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हिंदी साहित्य – अभियंता दिवस विशेष – ☆ भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

अभियंता दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(अभियंता दिवस पर  वरिष्ठ साहित्यकार एवं अभियंता  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का  विशेष आलेख  भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष.) 

 

 ☆ भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष ☆

 

आज अमेरिका में सिलिकान वैली में तब तक कोई कंपनी सफल नही मानी जाती जब तक उसमें कोई भारतीय इंजीनियर कार्यरत न हो, भारत के आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी बुद्धि से भारतीय श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है, प्रतिवर्ष भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्मदिवस इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है, पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था, इन्ही तीर्थौ के पुजारी, निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई,…विगत कुछ दशको में इंजीनियर्स की छबि में भ्रष्टाचार के घोलमाल में बढ़ोत्री हुई है, अनेक इंजीनियर्स शासनिक अधिकारी या मैनेजमेंट की उच्च शिक्षा लेकर बड़े मैनेजर बन गये हैं, आइये आज इंजीनियर्स डे पर कुछ पल चिंतन करे समाज में इंजीनियर्स की इस दशा पर, हो रहे इन परिवर्तनो पर

… इंजीनियर्स अब राजनेताओ के इशारो चलने वाली कठपुतली नही हो गये हैं क्या? देश में आज इंजीनियरिंग शिक्षा के हजारो कालेज खुल गये हैं, लाखो इंजीनियर्स प्रति वर्ष निकल रहे हैं, पर उनमें से कितनो में वह योग्यता या जज्बा है जो भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया में था,……मनन चिंतन का विषय है.

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया की जीवनी, अध्ययन और  प्रेरणा पुंज

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।

दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया।

उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है।

विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।

उस वक्त राज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया।

कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।

वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।

वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था।

इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।

उनकी जीवनी हमारे लिये प्रेरणा है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #12 – समष्टि….व्यष्टि! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 12 ☆

 

☆ समष्टि …. व्यष्टि ! ☆

 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। साठ से ऊपर की एक स्त्री, संभवतः स्वर यंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर इतना कि बच्चे के स्वर को उसके अबोध भाव के चलते बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है पर यह स्वर बिना थके इतना लगातार कि खीज पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा में वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती बेंच पर बैठे एक यात्री से उसका बैग छीनने लगी। बैगवाला व्यक्ति हड़बड़ा गया। उस स्टेशन से रोज यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया था। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

इति।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पितृ पक्ष पर कुछ दोहे सादर समर्पित ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(पितर पक्ष के अवसर पर जब हम अपने पितरों का स्मरण करते हैं ऐसे अवसर पर प्रस्तुत हैं आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  के कुछ  अविस्मरणीय दोहे .)

 

☆ पितृ पक्ष पर कुछ दोहे सादर समर्पित ☆

 

पितरों को सादर नमन, वंदन शत शत बार

सदा आप ही हमारे, जीवन का आधार

 

तुम बिन सूना सा लगे, यह अपना घर द्वार

कोई देता है कहाँ, तुम सा लाड़ प्यार

 

तर्पण पितरों का करें, सदा प्रेम से आप

श्रद्धा से ही श्राद्ध है, हरती भव के ताप

 

जिनके पुण्य प्रताप से, जीवन में उल्लास

उनके ही आशीष से, रिद्धि सिद्धि का वास

 

पुण्य कर्म से सुधरता, अपना ही परलोक

करनी ऐसी कर चलो, घर में हो आलोक

 

आना जाना है लगा,यह जीवन का सार

अपने कर्मों से मिले,जीवन में सत्कार

 

पितृ भक्ति से सदा ही,जीवन सफल महान

पित्र चरण की धूल को,पूजे सकल जहान

 

ईश्वर के अस्तित्व का,हो जिनसे अहसास

धन्य धन्य वो लोग हैं, रहें पिता के पास

 

पितरों के आशीष से,जीवन में “संतोष”

सांची सेवा से बढ़े, सुखद शांति का कोष

————————

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 15 – व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने प्राचार्य जीवन में अपने छात्रों को  छात्र नेता , वरिष्ठ नेता , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर उच्चतम प्रशासनिक पदों  तक जाते हुए देखा है. इसके अतिरिक्त  कई छात्रों को बेरोजगार जीवन से  लेकर स्वयं से जूझते हुए तक देखा है.  इस क्रिया के प्रति हमारा दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है किन्तु, उनके जैसे वरिष्ठ प्राचार्य का अनुभव एवं दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न होगा जिन्होंने ऐसी प्रक्रियाओं को अत्यंत नजदीक से देखा है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “हश्र एक उदीयमान नेता का” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 15 ☆

 

☆ व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆

 

भाई रामसलोने के कॉलेज में दाखिला लेने का एकमात्र कारण यह था कि वे सिर्फ इंटर पास थे और धर्मपत्नी विमला देवी बी.ए.की डिग्री लेकर आयीं थीं।  परिणामतः रामसलोने जी में हीनता भाव जाग्रत हुआ और उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने बी.ए. में दाखिला ले लिया।

दैवदुर्योग से जब परीक्षा-फार्म भरने की तिथि आयी तब प्रिंसिपल ने उनका फार्म रोक लिया।  बात यह थी कि रामसलोने जी की उपस्थिति पूरी नहीं थी।  कारण यह था कि बीच में विमला देवी ने जूनियर रामसलोने को जन्म दे दिया, जिसके कारण रामसलोने जी ब्रम्हचारी के कर्तव्यों को भूलकर गृहस्थ के कर्तव्यों में उलझ गये।  कॉलेज से कई दिन अनुपस्थित रहने के कारण यह समस्या उत्पन्न हो गयी।

प्रिंसिपल महोदय दृढ़ थे।  रामसलोने की तरह आठ-दस छात्र और थे जो पढ़ाई के समय बाज़ार में पिता के पैसे का सदुपयोग करते रहे थे।

सब मिलकर प्रिंसिपल महोदय से मिले।  कई तरह से प्रिंसिपल साहब से तर्क-वितर्क किये, लेकिन वे नहीं पसीजे।  रामसलोने जी आवेश में आ गये।  अचानक मुँह लाल करके बोले, ‘आप हमारे फार्म नहीं भेजेंगे तो मैं आमरण अनशन करूँगा।’ साथी छात्रों की आँखों में प्रशंसा का भाव तैर गया, लेकिन प्रिंसिपल महोदय अप्रभावित रहे।

दूसरे दिन रामसलोने जी का बिस्तर कॉलेज के बरामदे में लग गया।  रातोंरात वे रामसलोने जी से ‘गुरूजी’ बन गये।  कॉलेज का बच्चा-बच्चा उनका नाम जान गया।  साथी छात्रों ने उनके अगल-बगल दफ्तियाँ टांग दीं जिनपर लिखा था, ‘प्रिंसिपल की तानाशाही बन्द हो’, ‘छात्रों का शोषण बन्द करो’, ‘हमारी मांगें पूरी करो’, वगैरः वगैरः।  उन्होंने रामसलोने का तिलक किया और उन्हें मालाएं पहनाईं।  रामसलोने जी गुरुता के भाव से दबे जा रहे थे।  उन्हें लग रहा था जैसे उनके कमज़ोर कंधों पर सारे राष्ट्र का भार आ गया हो।

अनशन शुरू हो गया।  साथी छात्र बारी- बारी से उनके पास रहते थे।  बाकी समय आराम से घूमते-घामते थे।

तीसरे दिन रामसलोने जी को उठते बैठते कमज़ोरी मालूम पड़ने लगी।  प्रिंसिपल महोदय उन्हें देखने आये, उन्हें समझाया, लेकिन साथी छात्र उनकी बातों को बीच में ही ले उड़ते थे।  उन्होंने प्रिंसिपल की कोई बात नहीं सुनी, न रामसलोने को बोलने दिया।

रामसलोने जी की हालत खस्ता थी।  उन्हें आवेश में की गयी अपनी घोषणा पर पछतावा होने लगा था और पत्नी के हाथों का बना भोजन दिन-रात याद आता था।  उनका मनुहार करके खिलाना भी याद आता था।  लेकिन साथियों ने उनका पूरा चार्ज ले लिया था। वे ही सारे निर्णय लेते थे। रामसलोने जी के हाथ में उन्होंने सिवा अनशन करने के कुछ नहीं छोड़ा था।

डाक्टर रामसलोने जी को देखने रोज़ आने लगा।  प्रिंसिपल भी रोज़ आते थे, लेकिन न वे झुकने को तैयार थे, न रामसलोने जी के साथी।

आठवें दिन डाक्टर ने रामसलोने जी के साथियों को बताया कि उनकी हालत अब खतरनाक हो रही है। रामसलोने जी ने सुना तो उनका दिल डूबने लगा। लेकिन उनके साथी ज़्यादा प्रसन्न हुए।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘जमे रहो गुरूजी! अब प्रिंसिपल को पता चलेगा। आप अगर मर गये तो हम कॉलेज की ईंट से ईंट बजा देंगे।’  रामसलोने के सामने दुनिया घूम रही थी।

दूसरे दिन से उनके साथी वहीं बैठकर कार्यक्रम बनाने लगे कि अगर रामसलोने जी शहीद हो गये तो क्या क्या कदम उठाये जाएंगे।  सुझाव दिये गये कि रामसलोने जी की अर्थी को सारे शहर में घुमाया जाए और उसके बाद सारे कॉलेजों में अनिश्चितकालीन हड़ताल और शहर बन्द हो।  ऐसा उपद्रव हो कि प्रशासन के सारे पाये हिल जाएं।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘तुम बेफिक्र रहो, गुरूजी। कॉलेज के बरामदे में तुम्हारी मूर्ति खड़ी की जाएगी।’

रात को आठ बजे रामसलोने जी  अपने पास तैनात साथी से बोले, ‘भैया, एक नींबू ले आओ, मितली उठ रही है।’  इसके पाँच मिनट बाद ही एक लड़खड़ाती आकृति सड़क पर एक रिक्शे पर चढ़ते हुए कमज़ोर स्वर में कह रही थी, ‘भैया, भानतलैया स्कूल के पास चलो। यहाँ से लपककर निकल चलो।’

एक घंटे के बाद बदहवास छात्रों का समूह रामसलोने जी के घर की कुंडी बजा रहा था, परेशान आवाज़ें लगा रहा था। सहसा दरवाज़ा खुला और चंडी-रूप धरे विमला देवी दाहिने कर-कमल में दंड।  धारे प्रकट हुईं।  उन्होंने भयंकर उद्घोष करते हुए छात्र समूह को चौराहे के आगे तक खदेड़ दिया।  खिड़की की फाँक से दो आँखें यह दृश्य देख रही थीं।

कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – राज भाषा दिवस विशेष ☆ हिंदी पर दोहे और कविता ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

राजभाषा दिवस विशेष 

डॉ भावना शुक्ल

(राज भाषा दिवस पर प्रस्तुत है डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘)  जी की  विशेष प्रस्तुति हिंदी पर दोहे और कविता. )

 

☆ हिंदी पर दोहे और कविता ☆

 

हिंदी पर दोहे और कविता की प्रस्तुति

अपने मन की अभिव्यक्ति।

 

☆ दोहे ☆

 

हिंदी पा़ये प्रतिष्ठा, बढ़े देश का मान।

वरना थोथे शब्द है,मेरा देश महान ।।

शब्द शब्द में है बसी, शब्द शब्द की जान।

तोल मोल कर बोलना, शब्दों का सम्मान।।

हिन्दी प्रेमी जगत में, हिन्दी है पहचान ।

अंतस में भाषा बसे, ज्योकि ह्रदय में प्राण।।

हिंदी परचम देश का हिंदी है पहचान ।

लिखो पढ़ो तुम राम जी या पढ़ लो रहमान।।

 

☆ हिंदी ☆

 

हिंदी हमारी

आन-बान और शान है

दिलों में हमारे

बसती जान है।

हिंदी के

सुवर्ण से रचा शब्द

शब्दों से बना वाक्य

और वाक्य ने रच दी

आत्मकथा ,काव्य ,कहानी

साहित्यकारों की जुबानी

जिसमें रस,छंद है अलंकार

जिससे होता है

काव्य का श्रृंगार है।

हिंदी भाषा तो

रस की खान है

भाव  से भरा

रहीम रसखान है ।

धन्य है भाषा धन्य है साहित्य

जो महान मनीषियों की जान है

हिंदी के स्वर और व्यंजन

है साहित्य का अंजन

है इनमे सुंदरता का प्रतिमान

नहीं है इसको अभिमान।

हिंदी में होती है बिंदी

मातृ भाषा ,राजभाषा है हिंदी

हर वर्ण में सुरों की

झंकार है।

मीठी है हिंदी

मधुर है वाणी

हिंदी की  हम करते पुकार है।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ हिंदी की दिहाड़ी ☆ – श्रीमती समीक्षा तैलंग 

राजभाषा दिवस विशेष 

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(राजभाषा दिवस  के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी   की विशेष रचना हिंदी की दिहाड़ी . )

 

☆ हिन्दी की दिहाड़ी ☆

 

तू उठ,

तू चल।

 

दूसरे को चला,

दूसरे को उठा।

 

अपने कांधों को झुका,

वो बैठेगा।

 

सवारी की दिहाड़ी,

वो खाएगा।

 

तेरी सुंदरता पर,

खुद इठलाएगा।

 

झंडा लेकर,

तानेगा तुझे।

 

फिर भी गाएगा वो,

अपना ही गीत।

 

तुझे गिरवी रख,

वो खरीदेगा,

दुनिया की खुशी।

 

तू फिर भी झुकी रहेगी,

मजबूत हैं तेरे कांधे।

 

बोझा ढो लेगी उसका,

लेकिन तू फिर भी,

इतराएगी,

अपनी हस्ती पर।

 

क्योंकि तुझे पता है,

तू है तो वो है।

 

उसके कारण तू नहीं!

 

©समीक्षा तैलंग, 14 सितंबर 2019

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #19 – ☆ निर्णय…. ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  निर्णय…. .  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  यह सत्य है कि अक्सर हमारी निर्णय क्षमता हमें जिद्दी बना देती है, जब हम यह कहते हैं कि मेरा निर्णय पक्का है. किन्तु, कई बार प्रकृति हमें निर्णय लेने का समय ही नहीं देती और जो घटना है वह घट जाता है , जिसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई पर्याय नहीं रहता. सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #19 ?

 

☆ निर्णय…. ☆

 

हो, माझा निर्णय पक्का आहे आणि त्यात मी अजिबात बदल करणार नाहीये…

हे वाक्य एकदम टिपिकल वाटतं नाही… जणू कोणीतरी स्वतःला सिद्ध करू पहातंय असं वाटतं किंवा कोणी तरी सांगत आहे की मी म्हणत्ये तेच ऐकायचं.

निर्णय… खूप मोठा शब्द आहे हा… कधी विचार केला आहे ह्याबद्दल… नाही म्हणजे, निर्णय घ्यायच्या आधी जीवाची होणारी तगमग, चीड चीड, भीती, हतबलता ह्यांचा विचारही नको असं कधी कधी वाटतं, त्या पेक्षा जे आहे तेच ठीक असंही वाटतं… पण जे आहे ते स्वीकारायला जी हिम्मत लागते तीपण नसते… मग त्यामुळे चीड चीड सुरू होते… मग नक्की काय करायचं? निर्णय काय असावा?

मनात अनेक विचार येत असतात, पण निर्णय क्षमता माणसाची जिद्द वाढवते. जर ही क्षमता नसेल तर ? अनेक अडचणींना सामोरं जावं लागेल हे नक्की… कधी कधी परिस्थिती निर्णय घेऊ देत नाही, सगळे पर्याय संपले आहेत असं वाटू लागतं आणि एक प्रकारची हतबलता निर्माण होते, धीर सुटेल असं वाटू लागतं… निर्णय घेतल्यावर अडचणी येणार नाहीत असं म्हणायचं नाही. पण निर्णय घेतला की जे प्रसंग समोर येतील त्यांना तोंड देण्याची हिम्मत (धमक) असतील तरच त्याच्या वाटेला जावं. नाही तर न घर का न घाट का, अशी परिस्थिती येऊन ठेपेल…

निर्णय चुकीचा तर नाही ना, ह्या विवंचनेमध्येच बराच काळ हातातून निसटून जातो… साहजिक आहे म्हणा… ज्याची सवय झाली आहे त्यातून बाहेर पडून नवीन, वेगळं करायचं म्हटलं की टेन्शन येणारच. पण जर आपण आपल्या मतावर ठाम असू तर बदल स्वीकारला जातो, जे खूप आवश्यक आहे…

आता बदल म्हटला की अनेक गुंतागुंतीच्या गोष्टी आल्याचं. अर्थात त्या पूर्वी ही होत्या, आता फक्त एवढंच आहे की नवीन गुंतागुंत समोर येते, पण कदाचित ती अपेक्षित असते म्हणून आपण त्यातून लवकर मार्ग काढू शकतो किंवा त्या गुंतागुंतीचा त्रास आपल्याला कमी होतो कारण निर्णय आपण घेतलेला असतो…

तेव्हा मला तरी असं वाटतं, की जे आहे ते स्वीकारावे, ह्या निर्णयावर ठाम राहा, नाही तर बदल घडवून आणण्याचा निर्णय घ्या.

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ स्वप्ने ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

आज प्रस्तुत है  उनका विशेष आलेख  स्वप्ने जो कि आधारित है युवाओं के स्वप्नों पर जिसे हम रोजगार कहते हैं.  उन्होंने युवाओं के इस स्वप्न पर विस्तृत चर्चा की है. )

 

☆ स्वप्ने ☆

 

स्वप्ने म्हटलं म्हणजे डोळ्यासमोर येतं ते करिअर. काहीतरी करून दाखवायची प्रबळ इच्छा. आपल्या आवडीच्या क्षेत्रात करिअर करणे म्हणजे स्वप्न पूर्ण करणे. मग ती आवड कशातही असू शकते. कोणाला पोलीस बनण्यात रुची असते. तर कोणी अभिनय चांगला करतो. कोणी धावण्यात तरबेज असतो. तर कोणाला रात्रंदिवस अभ्यास करून IAS, IPS  बनण्यात आनंद असतो. तसं स्वप्नांची व्याख्या करणं कठीण काम. पण माझ्या अल्पबुद्धीला सुचलेली  ही व्याख्या. कारण रात्री झोपेत पडणारे स्वप्न म्हणजे स्वप्न ही व्याख्या लहाणपणातच राहून गेली. ती सोबत आलीच नाही. जसे मोठे झालो तसे जिवनाचं एक उद्दिष्ट डोळ्यासमोर ठेवून त्यात यशस्वी होण्यासाठी धडपड सुरू झाली. ही धडपड करतांना समोर अर्थातच परिवाराला सुखाने जगता यावे. हा हेतू असतो. मग हे स्वप्न कि कर्तव्य हा प्रश्न नेहमी समोर येतो. असो.

तशी प्रत्येकाची वेगवेगळ्या  क्षेत्रात विशिष्ट आवड असते. आणि त्यात करिअर करण्याची इच्छा असते. त्यासाठी  त्या थराचं शिक्षण घेणंही खूप महत्वाचं आहे. तुम्हाला ज्या क्षेत्रात करिअर करायचंय आणि त्या क्षेत्राचं ज्ञानचं नसेल तर तुमचं अपयश पक्कं असतं. कारण युध्दावर गेलेल्या शिपायाला जर युद्धाचा सरावच नसेल तर त्याच हरणं हे ठरलेलंच असतं. पण आजची स्थिती जरा वेगळी होऊन बसलीय. देशभरात दरवर्षी करोडोच्या  संख्येने तरूण- तरूणी वेगवेगळ्या क्षेत्रातील पदव्या घेऊन बाहेर पडताहेत. पण एवढ्या  संख्येने नोक-या आहेत काय ? सरकारी क्षेत्रात मोजून पाच दहा टक्के नोक-या आहेत. बाकी नव्वद टक्केपेक्षा जास्त नोक-या खासगी क्षेत्रात आहेत. सरकारी नोकरीची जाहिरात निघाली. तर तेवढ्याच जागांसाठी लाखोच्या संख्येने उमेदवार अर्ज करतात. जर समजा पाचशे जागांची जाहिरात निघाली तर त्यात लाखो अर्ज येतात. त्यातून योग्य उमेदवारांची निवड करणं पॅनलला ही अवघड जाते. परिणामी ती भरती प्रक्रिया उशीरा पूर्ण होते. कधी कधी रद्दही होते. आणि झालीच निवड तर नियुक्ति होत नाही. परिणामी हे युवक खासगी क्षेत्रात कामाला जातात. पण या क्षेत्रात त्यांना त्यांच्या योग्यतेनूसार पगार न मिळता. आठ-दहा हजार रुपयांवर समाधान मानावे लागते. आणि सध्या सरकारच्या सगळ्याच क्षेत्रात खासगीकरण करण्याच्या नितीमुळे ज्यांच्याकडे सरकारी नोक-या आहेत त्यांही धोक्यात येण्याची चिन्हे दिसत आहेत.

दिवसेंदिवस कारखान्यात येणा-या मशीनरींनी अनेक कामगार बेरोजगार होताहेत. उदा. जिथं आधी दहा लोकं काम करायची तिथं आज मशीन उभं राहीलं. हे मशीन आले तसे वस्तूंचे उत्पादनही जास्त होऊ लागलं आणि न थकता 24 तास काम करू लागलं. आणि त्याला महिन्याचा पगारही द्यावा लागत नसल्यामुळे कारखानदारांनी काही मोजकेच कामगार ठेवले आणि बाकी कामगारांना घरचा रस्ता दाखवला. आणि बेरोजगारी वाढली. तसंच बॅंकिंग क्षेत्रातही झालं. पुर्वी अनेक कर्मचारी होते. पण ए.टी.एम. मशीन, प्रिंटीग मशीन आणि अजूनही बरेच मशीन आल्यामुळे बँकेतही नोक-या कमी झाल्या. तसंच विविध क्षेत्रात होतंय. परिणामी बेरोजगारी प्रचंड प्रमाणात वाढतेय.

स्वतःचा व्यवसाय सूरू करावा तर तिथेही स्पर्धा आहेच. आणि आजकाल ऑनलाइनचा राक्षसाने अवतार घेतल्याने ह्या व्यवसायावर सरळ परिणाम होतोय. जे पाहीजे ते लोकांना घरबसल्या मिळतं म्हणून दुकानांत जाऊन खरेदी करण्याची तसदी हल्ली कोणी घेतांना दिसत नाही. म्हणून छोटे छोटे व्यवसाय संपले. आणि मोठे व्यवसायही डबघाईला आलेत. अगदी टाटा, मारूती,पारले सारख्या कंपन्याना ताळे लावण्याची वेळ आली आहे. वाढत चाललेल्या या बेरोजगारीमुळे मागणी कमी झाली. मागणी कमी झाली म्हणून उत्पादन कमी झाले. उत्पादन कमी झाले तर सहाजीकच अर्थव्यवस्थेवर परिणाम झाला. आज घडीला जी. डी. पी. 5 टक्के पर्यत खाली आला आहे. आणि देशाला मोठ्या प्रमाणात मंदीला सामोरे जावे लागत आहे. या मंदीचे परिणाम किती भयंकर होणार हे वेगळे सांगण्याची गरज नाही. या मंदीला केंद्र सरकार तेवढेच जबाबदार आहे. यात शंका नाही. आता ते कसे यावर मी बोलू इच्छित नाही. या परिस्थितीवर उपाययोजना करणे ही सरकारचीच जबाबदारी आहे. पण या सगळया परिस्थितीला तोंड देण्यासाठी आणि बेरोजगारांना रोजगार देण्यासाठी माझ्या मते, डायरेक्ट सेलिंग हाही  एक सक्षम पर्याय बनून उभा राहू शकतो.

कारण कोणत्याही क्षेत्रात कितीही तंत्रज्ञान वाढलं तरी हा व्यवसाय माणसांशिवाय होत नाही. जेवढे लोकं यात येतील तेवढा हा व्यवसाय उंचीवर जाईल. आणि तंत्रज्ञानाच्या युगात बेरोजगार लोकांना कुठेतरी संजीवनीचं काम करेल. यात शंका नाही. सध्या हा व्यवसाय लोकांच्या नकारात्मक भावनेतून जात आहे. आणि या परिस्थितीतून जातांना जेवढे डायरेक्ट सेलर किंवा नेटवर्कर आहेत त्यांना खूप समस्यांना सामोरे जावे लागत आहे. आणि हे खरंच कौतुकास्पद आहे की अशावेळीही हे नेटवर्कर खंबीरपणे उभे आहेत. आणि प्रामाणिकपणे काम करताहेत. डायरेक्ट सेलिंग हे कसे फायदेशीर किंवा बेरोजगारांना रोजगार देण्यासाठी किती महत्वाचं आहे हे पटवून देत आहेत. प्रसंगी एक वेळचं जेवण विसरून ते हे महत्व लोकांना पटवून देताहेत. कारण भविष्यात येणा-या बेरोजगारीच्या महाभयंकर राक्षसाला मारण्यासाठी एक प्रभावी हत्यार म्हणून ते या व्यवसायाकडे पाहत आहेत.

सरकारनेही याचे महत्व लक्षात घेतले असून गेल्या काळात या व्यवसायसंदर्भात एक गाईडलाईन काढून या व्यवसायाला एकप्रकारे मान्यता दिली आहे. असे असले तरी लोकांचा विश्वास संपादन होईपर्यंत या नेटवर्कर्सना मेहनत करावी लागणार आहे.

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा

जि. नंदुरबार

मो  9168471113

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण )

 

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।5।।

 

अपने खुद ही करे नर,अपना खुद उद्वार

गिरे न,अपना शत्रु है,व्यक्ति स्वतः का यार ।।5।।

      

भावार्थ :  अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।।5।।

 

Let a man lift himself by his own Self alone; let him not lower himself, for this self alone is the friend of oneself and this self alone is the enemy of oneself. ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का  विशेष आलेख राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य.

☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆

 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।

प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था? लोकतंत्र जो न बोल सके, न सुन सके, देखे तो सही पर अभिव्यक्त न हो सके? विगत सत्तर वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर ‘हाँ’ में मिलेगा।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

सर्वाधिक घातक पक्ष है कि आसन्न संकट के प्रति समुदाय चिंतित नहीं दिखता। बिना जेब की लंगोट से बिना जेब के कफ़न तक की यात्रा का उद्देश्य केवल अपनी जेब भरना रह गया है। जेब भरी रखने की इस तृष्णा ने सामुदायिक चेतना का मानो अपहरण कर लिया है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषायी षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषायी बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, अठारह  अक्षोहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

ग्लोबलाइजेशन के नाम पर लोकल को खारिज करने का नया वितण्डावाद इन दिनों जोरों पर है। लोकल, ग्लोबल की इकाई है। अनेक लोकल मिलकर ग्लोबल बनते हैं। इकाई के बिना दहाई की कल्पना करना,…कल्पना भी हास्यास्पद है।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। तर्क दिया गया कि इसमें जो कुछ है, भूतकाल है। आधुनिकता के साथ ये भाषा नहीं चल पायेगी। क्या आधुनिकता का अर्थ यूरोप से आयातित ही हो सकता है जबकि संशोधनों में संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता वादातीत सिद्ध हो चुकी है। कतिपय स्वयंभू विद्वानों के मतानुसार संस्कृत हिंदुओं की भाषा रही, अतः उसका प्रयोग उचित नहीं होगा। जिस भूभाग पर जो समुदाय बहुतायत में होगा, स्वाभाविक है कि रचा जानेवाला साहित्य उस समुदाय की सांस्कृतिक मूल्यधर्मिता को दर्शायेगा। समुदाय की धार्मिक संस्कृति हो सकती है पर संस्कृति धार्मिक नहीं होती। फिर भाषा हिंदू और मुसलमान कबसे होने लगी? उर्दू साहित्य में बड़ा योगदान गैर मुस्लिमों का है तो क्या उनका लेखन काफिर कहलायेगा? हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्षर पर टिप्पणी करने का काम निरक्षर कर रहा है।

त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। हद तो ये है कि अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति पर मोहित, दूसरे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आगे भी नहीं आना चाहता। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

हिंदी और हिंदीतर लेखक, निवासी और प्रवासी लेखक जैसी संज्ञाएं भी इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। इस तर्ज़ पर तो भारत के सभी अंग्रेजी लेखकों को अब तक ‘अंग्रेजीतर अंग्रेजी लेखक’ के सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय सम्मान कूट लेने चाहिए थे। आशा है कि इन अवरोधों को समाप्त कर हम आगे आ पाएँगे और विश्वभर के हिंदी लेखकों का एक ही समुदाय होगा।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।

सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे ह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

देखने में आया है कि चीन का युवा अंग्रेजी में कोई बात सीखता है तो सबसे पहले उसे मंदारिन में अनूदित कर इंटरनेट पर अपलोड कर देता है। भारतीय युवाओं से भी अपेक्षित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

कहने-सुनने-लिखने के लिए बहुत कुछ है। हम सब पर सामुदायिक रूप से जड़त्व का नियम (लॉ ऑफ इनरशिआ) लागू होता है। हम यथास्थितिवादी हो चले हैं।
कर्मयोग की मीमांसा करते हुए गीता में कहा गया है-

श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु अनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भय आवहः॥

अर्थात् अपना धर्म चाहे उसमें कमियाँ  ही क्यों न हों, दूसरे के धर्म से अच्छा है। परधर्म अपनाने से अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु का अंगीकार करना श्रेयस्कर है। क्या भारतीयता, भारतीय धरती पर जन्म लेनेवाले का धर्म नहीं होना चाहिए? हिंदी भाषा और हिंदी संस्कृति के लिए पहल हिंदुस्तानी नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा? कहा भी गया है- य: क्रियावान स पण्डित:।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि  ‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे’ जैसी तुलना या मैग्निफाइंग ग्लास लेकर पत्र-पत्रिकाओं में गलतियाँ तलाशने की वृत्ति छोड़कर, बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी साहित्यकार साथ आएँ। केवल हिंदी नहीं अपितु भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के एकसाथ आने की आवश्यकता है। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। यह सही समय है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में आम जनता स्वप्रेरणा से आगे आए।

लगभग चार दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से ‘रोडेशिया’ की बजाय ‘जिम्बॉब्वे’ कहलायेगा।  राजधानी ‘सेंटलुई’ तुरंत प्रभाव से ‘हरारे’ होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब ‘इंडिया’ की केंचुली उतारकर ‘भारत’ बाहर आयेगा।

प्रश्न अनेक हैं। हमारी अपेक्षा है कि समुदाय चिंतन करने को प्रवृत्त हो। चिंतन, चेतना को झकझोरे और चैैतन्य नागरिक सक्रिय हो। नीति कहती है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता से नहीं, सज्जनों की निष्क्रियता से बाधित होता है। ‘इंडिया’ की केंचुली से मुक्ति के लिए हम सबकी सामूहिक सक्रियता वांछित है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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