हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 – गांव नहीं जाना बापू …….☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “व्यंग्य  –गांव नहीं जाना बापू…..” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 ☆

 

व्यंग्य – गांव नहीं जाना बापू ….. 

 

जैसई गंगू खुले में शौच कर लोटे का पानी खाली कर रहा था कि उधर से आते एक परिक्रमावासी बाबा दिख गये, गंगू ने जल्दी जल्दी पजामे का नाड़ा बांधा और हर हर नरमदे कह के बाबा को सलाम ठोंक दिया। परिक्रमावासी हाथ में टेकने की लाठी लिए थे, सफेद गंदी सी चादर ओढ़े और गोल-गोल चश्मा लगाए गंगू से गांव का नाम पूछने लगे। गंगू के बार बार बाबा – बाबा कहने पर वे चिढ़ गए बोले – मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. इन दिनों दोनों राजनीतिक पार्टी के नेता खूब मंदिरों के दर्शन कर रहे हैं और नर्मदा की परिक्रमा करके राजनीति कर रहे हैं इसलिए मैं भी नर्मदा परिक्रमा के बहाने गांवों के हालात देखने निकला हूँ….. चलो तुम्हारे गांव में कुछ चाय-पानी की हो जाए।

गंगू बापू को लेकर गांव की तरफ चल पड़ा…प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव टेकरी में बसा है, पड़ोस में कल – कल बहती पुण्य पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी – भरी पहाड़ियों से घिरा गांव पर्यटन स्थल की तरह लग रहा था। रास्ते में गंगू ने बताया – बहुत गरीबी, लाचारी बेरोजगारी और बिना पढ़े लिखे लोगों के इस गांव को सांसद जी ने गोद लिया है गोद लिये तीन साल से हो गए…..?   बापू ने पूछा – सांसद जी कभी तुम्हारे गांव आते हैं?

गंगू ने बताया – दरअसल मंत्री बन जाने से वे बेचारे ज्यादा व्यस्त हो गए तो तीन चार साल से नहीं आ पाए हैं पर जब चुनाव होता है तो थोड़ी देर के लिए हाथ जोड़ने ज़रूर आते हैं।

गंगू को चुहलबाजी में थोड़ा मजा आता है पूछने लगा – बाबा जी, सांसद जी ने अचानक ये गांव क्यों गोद ले लिया जबकि वे तो 30-40 साल से इस एरिया के सांसद हैं ?     बापू फिर नाराज हो गए बोले – तुम से कहा न…. कि बाबा नाम से हमें चिढ़ हो गई है फिर भी तुम बार – बार बाबा – – बाबा कह के चिढ़ाते हो….. हमारा नाम  “बापू” है…

तो सुनो अब तुम्हें विस्तार से बताता हूँ. एक मोहनदास करमचंद गांधी थे उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी उस गांधी ने चाहा था कि गांव गणतंत्र के लघु रूप हैं इसलिए गांव के गणतंत्र पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी की जाए, अब जे ईवेंट छाप प्रधानमंत्री ने कुछ नया करने के चक्कर में सभी सांसदों को एक – एक गांव विकास के लिए पकड़ा दिया। गांव गोद लो और आदर्श ग्राम बनाओ नही तो बिस्तर लेकर घर जाओ….. अंतरआत्मा से कोई सांसद इस लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था तो बिना मन के सांसदों ने गांव गोद ले लिया कई ने तो ऐसा गांव गोद लिया जहां कोई पहुंच न पाए, हालांकि सब जानते हैं कि दिल्ली से गरीबों के उद्धार के लिए चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के सरपंच के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं……… ।

बापू की सब बातें गंगू के सर के ऊपर से निकल रही थीं। गंगू बोल पड़ा – बापू ये आदर्श ग्राम क्या होता है ?

तब बापू ने बताया कि आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत ग्राम के वैयक्तिक, मानवीय, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलती है। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना – धोना और दांत साफ करने की आदतों की सीख दी जानी चाहिए, गांव में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, स्मार्ट स्कूल में पढ़ाई – लिखाई, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हास्टल और खेती – बाड़ी का विकास होना चाहिए….. और बताऊँ कि बस…… ।

गंगू को लगा ये बापू बड़ी ऊंची ऊंची बातें कर रहा है … परिक्रमावासी बाबा जैसा तो लग नहीं रहा है ? फिर….. अरे अभी दो साल पहले गांव में एक परिक्रमावासी बाबा आये थे तो गाँव भर के लड़कों को गांजा – भांग, दारू सिखा गये थे और गांव की अधिकांश नयी उमर की लड़कियों को निकास के भाग गए थे। पर ये बाबा अपने को बापू – बापू कहके बड़ी बड़ी बातें कर रहा है कहीं कोई खोट तो नहीं है ये परिक्रमावासी में…………

गंगू अंदर से थोड़ा डर सा गया पर बापू के कहने पर गांव में बापू के रुकने की जगह तलाशने लगा, पता चला कि पंचायत भवन में सरपंचन बाई की गैया बियानी है तो रुकने के लिए पंचायत भवन में जगह नहीं मिलेगी, हार कर गंगू ने तय किया कि अपने घर की परछी में बापू को सोने की जगह दे दी जाएगी…… घरवाली को पहले से ही हिदायत दे देंगे कि वो बाबा – आबा के चक्कर में पैर – वैर पड़ने बाहर न आये क्योंकि आजकल अधिकांश बाबा लोगों का कोई ठिकाना नहीं है।

जगह तलाशते – तलाशते हारकर गंगू ने बापू से कहा कि गांव में रुकने के लिए कहीं जगह तो है नहीं….. तो एक दिन की बात है बापू हमारे टूटे घर की परछी में रह लेना, पर बापू सच्ची सच्ची बताएं कि आपकी ये ऊंची ऊंची बेसुरी बातें हमारे समझ के बाहर हैं… काहे से कि हमारे गांव में न तो आज तक बिजली लगी, न सड़क बनीं, एक ठो धूल – धूसरित मदरसा जरूर है जिसमें नाक बहाते बिना चड्डी पहने बच्चे पढ़ने को कभी-कभी जाते हैं मास्टर कभी-कभी आता है छड़ी लेकर…. ।

एक  बार जिले से एक बाई बड़ी सी कार में आयी रही तो कह गई थी कि गांव का सिर्फ़ विकास ही विकास होना है इसलिए  तहसील जाकर सब लोग विकास से परिचय कर लेवें। जनधन योजना में खाते खुलवा लें। मजाक सी कर रही थी वो। बैंक यहां से 30-40 किमी दूर हैं कछु कयोस-अयोस का नाम ले रही थी तो वो भी 15-20  किमी दूर सड़क के किनारे खुलो है। गाँव भर में साल भर बीमारी पसरी रहती है, डॉक्टर तो कभी आओ नहीं इस तरफ। जिले वाली बाई जरूर कह गई थी कि गांव में हर हफ्ते डाक्टर आके जांच-पड़ताल करेगा और दवाईयां देगा, पर सालो जे गांव ऐसी जगह बसो है कि कोई आन नहीं चाहत। एक हैंडपंप खुदो तो वा में पानी नहीं निकलो। जिले वाली बाई कह रही थी कि घर -घर में नल लगा देहें…. पर बापू वो दिना के बाद वो बाई का भी कोई अता-पता नहीं मिलो……

बापू सुनके सुन्न पड़ गये, काटो तो खून नहीं।

बापू बोले – गंगू…. तुम गांधी जी को जानते हो क्या ? अरे वोई गांधी जिसकी फोटो नोट में छपी रहती है और नोट के पीछे से चश्मे में एक आंख से स्वच्छ देखता है और दूसरी आंख से भारत देख देख के मजाक करता है,   अरे वोई गांधी जिसका नाम ले-लेकर सब नेता लोग अपने अपने बंगले और बड़ी मोटर का जुगाड़ करते हैं और गांव के विकास का पैसा, गरीब के उद्धार का पैसा हजम करके बड़े बड़े पेट बढ़ा लेते हैं……। रोजई – रोज तो गांधी को गोली मारी जाती जाती है।

बापू गांव की उबड़ – खाबड़ गली से गुजरते हुए गंगू के पेट में हवा भरते चल रहे थे, गली में किसी बच्चे के पढ़ने और होमवर्क रटने की आवाज आ रही है.. “मां खादी की चादर ले दे…….. मैं गांधी बन जाऊँ”…… ।

गंगू का घर आ गया था, बापू अंगना में बैठ गए थे,

सरपंच पति वहां से निकले तो गंगू दौड़ के सरपंच पति के कान में खुसरफुसर करते हुए कहने लगा कि खेत में फारिग होने गए थे तो जे परिक्रमावासी टकरा गया, ऊंची ऊंची बात करता है… कहता है मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. नोट में जो एक डोकरा छपा दिखता है कुछ कुछ उसी के जैसे दिखता है……. और पूंछ रहा था कि गांव में कोई गांधी जी को जानता है कि नहीं……..

सरपंच पति हर हर नरमदे कहते हुए अंगना में बैठ गए। गंगू ने बापू को बताया – जे गांव के सरपंच पति हैं और इनका नाम भी  बापू बैगा है। एक बापू दूसरे बापू को देखकर ऐसे मुस्कराये जैसे पुरानी पहचान हो फिर  बापू बोले – यार सरपंच पति, तुम्हारे गांव में मोबाइल का सिग्नल नहीं मिल रहा है तुम्हारा गांव तो डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखा रहा है।  सरपंच पति ने कहा – बाबा जी, बात जे है कि इस गांव से 20-25 किमी के घेरे में सिग्नल नहीं है गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक पेड़ में चढ़ने पर मोबाइल के लहराते संकेत कभी कभी मिलते हैं जैई कारण से यहां कयोस-अयोस बैंक नहीं खुल पाई। जनधन खाता के दस बीस खाता खुले थे बैंक वाले पैसा ले गए रसीद भी नहीं दई पासबुक तो दईच नहीं। फसल बीमा के नाम का भी पैसा खा गए।  8-9 लोगन को मुद्रा योजना में एक – एक बकरा लोन में पकड़ा दिया, बकरी की मांग करी तो बोले अभी बकरा से काम चला लो, गांव में एक भी बकरी नहीं है बिना बकरी के सब बकरा मर गए और अब सबको नोटिस भेजन लगे…… ।

बापू सुनके सुन्न पड़ गये काटो तो खून नहीं……. ।

बापू कहन लगे कि सांसद से बताया नहीं कि ऐसे में गांव आदर्श गांव कैसे बन पाएगा। बापू सांसद जी को बताया था वो बोले जो है सब ठीक-ठाक है। पर भाई ऐसे में ये गांधी के सपनों का गांव नहीं बन पाएगा, सांसद से संवाद नहीं है विकास के नाम पर ठेंगा दिख रहा है, आवास योजना में घर नहीं बने, कोई घरवाली को गैस नहीं मिली, मास्टर पढाने आता नहीं, बेरोजगार युवक गांजा दारू में मस्त हैं, शौचालय बने नही और तुम सरपंच पति हो आदर्श ग्राम बनाने का पैसा कहां गया?

सरपंच पति तैश में आ गया बोला – बापू हमको चोर समझते हो? तुमको क्या मतलब हमारे गांव में विकास हो चाहे न हो…… परिक्रमावासी बनके राजनीति करन आये हो…….

गंगू घबरा गया….. हाथ से पानी का गिलास छिटक के दूर गिरा और बापू अचानक बैठे बैठे गायब हो गए……. ।

सरपंच पति और गंगू तब से आज तक यही सोच रहे हैं कि कहीं नोट में छपा डुकरा भूत बनके तो नहीं आया था। उस दिन के बाद से पूरे इलाके में हवा फैल गई कि गांधी जी भूत बनके सांसद का आदर्श ग्राम देखने आए थे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – नवरात्र विशेष लेख – ☆ नवरात्र महोत्सव. . .  एक सृजन ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

नवरात्र विशेष लेख

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। नवरात्र के अवसर पर प्रस्तुत है उनका मराठी आलेख – नवरात्र महोत्सव. . .  एक सृजन)  

☆ नवरात्र विशेष लेख – नवरात्र महोत्सव. . .  एक सृजन ☆

 

आज नवरात्र महोत्सवाचे निमित्ताने  एक सुंदर विषय चर्चेत  आला आहे.  आपण  सर्वजण  या  बदलत्या  काळाचे प्रतिनिधीत्व करतो  आहोत.  केवळ  उलट सुलट विचार,  विधाने करून आपण  श्रद्धा आणि अंधश्रद्धा यांच्यातील तफावत वाढवीत  आहोत.

*नवरात्रीचे धार्मिक महत्त्व समजून घेताना आपण स्वतः धार्मिक आहोत का? याचा विचार करण्याची गरज निर्माण झाली आहे*. हिंदू धर्माव्यतिरिक्त अन्य कोणत्याही धर्मात सण,  उत्सव, परंपरा यांची टिंगल,  टिका केली जात नाही.  आज केवळ आपले नाव चर्चेत यावे म्हणून  धार्मिक कर्मकांडावर टिका करणारे लेखक  घरात मात्र नाना देव पूजताना दिसतात.

*नवरात्र उत्सव हा भक्ती, शक्ती आणि आराध्याविषयी स्नेहभाव व्यक्त करण्याचा उत्सव आहे.  असुर, समाज विघातक मनोवृत्तीचा विनाश,  विवेकाचा  अंकुश, आणि  सद्सद विवेक बुद्धीने षडरिपूंना दिलेला शह म्हणजे नवरात्र उत्सव*.

धार्मिकता  आणि  कार्यप्रवणता यामध्ये  श्रद्धा,  भक्ती  आणि निस्वार्थी सेवाभाव  यांचा समावेश झाला कि आपण  हा उत्सव  ख-या अर्थाने आनंदोत्सव म्हणून साजरा करू शकतो.

नारीशक्ती ही सृजनशीलता  आणि लक्ष्मी प्राप्तीचे प्रतिक मानली गेली आहे.  *नर* आणि *नारी* यांच्यातील एक काना आणि एक वेलांटीचा फरक फार मोठे समाज प्रबोधन घडवणारा आहे.  वास्तविक पहाता  नर,  नारी यांची कार्यशक्ती समान  असली तरी समाजमन त्यात पुरूष प्रधान संस्कृती  अबाधित रहावी म्हणून  काही बंधने  स्त्रियांवर युगानुयुगे लादत आले आहे.  *तू माझी, मी तुझा* हे मानव्याचे बोधवाक्य स्त्री पुरूष एकत्र वावरताना संशयाच्या भोव-यात सापडते.  आपण  आपल्या  अंतर्मनातील काही सुप्त कलागुण  जागृत ठेवण्यासाठी देवापुढे  अखंड नंदादीप,  धान्य पेरणी,  आणि सुमनांची माला  अर्पण करीत आहोत.

*विविधतेतून एकता* हे ब्रीदवाक्य जोपासणारे -या आपल्या भारत देशात प्रादेशिक स्तरावर विविधता येणारच.  उत्सव साजरा करताना  चालिरिती भिन्न  असल्या तरी,  कौटुंबिक सलोखा,  सामंजस्य,  सुख, शांती, समाधान,  आणि सेवा भावी मानव धर्म जोपासणारी शिकवण  सर्वत्र एकच  आहे.  नवरात्र  उत्सवात देवीने परीधान केलेल्या  साड्या,  तिचे वाहन, परीधान केलेले अलंकार,  अर्पण केलेले नैवेद्य, हातातील शस्त्रे  आपणास  अंधश्रद्धेपासून परावृत्त करून समस्त मानव जातीच्या कल्याण्यासाठी आदिमाया आदिशक्ती  कशी  जागृत  आहे याचीच प्रचिती देते.

*सारे माझे पण मी सर्वांची* ही शिकवण देणारा हा आनंदोत्सव आहे. यामध्ये  जरूर  काही समाजात अंधश्रद्धा जोपासल्या जात आहेत.  काही  धार्मिक बाबींचे अवडंबर माजवले जात आहे.  एक फुल  श्रद्धेने अर्पण  केले काय  अन लाखभर फुले अर्पण केली काय? शेवटी भाव अत्यंत महत्त्वाचा आहे.  तीच गोष्ट खण,नारळ,  ओटी,  नैवेद्य यांच्या बाबतीत लागू होते. म्हणून  धार्मिक विधी करताना  आलेला *यथाशक्ती*  हा  शब्द  अत्यंत महत्त्वाचा आहे. या पद्धतीने मातामयी देवतेची  आराधना या  उत्सवात  अपेक्षित आहे.

गरबा खेऴणे म्हणजे काय?

हे जर  आपण शोधले तर गरबा (आपल्या भाशेत मडके )हे ब्रम्हांडाचे प्रतिक आहे.गरब्याला ( मडक्याला ) २७ छिद्र असतात. ९ छिद्रांचि १ अशा ३ लाईन असतात ९ गुणिले ३ = २७ नक्षत्रे होत. १  नक्षत्र म्हणजे ४ चरण होय.२७ गुणिले ४ = १०८.नवरात्रात गरबा ( मडके ) मध्यभागि ठेवुन त्या भोवति १०८ वेळा गोल फेरा धराय़चा असतो.त्यामुळे आपल्याला ब्रम्हांडाची प्रदक्षिणा घातल्याचे पुण्य मिऴते अशा १०८ प्रदक्षिणा घातल्या जातात. हेच खरे गरबा खेळण्याचे महात्म्य  होय. अशी पौराणिक माहिती संकलित  आहे.

*उत्पत्ती*, *स्थिती*, आणि *लय*.  हे  नितीतत्व जोपासणा-या देवता  म्हणजे  *सरस्वती* *महालक्ष्मी* आणि *महाकाली* या  आहेत. या  तिनही देवतेची भूत,  भविष्य  आणि वर्तमानातील  शक्तीरूपे आपण नवदुर्गा म्हणून  संबोधित करतो.  वर्तमानातील नारीशक्ती तिचा  आदर सन्मान  हा  दृष्टिकोन ठेवून नवरात्र उत्सव साजरा व्हावा  असे मला वाटते.

स्वतःचे महत्व प्रस्थापित करण्यासाठी समाजात   श्रद्धाळू लोकांना भय दाखवून  अंधश्रद्धा निर्माण केल्या जातात.  कौटुंबिक सौख्याचा विचार करून भोळी भाबडी जनता याला  बळी पडते.  वास्तविक पाहता देवीची जी वाहने  आहेत ती सर्व  वाहने  म्हणजे  हत्येपासून त्यांना देवीने , आदिशक्तीने दिलेले  अभय  आहे. तरीदेखील कोंबडी,  बकरू यांची निष्कारण कत्तल होत आहे.  भूतदया,परोपकार  आणि  अध्यात्मिक  उन्नती हा  या  नवरात्रीचा मुख्य  उद्देश आहे.

राजस,  तामस,  आणि  सात्विक  गुणांचा  समतोल आचारात ,  विचारात आणि  श्रद्धेत कसा जोपासायचा हे शिकवणारा हा  उत्सव  आहे. माणूस कितीही बदलला तरी माणसाला माणसाची गरज लागतेच. हा माणूस कसा ओळखायचा? कसा  टिकवून ठेवायचा?  आणि त्याच्या तील दुर्गुण कसा  नष्ट करायचा हे शिकवणारा हा  नवरात्र  उत्सव  आहे.

*केवळ मनोरंजनाचे साधन म्हणून जर नवरात्र महोत्सव साजरा केला जात असेल तर ते सर्वस्वी चुकीचे आहे.  माणूस  आपला  आहे.  आपण माणूस  आहोत. माणसात देव शोधायचा त्याची उपासना करायची*  इतका  साधा सोपा संदेश नवरात्र महोत्सवाने दिला आहे.  आपण त्याचा कसा  उपयोग करतो हे  आपल्याच हातात आहे.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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मराठी साहित्य – ☆ मराठी कविता ☆ श्रीतुळजाभवानी मातेची अलंकार महापूजा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है.  आज उनकी कविता  धार्मिक एवं सामयिक है.  उनके ही शब्दों में – “श्री छत्रपती शिवरायांना भवानी मातेने प्रसन्न  होऊन तलवार दिली.म्हणून तुळजाभवानी मातेची “तलवार अलंकार” पूजा नवरात्रात केली जाते. त्या फोटोवरुन रचिलेल्या तुळजाभवानी चारोळ्या” – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे)

 

☆ श्रीतुळजाभवानी मातेची अलंकार महापूजा ☆

 

छत्रपती शीवाजींना

तलवार ती भवानी

धर्म रक्षणाचेसाठी

दिली प्रसन्न होऊनी !!१!!

 

श्रीकृष्ण प्रसन्न होता

केली मुरली अर्पण

माता तुळजाभवानी

केले दैत्यांचे मर्दन !!२!!

 

राक्षसांना मारल्याने

भयभीत देवा सर्व

भवानीच्या मुरलीने

स्वर्ग प्राप्ती अनुभव!!३!!

 

शक्तीरुप महापूजा

आवर्जून बांधताती

अलंकार महापूजा

होतं असे नवरात्री !!४!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-५-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-17 – स्वार्थ वळंबा ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज  प्रस्तुत है मानव के स्वार्थी ह्रदय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  – “स्वार्थ वळंबा। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 17 ☆ 

 

 ☆ स्वार्थ वळंबा  ☆

 

आज मानवी मनाला स्वार्थ  वळंबा लागला।

कसा नात्या नात्यातील तिढा वाढत चालला।।धृ।।

 

एका उदरी जन्मूनी घास घासातला खाई।

ठेच एकास लागता दुजा घायाळकी होई।

हक्कासाठी  दावा   आज कोर्टात चालला ।।१।।

 

मित्र-मैत्रिणी समान , नाते दुजे न जगती ।

वासुदेव सुदाम्याची जणू येतसे प्रचिती

विष कानाने हो पिता वार पाठीवरी केला ।।२।।

 

माय पित्याने हो यांचे कोड कौतुक पुरविले।

सारे विसरूनी जाती बालपणाचे चोचले।

बाप वृद्धाश्रमी जाई बाळ मोहात गुंतला।।३।।

 

फळ सत्तेचे चाखले मोल पैशाला हो आले ।

कसे सद्गुणी हे बाळआज मद्य धुंद झाले।

हाती सत्ता पैसा येता जीव विधाता बनला।।४।।

 

सोडी सोडी रे तू मना चार दिवसाची ही धुंदी।

येशील भूईवर जेव्हा हुके जगण्याची संधी।

तोडी मोहपाश सारे जागवूनी विवेकाला।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌।

उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌।।27।।

 

ऐसे मन संयमित हो,रजोगुणों से हीन

योगी को दे सरस सुख करता ब्रम्ह अधीन।।27।।

 

भावार्थ :  क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।।27।।

 

Supreme bliss verily comes to this Yogi whose mind is quite peaceful, whose passion is  quieted, who has become Brahman, and who is free from sin. ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 18 – व्यंग्य – बड़ेपन का संत्रास ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने बड़ेपन के सुख को ढांकने के पीछे की पीड़ा झेलने की व्यथा की अतिसुन्दर विवेचना की है. उस पीड़ा को झेलने के बाद जो अकेलेपन में हीनभावना से ग्रस्त होते हैं , उनकी अलग ही  व्यथा है.  ऐसे अछूते विषय पर एक सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ेपन का संत्रास”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 18 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ेपन का संत्रास ☆

 

बंधुवर, निवेदन है कि जैसे ‘छोटे’ होने के अपने संत्रास होते हैं वैसे ही ‘बड़़े’ होने के भी कुछ संत्रास होते हैं। बड़ा होते ही आदमी के ऊपर कुछ अलिखित कायदे-कानून आयद हो जाते हैं। मसलन,बड़े आदमी को मामूली आदमी की तरह गाली-गुफ्ता का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए,या सड़क के किनारे ठेलों पर खड़े होकर चाट -पकौड़ी नहीं खाना चाहिए (कार के भीतर खायी जा सकती है), या घर में बीवी से झगड़ा करते वक्त खिड़कियां बन्द कर देना चाहिए और टीवी की आवाज़ तेज़ कर देना चाहिए। यह भी कि मेहनत के काम खुद न करके छोटे लोगों से कराना चाहिए। हमारे समाज में संपन्नता की पहचान यही है कि हाथ-पाँव कम से कम हिलाये जायें। देखकर लगता है ऊपर वाले ने व्यर्थ ही इन्हें हाथ-पाँव दे दिये।

मेरी तुरन्त की पीड़ा यह है कि घर की पानी की मोटर खराब हो गयी है और मुझे कुछ दूर नल से पानी लाना पड़ता है। पानी लाने में खास कायाकष्ट नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि नल से घर तक पानी लाने में तीन-चार घरों के सामने से गुज़रना पड़ता है। भारी बाल्टियां लाने में पायजामा पानी में लिथड़ जाता है। दो-तीन चक्कर लगाने में अपनी इज़्ज़त अपनी ही नज़र में काफी सिकुड़ जाती है। जिस दिन पानी भरता हूँ उस दिन शाम तक हीनता-भाव से ग्रस्त रहता हूँ।

यही संकट गेहूं पिसाने में होता है। पहले जब साइकिल के पीछे कनस्तर रखकर ले जाता था तब एक बार में काफी इज़्ज़त खर्च हो जाती थी। जब से स्कूटर ले लिया तब से पेट्रोल तो ज़रूर खर्च होता है, लेकिन इज़्ज़त कम खर्च होती है।

कुछ दिन पहले तक सामने वाले घर के अहाते में कई टपरे बने थे। छोटे-मोटे कामों के लिए सामने से किसी को बुला लेते थे, इज़्ज़त बची रहती थी। जब से टपरे टूट गये तब से हम सभी नंगे हो गये। लगता है ये छोटे आदमी ही हमारी इज़्ज़त को ढंके हैं। जिस दिन इनका सहारा नहीं मिलेगा उस दिन बड़े लोग कौड़ी के चार हो जाएंगे।
कभी मेरे नीचे वाले मकान में एक सरकारी अधिकारी रहते थे। एक दिन मैंने उनके घर में एक करिश्मा देखा। शाम को पति और पत्नी आराम से लॉन में टहल रहे थे। पास ही स्कूटर खड़ा था। मैंने देखा कि एकाएक बिजली की तेज़ी से पति महोदय ने स्कूटर का हैंडिल पकड़ा और पत्नी ने पीछे से धक्का दिया। पलक झपकते स्कूटर बरामदे में चढ़ गया। इसके बाद पति-पत्नी फिर उसी तरह लॉन में टहलने लगे। सब काम किसी सिनेमा के दृश्य जैसा हो गया और मैं भौंचक्का देखता रह गया। मैंने सोचा, हाय रे, बड़ापन लोगों को कैसे मारता है। स्कूटर रखना है लेकिन सबके सामने रखने से अफसरी में बट्टा लगता है, इसलिए तरह तरह के कौतुक करने पड़ते हैं।

बहुत से लोग अपने बाप- दादा का बड़ापन कायम रखने में अपनी ज़िंदगी होम कर देते हैं। बाप-दादा का कमाया कुछ बचा नहीं, लेकिन उनकी शान-शौकत बनाये रखने के लिए बची-खुची ज़मीन-ज़ायदाद बेचते रहते हैं और नयी पीढ़ी का भविष्य बरबाद करते रहते हैं।

एक घर में जाता हूँ तो देखता हूँ साहब, मेम साहब और बच्चे तो सजे-धजे हैं लेकिन नौकर का हाफपैंट ऊपर से नीचे तक फटा है। मन होता है साहब से कहूँ कि हुज़ूर, मेरे और अपने जैसे भद्रलोक की खातिर नहीं तो कम से कम मेम साहब की शर्म की खातिर ही इसके शरीर को ढंकने का इंतज़ाम कर दीजिए। इसलिए मेरा अपने वर्ग के सब लोगों से निवेदन है कि यह जो ‘छोटा आदमी’ नाम की चीज़ है उसी पर हमारी इज़्ज़त की यह खुशनुमा इमारत खड़ी है। इसलिए इस चीज़ को ज़रा लाड़-प्यार से रखो ताकि यह चीज़ रहे और इसकी बदौलत हमारी खुशनुमा इमारत बुलन्द बनी रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #15 – मॉं-बाप का साया ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

(इस आलेख का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆  Parent’s shadow ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 15☆

 

☆ मॉं-बाप का साया☆

 

प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे विशाल पेड़ एवम्‌ उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य से जब कभी छाया समाप्त हो जाती है तब हम जान पाते हैं मॉं-बाप का साया माथे पर होने का महत्व!

 

… अनुभव हुआ हम इतने क्षुद्र हैं कि लंबे समय तक गरदन ऊँची रखकर इन पेड़ों को निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है।

 

….ईश्वर सब पर यह साया और उसकी छाया लम्बे समय तक बनाए रखे।…तने को नमन कर लौट आया घर अपनी माँ के साये में।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆ सीख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  सीख .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से

 

☆  सीख  ☆

 

उसका लिखा जिया जाए

या खुद लिखा जाए

अपने कर्म समझे जाए

या हाथ दिखाया जाए

घूमते ग्रह, तारों, नक्षत्रों को मनाया जाए

या सीधा चला जाए

कैसे जिया जाए ?

 

क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है

कणों से कोना भर रही है

अंडे सिर माथे ले घूम रही है

बस्तियाँ नई गढ़ रही है

जबकि अगला पल उसे मालूम नही

जिसकी उसे परवाह नही

 

उससे दुगुने, तिगुने, कई गुनो की फ़ौज खड़ी है

संघर्षो की लंबी लड़ी है

देखो वह जीवट बड़ी है

बस बढ़ती चली है

उसने सिर उठा के कभी देखा नही

चाँद, तारों से पूछा नही

अंधियारे, उजियारे की फ़िक्र नही

थकान का भी जिक्र नही

कोई रविवार नहीं

बस जिंदा, जूनून और  जगना.

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Articles – ☆ Parent’s shadow☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “माता पिता के साये में “  published in today’s  ☆ संजय दृष्टि  – माता पिता के साये में  ☆ We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

☆ Parent’s shadow ☆

 

After an early morning walk in the park, I sat under a tree near it’s trunk to do some exercise.  During one of the exercises, I looked up towards the sky. I was dazed to see the height of the trees.  About 70 to 80 feet tall trees with a dense canopy of leafy shade, with cool breeze around which accentuated the salubrious environment. A thought occurred that parents too are like trees only!  Always shielding with their ubiquitous presence overtly or covertly.

Though we see them as much as the trunk of the tree, and not their humongous towering presence always enveloping us.  We often consider their existence stumpy and dwarf.  But, to realise this huge comforting shadow, you’ll have to look up high, open your eyes wide-open.  In order to give us shade, we have to understand the unending struggle of the leaves constantly moving towards the sun to protect us from the biting sun.  Unfortunately, whenever the shadow is no more, we get to know the importance of it being on our head!

… realised how abhorrent we are that we cannot even keep our neck skyward long enough to admire these trees as our neck starts paining.

…. May God keep this shadowy protective cover for a long-long time on all … After bowing down to the trunk of the tree and offering obeisances, I returned home to the ever-soothing shadow of my mother…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #22 – ☆ मनोरंजन ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी मनोरंजन…. सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  मनोरंजन के कई साधन हैं जैसे सिनेमा, नाटक, संगीत, नृत्य, बागवानी, समाजसेवा, टी वी देखना, शिक्षा का प्रचार करना, व्यंजन बनाना, पठन-पाठन, साहित्य निर्माण, लेखन, वाचन, मनन, भजन, कीर्तन,  योगा, गपशप, पर्वतारोहण आदि. सुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज है.  प्रत्येक व्यक्ति के मनोरंजन का तरीका अपना और विविध होता है. सार यह है कि मनोरंजन वही होना चाहिए जिससे मन को शान्ति मिले और हमें अपने दैनंदिन कार्यों के लिए ऊर्जा मिले. शायद छुट्टियां भी तो इसीलिए दी जाती हैं. सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

 साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #22 

 

☆ मनोरंजन… ☆

 

खूप सोप्पा विषय आहे नाही?

टी वी  लावला की मनोरंजन तयार आहेच की… त्यात काय आहे विशेष…?

डोक्याला ताप होणार नाही असं काहीही मनोरंजन ह्या कॅटेगरीमध्ये येईल का?

साधं मनोरंजन हवंय, मग हे प्रश्न कशाला? आयुष्यातील प्रश्नांपासून थोडा वेळ का होईना दूर जाण्यासाठी मनोरंजनाकडे वळायचं तर गहन प्रश्न कशाला आता?

खरंय,, ह्या धावपळीच्या जीवनात दोन क्षण आरामात घालवावे ही इच्छा साहजिक आहे… सर्व समस्यांचा विसर पडला पाहिजे, असं मनोरंजन हवं.. निखळ आनंद मिळावा हीच अपेक्षा असते.. ह्या आनंदातच आयुष्यातील जोश वाढला पहाणे असं माझं मत आहे.. मनोरंजनाचे मार्ग प्रत्येकाचे वेगळे असतील, सिनेमा, नाटक, संगीत, नृत्य, बागकाम, समाजसेवा, tv पाहणे, शिक्षणाचा प्रचार करणे, स्वयंपाक करणे, पोहणे, पळणे, साहित्य निर्मिती, लेखन, वाचन, मनन, भजन, कीर्तन,  योगा, गप्पा, गिर्यारोहण, असे अनेक पर्याय आहेत…

आपल्याला आवडेल, रुचेल, झेपेल त्यानुसार प्रत्येकजण हा मार्ग स्वीकारतो… आणि त्यात रमतो, जगतो… त्यामुळे एक मोठ्ठा फायदा होतो असं मला वाटतं. मनोरंजरूपी बदलामुळे, मन रिलॅक्स, रिफ्रेश झालं की आपसूकच माणूस आपले काम नवीन उत्साहाने, जोशाने, जिद्दीने करू शकतो. माणूस म्हणून जगायला शिकतो, भेदभाव विसरून फक्त करमणूक करता करता प्रगल्भ होतो. हा विचार मनात पक्का असावा म्हणजे मनोरंजनातून दाम दुपटीने फायदा होईल.

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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