात कायम

 

निळ्या आकाशाखाली

मी रांधत असते भाकर

गरिबीच्या विस्तवावर

निसर्गाच्या सानिध्यात

 

राख-मातीने माखलेल्या, राखाडी रंगाच्या

दोनचार जाड्याभरड्या साड्या

आहेत माझ्याकडे, त्याच नेसते मी

ग्रे रंग असेल त्या दिवशी

 

सकाळी सकाळी सूर्याने केलेली

केसरी रंगाची उधळण

दिवसभरासाठी

उर्जा देऊन जाते मला

 

पांढऱ्या शुभ्र फुलांचा गजरा

माळला आहे मी केसांच्यावर

त्याचा गंध सोबत करतो मला दिवसभर

 

आजचा रंग आहे गुलाबी

अगदी माझ्या गालांसारखा

पावडर लावून

पांढराफटक नाही करत मी त्याला

 

अंगणात लावलेल्या वांग्यानी

परिधान केलेला जांभळा रंग

आज माझ्या भाजीत उतरून

कुटुंबाच्या पोटाची सोय करणार आहे

 

नऊ रंगांची नऊ वस्त्रे

माझ्याकडे नसली तरी

निसर्गाच्या नऊ रंगांचा आनंद कसा घ्यायचा

हे शिकवलंय मला निसर्गानंच…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।।28।।

 

ऐसी विधि से साध मन,कर योगी अभ्यास

जाता पा सुख शांति सब परब्रम्ह के पास।।28।।

 

भावार्थ :  वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है।।28।।

 

The Yogi, always engaging the mind thus (in the practice of Yoga), freed from sins, easily enjoys the infinite bliss of contact with Brahman (the Eternal). ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ महानवरात्रि विशेष – सुनो स्त्रियों ☆ – सुश्री निर्देश निधि

महानवरात्रि विशेष 

सुश्री निर्देश निधि

 

(सुश्री निर्देश निधि जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.

सुश्री निर्देश निधि जी की साहित्यिक यात्रा जानने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें  >>-सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत हैं महानवरात्रि पर उनकी विशेष कविता “सुनो स्त्रियों”.)

 

(इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆ Listen ladies ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ सुनो स्त्रियों ☆

 

आज महालया* का शुभ दिन है

और आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं

 

तुम्हें कह दिया गया था

सभ्यताओं के आरम्भिक दौर में ही

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तंत्र देवता

 

तुम मान ली गईं वह देवी

जिसके सकल अँगों को ढाल दिया गया था

उनके सुन्दरतम रूप में

 

बस छोड़ दिये गये थे नयन शेष

वे नयन जो देख सकते थे

तुम पर किसी की दृष्टि का स्याह – सफेद रंग

 

दिखा सकते थे तुम्हें मार्ग के गड्ढे

तुम्हारा भला बुरा भी,

और क्यों ना दिखाते भला

तुम्हारे गन्तव्य से भिड़ने के अभ्यस्त विशाल पत्थर भी

संवर कर कदाचित तुम्हें कर सकते थे निरापद

 

तुम्हारे बिन बने नयनों के लिए

सहस्त्रों बरस लम्बा पितृपक्ष

समझो आज खत्म हुआ

 

आज महालया का शुभ दिन है

और आज ही तुम्हारे नयन संवारे जाने हैं

ताकि तुम देख सको वह सब

जो तुम्हारे हित में था, सदियों से

 

जिन गड्ढों में तुम बार – बार गिरीं

बिना आंख की होकर

चल सको उनसे बच कर

 

और वे सदियों से अभ्यस्त

विशाल पत्थर भी कभी

भिड़ न सकें तुम्हारे गंतव्य की शहतीरों से

 

आज महालया का शुभ दिन है और

आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं

 

©  निर्देश निधि, बुलंदशहर

 

* महालया – दुर्गा पूजा में स्थापित करने के लिए कलाकार देवी की मूर्ति पूर्ण कर लेता है, बस आँख छोड़ देता है। पितृ पक्ष के बाद महालया में देवी की आंख बनाई जाती है, अब देवी पूर्ण होकर पंडालों या घरों में स्थापित हो जाती हैं.

 

संपर्क – निर्देश निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र ) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

 




हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – गणित, कविता, आदमी! – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – गणित, कविता, आदमी! ☆

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा ऐसी रही कि गणित की रुक्षता से कविता की सरसता को राह मिली।)

 

बचपन में पढ़ा था

X + X , 2X होता है,

X × X,  X² होता है,

Y + Y,  2Y होता है

Y × Y,  Y² होता है..,

X और Y साथ आएँ तो

X  + Y होते हैं,

एक-दूसरे से

गुणा किये जाएँ तो

XY होते हैं..,

X और Y चर राशि हैं

कोई भी हो सकता है X

कोई भी हो सकता है Y,

सूत्र हरेक पर, सब पर

समान रूप से लागू होता है..,

फिर कैसे बदल गया सूत्र

कैसे बदल गया चर का मान..?

X पुरुष हो गया

Y स्त्री हो गई,

कायदे से X और Y का योग

X + Y होना चाहिए

पर होने लगा X – Y,

सूत्र में Y – X भी होता है

पर जीवन में कभी नहीं होता,

(X + Y)² = X² + 2XY + Y²

का सूत्र जहाँ ठीक चला है,

वहाँ भी X का मूल्य

Y की अपेक्षा अधिक रहा है,

गणित का हर सूत्र

अपरिवर्तनीय है

फिर किताब से

ज़िंदगी तक आते- आते

परिवर्तित कैसे हो जाता है.. ?

 

जीवन की इस असमानता को

किसी तरह सुलझाओ मित्रो,

इस प्रमेय को हल करने का

कोई सूत्र पता हो तो बताओ मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




English Literature – Poetry – ☆ Mahanavratri Special – Listen ladies ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

 

(We present an English Version of  Ms.  Nirdesh Nidhi’s Hindi poem ☆ सुनो स्त्रियों ☆   published in today’s issue .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

☆ Listen ladies ☆

 

Today is the auspicious

day of *Mahalaya*

And today your

eyes will be embellished…

 

As you were told

Right in the early phase of civilizations that

*Yatra Narayastu Pujyante Ramante Tatra Devata*

(…where women are worshiped, there deities visit…)

 

You were assumed to

be that goddess

Whose entire body

was molded

in her most beautiful form

Except that

the eyes were left

The eyes that could see the casting of someone’s

ominous eyesight on you…

 

Could show you the pitfalls on the road

Also, could sense the

good and bad for you,

And, why wouldn’t they show after the embellishment!!

Even the huge stones

—always  stumbling block in conquering the summit…

Would now make the journey safe…

 

For your unmade eyes

Consider the end of millennium long Pitrapaksh* today

 

Today is the auspicious day of *Mahalaya*

And, today only your eyes will be embellished

So that you can see all that which is good, and

Has been in your interest for centuries…

 

The perilous  pits will now be negotiated safely,

in which you used to  fall repeatedly,

being  vision-less…

 

And, the huge stones,

always a stumbling block,

dare not venture anymore against your steely resolve

to reach the destination…

 

Today is the auspicious day of *Mahalaya* and

Today is the day of embellishment of your eyes…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

**Mahalaya* —The sculptors complete the idols of the Goddess  Durga during the festival of Durga Puja, except the eyes, which they leave, to be installed after the Pitra Paksha. The eyes of the goddess are installed in *Mahalaya*, so that  the statue of goddess is completed and installed in pandals for the worship.

**Pitra paksh* lunar day period in Hindu calendar when Hindus pay homage to their ancestor, especially through food offerings.