हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ स म्मा न ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी का  विशेष आलेख स म्मा न.) 

 

स म्मा न

 

सुबह के लगभग ग्यारह-बारह बजे के समय अचानक बैंड़ बाजों की आवाज से लोग चौंक उठे। आंखें उठाकर देखा तो पाया कि बाजार के मध्य से एक जुलूस जा रहा है। उसके बीच में सुसज्जित पालकी पर एक तेजोमय मुद्रा वाली वयोवृद्ध महिला सुंदर से वस्त्र पहने बैठी है। चार लोग पालकी उठाए चले जाते है। बीच बीच में जुलूस के लोग उसकी जय-जयकार भी बोल रहे हैं। सभी लोग अत्यंत कौतुहूल से उस जुलूस एवं उसके मध्य जा रही वृद्धा को देख रहे थें किंतु समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस जुलूस में काफी लोग थे जिनमें सामान्य जन से लेकर अनेक बड़े नेता भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। लोगों के उत्साह का पारावार न था। जुलूस यों ही जयकार करता हुआ आगे चला गया ।

अनेक दिनों बाद उसी बाजार के एक दुकानदार ने देखा कि वही बूढ़ी महिला सड़क के किनारे उदास सी बैठी हुई है एवं लोगों की उपेक्षा भरी दृष्टि उस पर पड़ रही थी, किंतु उस दुकानदार को अपने काम की जल्दी थी सो वह भी सामान्य सी नजर ड़ाल कर आगे बढ़ गया।

एक बार पुनः वही वृद्धा उसे दूसरे मार्ग पर दिखाई दी और इस बार वह और भी बुरी अवस्था में थी। उसके वे नए वस्त्र तो एकदम जीर्ण हो गये थे एवं वह स्वयं भी क्लांत एवं भूखी प्यासी दीख रही थी। आश्चर्य यह था उस दिन जुलूस में सम्मिलित वे कुछेक लोग आज आसपास से गुजरते हुए उसे देख तक नहीं रहे थे। आज उस दुकानदार से रहा नहीं गया एवं सहानुभूति एवं उत्सुकता की मिलीजुली भावना के वशीभूत वह वृद्धा के पास गया एवं पूछ ही लिया कि माई आप कौन हैं एवं उस दिन एवं आज के दिन की आपकी स्थिति में जमीन आसमान का अंतर देख रहा हूँ तो इसका क्या कारण है और मैं आपकी क्या कुछ मदद कर सकता हूँ ?

उस वृद्धा ने अत्यंत सहजता से उत्तर दिया – “उस दिन की सम्मानित महिला मैं ही थी एवं आज की उपेक्षित बुढ़िया भी मैं ही हूँ। मैं इस देश की राजभाषा हूँ, मेरा नाम हिन्दी है एवं जिस दिन तुमने मुझे पालकी में देखा था वह दिन हिन्दी दिवस-चौदह सितंबर था।”

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ जनभाषा हिंदी ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

राजभाषा दिवस विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(राजभाषा दिवस पर डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी   की विशेष  कविता  जनभाषा हिंदी *.) 

 

* जनभाषा हिंदी *

 

हिंदी है जन-जन की भाषा

हिंदी हो जन-जन की भाषा

पूर्ण सफल हो ये अभिलाषा

आज नहीं तो निश्चित कल हो

जीवन में हिंदी प्रतिपल हो.

 

सरल सुबोध, सुग्राही हिंदी

प्रिय पावन सुखदायी हिंदी

छोटे बड़े निरक्षर – साक्षर

सबके मन को भायी हिंदी

स्नेहिल हिंदी की गंगा की

समूचे भारत में कल कल हो

जीवन में हिंदी प्रतिपल हो.

 

हंसी – खुशी रोने-गाने में

स्वयं समझने समझाने में

हिंदी भाषा मातृ सदृश है

जन-जन के मन दुलराने में

एक सूत्र में बांधे हिंदी

जैसे मधुमय पुष्प कमल हो

जीवन में हिंदी प्रतिपल हो…

 

जन गण मन के राष्ट्रगान में

शस्य श्यामला के बखान में

आध्यात्मिक हो या वैज्ञानिक

विद्वतजन, सैनिक, किसान में

सबके उर संचरित हिंदी से

हिंदी से सब का मंगल हो

जीवन में हिंदी प्रतिपल हो….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष ☆ “हिंदी औं हिन्दोस्ता का हर जगह सम्मान है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

राजभाषा दिवस विशेष 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(राजभाषा दिवस पर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की विशेष  कविता आलेख हिंदी औं हिन्दोस्ता का हर जगह सम्मान है.) 

 

हिंदी औं हिन्दोस्ता का हर जगह सम्मान है

 

गलत है कहना कि अब हिंदी का न आदर रहा

विश्व भर में अब तो हिंदी का समादर हो रहा

राजभाषा तो है पर प्रचलन हुआ कम देश में

विश्व के अधिकांश देशो मे पै आदर हो रहा

 

पढाई जाती अनेको देशो मे कालेज में

बोलना औं समझ लेना है अधिक नालेज में

कही जाओ बोलचाल मे अब तो है हिंदी सहज

बातें चाहे न करें पर समझते है विदेश में

 

हो चला हिंदी का सारे विश्व में विस्तार है

बढता जाता हिंदी से दुनिया मे सबको प्यार है

फिल्मों मे विज्ञापनो मे सफर मे व्यवहार मे

दिख रहा हिंदी का बढता हुआ  अधिकार है

 

हर दिशा हर देश में हिंदी की अब पहचान है

विश्व संस्थाओ मे भी हिंदी का शुभ सम्मान है

आंकते जो कम हैं इसको उनकी है अज्ञानता

हिंदी औं हिन्दोस्ता का हर जगह सम्मान है

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ प्यारी बिटिया ‘हिंदी’ ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(राजभाषा दिवस पर श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की  विशेष कविता  प्यारी बिटिया ‘हिंदी.) 

 

☆ प्यारी बिटिया ‘हिंदी’ ☆

 

अपने वतन की जान है हिंदी,

हम सबका सम्मान है,

प्यारे बोल बोले हैं हिंदी,

हम सबकी पहचान है.

 

मिठास इसकी अमृत जैसी,

बहती पावन गंगा है,

पीकर धार माँ आँचल-सी,

बनता अपना जी चंगा है,

जहर मत घोलना इस अमृत में,

यह हमारी शान है,

प्यारे बोल….

 

सबका एक मेल है हिंदी,

न रखती दूजा भाव है,

जो भी हो सवार ले संग,

करती नैया पार है,

रखती सबसे इन्सानी नाता,

देश का यह गौरव गान है,

प्यारे बोल….

 

रंग-अंग हिंदी के कितने,

सबका बनी शृंगार है,

रंग न फीके पड़ेंगे इसके,

हम सब उसका हूँकार है,

नवेली दुल्हन पल-पल भाती,

चेहरे खिलाती मुस्कान है,

प्यारे बोल…..

 

प्यारी बिटिया हिंदी हमारी,

सवा-सवा बढ़ जाती है,

तोड़ के बंधन देश के अपने,

परदेस में गीत गाती है,

न इसकी अब कोई सीमा,

उसकी मुट्ठी में जहान है,

प्यारे बोल…..

 

चारों दिशाएँ गुँजाएँ हिंदी,

हम सबका यह काम है,

करते रहें हम इसकी सेवा,

अपने तन में चारों धाम है,

सिर न उसका झूकने देना,

इसमें सबका ही कल्याण है,

प्यारे बोल…..

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ हिंदी पखवाड़ा…. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

राजभाषा दिवस विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(राजभाषा दिवस पर डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी   की विशेष  कविता  हिंदी पखवाड़ा…..) 

 

* हिंदी पखवाड़ा…. *

 

वर्ष भर जिस बेरुखी से

चिन्दियाँ करते रहे

जोड़ने उन चिन्दियों को

आ गया हिंदी दिवस है

मिला है फरमान सरकारी

बजट स्वीकृत हुआ है

अनिच्छित मन से मनाने को

इसे अब सब विवश हैं।

 

एक पखवाड़ा मगजपच्ची

चले आयोजनों की

आंग्ल में है सर्क्युलर

अनुवाद हिंदी में दिया है

बँट रहे सम्मान

स्वल्पाहार के संग बैठकों में

इस तरह फिर राजभाषा

हिंदी को उपकृत किया है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी भाषा ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(राजभाषा दिवस पर श्री कुमार जितेंद्र जी की  विशेष कविता  हिन्दी भाषा.

☆ हिन्दी भाषा ☆

 

हिन्द देश की हिन्दी भाषा ।

भारत देश की है राजभाषा ।।

 

ऐतिहासिक प्रमाण हिन्दी है ।

प्रचुर साहित्य रचना हिन्दी है ।।

 

स्वतंत्रता में योगदान हिंदी है ।

विभिन्नता में एकता हिन्दी है ।।

 

हिंदुस्तान की एकता हिन्दी है ।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण हिन्दी है ।।

 

विभिन्न धर्मों में एकता हिन्दी है।

विभिन्न त्यौहारों में एकता हिन्दी है ।।

 

जग में पहचान निराली हिन्दी है ।

विभिन्न भाषाओं की संस्कृति हिंदी है ।।

 

भारत की शान हिन्दी भाषा है ।

भारत का गौरव राष्ट्रभाषा है ।।

 

ले दृढ़ संकल्प हिन्दी भाषा का ।

समझे महत्‍व हिन्दी भाषा का ।।

 

हिन्द देश की हिन्दी भाषा ।

भारत देश की है राजभाषा ।।

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ व्यंग्य – राजभाषा अकादमी अवार्ड्स ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री हेमन्त बावनकर

 

(राजभाषा दिवस पर श्री हेमन्त बावनकर जी का  विशेष  व्यंग्य  राजभाषा अकादमी अवार्ड्स.)

 

☆ राजभाषा अकादमी अवार्ड्स

 

गत कई वर्षों से विभिन्न राजभाषा कार्यक्रमों में भाग लेते-लेते साहित्यवीर को भ्रम हो गया कि अब वे महान साहित्यकार हो गए हैं। अब तक उन्होने राजभाषा की बेबुनियाद तारीफ़ों के पुल बाँध कर अच्छी ख़ासी विभागीय ख्याति एवं विभागीय पुरस्कार अर्जित किए थे। कविता प्रतियोगिताओं में राजभाषा के भाट कवि के रूप में अपनी कवितायें प्रस्तुत कर अन्य चारणों को मात देने की चेष्टा की। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर प्रतियोगियों एवं निर्णायकों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। कभी सफलता ने साहित्यवीर के चरण चूमें तो कभी साहित्यवीर धराशायी होकर चारों खाने चित्त गिरे।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा की तलवार भाँजते-भाँजते साहित्य की उत्कृष्ट विधा समालोचना के समुद्र में गोता लगाने का दुस्साहस कर बैठे। कुछ अभ्यास के पश्चात उन्हें भ्रम हो गया कि उन्होंने समालोचना में भी महारत हासिल कर लिया है। खैर साहब, साहित्यवीर जी ने प्रतिवर्षानुसार अपनी समस्त प्रविष्टियों को गत वर्ष प्रायोगिक तौर पर समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंग कर प्रेषित कर दी।

उनकी कहानी और लेख का तो पता नहीं क्या हुआ, किन्तु, कविता बड़ी क्रान्तिकारी सिद्ध हुई। कविता का शीर्षक था साहित्यवीर और भावार्थ कुछ निम्नानुसार था।

एक सखी ने दूसरी सखी से कहा कि- हे सखी! जिस प्रकार लोग वर्ष में एक बार गणतंत्रता और स्वतन्त्रता का स्मरण करते हैं उसी प्रकार वर्ष में एक बार राजभाषा का स्मरण भी करते हैं। जिस प्रकार सावन में सम्पूर्ण प्रकृति उत्प्रेरक का कार्य करते हुए वातावरण  को मादक बना देती है और युवा हृदयों में उल्लास भर देती है उसी प्रकार राजभाषा के रंग बिरंगे पोस्टर, प्रतियोगिताओं के प्रपत्र और राजभाषा मास के भव्य कार्यक्रम प्रतियोगियों के हृदय को राजभाषा प्रेम से आन्दोलित कर देते हैं। अहा! ये देखो प्रतियोगिताओं के प्रपत्र पढ़-पढ़ कर प्रतियोगियों के चेहरे कैसे खिल उठे हैं? पूरा वातावरण राजभाषामय हो गया है। अन्तिम तिथि निकट है। हमें कार्यालयीन समय का उपयोग करना पड़ सकता है। हे सखी! जब कार्यालयीन समय में राजभाषा कार्यक्रम हो सकता है, तो प्रविष्टियों का सृजन क्यों नहीं?

दूसरी सखी ने पहली सखी से कहा – हे सखी! तुम कुछ भी कहो मुझे तो कार्यालय की दीवारों पर लगे द्विभाषीय पोस्टर द्विअर्थी संवाद की भाँति दृष्टिगोचर होते हैं। अब तुम ही देखो न एक पोस्टर पर लिखा है “इस कार्यालय में हिन्दी में कार्य करने की पूरी छूट है। तो इसका अर्थ यही हुआ न कि- “इस कार्यालय में अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग हानिप्रद है। क्या तुम्हें यह पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार लोग धूम्रपान की “वैधानिक चेतावनी” पढ़ कर भी धूम्रपान करते हैं उसी प्रकार द्विभाषीय पोस्टर पढ़ कर अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं।

पहली सखी ने दूसरी सखी से कहा – हे सखी! तुम उचित कह रही हो। अब देखो न  जब कस्बा, जिला, प्रदेश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार हो सकते हैं तो सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी उपक्रमों के विभागों में कार्यरत विभागीय स्तर के साहित्यकार, राष्ट्रीय स्तर के  साहित्यकार क्यों नहीं हो सकते?   कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि ये विभागीय स्तर के साहित्यकार आखिर कब तक हिन्दी टंकण, हिन्दी शीघ्रलेखन, हिन्दी कार्यशाला, हिन्दी कार्यक्रम से लेकर राजभाषा मास में आयोजित कार्यक्रमों/प्रतियोगिताओं में कुलाञ्चे भरते रहेंगे? हे सखी! बड़े आश्चर्य की बात है कि राजभाषा अधिनियम लागू होने के इतने वर्षों के पश्चात भी किसी के मस्तिष्क में “राजभाषा अकादमी” की स्थापना का पवित्र विचार क्यूँ नहीं आया? जब अन्य तथाकथित भाषा-भाषी लोग अपनी भाषायी अकादमी के माध्यम से अपनी तथाकथित भाषाओं का तथाकथित विकास कर सकती हैं तो राजभाषा अकादमी के अभाव में तो राजभाषा के विकास का सारा दायित्व ही हमारे कन्धों पर आन पड़ा है। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं राजभाषा के रथ की सारथी हूँ। अतः

“यदा यदा ही राजभाषस्य ग्लानिर्भवती सखी …”

अर्थात हे सखी! जब-जब राजभाषा की हानि और आङ्ग्ल्भाषा का विकास होता है तब तब मैं अपने रूप अर्थात विभागीय साहित्यकार के रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होती हूँ।

हे सखी! धिक्कार है हमें, हम पर और स्वतन्त्र भारत के उन स्वतन्त्र नागरिकों पर जिन्हें उनके मौलिक अधिकारों का स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु, उन्हें उनकी गणतन्त्रता, स्वतन्त्रता और राजभाषा का मूल्य और उसका औचित्य स्मरण कराने के लिए उत्सवों और महोत्सवों की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी उत्सव और महोत्सव से ज्यादा लोगों की उत्सुकता मित्रों के साथ या सपरिवार अवकाश मनाने में होती है।

साहित्यवीर को अपनी प्रयोगवादी, क्रान्तिकारी, समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंगी कविता पर बड़ा गर्व था। किन्तु, जब उन्हें पुरस्कार वितरण के समय मंच के एक कोने में बुलाकर अमुक अधिनियम की अमुक धारा का उल्लंघन करने के दोष में अपनी सफाई देने हेतु ज्ञापन सौंपा गया कि- “क्यों ना आपसे पूछा जाए कि …. ?”  वे मंच के किनारे मूर्छित होते-होते बचे। पुरस्कार वितरण करने आए मुख्य अतिथि ने उन्हें सान्त्वना स्वरूप निम्न श्लोक सुनाया।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन …”

अर्थात कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं। अतः तुम कर्मफल हेतु भी मत बनो और तुम्हारी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। इससे उनकी थोड़ी हिम्मत बँधी और उन्होने चुपचाप अपना स्थान ग्रहण किया। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और रोम-रोम पसीने से भींग गया। उस दिन से उनका राजभाषा प्रेम जाता रहा।

अब पुनः राज भाषा मास आ गया है। चारों ओर बैनर पोस्टर लगे हुए हैं। प्रतियोगिताओं के प्रपत्र बाँटे जा रहे हैं। विभागीय साहित्यकारों में जोश का संचार होने लगा है। प्रेरक वातावरण साहित्यवीर को पुनः उद्वेलित करने लगता है। राज भाषा प्रेम उनके मन में फिर से हिलोरें मारने लगता है। “राजभाषा अकादमी अवार्ड्स की स्थापना और उसके अस्तित्व की कल्पना का स्वप्न पुनः जागने लगता है। वे अपनी कागज कलम उठा लेते हैं। किन्तु, यह क्या? वे जो कुछ भी लिखने की चेष्टा करते हैं, तो प्रत्येक बार उनकी कलम पिछले ज्ञापन का उत्तर ही लिख पाती है।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष ☆ व्यंग्य – हिंदी के फूफा ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(राजभाषा दिवस पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  प्रस्तुत है विशेष व्यंग्य  हिन्दी के फूफा 

 

हिन्दी के फूफा 

 

भादों के महीने में आफिस में जबरदस्ती राजभाषा मास मनवाया जाता है। 14 सितम्बर मतलब हिंदी दिवस। इस दिन हर सरकारी आफिस में किसी हिंदी विद्वान को येन-केन प्रकारेण पकड़ कर सम्मान कर देने के बॉस के निर्देश होते हैं। सो हम सलूजा के संग चल पड़े ढलान भरी सड़क पर डॉ सोमालिया को पकड़ने।  डॉ सोमालिया बहुत साल पहले विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे फिर रिटायर होने पर कविता – अविता जैसा कुछ करने लगे। सलूजा बोला – सही जीव है इस बार इसी को पकड़ो। सो हम लोग ढलान भरी सड़क के किनारे स्थित उनके मकान के बाहर खड़े हो गए, जैसे ही मकान के बाहर का टूटा लोहे का गेट खोला, डॉ साहब का मरियल सा कुत्ता भौंका, एक दो बार भौंक कर शान्त हो गया। हम लोगों ने आवाज लगाई… डॉ साहब…… डॉ साहब…..?  डॉ सोमालिया डरे डरे सहमे से पट्टे की चड्डी पहने बाहर निकले….. हम लोगों ने कहा – डॉ साहब हम लोग फलां विभाग से आये हैं, हिन्दी दिवस पर आपका सम्मान करना है। सम्मान की बात सुनकर सोमालिया जी कुछ गदगद से जरूर हुए पीछे से उनकी पत्नी के बड़बड़ाने की आवाज सुनकर तुरंत अपने को संभालते हुए कहने लगे – अरे भाई, सम्मान – अम्मान की क्या जरूरत है। मैं तो आप सबका सेवक हूँ, वैसे आप लोगों की इच्छा… मेरा जैसा “यूज” करना चाहें….. वैसे जब मैं रिटायर नहीं हुआ था तो मुझे मुख्य अतिथि बनाने के लिए आपके बड़े साहबों की लाईन लगा करती थी, खैर छोड़ो उन दिनों को, पर ये अच्छी बात है कि आप लोग अभी भी हिंदी का समय समय पर ध्यान रखते हैं। वैसे आपके यहां भी हिंदी में थोड़ा बहुत काम तो तो होता होगा?

 

…….. हां सर, नाम मात्र का तभी तो हम लोग राजभाषा मास मना लेते हैं।

 

……. आपके यहां अधिकारियों का हिंदी के प्रति लगाव है कि नहीं ?

 

…….. हां सर,, हिन्दी दिवस के दिन ऐसा थोड़ा सा लगता तो है।

…….. दरअसल क्या है कि हिन्दी के साथ ये दिक्कत है कि हम उसे लाना चाहते हैं पर वो आने में किन्न – मिन्न करती है। है न ऐसा ?

…. बस सर…… यस सर… ठीक कहा वैसे आपने जीवन भर हिंदी की सेवा की है तो ये ये हिन्दी के बारे में आपको ज्यादा ज्ञान होगा पर समझ में नहीं आता कि ये चाहती क्या है…… कुछ इस तरह की बातें चलतीं रहीं, फीकी – फीकी बातों के साथ फीकी – फीकी बिना दूध की चाय भी मिली, काफी रात हो चली थी हम लोग उठ कर चल चल दिए। रास्ते में डॉ सोमालिया को लेकर हम लोगों ने काफी मजाक और हंसी – ठिठोली भी की टाईम पास के लिए।

दूसरे दिन हम लोग आफिस से डॉ सोमालिया के लिए स्मृति चिन्ह खरीदने के बहाने गोल हो गए, सलूजा कहने लगा, यार जितना पैसा स्वीकृत हुआ है उतने पूरे का सामान नहीं लेना, बिल पूरे पैसे का बनवा लेना बीच में अपने खर्चा – पानी के के लिए कुछ पैसा बचा लेना है, हमको सलूजा की बात माननी पड़ी न मानते तो नाटक करवा देता, नेता आदमी है। इस प्रकार डॉ सोमालिया के नाम से स्वीकृत हुए पैसे का कुछ हिस्सा सलूजा की जेब में चला गया हांलाकि उसने प्रामिस किया कि सम्मान समारोह के दिन की थकावट दूर करने के लिए इसी पैसे का इस्तेमाल किया जाएगा।

14 सितम्बर आया। लोगों को जोर जबरदस्ती कर अनमने मन से एक हाल में इकट्ठा किया गया। डॉ सोमालिया को लेने एक कार भेजी गई, कार के ड्रायवर को समझा दिया गया कि रास्ते में डॉ सोमालिया को अपने तरह से समझा देगा कि आफिस वालों के आगे ज्यादा देर तक फालतू बातें वे नहीं करेंगे तो अच्छा रहेगा क्योंकि आफिस वाले बड़े बॉस हिंदी से थोड़ा चिढ़ते हैं हिंदी आये चाहे न आये बॉस खुश रहना चाहिए। थोड़ी देर बाद सोमालिया जी आए, हाल में बैठा दिया गया, हिन्दी में लिखे बैनर देख देख वे टाइम पास करने लगे। इस बीच हाल से लोग उठ उठकर भाग रहे थे, किसी प्रकार लोगों को थामकर रखा गया। बेचारे डॉ सोमालिया जी अकेले बैठे थे, बिग बॉस, मीडियम बॉस और अन्य बॉस का पता नहीं था किसी प्रकार खींच तान कर सबको लाया गया। डॉ सोमालिया को एक के बाद एक माला पहनाने का जो क्रम चला तो रूकने का नाम नहीं ले रहा था, सोमालिया जी माला संस्कार से तंग आ गये इतने माले जीवन भर में कभी नहीं पहने थे। माला पहनते हुए उन्हें माल्या की याद आ गई। सलूजा ने अधकचरे ढंग से डॉ सोमालिया का परिचय दिया, डायस में बैठे सभी बॉस टाइप के लोगों ने हिंदी के बारे में झूठ मूठ की बातें की। डॉ सोमालिया ने भाषा के महत्व के बारे में विस्तार से बताया बोले – हिन्दी को आने में कुछ तकलीफ सी हो रही है कुछ अंग्रेज परस्त बड़े साहबों के कारण। सलूजा चौकन्ना हुआ बीच में भाषण रुकवा कर डॉ साहब को एक तरफ ले जाकर समझाया कि अग्रेजी परस्त बॉस  लोगों के बारे में कुछ भी मत बोलो नहीं तो प्रोग्राम के बाद हमारी चड्डी उतार लेंगे ये लोग। विषय की गंभीरता को समझते हुए माईक में आकर सोमालिया जी ने विभाग की झूठ मूठ की तारीफ की…. बिग बॉस लोगों ने तालियां पीटी, कार्यक्रम समाप्त हुआ। डॉ सोमालिया को समझ में आ गया कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। जाते-जाते उन्हें कोई छोड़ने नहीं गया, हारकर बुझे मन से उन्होंने रिक्शा बुलाया और सवार हो गए घर जाने के लिए।

………………………

जय प्रकाश पाण्डेय

जय नगर जबलपुर

9977318765

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हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं. ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

राजभाषा दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(राजभाषा दिवस पर  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का  विशेष आलेख भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं.) 

 

 ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं ☆

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था।उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना  ☆

 

दो वर्ष पहले की घटना स्मरण हो आई। हिंदी सिनेमा पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के सिलसिले में 8 -9 सितंबर 2017 को पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में आमंत्रित था। सुबह टहल कर लौटते हुए  निकटस्थ बॉयज़ होस्टल-7 की कैंटीन में चाय पीने बैठा। कैंटीन चालक ने अन्न की बर्बादी के विरुद्ध एक बोर्ड लगा रखा है। इस बोर्ड की तस्वीर साझा कर रहा हूँ। सोचता हूँ कि यह बोर्ड छोटे-बड़े  रेस्टोरेंट से लेकर घर की डाइनिंग टेबल तक लगा होना चाहिए। स्मरण रहे, आपकी जूठन किसीका भोजन हो सकती थी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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