मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 16 – अक्षरांशी माझ नातं…. ! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है।  श्री सुजित जी द्वारा  वर्णित कविता  संभवतः प्रत्येक साहित्यकार की कविता है. किसी भी साहित्यकार के लिए शब्दों का सम्बन्ध जन्म जन्मांतर का होता है. फिर अक्षर तो शब्दों की ही इकाई हुई न. अक्षरों से हम सभी का नाता है किन्तु ऐसा सामंजस्य कोई श्री सुजित जी जैसा संवेदनशील कवि ही कर सकता है. प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “अक्षरांशी माझ नातं…. !”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #16☆ 

 

☆ अक्षरांशी माझ नातं…. ! ☆ 

 

ब-याच दिवसांनंतर

पुस्तक हातात घेतलं की

मेंदूत धूळ खात पडलेली

अक्षर खडबडून जागी होतात

आणि शोधू लागतात

पुस्तकात दडलेल त्यांचं अस्तित्व

जोपर्यंत.. . .

हातातलं पुस्तक

नजरेआड होत नाही तोपर्यंत.

आणि  . . त्यांनी पुस्तकात

शोधलेल्या त्यांच्या अस्तित्वाने

मी मात्र,

अस्वस्थ होत राहतो,

पुढचे कित्येक दिवस.. . !

शोधत राहतो

अक्षरांशी

असणार माझ नातं. . . . !

सुजित




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ 

 

 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान☆

 

मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई, तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये, स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी, जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की। मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा, कुत्ता पालने की सलाह थी। बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें, क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं, इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से, कुत्ता पालकर बचा जा सकता है। ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर, बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है।

वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है, इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है। कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं। अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है। सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं। संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है। भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है। काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में, किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है। फालतू देशी कुत्तो को नही, जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं। यूं तो स्लम डाग मिलेनियर, फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है।

पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला। अलशेसियन, पामेरियन, पग, डेल्मेशियन, बुलडाग, लैब्राडोर, जर्मन शेफार्ड, मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला। ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये। और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये, बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें। थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है। वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है, वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते, उठते बैठते हैं। उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है।

डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई। जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे, या गन्ने से, भारत में ही बनते हुये, यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब, विदेशी ही है,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे, पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे, विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है। एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है, तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली, वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं, पीपुल्स फार एनीमल, जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं। नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है, मतलब चिंता जनक नहीं है, विदेशी श्वान पालिये, ब्लड प्रैशर से दूर रहिये। श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये, और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये। पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆ साथी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “साथी  ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆

 

☆ साथी  ☆

 

“चल भाई  ! महफ़िल जमाते है”  रमण ने कहा तो उस ने प्याला उठ लिया. आगे-आगे रमण और पीछे-पीछे वह चलने लगा.

कुछ ही देर में महफ़िल जम गई.  एक गिलास में वह कुछ बियर  डाल लेता. दूसरे प्याले में कुछ बियर  उंडेल  देता.

“अरे भाई  ! तू बेईमानी मत करना” कहते हुए रमण कागज में रखी सेव का थोड़ा सा भाग उस के सामने रख देता और थोडा सा अपने सामने रख लेता. फिर दोनों सेव  खाते हुए मस्ती से बियर  का मजा ले रहे थे.

तभी मोहन वहाँ आ पहुँचा ,” क्यों भाई, महफ़िल जम रही है ?”

“हाँ  यार, तू भी बैठ.”

“इस कुत्ते के साथ ?”

“हाँ  यार ! यही तो मेरा वफादार साथी है. जो हर समय मेरा साथ निभाता है.” कह कर रमण और उस का साथी दोनों बारी-बारी से बियर पीने लगे .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अभिलाषा ☆ – श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं. प्रस्तुत है उनकी कविता “अभिलाषा”.)

 

☆ अभिलाषा ☆

 

माँ की अभिलाषा, पुत्र प्राप्ति की l

माँ की खुशियां, पुत्र प्राप्ति की ll

 

पुत्र न होने से, माँ को लगी निराशा l

माँ खुशियां की, पुत्र प्राप्ति की ll

 

दर – दर भटक,  मन्नतें मांगी l

कभी आशा, कभी निराशा लगी ll

 

वर्षो बित खुशियों की, आशा जगी l

मन में शंका, परिवार में विश्वास जगा ll

वक़्त खुशियों का, पिटारा लाया l

चारों ओर पुत्र – पुत्र ख़बर लाया ll

 

मिठाइयां बटी, बधाइयाँ आई l

आंगन में माँ पुत्र की वाणी आई ll

 

वक़्त बिता, पुत्र के कदम बढ़े l

माँ को भविष्य की, अभिलाषा बढ़ी ll

 

माँ ने सपने सजाएं, पुत्र की अभिलाषा में l

सोचा न था बह जाएंगे, सपने वक्त की धारा में ll

 

पुत्र ने कदम बढ़ाए, वृद्धआश्रम में l

निराशा जगी, माँ की अभिलाषा में ll

आँखो में आंसू, नजरे पुत्र के सपनों में l

रुके न कदम, ढह गए माँ के सपने ll

 

माँ की अभिलाषा, पुत्र प्राप्ति की l

माँ की खुशियां, पुत्र प्राप्ति की ll

 

✍?कुमार जितेन्द्र

(कवि, लेखक, विश्लेषक, वरिष्ठ अध्यापक – गणित)

साईं निवास मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न 9784853785




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मन, मन है….. ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ मन, मन है….. ☆

 

सोचो मन की,

करो मन की…..।

बोलो मन से,

सुनो मन से….।

हो सम्मान खुद के मन का,

करो मान दूसरों के मन का…..।

करो याद दूसरों को मन से,

न करो पराया किसी को मन से…..।

मन के हों अरमान पूरे,

मन के न रहे सपने अधूरे…..।

मन से हो समर्पण,

मन के लिए हो समर्पण…..।

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उसने कहा था ☆ – श्री नरेंद्र राणावत

श्री नरेंद्र राणावत

 

☆ लघुकथा – उसने कहा था ☆

 

ऐवन पिछले कुछ समय से स्वास्थ्य की परेशानियों के कारण तनाव में थी। उसे अपने जीवन की अगली राह दिखाई ही नहीं दे रही थी। मन में व्याप्त अवसाद उसे बार-बार आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहा था।

इसी मानसिकता में ऐवन आज आँगन में ओटले पर बैठी पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेद जरूर रही थी, उसकी निगाह एकटक शून्य में गुम थी । एक बार तो उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया, फिर जो प्रकाशपुंज उठा, उसकी आँखें तो क्या, आत्मा तक चौंधिया गई।

‘ऐवन, मुझे तुम्हारे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं, मैं तुम्हारी किसी मजबूरी का फायदा उठाना नहीं चाहता। शायद तुम मुझे पूरी तरह समझ न पाई हो। लेकिन फिर भी इतना कहूँगा कि मैं जीवन भर सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा इंतजार करूंगा। जब चाहो याद कर सकती हो।’

हाँ, कॉलेज में अंतिम दिन यही तो कहा था नरेंद्र ने।

नरेंद्र, जो पिछले साल भी मॉल में एक बार फिर मिला था। उसके बालों में सफेदी ने अपनी दस्तक दे दी थी, लेकिन चेहरे का ओज और वार्तालाप में अद्भुत आत्मविश्वास झलक रहा था। ऐवन सोच रही थी, उम्र की मार तो नरेंद्र पर भी पड़ी ही होगी। शायद आत्मविश्वास ही वह दवा है जो आधी बीमारी दूर कर देती है।

‘मुझे भी अब नरेंद्र के लिए जीना है, पता नहीं वह कब किस मोड़ पर मिल जाए।’

ऐवन ने सोचा और जैसे ही उठ खड़ी हुई, उसके मन मे छाये अवसाद नाम की चिड़िया अपना घोंसला छोड़ सदा के लिए उड़ चुकी थी।

 

© नरेंद्र राणावत  ✍

गांव-मूली, तहसील-चितलवाना, जिला-जालौर, राजस्थान

+919784881588




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण )

 

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।।9।।

 

मित्र शत्रु मध्यस्थ रिपु सब को एक समान

साधु पापी तक किसी का करता न अपमान।।9।।

      

भावार्थ :  सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।।9।।

 

He who is of the same mind to the good-hearted, friends, enemies, the indifferent, the neutral, the hateful, the relatives, the righteous and the unrighteous, excels.  ।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य   मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’ ☆☆

 

माफ करना दोस्त, हम तुम्हारी पार्टी में आ नहीं पायेंगे.

तुम्हारा ग्रीन थीम पार्टी का एक आकर्षक, संगीतमयी आमंत्रण वाट्सअप पर मिला. बुलावे में तुमने एक ड्रेस-कोड भी दिया है. हमें डार्क-ग्रीन पंजाबी ड्रेस पहनकर आने को कहा गया है. मेहमान वैसे दिखें जैसे तुम देखना चाहते हो. गहरा हरा रंग ठीक भी है दोस्त, कहते हैं ईजी मनी के सावन में चुंधियायी आँखों को सब तरफ हरा-हरा नज़र आता है. तुमने वही रंग चुना. ड्रेस-कोड फॉर मेंस – गहरा हरा पंजाबी कुर्ता और एम्ब्रोयडरी वर्क वाली मैचिंग लुंगी या डबल प्लेट वाली लूज पैंट. विमेन्स के लिये डार्क-ग्रीन पटियाले सूट या साड़ी. साथ में ब्रेडेड बालों में ग्रीन परांदे और हरी जुत्तियाँ.

बस यहीं पर मात खा गये अपन. गहरी हरी पंजाबी पोशाक का जुगाड़ बन नहीं पा रहा. हमारी मुफ़लिसी की थीम तुम्हारे आयोजन की थीम से मैच नहीं कर पा रही. निमंत्रण ग्रीन का है और हम पीले पड़ते जा रहे हैं.

ऐसा नहीं कि हमने कोशिश नहीं की. हमारे वार्ड-रोब का क्षेत्रफल एक सेकंड-हेंड गोदरेज अलमारी तक सिमट गया है. उसे उलट पुलट करने पर एक हरा कुर्ता निकला है, मगर वो गहरा हरा नहीं है. लुंगी हरी जैसी दिखती है मगर उस पर एम्ब्रोयडरी वर्क नहीं है. अक्सर हम उसे रात में सोते समय लपेट लेते हैं. जैसी भी है पार्टी में उसके बार-बार खिसक जाने की रिस्क तो है ही. हरे पैंट की चैन खराब है. रफूसाज एक दिन में उसे ठीक करके देगा नहीं. हुक टूट जाये तो बेल्ट बांध ले आदमी, चैन खुली रख कर कैसे आये ? एक व्हाईट ड्रेस भी है मेरे पास. पार्टी के लिये उसे गहरा हरा रंगवाया जा सकता है मगर तब मैं छब्बीस जनवरी को क्या पहनूंगा ?

समस्याएँ वाईफ़ की ड्रेस के साथ भी हैं. कुर्ती तो डार्क ग्रीन है मगर सलवार कंट्रास्ट है. किसी शादी की विदाई में मिली एक डार्क ग्रीन साड़ी है मगर उसमें फाल पिको होना बाकी है. मैचिंग पोल्का भी नहीं मिल रहा. पार्लरवाली ब्रेडेड बाल सजाने के साढ़े आठ सौ रूपये लेती है और पहली तारीख निकले को बाईस दिन बीत गये हैं. फिर ड्रेस हो कि जुत्तियां, मांग कर पहनना हमारी फितरत में नहीं है दोस्त.

ये कोशिशें हमने इसलिए की हैं कि नहीं आयेंगे तो तुम बुरा मान जाओगे. और बदरंग कपड़े पहन के आयेंगे तो पार्टी में तुम्हारी भद पिटेगी. हम तुम्हारी भद नहीं पिटवायेंगे. तुम्हारे इन्विटेशन में, छोटे-छोटे दो चौकोर में छपे ड्रेस के फोटो ताकीद करते हैं कि मेहमान घर से चले तो अपनी ड्रेस चेक करके चले. थीम से मैच करे तो आये. आये तो आये, नी तो…… सो हमने भाड़ में जाने का मन बनाया है दोस्त.

थीम पार्टियाँ निओ-रिच क्लास का पसंदीदा शगल है जिसमें तुम बाहैसियत शामिल हो गये हो दोस्त. तुम्हारी मेहमानी अब सशर्त होने लगी है और शर्त पूरी करने की हैसियत अपन की है नहीं. होती भी तो हम मेहमानी शर्तों पर क्यों करवायेँ? हम तुम्हारे लिये उपयुक्त मेहमान नहीं हैं दोस्त. तो माफ करना, हम नहीं आ रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अश्वमेध के लिए! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – अश्वमेध के लिए! ☆

 

कह दो उनसे
संभाल लें
मोर्चे अपने-अपने
जो खड़े हैं
ताकत से मेरे खिलाफ,
कह दो उनसे
बिछा लें
बिसातें अपनी-अपनी
जो खड़े हैं
दौलत से मेरे खिलाफ,
हाथ में
कलम उठा ली है मैंने
और निकल पड़ा हूँ
अश्वमेध के लिए!  ✍

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 14 – बहे विचारों की सरिता…… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “बहे विचारों की सरिता……। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 14 ☆

 

☆ कविता – बहे विचारों की सरिता…… ☆  

 

सुखद कल्पनाओं में

मन के स्वप्न सुनहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम, तट पर ठहरे से।

 

दुनियावी बातों से

बार-बार ये मन भागे

जुड़ने के प्रयास में

रिश्तों के टूटे धागे,

हैं प्रवीण,

फिर भी जाने क्यूं

जुड़े ककहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट……………….।

 

रागी, भ्रमर भाव से सोचें

स्वतः  समर्पण  का

उथल-पुथल अंतर की

शंकाओं के तर्पण का,

पर है डर,

बाहर बैठे

मायावी पहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर………….।

 

जिसने आग लगाई उसे

पता नहीं पानी का

क्या होगा निष्कर्ष

अजूबी अकथ कहानी का,

भीतर में हलचल,

बाहर हैं

गूंगे- बहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर………….।

 

चाह तृप्ति की, अंतर में

चिंताओं को लादे

भारी मन से किये जा रहे

वादों पर वादे,

सुख की सांसें तभी मिले

निकलें

जब गहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर ठहरे से।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)