Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 9 – Drona and Drupad ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Drona and Drupad”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 9

 

☆ Drona and Drupad ☆

 

“O Drupad! My childhood friend!

Your promises I come to remind

Do you remember our oaths to share

Wealth of all kinds?”

 

“O Sage Drona! Blessed am I!

My kingdom your presence bestows

A learned man are though

And before thee I bow!”

 

“O Drupad! My childhood friend!

Married I am, and have a son too

Distinguish he can’t between rice water and milk

And I have come to ask for a cow from you!”

 

“O Sage Drona! O learned man!

A cow I present thee in alms

Friendship stays only between equals

To state that, I have no qualms!”

 

“O Drupad! My childhood friend!

It is not daan that I seek or ask

Listen to your heart and the love

In your glory, do not bask!”

 

“O Sage Drona! O learned man!

Pray do not claim cow in friendship’s name

Upholder of Dharma am I and in charity believe

As such, you have no claim

 

“O Drupad! Ashamed I am

I ever called you my friend

One day, greater than thou I shall become

But, from my ideals, never bend!”

 

And thus were sown the seeds

Of disillusionment and revenge

His ambitions soared high and high

Drona had forever changed!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शब्दों के पार भावार्थ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – शब्दों के पार भावार्थ ☆

 

तुम कहते हो शब्द,

सार्थक समुच्चय

होने लगता है वर्णबद्ध,

तुम कहते हो अर्थ,

दिखने लगता है

शब्दों के पार भावार्थ,

कैसे जगा देते हो विश्वास

जादू की कौनसी

छड़ी है तुम्हारे पास..?

सरल सूत्र कहता हूँ

पहले जियो अर्थ

तब रचो शब्द,

न छड़ी, न जादू का भास

बिम्ब-प्रतिबिम्ब एक-सा विन्यास,

मन के दर्पण का विस्तार है

भीतर बाहर एक-सा संसार है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – पितृ पक्ष विशेष – ☆ श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  श्राद्ध के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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☆ श्राद्ध – श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना

 

यहाँ तक कि एक वशिष्ठ कार्य के लिए चन्द्रमा का पूरा पक्ष निर्धारित है  जिसे पितृ पक्ष कहा जाता है । जिसे पितृ पक्ष (पश्चिम और दक्षिण में) या पितृ रक्षा (उत्तर और पूर्व में) के रूप में भी लिखा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “पूर्वजों के पखवाड़े” हिन्दू कैलेंडर में 15-चंद्र दिन की अवधि है जब हिंदू अपने पूर्वजों (पितरों) को श्रद्धांजलि देते हैं, खासकर खाद्य प्रसाद के माध्यम से । अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पंद्रह दिन लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं । पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं । इस अवधि को पितृ पक्ष, पितरी पोखो, सोला श्रद्धा (सोलह शरद), कनागत, जितिया, महालय पक्ष और अपारा पक्ष भी कहा जाता है । पितृ पक्ष को हिंदुओं द्वारा अशुभ माना जाता है, समारोह के दौरान किए गए मृत्यु के संस्कार को देखते हुए, श्रद्धा या तरण (मुक्ति) के रूप में जाना जाता है । दक्षिणी और पश्चिमी भारत में, यह हिंदू चंद्र महीने ‘भाद्रपद’ (सितंबर) के दूसरे पक्ष (पखवाड़े) में आता है और यह गणेश उत्सव के तुरंत बाद आता है । अधिकांश वर्षों में, शरद ऋतु विषुव इस अवधि के भीतर आता है, यानी इस अवधि के दौरान उत्तरी से दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य का संक्रमण होता है ।

हमारे पूर्वजों की तीन पिछली पीढ़ियों की आत्माएँ  पितृ-लोक में रहती हैं, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक क्षेत्र है । यह क्षेत्र यम, मृत्यु के देवता द्वारा शासित है, जो पृथ्वी से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को पितृ-लोक में ले जाते है । जब अगली पीढ़ी के व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो पहली पीढ़ी स्वर्ग में चली जाती है और भगवान के साथ मिल जाती है, इसलिए उनके श्राद्ध करने बंद कर दिए जाते हैं । इस प्रकार, पितृ-लोक में केवल तीन पीढ़ियों को श्राद्ध संस्कार दिया जाता है, जिसमें यम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है ।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है । पितृ पक्ष की शुरुआत में, सूर्य राशि चक्र की तुला राशि में प्रवेश करता है । इस पल के साथ मिलकर, ऐसा माना जाता है कि आत्माएँ  पितृ-लोक छोड़ती हैं और एक महीने तक अपने वंशज घरों में रहती हैं जब तक कि सूर्य अगले राशि चक्र की अगली राशि वृश्चिक में प्रवेश नहीं करता है, पूर्णिमा तक । धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है । मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है । पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है । प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है । सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है । पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है । पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है । ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है । 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता है । भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण । इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है । पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया ।

त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं । यमस्मृति में पाँच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है । जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है ।

नित्य श्राद्ध– प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता । केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है ।

नैमित्तिक श्राद्ध– किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं । इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है । एकोद्दिष्ट का अर्थ किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है । इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है । वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है ।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाह आदि प्रत्येक माँगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं । इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पितृ तर्पण भी किया जाता है ।

पार्वण श्राद्ध– पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है । किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है । यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है ।

सपिण्डनश्राद्ध– सपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना । पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है । प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है । इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है । जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं । उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं ।

शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं । उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं । जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ।

कर्माग श्राद्ध– कर्माग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं । उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं ।

यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है । जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है । इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है ।

पुष्ट्यर्थ श्राद्ध– पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है ।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं । एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं । पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पितृ-कर्म का विधान है ।

जब महाभारत युद्ध में दानवीर कर्ण की मृत्यु हो गई, तो उनकी आत्मा स्वर्ग में चली गई, जहाँ उन्हें भोजन के रूप में सोने और गहने की पेशकश की गई । कर्ण को खाने के लिए असली खाना चाहिए था तो कर्ण ने स्वर्ग के राजा इंद्र देव से पूछा, की उन्हें सोना खाने के तौर पर क्यों दिया जा रहा है उन्हें असली खाना चाहिए तब  इंद्र ने कर्ण को बताया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वर्ण दान किया था, लेकिन उन्होंने श्राद्ध में कभी भी अपने पूर्वजों को भोजन दान नहीं किया । इसलिए जो वस्तु जीवित अवस्था में पितरो को दान की जाती है मृत्य के बाद वो ही वस्तु मिलती है ।  इस पर कर्ण ने कहा कि चूंकि वह अपने पूर्वजों से अनजान था, इसलिए उन्होंने कभी भी अपनी स्मृति में कुछ दान नहीं किया । संशोधन करने के लिए, कर्ण को 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की इजाजत दी गयी, ताकि वह श्राद्ध कर सके और अपनी याद में अपने पूर्वजो को भोजन और पानी दान कर सके । तब से इस अवधि के 15 दिनों को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है । कुछ किंवदंतियों में इंद्र के स्थान पर यम ने कर्ण को 15 दिन पृथ्वी पर रह कर श्राद्ध करने की अनुमति दी थी ।

क्या आपने कभी ध्यान दिया है की पितृ पक्ष वास्तव में वह समय है जब पृथ्वी पर दिन और रात्रि लगभग बराबर अवधि के होते है । जैसे की मैंने पहले भी बताया है की आमतौर पर पितृ पक्ष के दौरान ही शरद ऋतु विषुव आता है । यह तब आता है जब सूर्य राशि चक्र के तुला चिन्ह में प्रवेश करता है । तुला का अर्थ बराबर या संतुलन है । अच्छे और बुरे का संतुलन, या प्रकाश और अंधेरे का संतुलन, शारीरिक और मानसिक संतुलन, भौतिकवाद और आध्यात्मिकता का संतुलन, और इसी तरह । तुला खुद भी राशि चक्र की 12 राशियों में से 7 वा चिन्ह है अथार्त राशि चक्र के लगभग मध्य । उपर्युक्त संतुलन के अतरिक्त, इस पितृ पक्ष के दौरान होने वाली एक और आध्यात्मिक संतुलन भी है । यह जीवन और मृत्यु का संतुलन है । इसके अतिरिक्त इस पितृ पक्ष के दौरान कुछ लोगों को ऊर्जा की कमी, थकान अनुभव होती है और उन्हें अधिक नींद भी आती है, वर्ष के बाकी दिनों के मुकाबले । क्या आपको जानना है क्यों?

असल में श्राद्ध के दिनों में कई व्यक्ति अपने मृत्यु रिश्तेदारों को विशेष अनुष्ठानों के साथ आमंत्रित करते है । इसलिए कुछ आत्माएँ जिनके पास नया शरीर है, लेकिन फिर भी वह अपने पूर्व जन्म के रिश्तेदारों से भावनाओ से जुड़े हुए हैं, वो अपने अंतिम जीवन के रिश्तेदारों के आह्वान पर अपने नए शरीर से बाहर जाने का प्रयास करते है उनके पास जो उन्हें आमंत्रित कर रहे है । क्योकि उनसे उनकी भावनाएँ मृत्यु के बाद एवं नया शरीर मिलने के बाद भी जुड़ी हुई है । तो वो आत्माएँ अपने नए शरीर से बाहर जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नई शरीर की इच्छाएँ और कर्म इस आत्मा को इस नए शरीर के अंदर पकड़ने की कोशिश करते हैं । और उस नए शरीर में एक तरह का द्वन्द चलता है । इसलिए आत्मा को नए शरीर में पकड़ने के लिए शरीर और मस्तिष्क की ऊर्जा का अधिक उपयोग होता है, जिसके कारण हमारे शरीर और मस्तिष्क ऊर्जा की कमी अनुभव करते है”

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ये सड़कें ये पुल मेरे हैं”.  धन्यवाद विवेक जी , मुझे भी अपना इन्वेस्टमेंट याद दिलाने के लिए. बतौर वरिष्ठ नागरिक, हम वरिष्ठ नागरिकों ने अपने जीवन की कमाई का कितना प्रतिशत बतौर टैक्स देश को दिया है ,कभी गणना ही नहीं की.  किन्तु, जीवन के इस पड़ाव पर जब पलट कर देखते हैं तो लगता है कि-  क्या पेंशन पर भी टैक्स लेना उचित है ?  ये सड़कें ये पुल  विरासत में देने के बाद भी? बहरहाल ,आपने बेहद खूबसूरत अंदाज में  वो सब बयां कर दिया जिस पर हमें गर्व होना चाहिए. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ 

 

 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆

 

रेल के डिब्बे के दरवाजो के ऊपर लिखा उद्घोष वाक्य  “सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है”, का अर्थ देश की जनता को अच्छी तरह समझ आ चुका  है. यही कारण है कि भीड़ के ये चेहरे जो इस माल असबाब के असल मालिक हैं, शौचालय में चेन से बंधे मग्गे और नल की टोंटी की सुरक्षा के लिये खाकी वर्दी तैनात होते हुये भी गाहे बगाहे अपनी साधिकार कलाकारी दिखा ही देते हैं. ऐसा नही है कि यह प्रवृत्ति केवल हिन्दोस्तान में ही हो, इंग्लैंड में भी हाल ही में टाइलेट से पूरी सीट ही चोरी हो गई, ये अलग बात है कि वह सीट ही चौदह कैरेट सोने की बनी हुई थी. किन्तु थी तो सरकारी संपत्ति ही, और सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है. वीडीयो कैमरो को चकमा देते हुये सीट चुरा ली गई.

हम आय का ३३ प्रतिशत टैक्स देते हैं. हमारे टैक्स से ही बनती है सरकारी संपत्ति. मतलब पुल, सड़कें, बिजली के खम्भे, टेलीफोन के टावर, रेल सारा सरकारी इंफ्रा स्ट्रक्चर गर्व की अनुभूति करवाता है. जनवरी से मार्च के महीनो में जब मेरी पूरी तनख्वाह आयकर के रूप में काट ली जाती है,  मेरा यह गर्व थोड़ा बढ़ जाता है. जिधर नजर घुमाओ सब अपना ही माल दिखता है.

आत्मा में परमात्मा, और सकल ब्रम्हाण्ड में सूक्ष्म स्वरूप में स्वयं की स्थिति पर जबसे चिंतन किया है, गणित के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का मर्म समझ आने लगा है. इधर शेयर बाजार में थोड़ा बहुत निवेश किया है, तो  जियो के टावर देखता हूँ तो फील आती है अरे अंबानी को तो अपुन ने भी उधार दे रखे हैं पूरे दस हजार. बैंक के सामने से निकलता हूँ तो याद आ जाता है कि क्या हुआ जो बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की जनरल मीटींग में नहीं गया, पर मेरा भी नगद बीस हजार का अपना शेयर इंवेस्टमेंट है तो सही इस बैंक की पूंजी में, बाकायदा डाक से एजीएम की बैठक की सूचना भी आई ही थी कल. ओएनजीसी के बांड की याद आ गई तो लगा अरे ये गैस ये आईल कंपनियां सब अपनी ही हैं. सूक्ष्म स्वरूप में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बरास्ते म्युचुएल फंड देश की रग रग में विद्यमान है. मतलब ये सड़के ये पुल सब मेरे ही हैं. गर्व से मेरा मस्तक आसमान निहार रहा है. पूरे तैंतीस प्रतिशत टैक्स डिडक्शन का रिटर्न फाइल करके लौट रहा हूँ. बेटा अमेरिका में ३५ प्रतिशत टैक्स दे रहा है और बेटी लंदन में, हम विश्व के विकास के भागीदार हैं, गर्व क्यो न करें?

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆ कुंठा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “कुंठा ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆

 

☆ कुंठा ☆

 

रात की एक बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का सफल का संचालन करा कर वापस लौट कर घर आए पति ने दरवाज़ा खटखटाना चाहा. तभी पत्नी की चेतावनी याद आ गई. “आप भरी ठण्ड में कार्यक्रम का संचालन करने जा रहे है. मगर १० बजे तक घर आ जाना. अन्यथा दरवाज़ा नहीं खोलूँगी तब ठण्ड में बाहर ठुठुरते रहना.”

“भाग्यवान नाराज़ क्यों होती हो?” पति ने कुछ कहना चाहा.

“२६ जनवरी के दिन भी सुबह के गए शाम ४ बजे आए थे. हर जगह आप का ही ठेका है. और दूसरा कोई संचालन नहीं कर सकता है?”

“तुम्हे तो खुश होना चाहिए”, पति की बात पूरी नहीं हुई थी कि पत्नी बोली, “सभी कामचोरों का ठेका आप ने ही ले रखा है.”

पति भी तुनक पडा, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारा पति …”

“खाक खुश होना चाहिए. आप को पता नहीं है. मुझे बचपन में अवसर नहीं मिला, अन्यथा मैं आज सब सा प्रसिद्ध गायिका होती.”

यह पंक्ति याद आते ही पति ने अपने हाथ वापस खींच लिए. दरवाज़ा खटखटाऊं या नहीं. कहीं प्रसिध्द गायिका फिर गाना सुनाने न लग जाए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 17 – एकत्र कुटुंब ! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। श्री सुजित जी द्वारा  वर्णित कविता बिखरते हुए संयुक्त परिवारों की पीड़ा बयान करती है। उनके अनुसार नया घर बसाते समय यह चिंता रहती है कि लोग क्या सोचेंगे?  यह चिंता कदापि नहीं रहती कि घर के लोग क्या सोच रहे होंगे? लोगों को बताने के लिए झूठे बहाने तलाशे जाते हैं। लगता है संवेदनाएं समाप्त होती जा रही हैं। यदि नए घर में जाना ही है तो संयुक्त परिवार के साथ ही क्यों नहीं? शायद इतने नए घरों के निर्माण की आवश्यकता ही न हो? ऐसी रचना कोई श्री सुजित जी जैसा संवेदनशील कवि ही कर सकता है. प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   एकत्र कुटुंब ” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #17☆ 

 

☆ एकत्र कुटुंब ☆ 

 

 

आजकाल घरांची वाढत जाणारी संख्या बघता काही घरांमध्ये अस्तित्वात असणारी एकत्र कुटुंब पध्दत ही लयाला जाईल की काय असं वाटायला लागलंय.

 

एकत्र कुटुंबात राहणं त्रासदात्रक वाटू लागलय की काय कळत नाही…,

 

सतत एकमेंकाशी जुळवून घेणं,एकमेकांची मन संभाळण, ह्याचा उगाचच नको इतका बाऊ करु लागलोय आपण.

 

अगदी छोट्या छोट्या कारणावरून.. आपण

वेगळ राहण्याचा निर्णय घेऊन मोकळे होतो

 

आणि मग लोकांनी विचारल्यावर कारण देतो…,

आधीच घर लहान होतं म्हणून..

पोरांना जरा आभ्यासासाठी वेळ मिळावा म्हणून…

हवा पालट.. अशी एक ना अनेक कारण आपल्याजवळ तयार असतात

अर्थात ती आपण नव्या घरात रहायला येण्या आधीच

पाठ करून ठेवलेली असतात..

 

पण..,

खरं कारण कधी सांगत नाही

तेव्हा आपण आपला आणि आपल्या कुटुंबाचा विचार करतो..

खरं कारण कळल्यावर

लोक काय म्हणतील ह्याचा विचार करतो..

 

पण..,

हाच विचार आपण वेगळ राहण्या आधी का करत नाही

आपण लहानपणापासून ज्या घरात लहानाचे मोठे झालो..

ज्या घराने,घरातल्या आपल्या माणसांनी आपल्याला लहानपणापासून

संभाळून घेतलं..

त्याच माणसांचा आपल्याला आपण मोठे झाल्यावर त्रास होऊ लागतो..

 

कदाचित…

मनात नव्या घराला जागा हवी असल्याने

मनातली..,

आपल्या माणसांची जागा आपण नकळतपणे कमी करत जातो..

 

आपण नव्या घरात राहायला जाण्या आधी जर..

एकदा …

लोकांना काय वाटेल हा विचार सोडून

घरच्यांना काय वाटेल हा विचार केला…

तर घरांची वाढत जाणारी संख्या निश्चित कमी होईल…,

 

आणि नव्या घरात राहायला जायचंच असेल तर,

एकत्र कुटुंब घेऊनच रहायला जाव…कारण

घर मोठ नसलं तरी चालेल मन मोठ असल पाहिजे…!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 15 – आ गए विज्ञापनों के दिन ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर  सामयिक रचना  आ गए विज्ञापनों के दिन। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 15 ☆

 

आ गए विज्ञापनों के दिन ☆  

 

आ गए, विज्ञापनों के दिन

पल्लवित-पुष्पित जड़ों से

दम्भ में, फूले तनों के दिन।

 

पुष्प-पल्लव,हवा का रुख देख कांपे

टहनियां  सहमी हुई, भयभीत भांपे

देख  तेवर हो गई,  गुमसुम जड़ें भी

आसरे को  दूर से, खग – वृन्द झांके

मौसमों के साथ अनुबंधित समय भी

हर घड़ी को, बांचने में लीन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

आवरण – मुखपृष्ठ  पन्ने भर  रहें  हैं

खुद प्रशस्ति गान, खुद के कर रहे हैं

डरे हैं खुद से, अ, विश्वसनीय हो कर

व्यर्थ ही प्रतिपक्ष  में, डर भर रहे  हैं,

एक, दूजे के परस्पर, कुंडली-ग्रह

दोष-गुण ज्योतिष, रहे हैं गिन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

खबर के  संवाहकों का, पर्व आया

चले चारण-गान, मोहक चित्र माया

विविध गांधी-तश्वीरों की, कतरनों में

बिक गए सब, झूठ का बीड़ा उठाया,

मनमुताबिक, दाम पाने को खड़े हैं

राह तकते, व्यग्र हो पल-छिन

आ गए विज्ञापनों के दिन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – पराकाष्ठा  ☆

 

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का अपना आप

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्त्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन

कविता से मिलन

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 17 –ती ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा.  ऐसा इसलिए  क्योंकि एक पुरुष साहित्यकार स्त्री की भावनाओं को कविताओं के इस स्वरुप में रचित कर सकेगा क्या? इसका उत्तर आप  विचारिये.  एक पंक्ति अद्भुत है – “स्त्री कांच का पात्र (बर्तन)  है एक बार चटक गया फिर संभाले नहीं संभलता.”  साथ ही यह भी  कि  “कोई आएगा स्वप्नों का राजकुमार और ले जायेगा स्वनों के संसार किन्तु उसे देख-परख लेना” – ऐसा क्यों नहीं कहती है सबकी माँ ?”  ह्रदय को स्पर्श कर गया.

यदि एक पुरुष  कवि या पिता की भावनाओं की बात करेंगे तो मैं अपनी  एक कविता  का एक संक्षिप्त अंश जो मैंने अपनी  पुत्रवधु एवं  पुत्री के लिए लिखी थी उद्धृत करना चाहूँगा –

एक बेटी के आने के साथ ही / तुम्हारे विदा करने का अहसास / गहराता गया। / और / हम निकल पड़े / ढूँढने/अपने सपनों का राजकुमार/ तुम्हारे सपनों का राजकुमार / एक/वैवाहिक वेबसाइट के /विज्ञापन के / पिता की तरह / हाथ में / पगड़ी लिये / और/ कल्पना करते / हमारे / सपनों के राजकुमार की / ढूंढते जोड़ते / वर वधू का जोड़ा। / कहते हैं कि – / जोड़े ऊपर से बनकर आते हैं। / फिर भी / प्रयास तो करना ही पड़ता है न।

यह पूरी लम्बी कविता फिर कभी प्रकाशित करूँगा किन्तु, मैं अपने पहले कथन पर स्थिर हूँ –  “एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा”. जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 17 ☆

 

☆ -ती ☆

 

आई म्हणाली, तू वयात आलीस,

 

“आता हुन्दडू नकोसं गावभर,

 

“बाई ची अब्रू काचेचं भांडं, एकदा तडा गेला की सांधता येत नाही ”

कदाचित  तिच्या  आईनं ही तिला हे  सांगितलं  असावं

 

परंपरागत  हे काचेचं भांडं

जपण्याची शिकवण !

 

“तुला भेटेल कुणी राजकुमार

नेईल स्वप्नांच्या  राज्यात—

करेल उदंड  प्रेम तनामनावर —

पण  गाफिल राहू नकोस,

नीट पारखून घे तुझा  सहचर”

 

अशी शिकवण का देत नाही  कुठलीच  आई?

 

काचेला तडा न जाऊ देण्याच्या

अट्टाहासाने,

निसटून  जातात सगळे च

सुंदर क्षण  आयुष्यातले !

 

उरतो फक्त  व्यवहार-

बोहल्यावर चढविल्याचा,

पोरीचे हात पिवळे करून

आई बाप सोडतही असतील सुटकेचा  श्वास !

 

एका परकीय  प्रान्तात येऊन

तनामनानं तिथं स्थिरावण्याचं

अग्निदिव्य तर तिलाच करावं लागतं ना ?

 

आणि  नाहीच जुळले  सूर, तरीही

संसार गाणं गावंच लागतं ना ?

 

ही शिकवण की संस्कार ?

स्वतःची जपणूक, परक्या हाती स्वतःला सोपवण्याची–

नाच गं घुमा च्या तालावर  नाचण्याची??

 

आणि लागलाच एखाद्या  क्षणी

परिपूर्ण  स्त्री  असल्याचा शोध,

तर —-

 

मारून टाकायचे स्वतःतल्या

त्या भावुक  स्री ला ?

की बनू  द्यायचं तिला अॅना कॅरेनिना ??

 

एकूण  काय मरण अटळ —–

आतल्या  काय अन बाहेरच्या  काय ?

“ती” चं च फक्त तिचंच!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ लोकतन्त्र का महाभारत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

 

आप निश्चित ही चौंक गए होंगे कि यह व्यंग्य तो आप पढ़ चुके हैं फिर पुनरावृत्ति क्यों?

आज यह व्यंग्य प्रासंगिक भी है  एवं सामयिक भी है.

प्रासंगिक इसलिए क्योंकि आज ही  आदरणीय गृह मंत्री जी ने जिस बहु उद्देश्यीय कार्ड (एक कार्ड जिसमें आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस और बैंक खातों जैसी जानकारी समाहित हो)  की चर्चा की है, उस प्रकार के कार्ड की कल्पना मैंने अपने जिस व्यंग्य के माध्यम से गत वर्ष 4 नवम्बर 2018  को किया था  वह सामयिक हो गई है. 

इसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं :-

 

कृपया यहाँ क्लिक करें – >>>>>>>>>>  व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे

 

 

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