हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी – लघुकथा ☆ पौध संवेदनहीनता की ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. यह एक गौरव का विषय हैं कि उन्होंने परदादा – दादा से विरासत में मिली साहित्यिक अभिव्यक्ति को न सिर्फ संजोकर रखा है बल्कि वे निरंतर प्रयास कर उस दिव्य ज्योति को प्रज्वलित कर चहुँ ओर उसका प्रकाश बिखेर रही हैं.  उनके ही शब्दों में –

“अपने मन की बात  कहने के लिए कविता और लघुकथा मेरे माध्यम हैं. ‘मन के हारे हार है , मन के जीते जीत’ पर मेरा पूरा विश्वास है. इसी मन को साहित्य – सृजन द्वारा चैतन्य और सकारात्मक बनाए रखती हूं.”

उनकी लघुकथाएं  हमारे आस पास की घटनाओं और सामाजिक पात्रों को लेकर लिखी गईं हैं. साथ ही वे सहज ही हमें कोई  न  कोई सकारात्मक समाजिक एवं शिक्षाप्रद सन्देश दे जाती हैं.  आज प्रस्तुत हैं उनकी लघुकथा “पौध संवेदनहीनता की”.  हम भविष्य में उनके साहित्य को आपसे साझा कर सकेंगे ऐसे अपेक्षा के साथ.)

 

☆  पौध संवेदनहीनता की ☆ 

 

हर तरफ वृक्षारोपण किया जा रहा था | भारत सरकार के आदेश का पालन जो करना था | बड़ी तादाद में गड्ढ़े खोदे गए,  पौधे लगाए गए और बड़े अधिकारियों ने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई | अखबारों में ज़ोर- शोर से इसका खूब प्रचार हुआ,  इसके बाद उन पौधों का क्या होगा भगवान जाने ? सरकारी आदेश का पालन हो चुका था .

लेकिन उसे इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था | उसके आदर्श तो उसके पिता थे | उसने देखा था कि वे जब भी कोई फल खाते उसका बीज सुखाकर रख लेते थे | तरह – तरह के फलों के ढेरों बीज उनके पास इक्ठ्ठे हो जाते | जब वे बस से एक जगह से दूसरी जगह जाते तब सड़क के किनारे की खाली जमीन और घाटों में बीज फेंकते जाते | उनका विश्वास था कि ये बीज जमीन पाकर फूलें – फलेंगे और पर्यावरण सुरक्षित रहेगा | बचपन में पिता के साथ बस में सफर करते समय उसने भी कई बार खिड़की से बीज उछालकर फेंके थे |

आज वह भी यही करता है | उसके बच्चे भी देखते हैं कि सफर में जाते समय पिता के पास तरह – तरह के बीजों की एक थैली जरूर होती है | यात्रा में रास्ते भर वह खिड़की से बीज फेंकता जाता है, अपने पिता की तरह मन में इस भाव को लिए कि ये बीज बेकार नहीं जाएंगे सब नहीं पर कुछ बीज तो वृक्षों में बदल ही जाएंगे |

आज का उसका सफर पूरा हुआ और वह पहुँचता है महानगर के एक फलैट में जहाँ उसकी माँ बरसों से अकेले रह रही है | पैसों की कमी नहीं है इसलिए सर्टिफाईड कंपनी की कामवाली बाई माँ की देखभाल के लिए रख दी है | जरूरत पड़ने पर नर्स को भी बुलवा लिया जाता है | बिस्तर पर पड़े – पड़े माँ को बेड सोर  हो गए  हैं |अकेलेपन ने उसकी आवाज छीन ली है | बीमारी और अकेलेपन के कारण वह ज़िद्दी और चिडचिडी भी होती जा रही है | बूढ़ी माँ की आंखें अपने आस पास कोई पहचाना चेहरा ढूंढती है | लेकिन कोई नहीं है | वैसे तो सब दूर हैं पर मोबाईल युग में सब कुछ मुठ्ठी में है | दूर से ही सब मैनेज हो जाता है | कामवाली बाई भी आज के जमाने की है स्काइप से माँ को बेटे–बहू के दर्शन भी करा देती है | माँ समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ ? अचानक कैसे बेटा दिखने लगा और फिर फोन में कहाँ गायब हो गया,  उसकी समझ से परे है ये मायाजाल.  वह बात खत्म होने के बाद भी बड़ी देर फोन हाथ में लिए उलट पुलटकर देखती रहती है, बेटा कैसा आया इसमें और कहाँ गया ? माँ चाहती है दो बेटे – बहुओं में से कोई तो रहे उसके पास, कोई तो आए, लेकिन कोई नहीं आता . कामवाली बाई और नर्स की व्यवस्था कर उन्होंने माँ के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली |

पिता को देख – देखकर नए पौधों को लगाने की बात तो वह सीख गया था लेकिन लगे लगाए पुराने पेड़ों को भी खाद पानी की जरूरत होती है इसे सिखाने में वे चूक गए थे | पर्यावरण संरक्षण की भावना तो पिता उसमें पैदा कर गए थे लेकिन परिवार में स्नेह और लगाव की बेल वे नहीं रोप सके थे |

अनजाने में ही सही पर वह भी अपने  बच्चों को संवेदनहीनता की यही पौध थमाता जा रहा था |

 

डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर, महाराष्ट्र – 414001

मोबाईल – 9370288414

e-mail – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कृतिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – कृतिका ☆

 

(“जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे।”  कल्पना मात्र से ह्रदय गौरवान्वित हो जाता है, जब हम किसी पिता की लेखनी से ऐसे वाक्यों को पढ़ते हैं.  यह अपने आप में एक आत्मसंतुष्टि की भावना को जन्म देती है. ऐसा लगता है जीवन सार्थक हो गया.  भावनाओं को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.  मैंने सुश्री कृतिका (श्री संजय भारद्वाज जी की बिटिया) का ब्लॉग पढ़ा.  अब सुश्री कृतिका ने अपना एक स्थान अर्जित कर लिया है. सुश्री कृतिका के ब्लॉग को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें >>  Glazedshine.

अनायास ही लगा सब कुछ विरासत में नहीं मिला उसने विरासत को आगे बढ़ाने  के लिए कठोर परिश्रम किया है. साथ ही मुझे  पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता स्व. केविन कार्टर के पुरस्कार जीतने के बाद आत्मग्लानि में आत्महत्या की घटना याद आ गई जिसे आप गूगल में सर्च कर सकते हैं. (लिंक को कॉपी राइट के कारण यहाँ नहीं दे सकता).   मैं श्री संजय भरद्वाज जी की भावनाओं को आपसे साझा करने से नहीं रोक सका.)

  – हेमन्त बावनकर

 

जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे। अनन्य विजय के क्षण होते हैं यह। बिटिया कृतिका ने यह अनन्यता जीवन में  अनेक बार दी है।
कुछ ऐसा ही आज भी हुआ। दो दिन से पशुओं के साथ मनुष्य के व्यवहार को लेकर भीतर एक मंथन चल रहा था। बस कलम उठानी शेष थी कि बिटिया ने अपने ब्लॉग का एक लिंक पढ़ने के लिए भेजा। लेख पढ़ा और रक्त सम्बंध कैसे अदृश्य काम करता है, यह भी जाना। गदगद हो गया उसकी भावनाएँ और उसकी कलम की संभावनाएँ पढ़कर।
यह कृतिका का चौथा ब्लॉग है। पढ़ियेगा और अंकुरित हो रही एक लेखिका को उसके ब्लॉग के कमेंट बॉक्स में आशीर्वाद अवश्य दीजियेगा।
कृतिका के ब्लॉग का लिंक है-  Glazedshine.

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 – माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो” आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 ☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो  

 

साहित्यकार –  वाटस्अप, फेसबुक, ट्विटर पर रात में उपस्थित मित्रों को सूचना देना चाहता हूँ कि आज दिन को  साहित्य संस्थान की  काव्य गोष्ठी हुई, जिसमें अनेकानेक महिलाओं को सम्मान दिया गया, साथ ही आसपास के शहर की साहित्य संस्थाओं के अध्यक्ष व संस्थापकों को तिलक लगाकर तथा फूलमाला पहनाकर सम्मानित किया गया। मुझे भी सम्मानित किया गया है। माइक के साथ मंच पर प्रूफ के रुप में मेरी तस्वीर है जिन्हें विश्वास न हो वे तस्वीर देख सकते हैं कि मंच भी है और माइक भी है और इत्ती सी बात के लिए मैं झूठ क्यों बोलूंगा, हालांकि मुझे अभी तक 8999 सम्मान मिल चुके हैं। कैसे मिले हैं आप खुद समझदार हैं।

संस्था मुखिया –  तुम्हें कब सम्मानित किया गया ? मै तो वहीं थी ।कार्यक्रम की समाप्ति पर आप खाली मंच पर माइक लेकर फोटो खिंचवा रहे थे ।कार्यक्रम मे संचालन मेरा था। झूठमूठ का साहित्यकार बनना चाहता है। सोशल मीडिया में झूठमूठ की अपनी पब्लिसिटी करता है। शाल और श्रीफल लिए किसी से भी फोटो खिंचवाता फिरता है इसलिए बेटा तेरी घरवाली तुझसे बदला ले रही है। सबकी बीबी तीजा का उपवास रखतीं हैं, पर तेरी बीबी तीजा का उपवास नहीं रखती। सच में किसी ने सही लिखा है कि इस रंग बदलती दुनिया में इंसानों की नीयत ठीक नहीं।

साहित्यकार – मैं झूठ क्यों बोलूंगा…? अपनी संस्था के मालिक ने मंच से एलांऊस कर बुलाया था। टीका लगाकर फूल माला पहनाकर मंच में सम्मानित किया था। आप शायद कही खाना खा रही थी या टायलेट में मेकअप कर रही होगीं। श्याम जी, नयन जी और मुझे शायद गुप्ता जी और बेधड़क जी ने भी फूल माला पहनाकर सम्मानित किया था, और कई लोगों ने भी माला पहनाई थी उनके नाम याद नहीं है क्योंकि उस समय मैं इतना गदगद हो गया था कि होश गवां बैठा था। और तू कौन सी दूध की धुली है…? सबको मालूम है ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #16 – कागज जलाना मतलब पेड़ जलाना  ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कागज जलाना मतलब पेड़ जलाना ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 17 ☆

 

☆ कागज जलाना मतलब पेड़ जलाना ☆

 

स्कूलों में, कार्यालयों में प्रतिदिन ढ़ेरों कागज साफ सफाई के नाम पर जला दिया जाता है……. कभी आपने जाना है कि कागज कैसे बनता है ? जब हम यह समझेंगे कि कागज कैसे बनता है, तो हम सहज ही समझ जायेंगे कि एक कागज जलाने का मतलब है कि हमने एक हरे पेड़ की एक डगाल जला दी.रद्दी  कागज को रिसाइक्लिंग के द्वारा पुनः नया कागज बनाया जा सकता है और इस तरह जंगल को कटने से बचाया जा सकता है.

हमारे देश में जो पेपर रिसाइक्लिंग प्लांट हैं, जैसे खटीमा, उत्तराखण्ड में वहां रिसाइक्लिंग हेतु रद्दी कागज अमेरिका से आयात किया जाता है. दूसरी ओर हम सफाई के नाम पर जगह जगह रोज ढ़ेरो कागज जलाकर प्रदूषण फैलाते हैं.

अखबार वाले, अपने ग्राहकों को समय समय पर तरह तरह के उपहार देते हैं. क्या ही अच्छा हो कि अखबार की रद्दी हाकर के ही माध्यम से प्रतिमाह वापस खरीदने का अभियान भी अखबार वाले चलाने लगें और इसका उपयोग रिसाइक्लिंग हेतु किया जावे. अभियान चलाकर स्कूलो, अदालतो, अखबार, पत्र पत्रिकाओ को व अन्य संस्थाओ को  रद्दी कागज को जलाने की अपेक्षा कागज बनाकर पुनर्उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित करने के प्रयास होने चाहिये. ई बुक्स व पेपर लैस कार्यालय प्रणाली को अधिकाधिक प्रोत्साहन दिये जाने की भी जरूरत है.  इससे जंगल भी कटने से बचेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – आरती ☆ अंबारती ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  स्वरचित अम्बाजी की आरती अंबारती)

 

☆ अंबारती ☆

 

आरती सप्रेम जय जय जय अंबे माता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||धृ||

 

सदा पाठिशी रहा उभी मुकांबिका होऊनी

शिवशक्तीचे प्रतिक तू सिंहारूढ स्वामींनी

कोल्लर गावी महिमा गाई  भक्त वर्ग मोठा .

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||1||

 

ब्राम्ही रूप हे तुझेच माते चतुर्मुखी ज्ञानी

सप्तमातृका प्रातः गायत्री हंसारूढ मानी

सृजनदेवता ब्रम्हारूपी रक्तवर्णी कांता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||2||

 

माहेश्वरी रूप शिवाचे , व्याघ्रचर्म धारीणी

जटामुकूट  शिरी शोभतो तू सायं गायत्री

त्रिशूल डमरू त्रिनेत्र धारी तू वृषारूढा.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||3||

 

स्कंदशक्ती तू कौमारी तू नागराज धारीणी

मोर कोंबडा हाती भाला तू जगदोद्धारीणी.

अंधकासूरा शासन करण्या आली मातृका

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||4||

 

विष्णू स्वरूपी वैष्णवी तू ,शंख, चक्र, धारीणी

माध्यान्ह गायत्री माता तू शोभे गरूडासनी.

मनमोहिनी पद्मधारीणी तू समृद्धी दाता.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||5||

 

नारसिंही भद्रकाली तू,पानपात्र धारीणी

गंडभेरूडा , शरभेश्वर शिवशक्ती राज्ञी

लिंबमाळेचा साज लेवूनी शोभे अग्नीशिखा.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||6||

 

आदिमाया,आदिशक्ती,विराट रूप धारीणी

रण चंडिका शैलजा  महिषासूर मर्दिनी

महारात्री त्या दिव्य मोहिनी ,शोभे जगदंबा .

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||7||

 

सप्तमातृका रूपात नटली देवी कल्याणी

भगवती तू, माय रेणुका  शोभे नारायणी

स्तुती सुमनांनी आरती  कविराजे सांगता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||8||

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40 – ☆ ई-अभिव्यक्ति में तकनीकी संवर्धन ☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40                

☆ ई-अभिव्यक्ति में तकनीकी संवर्धन ☆

 

सम्माननीय लेखक एवं पाठक गण सादर अभिवादन.

हमारा प्रयास है कि हम समय समय पर  सम्माननीय लेखकों एवं पाठकों के सुझावों पर अमल करने का प्रयास करें. जैसे आवश्यकता अविष्कार की जननी है वैसे ही सायबर युग में आवश्यकता तकनीकी संवर्धन की भी जननी होती है .

काफी समय पूर्व एक मित्र लेखक ने पूछा था कि यदि मुझे अपनी कोई रचना वेबसाइट पर ढूंढना हो तो क्या करना होगा.  उस समय लगा कि हाँ यह तो जरुरी है. आखिर हजारों रचनाओं (पोस्ट्स)  में अपनी रचनाएँ कैसे ढूंढी जाये. उस समय “Search” सुविधा उपलब्ध की गई थी. यह सुविधा आपको  वेबसाइट में आपकी ही नहीं अपितु किसी भी लेखक की रचना ढूंढने में मदद करेगी.  आपको मात्र लेखक का नाम टाइप करना है.   यह सुविधा मात्र ई-अभिव्यक्ति तक ही सीमित है इससे आप गूगल सर्च में नहीं जायेंगे.

सर्च उदहारण

 

अभी कुछ समय पूर्व एक और लेखक मित्र ने चाहा कि हमारी वेबसाइट में प्रिंट की सुविधा भी होनी चाहिए वैसे यदि साधारण प्रिंट कमांड दिया जावे तो अनावश्यक विज्ञापन और स्क्रीन के अन्य तथ्य भी प्रिंट हो जाते हैं. यह वास्तव में एक अत्यावश्यक सुविधा है. अतः अब ई-अभिव्यक्ति  पर आप प्रिंट सुविधा भी पा सकेंगे. आपको प्रत्येक रचना/पोस्ट के दाहिने ऊपर (Top) ओर एवं दाहिनी नीचे (Bottom)की ओर प्रिंटर का छोटा सा चिन्ह दिखाई देगा . इस चिन्ह पर क्लिक कर आप अपनी /अपने प्रिय लेखक की कोई सी भी रचना उपरोक्त स्क्रीन से सर्च कर अथवा रचना/पोस्ट से सीधे प्रिंट कर सकते हैं.

उदहारण –  रचना/पोस्ट के दाहिने ऊपर (Top) पर प्रिंटर के चिन्ह पर क्लिक करें 

उदहारण – रचना/पोस्ट के दाहिनी नीचे (Bottom) पर प्रिंटर के चिन्ह पर क्लिक करें 

आशा है इस सुविधा का हमारे सुधि लेखक एवं पाठक गण सदुपयोग करेंगे.  आपके सुझावों का सदैव स्वागत है. हम सकारात्मक सुझावों पर कार्य करने हेतु सदैव तत्पर हैं.

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हमारे सम्माननीय विजिटर्स की संख्या 64,000 पार कर चुकी होगी. इसके लिए आप सभी का ह्रदय से आभार.

 

आपकी शुभकामनाएं ही मुझे ऊर्जा देती है.

 

हेमन्त बावनकर

22  सितम्बर  2019

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा। आप Likeके नीचे Share लिंक से सीधे फेसबुक  पर भी रचना share कर सकते हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 16 – व्यंग्य – भला आदमी / बुरा आदमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. यूँ कहिये की कि कोई घटना आँखों के सामने चलचित्र की तरह चल रही हो. यह व्यंग्य केवल व्यंग्य ही नहीं हमें जीवन का व्यावहारिक ज्ञान भी देता है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “भला आदमी / बुरा आदमी ” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 16 ☆

 

☆ व्यंग्य – भला आदमी/ बुरा आदमी ☆

 

बिल्लू की शादी के वक्त मैंने बनवारी टेलर को कोट दिया था बनाने के लिए। शादी निकल गयी और बिल्लू की जोड़ी बासी भी हो गयी, लेकिन मेरा कोट नहीं मिला। हर बार बनवारी का एक ही  जवाब होता, ‘क्या बताएं भइया, बीच में अर्जेंट काम आ जाता है, इसलिए पुराना काम जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है।’

मैं चक्कर पर चक्कर लगाता हूँ लेकिन मेरा कपड़ा कोट का रूप धारण नहीं करता। अब बनवारी ने दूसरा रोना शुरू कर दिया था, ‘भइया, इस मुहल्ले के आदमी इतने गन्दे हैं कि क्या बतायें। उनका काम करके न दो तो सिर पर चढ़ जाते हैं। आप ठहरे भले आदमी, आपसे हम दो चार दिन रुकने को कह सकते हैं लेकिन इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है।’

‘भला आदमी’ की पदवी पाकर मैं खुश हो जाता और चुपचाप लौट आता। लेकिन तीन चार दिन बाद फिर मेरा दिमाग खराब होता और मैं फिर बनवारी के सामने हाज़िर हो जाता।

बनवारी फिर वही रिकॉर्ड शुरू कर देता, ‘भइया, आपसे क्या कहें। इस मुहल्ले में नंगे ही नंगे भरे हैं। अब नंगों से कौन लड़े? उनका काम करके न दो तो महाभारत मचा देते हैं। आप समझदार आदमी हैं। हमारी बात समझ सकते हैं। वे नहीं समझ सकते। मैं तो इस मुहल्ले के लोगों से तंग आ गया।’

जब भी मैं उसकी दूकान पर जाता, बनवारी बड़े प्रेम से मेरा स्वागत करता। अपनी दूकान में उपस्थित लोगों को मेरा परिचय देता। साथ ही यह वाक्य ज़रूर जोड़ता, ‘खास बात यह है कि बड़े भले आदमी हैं। यह नहीं है कि एकाध दिन की देर हो जाए तो आफत मचा दें।’

अंततः मेरे दिमाग में गर्मी बढ़ने लगी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक आदमी मेरे सामने कोट का नाप देकर गया और अगली बार मेरे ही सामने कोट ले भी गया। मैंने जब यह बात बनवारी से कही तो वह बोला, ‘अरे भइया, इस आदमी से आपका क्या मुकाबला? इसका काम टाइम से न करता तो ससुरा जीना मुश्किल कर देता। बड़ा गन्दा आदमी है। ऐसे आदमियों से तो जितनी जल्दी छुट्टी मिले उतना अच्छा। आप ठहरे भले मानस। आपकी बात और है।’

लेकिन मेरा दिमाग गरम हो गया था। मैंने कहा, ‘बनवारी, तुम मेरा कपड़ा वापस कर दो। अब मुझे कोट नहीं बनवाना।’

बनवारी बोला, ‘अरे क्या बात करते हो भइया! बिना बनाये कपड़ा वापस कर दूँ? अब आप भी उन नंगों जैसी बातें करने लगे। दो तीन दिन की तो बात है।’

चार दिन बाद फिर बनवारी की दूकान पर पहुँचा तो वह मुझे देखकर आँखें चुराने लगा। मुझे शहर के समाचार सुनाने लगा। मैंने कहा, ‘बनवारी, मैं कोट लेने आया हूँ।’

वह बोला, ‘क्या बतायें भइया, वे उपाध्याय जी हैं न, वे बहुत अर्जेंट काम धर गये थे। उल्टे-सीधे आदमी हैं इसलिए उनसे पीछा छुड़ाना जरूरी था। बस,अब आपका काम भी हो जाता है।’

मैं कुछ क्षण खड़ा रहा, फिर मैंने कहा, ‘बनवारी!’

वह बोला, ‘हाँ भइया।’

मैंने कहा, ‘तुम इसी वक्त मेरा नाम अपनी भलेमानसों की लिस्ट में से काट दो। बोलो, कोट लेने कब आऊँ?’

वह मेरे मुँह की तरफ देखकर धीरे से बोला, ‘कल ले लीजिए।’

दूसरे दिन पहुँचने पर उसने मुझे कोट पहना दिया। तभी एक और आदमी उससे अपने कपड़ों के लिए झगड़ने लगा। मैंने सुना बनवारी उससे कह रहा था, ‘भइया, तुम ठहरे भले आदमी। नंगे-लुच्चों को पहले निपटाना पड़ता है।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #13 – चौरासी कोसी परिक्रमा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 13 ☆

 

☆ चौरासी कोसी परिक्रमा ☆

 

लगभग एक घंटे पहले छिटपुट बारिश हुई है। भोजन के पश्चात घर की बालकनी में आया तो वहाँ का दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा। सुरक्षा जाली की सलाखों पर पानी की मोटी बूँदें झूल रही थीं। बालकनी के पार खड़े विशाल पेड़ अपनी फुनगियों पर गुलाबी फूलों से लकदक यों झूम रहे थे मानों सुबह-सवेरे कोई मुनिया अपनी चोटियों पर दो गुलाबी रिबन कसे इठलाती हुई स्कूल जा रही हो। इस दृश्य को कैमरे में उतारने का मोह संवरण न कर सका।

मोबाइल के कैमरे ने चित्र उतारा तो मन का कैमरा चित्र को मस्तिष्क की तरंगों तक ले गया और मन-मस्तिष्क क गठजोड़ विचार करने लगा। क्या हमारा क्षणभंगुर जीवन साँसों का आलंबन लिए इन बूँदों जैसा नहीं है? हर बूँद को लगता है  जैसे वह कभी न ढलेगी, न ढलकेगी। सत्य तो यह है कि अपने ही भार से बूँद प्रतिपल माटी में मिलने की ओर बढ़ रही है। कालातीत सत्य का अनुपम सौंदर्य देखिए कि बूँद माटी में मिलेगी तो माटी उम्मीद से होगी। माटी उम्मीद से होगी तो अंकुर फूटेंगे। अंकुर फूटेंगे तो पौधे पनपेंगे। पौधे पनपेंगे तो वृक्ष खड़े होंगे। वृक्ष खड़े होंगे तो बादल घिरेंगे। बादल घिरेंगे तो बारिश होगी। बारिश होगी तो बूँदें टपकेंगी। बूँदें टपकेंगी तो सलाखें भीगेंगी। सलाखें भीगेंगी तो उन पर पानी की मोटी बूँदें झूलेंगी…!

वस्तुत: सलाखें, बूँदें, पेड़, सब प्रतीक भर हैं। जीवात्मा असीम आनंद के अनंत चक्र की चौरासी कोसी परिक्रमा कर रहा है। बरसाती बादल की तरह छिपते-दिखते इस चक्र को अद्वैत भाव से देख सको तो जीवन के ललाट पर सतरंगा इंद्रधनुष उमगेगा।…इंद्रधनुष उमगने के पहले चरण में चलो निहारते हैं सलाखें, बूँदें और पेड़…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से ☆ पूर्व/पश्चिम☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  पूर्व/पश्चिम.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से

 

☆ पूर्व/पश्चिम ☆

 

कितना अंतर है हम दोनों के मध्य

मैं पूर्व तू पश्चिम ,जब मै उदित तू अस्त

पर कभी मेरे द्वारा अर्पित सूर्य को अर्ध्य

अब तेरे सागर में हिलोरे लेता है

तेरे मनचंद्र को प्रभावित करता है

 

जिस ओंकार स्मरण से

मेरी धरती का मन भर गया

तू उसका अनुसरण करने लगा

ध्यान, योग, वेदों में भ्रमण करने लगा ।

 

जिस पौरुष को तूने 200 वर्ष तक दमित किया ,

उसकी कई पीढ़ियों को संक्रमित किया ।

अब उसके मानसरोवर में संशय के बत्तखों को स्वतंत्र कर,

तू कैलाश आरोहण करने लगा, परमसत्य खोजने चला ।

 

अब तू ही कल आकर,

वही ज्ञान पूर्व को बताएगा,

संस्कृत का महत्व जतायेगा ।

फिर हम,

उसी पश्चिम सागर के जल से सूर्य अर्ध्य का दर्प करेंगे,

सप्तऋषियों को चकित करेंगे ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ फरारी. ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  एक भावप्रवण कविता  फरारी. )

 

☆ फरारी ☆

(*वृत्त :- भुजंग प्रयात*)

(*लगागा, लगागा, लगागा, लगागा*)

मनाची कितीदा करू मी तयारी

तुझे नाटकी बोलणे घाव भारी.

तुझ्या  आठवांनी मना चैन नाही

नको पावसाळा घडो भेट न्यारी.

तुझी रंगभूषा अजूनी कळेना

तुझी भावबोली , पुन्हा स्वप्न वारी.

दिले तू मला जे, तया तोड नाही

तुझ्या आठवांची, पुरेना शिदोरी.

कवीराज आता, नको आस लावू

तुझ्या पावलांचे, ठसे ही फरारी.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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