हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता / गीत ☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

 

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  नवरात्रि पर्व पर  माँ दुर्गा देवी  जी को  समर्पित गीत  – तुम्हीं को गीत अर्पित है.)

 

☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है  

 

तुम्हीं को गीत अर्पित है, तुम्हीं को प्रीति अर्पित है,

करूँ वंदन नमन तुमको, तुम्हें श्रद्धा समर्पित है।

 

सुशोभित नौ स्वरूपों में, शरद वासंत में आए,

सजे हर गेह तेरा दर, दिलों में भी सुसज्जित है।

 

हरे दुख-दर्द, पीड़ा तू, सदा मंगल करे माता,

तेरे ही  प्यार की महिमा, पुराणों में सुवर्णित है।

 

करे संहार दुष्टों का, मनुजता का करे पालन,

अपरिमित शक्ति से माँ की, विनिर्मित सृष्टि पोषित है।

 

करूँ सब कुछ समर्पित मैं, करो स्वीकार पूजा को,

शरण में लो जगत जननी, मुझे तो मोक्ष इच्छित है।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से ☆ जगह भर जाती है ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना जगह भर जाती है .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से

 

☆ जगह भर जाती है  ☆

 

मुठ्ठी में रेत उठाओ

चुल्लू पानी का बनाओ

समुद्र से नदी बनाओ

उल्टा चाहे क्रम चलाओ

रीती जगह नही रहती

जगह भर जाती है ….

 

आँखों से आँसू बहे

पत्ते चाहे जितने झरे

आँखों में फिर पानी

पेड़ों में हरियाली

जगह भर जाती है ….

 

गर्म हवा ऊपर उठी

ठंड़ी हवा दौड़ पड़ी

निर्वात की वजह नही

रूखी हो या नमी

जगह भर जाती है ….

 

एक शख्स जगता रहा

इधर -उधर दौड़ता रहा

देह छुटी आत्मा मुक्त

उसकी निशानी ना चिन्ह कहीं

कुछ ही समय की बात है

यादें , यादों के साथ है

रिक्त जगह नहीँ रहती

जगह भर जाती है …….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता/गीत ☆ पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की नवरात्रि पर विशेष कविता/गीत – पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।)

 

☆ पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे ☆

 

नव रातें की जोत जगी है घर-घर बोए जवारे,

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

प्रथम पूज्य शैलपुत्री श्वेत वर्ण है धारे,

मधुर कलश हाथ लिए हैं सबकी ओर निहारे ।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली-गली उजियारे।

 

द्वितीय देवी ब्रह्मचारिणी सबकी विपदा हारे,

ब्रह्म सनातन धीरज धरनी धर्म ध्वजा फहराए।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

तृतीय देखो चंद्रघंटा मस्तक चंद्र विराजे,

शिव दूती बनी भवानी दुर्गा रूप सवारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

चतुर्थ माता कुष्मांडे हैं साग नाम धराए,

जग की रक्षा करने को फिर बलि बलि भोग लगाएं।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

पंचम देवी स्कंध माता श्याम कार्तिकेय की धाये,

दानव दल को मार भगाए माता का नाम उजारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

षष्ठी कात्यानी भवानी शक्ति रूप निखारे,

जब जब विपदा जग में पड़ी सब को पार उतारें।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

सप्तम देखो कालरात्रि बन दुष्टन को दे संहारे,

लंबी लंबी जीव्हा निकाल  रक्त बीज को मारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

अष्टम महागौरी का रूप मनोहर सुंदर रूप संवारे,

पूरन सबकी करें आराधना दुर्गा यही कहाए।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

नवम सिद्धिदात्री हैं भरे भंडार हमारे,

आराधन कर नवदुर्गा का मन वांछित फल पाए।

 

नव रातें की जोत जगी है घर-घर बोए जवारे,

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।।19।।

 

योगी का मन अचंचल रहता स्थिर शांत

वायु सुरक्षित दीप की लौ ज्यों अचल प्रशांत।।19।।

 

भावार्थ :  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।।19।।

 

As a lamp placed in a windless spot does not flicker-to such is compared to the Yogi of controlled mind, practicing Yoga in the Self (or absorbed in the Yoga of the Self). ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्वथनांक- ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्वथनांक- ☆

 

परिस्थितियाँ जितना तपाती गईं

उतना बढ़ता गया क्वथनांक मेरा,

अब आग के इतिहास में दर्ज़ है

मेरे प्रह्लाद होने का किस्सा!

(क्वथनांक– जिस तापमान पर पदार्थ उबलता है, बॉइलिंग पॉइंट।)

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रामायण में रहने की विशाल योजना* ☆ – श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  की व्यंग्य रचना रामायण में रहने की विशाल योजना.  समझ में नहीं आता कि इसे सामयिक कहूं या प्रासंगिक. चलिए यह निर्णय भी आप पर ही छोड़ देते हैं. )  

 

☆ व्यंग्य – रामायण में रहने की विशाल योजना*☆ 

 

उनको देखकर बड़ी ही शत्रु टाइप फीलिंग आती। बड़े बड़े शत्रु भी हडबडा जाएं जब लाउड आवाजों को कोई खामोश कर दे। सुनते ही भगदड़ मच जाती कि कहीं ये बंदा शॉटगन से हल्ले का शिकार न कर दे। लेकिन धीरे धीरे समझ आता गया कि ये केवल घन के शत्रु हैं। इसलिए तब से अपन का डर, खलीफा हो गया। हमारे जैसे तो इतने निट्ठल्ले कि एक शत्रु बनाने की हैसियत न रखते।

दुनिया में ऐसे कई उदाहरण मिलते, जिनका गले मिलना भी शत्रुता की मिसाल हैं। भरत मिलाप वो भी शत्रु के साथ…। वाह! यही तो सुंदरता है इस कलयुग की…। ऐसे मेल मिलापों में अक्सर एकाध राम भी पैदा हो जाते। बस भगवान बनने की ताकत न रखते।

उन्हें रामायण इतना आकर्षित करती कि वे रामायण में ही रहते, सोते, खाते। अपना कतरा कतरा रामायण को ही न्यौछावर कर देते। इतना कि रामायण के भीतर और बाहर रामायण के ही किरदार पाए जाते। लेकिन पाने और होने में वही फर्क है जो अरुण गोविल और श्रीराम में…।

किरदारों का क्या… कल के दिन राम के किरदार से निकलकर धृतराष्ट्र या दुर्योधन में घुस जायें। लेकिन हकीकत में तो वही रहेंगे, जो हैं…। सत्य को तो ग्रह भी नहीं झुठला पाए। किसी के पास एक चांद, तो किसी के पास दस-बारह।

भले भगवान के दोनों जुडवां पुत्रों का नाम लव कुश था। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा कि शत्रुघ्न अपने पुत्रों का वही नाम नहीं रख सकता। उन्होंने भी रखा। घर में सारे किरदार तैयार थे। असल रामायण में लवकुश की कोई बहन न थी। सो उन्हें कुछ अलग रखना पड़ा। सुनहरी आंखों वाली या झील सी आंखों वाली टाइप। नाम रखने में क्या कटुता…। विश्व की अलग अलग भाषाओं में नाम रखना आजकल का फैशन है।

लेकिन वे रामायण में रहते इसलिए वैदिक नामों से प्रेरित थे। नाम कोई भी रख सकते थे। उस पर जीएसटी का कोई प्रावधान नहीं। सोचा होगा, लव कुश ही रख लो। उन्हें थोड़े अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ना है।

चाहें भी तो संभव नहीं। समय के साथ साथ काफी कुछ असंभव भी होने लगा है। न तो गाय और कुत्ते को रोटी खिला सकते, न सांप को दूध…। सब हमारी धरोहर हैं। उन्हें बचाना हमारा परम कर्तव्य है। इसलिए प्रतिबंधित है। कहो, कल के दिन हमारी सांसों पर ही कोई प्रतिबंध लगा दे कि भई कुछ ज्यादै ऑक्सीजन छोड़ते हो…।

असंभावना के बीच ही सम्भव भवित होता है। अभी वाचन प्रतिबंधित नहीं हुआ है। हम कुछ भी बांच सकते, गल-अनर्गल सब कुछ। फिर भी हम बांचते ही नहीं।

उन्होंने भी पुस्तक की जगह एक ठो व्यक्तिगत दूरभाषित यंत्र पकडवा दिया अपने बच्चों को। और वे, आज्ञाकारी बच्चों से लगे अपनी हस्त उत्पादित स्वचित्र खेंचने में। इस खेंचा खेंची में वे भूल गए कि दुनिया में स्व-ज्ञान की कितनी आवश्यकता है।

पर्दे पर अपने ही चित्र की वाहवाही करने से उन्हें फुर्सत न मिलती। फिर कहां का ज्ञान जुटाते। अज्ञानी सोच ही नहीं पाता कि सौंदर्य ज्ञान नहीं देता किंतु ज्ञान सौंदर्य अवश्य देता है। लेकिन ये सोच भी तो ज्ञान से ही आती है।

पर्दे की विद्रुपता यही है कि वो असली दर्शन नहीं करा पाता। सब कुछ ढंका छुपा…।

वो ठाठ बाट से अपने रामायण का गुणगान करते हुए वहाँ बैठती हैं। लेकिन जब उनसे पूछा जाता कि संजीवनी किसके लिए लायी गई, तब वे ठिठक जातीं। वे सोचतीं कि शायद राम या फिर भरत या हो सकता है लक्ष्मण को जरूरत पड़ी हो। लेकिन वे श्योर नहीं हो पातीं। क्योंकि उनके घर के लक्ष्मण को कभी संजीवनी की जरूरत नहीं पड़ी। या यों कहें कि हनुमंत उनके घर नहीं। उनकी माता, माथा फोडने के सिवाय कुछ नहीं कर पायी। अपने अंश को नहीं समझा पायी कि रामायण में रहने और रामायण को हृदय में बसाने में वही अंतर है जो धरती पर बसने और आकाश में उडने का है।

 

©समीक्षा तैलंग, पुणे

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हिन्दी साहित्य – पितृ पक्ष विशेष – कविता ☆ कौए -कुछ दोहे ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  पितृ पक्ष में कौओं  का महत्वा बताते हुए कुछ दोहे. )

 

☆ कौए -कुछ दोहे 

 

रंग- रूप, आवाज़ से, हुए बहुत लाचार,

मित्रों से सच- सच कहे, कौओं का सरदार।

 

हम कौए काले सही, पर मानुस से नेक।

अपने स्वारथ के लिए, रहे न रोटी सेंक।

 

हम कौए खाते सदा, रोटी को मिल- बांट,

मानुस के गुण श्वान-से, जो देता है डांट।

 

आने के मेहमान का, काग देत संदेश,

ये जगजाहिर बात है, जाने भारत देश।

 

कागा बैठे शीश पे, कहे मनुज शुभ नाहिं,

यह फिजूल की बात है, व्यापी घर- घर माहिं।

 

पितर पक्ष में खोजते, हम कागों को लोग,

वे पुरखों के नाम पर, करते हैं अति ढोंग।

 

कौओं की संख्या घटी, ये चिंता की बात,

कौओं के सरदार को, नींद न आए रात।

 

नहीं मनुज को फिक्र है, हम कौओं की आज,

वह अपने में मस्त है, करता गंदे काज।

 

पशु- पक्षी से प्यार है, कहे मनुज चिल्लाय,

लेकिन खाना दे नहीं, पानी भी चित लाय।

 

सीता माँ  के चरण में, मारा पुरखा चोंच,

बाण चला रघुवीर का, आँख गया वह खोंच।

 

काने कौए हो गए, तब से  कहते लोग,

बुरे कर्म करिए नहीं, आगे खड़ा कुजोग।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य- पितृ पक्ष विशेष – कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ पितर चले गये ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा 16 वर्ष पूर्व लिखी गई लघुकथा “पितर चले गये ” आज भी सामयिक लगती  है.)

 

☆ लघुकथा – पितर चले गये  

 

कौआ सुबह सुबह एक छत से दूसरी छत पर कांव कांव करता हुआ उड़ उड़ कर बैठ रहा था किंतु उसे आज कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा था ।

कल ही पितृ मोक्ष अमावस्या के साथ पितृ पक्ष समाप्त हो गए । इन पन्द्रह दिनों में कौओं को भरपेट हलुआ पूड़ी एवम तरह तरह के पकवान खाने को मिले थे । इसी आस में आज भी कौआ इस छत से उस छत पर भटक रहा था ।

थक हार कर वह एक छत की मुंडेर पर बैठ गया । उसे महसूस हो गया था कि पितर चले गए हैं ।अतः वह पुनः कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाशने उड़ गया ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी / लघुकथा ☆ इच्छामृत्यु – मोक्ष ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी”

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है. आज प्रस्तुत है  श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी की एक मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “इच्छामृत्यु -मोक्ष”.)

 

☆  लघुकथा – इच्छामृत्यु – मोक्ष ☆

 

नहीं नहीं। अब और नहीं। यह असहनीय दर्द—डॉ मुझे मुक्ति दे दो। वैसे भी हर पल मर रहा हूँ, इस दर्द के साथ।

भीष्म पितामह ने भी तो इच्छामृत्यु का वरण किया था। नहीं चाहिए मुझे मोक्ष – – मौत चाहिए मौत।

वरदान के प्रलाप ने डॉ को भी हिला दिया। कैंसर के असहनीय दर्द से जूझता वरदान अकाल मृत्यु या आत्महत्या आदि के बारे में सदियों के संस्कारों की– मोक्ष की परिकल्पनाओं  की बलि देने के लिए सहज ही तैयार था— और उसके करुण क्रंदन ने डॉ को मजबूर कर दिया उसे मोक्ष देने के लिए– आज की पीड़ाओं से मोक्ष देने के लिए। इससे पहले कि वरदान के पुजारी पिता कोई आक्षेप उठाते वरदान को मोक्ष मिल गया। असहनीय दर्द  से मुक्ति पाने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि कार्डियक अरेस्ट ने उसे अपने आगोश में ले लिया और भीष्म की तरह इच्छामृत्यु ‘मोक्ष’ मिल गया।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 10 – अहंकार दहन ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   अहंकार दहन।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ अहंकार दहन 

 

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरो के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

दरअसल रावण ने सभी नौ ग्रहों के देवताओं का अपहरण कर लिया था और उन्हें लंका में ले आया था, लेकिन जल्द ही भगवान ब्रह्मा लंका आये और रावण से सभी ग्रहों को मुक्त करने का अनुरोध किया ताकि ब्रह्मांड में जीवन का चक्र प्रभावित न हो । रावण ने उन्हें एक शर्त पर मुक्त किया कि रावण प्रत्येक ग्रह की एक प्रतिलिपि बनायीं, और उन्हें बनाने के बाद उसने सभी ग्रहों के देवताओं को अपने ग्रहों की शक्तियो के सार को प्रत्येक प्रतिलिपि में प्रविष्ट करने का आदेश दिया,एक-एक करके मुख्य ग्रह के अनुसार । इसलिए सूर्य ने रावण द्वारा बनाए गए सूर्य की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों के सार को डाला, चंद्रमा ने रावण द्वारा बनाए गए चंद्रमा की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों को सम्मिलित किया आदि आदि अन्य ग्रहो ने भी किया । इसके बाद रावण ने सभी नौ ग्रहो को मुक्त कर दिया ।

तब रावण ने लंका का अपना निजी राशि चक्र बनाया जिससे लंका के प्रत्येक हिस्से पर एक ही तरह का प्रभाव पड़े और सभी प्रतिलिपि ग्रहों को रावण द्वारा परिभाषित गति के साथ आगे बढ़ने का आदेश दिया गया, इसका अर्थ है कि लंका में कभी भी कोई नुकसान या खतरा नहीं होगा किसी भी परिस्थिति में । भगवान हनुमान, रावण की शक्ति और बुद्धि से आश्चर्यचकित थे । फिर उन्होंने अपने मस्तिष्क में सोचा कि लंका को यदि कोई नुकसान पहुँचाना है, तो इन प्रतिलिपि ग्रहों को किसी भी तरह से मुक्त करना होगा । रावण भी भगवान हनुमान को लगभग एक मिनट तक देखता रहा, आखिर में उन्होंने भगवान हनुमान से कहा, “तो तुम हो वो शरारती वानर जिसने मेरे सबसे खूबसूरत बगीचे को नष्ट कर दिया और मेरे बेटे अक्षय कुमार को भी मार डाला, क्या तुम सजा के लिए तैयार हो?”

 

© आशीष कुमार  

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