हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 – अद्भुत पराक्रम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अद्भुत पराक्रम।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 ☆

 

☆ अद्भुत पराक्रम 

 

सभी प्रकार के वायु के ज्ञाता, वायु में अपनी गति शुरू करते हैं । समुद्र के ऊपर आकाश में कुछ दूरी चलने के बाद, एक समुद्री राक्षस ने भगवान हनुमान के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया ।

यह सुरसा थी ‘सुर’ का अर्थ है देवता और ‘सा’ का अर्थ समान है । तो सुरसा का अर्थ देवता के समान है या वो जिसमें देवतो जैसी शक्तियाँ हैं । वह कश्यप और क्रोधवश की 10 बेटियों में से एक और साँपो की माँ थी ।

उसने भगवान हनुमान को रोक दिया और कहा, “हे! वानर  तुम कहाँ जा रहे हो? मुझे भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त है कि मेरे मुँह  में प्रवेश किए बिना कोई भी इस स्थान से आगे नहीं जा सकता है”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “ठीक है, पहले मैं आपको अपना परिचय दूँगा । मैं हनुमान हूँ और भगवान राम की पत्नी देवी सीता को लंका में  खोजने जा रहा हूँ ”

जैसे की प्रत्येक प्राणी की मूल प्रकृति होती है की जब हम कोई नया नाम सुनते हैं तो हम इसे दोहराते हैं । तो सुरसा ने कहा, “ओह हनुमान! लेकिन तुम्हे मेरे मुँह  में आना होगा”

जल्द ही भगवान हनुमान ने कहा, “हे देवी, अपने अभी अपने मुँह  से हनुमान नाम पुकारा । नाम को किसी भी जीवित व्यक्ति की पहचान के रूप में परिभाषित किया गया है । इसलिए जब आपने अपने मुँह से मेरा नाम पुकारा, तो आपका वरदान विफल नहीं हुआ क्योंकि हनुमान आपके मुँह  से आया ”

सुरसा, भगवान हनुमान की बुद्धि से बहुत प्रभावित हुई और हाँ, भगवान ब्रह्मा जी का वरदान भी असफल नहीं हुआ । तब सुरसा ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया और उनका मार्ग छोड़ दिया । भगवान हनुमान समुद्र के ऊपर आकाश में अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए ।

भगवान हनुमान काले और सफेद बादलों से गुज़रते हुए आगे बढ़ रहे थे जिसमे से कुछ सिर्फ देखावे की लिए थे अन्य कुछ बादलो में बारिश के लिए पानी भरा था ।

तभी समुद्र में से एक मादा राक्षसी सिंहिका (अर्थ : शेरनी की शक्तियों से युक्त) उभर कर ऊपर आयी । सिंहिका हिरण्यकशिपु की पुत्री और छाया ग्रह राहु (जो सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण लगाने के लिए जिम्मेदार होता है) की माँ थी । दरअसल सिंहिका ‘मन्देह’ नामक एक प्रकार की रक्षसी थी ‘मन’ का अर्थ है मस्तिष्क की विचार प्रक्रिया और ‘देह’ का अर्थ है शरीर इसलिए मन्देह किसी के शरीर और मस्तिष्क  के बीच के सामंजस्य का प्रतीक है । इस प्रजाति के राक्षस चट्टानों पर लटके रहते है गर्मी को सहन नहीं कर सकते इसलिए रोज सूरज से लड़ते प्रतीत होते हैं और सूर्योदय के समय पानी में छिपे रहते हैं ।

हिरण्यकशिपु  हिरण्य अर्थात “सोना,” कशिपु अथार्त “मुलायम कुशन” या स्वर्ण आभा या सोने के कपड़े पहने हुए, एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करने के लिए कहा है जो धन और यौन जीवन का बहुत शौकीन है, उनके छोटे भाई, हिरण्यक्ष को विष्णु भगवन के अवतारों में से एक वाराह ने मारा था । अपने भाई की मृत्यु से नाराज, हिरण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा से तपस्या करके जादुई शक्तियाँ  हासिल करने का निर्णय  किया । बाद में उन्हें भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार ने मारा । किंवदंती के अनुसार, हिरण्यकशिपु, असुरो का राजा था और उसने ब्रह्मा से वरदान अर्जित किया था जिसने उसे लगभग अविनाशी बना दिया था । वह घमंडी हो गया, सोचा कि वह ईश्वर है, और माँग की कि हर कोई केवल उसकी पूजा करे ।

सिंहिका ने अपने आप से कहा, “एक बड़ा प्राणी लंबे समय बाद दिखाई दिया है । आज मैं इस प्राणी को खाऊंगी और अपनी भूख मिटाऊँगी” यह सोचकर वह भगवान हनुमान की छाया को पकड़ती है । हनुमान अचानक मिले बंधन से परेशान हो जाते है । जैसे सिंहिका का पुत्र राहु, सूर्य और चन्द्रमा पर ग्रहण लगा सकता है इसी तरह वह हवा पर ग्रहण लगा सकती थी । सिंहिका वायु के प्रवाह को रोकती है जिसके कारण कोई भी उड़ने वाला जीव कुछ पल के लिए आकाश में रुक जाता है, और सिंहिका समुद्र के पानी पर उड़ने वाले जीव की छाया देखकर उस छाया को पकड़ लेती है, इससे की वो उड़ने वाला जीव एक ही जगह बंद हो जाता है और तेजी से नीचे समुन्द्र में गिरने लगता है, और वह उन्हें पकड़ कर खा लेती है ।

पवन पुत्र भगवान हनुमान ने उनका मार्ग सिंहिका द्वारा अवरुद्ध किये जाने के बाद चारों ओर देखा और बाद में समुद्र की सतह पर सिंहिका को खड़ा पाया ।

भगवान हनुमान को तुरंत एहसास हुआ कि यह सिंहिका ही है जो उन पर आक्रमण कर रही थी, और जल्द ही भगवान हनुमान ने अपने शरीर को बढ़ाना शुरू कर दिया, फिर उन्होंने अपने शरीर को एक दम से छोटा कर दिया और सिंहिका के मुँह में घुस कर उसके सिर को भेद कर बहार निकल आये । भगवान हनुमान ने उसके पैरों को भी उसके शरीर से अलग कर दिया । उसने रोना शुरू कर दिया और समुद्र में गिर गयी और फिर भगवान हनुमान से अनुरोध किया ” ओह! ताकतवर भगवान, मेरी गलती भूल जाओ और मुझ पर दया करो । अब मैं हिलने में भी असमर्थ हूँ । कृपया मुझे समुद्र में एक ऐसा स्थान सुझाएं जहाँ पर विभिन्न प्राणियों का आना जाना हो  और  जहाँ   से मैं पानी पर उनकी छाया देख कर अपने  लिए अपना खाना पकड़ सकू क्योंकि अब मैं हिल डुल नहीं सकती”

भगवान हनुमान ने अपने शरीर के आकार को बढ़ाने के बाद उसे अपनी हथेली में रखा और एक विशेष दिशा में फेंक दिया ।

वह जगह जहाँ वह गिर थी वह अभी भी एक रहस्य है, और उत्तरी अटलांटिक महासागर के पश्चिमी हिस्से में परिभाषित क्षेत्र है, जहाँ  आज भी रहस्यमय परिस्थितियों में कई विमान और जहाज गायब हो जाते हैं । हाँ, वह स्थान जहाँ पर सिंहिका की उपस्थिति अभी भी अनुभव की जाती है वह बरमूडा त्रिभुज है । जो अभी भी उस जगह पर गुजरने वाले हवाईजहाज और समुद्री जहाजों के रूप में अपना खाना पकड़ती है ।

आकाश से देवता ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया ताकि वह अपने प्रयोजन में सफल हो सके । उन्होंने कहा, “हे! महान वानर  जिनके पास चार गुण हैं: धर्ति – साहस, दृष्टि – दूरदर्शिता, मती – बुद्धि और दक्ष्य – क्षमता होते है वो अपने उद्देश्यों में कभी विफल नहीं होते ।

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 6 ☆ एक पहाट……… ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक सौंदर्य की विवेचना कराती हुई मराठी कविता  ‘एक पहाट………’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 6☆

☆ एक पहाट………

 

प्रत्येक अंधार्या रात्रि नंतर,
एक उषाःकाल होत असतो ……

कधी कधी सूर्य ही स्वत: सवे
येताना चन्द्र तारे आणत असतो ….

नक्षत्रानी नटलेले आकाश
आपण फ़क्त पाहत असतो …..

तेजोमय जग होताना आकाश
स्तब्ध होऊंन पाहत असतो ….

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684




मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 5 ☆ कमलपुष्पौषधी चारोळ्या ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी  ज्ञानवर्धक कविता  कमलपुष्पौषधी चारोळ्या .  श्रीमती उर्मिला जी के अनुसार  यह पूजनीय बहिणाबाई चौधरीके अष्टाक्षरी छंदमे लिखी हुयी है !’अरे संसार संसार ‘ की तरह इसे गा भी सकते हैं.)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 5 ☆

 

☆ कमलपुष्पौषधी चारोळ्या ☆

 

अरे गणेशा गणेशा

तुला कमळ आवडे

कमळाच्या भागांमध्ये

खूप औषधी सापडे !!१!!

 

कमळाच्या फुलांमध्ये

शक्ती असे खूप मोठी

रस कमळ फुलांचा

ताप कमी होण्यासाठी !!२!!

 

दले कमलपुष्पांची

अंथरुनी वस्त्रावरी

ताप जाईल निघुनी

रुग्णा निजवावे वरी !!३!!

 

फुले कमलाक्ष भारी

स्त्रीयांच्या रोगावरही

फुले मधात वाटून

पावडर करुनही !!४!!

 

महाराष्ट्र कोकणात

बहु कमळे फुलती

परि लाही कधी नाही

पहावयास मिळे ती!!५!!

 

गुळगुळीत बियांच्या

लाह्या सुंदर बनती

बहु औषधी असती

त्यांना मखाना म्हणती!!६!!

 

रुग्ण तापतात तेव्हा

पीठ लाह्याचे द्या आधी

त्यास पाण्यातून देता

किती स्वस्त हो औषधी !!७!!

 

अहो कमळांचे कंद

त्यांत सत्वे ती पौष्टिक

ज्यांना मिळे त्यांच्या गावी

त्यांनी खावी आवश्यक!!८!!

 

घेता चुकीचा आहार

वाढलेला तणावही

त्याचा उपयोग होई

घेता कमलपाकही !!९!!

 

कमलपाक औषध

आहे कमलपुष्पांचा

वैद्य मार्गदर्शनाने

होई उपयोग त्याचा !!१०!!

 

उष्णतेचा होई त्रास

ढाब्यावरचे आचारी

कमलपाक तयांना

औषधच लयी भारी !!११!!

 

वनस्पती देवादिका

ज्या सर्व आवडताती

औषधांचे गुणधर्म

त्यात ठासून असती !!१२!!

 

वाढ गर्भाची ती होण्या

पीठ लाह्यांचे वापरा

उपयोगी पित्तावर

आधी वैद्यांना विचारा !!१३!!

 

अरविंदासव छान

छोट्या टाॅनिक मुलांचे

‘भैषज्यरत्नावली’ त

असे उल्लेख तयांचे !!१४!!

 

अहो कमळ कांडी ती

योग तयात आहेत

छान वापर तयाचा

तुम्ही करा हो त्वरित !!१५!!

 

सौजन्य:– गुगल तसेच, फेसबुकवरील लेख डॉ. विलास ज. शिंदे.

आयुर्वेदाचार्य, खालापूर रायगड.

©®उर्मिला इंगळे

अनंत चतुर्दशी

दिनांक:-१२-९-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु‌!!




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (4)प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।

सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।।4।।

जो न भोगों में तथा कर्मों में आसक्त

संकल्पों को त्याग ही योगारूढ विरक्त।।4।।

भावार्थ:  जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।।4।।

 

When a man is not attached to the sense-objects or to actions, having renounced all thoughts, then he is said to have attained to Yoga.।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

“वी आर इन रिलेशन.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।

ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनीमोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।

‘लव हर.., डोंट लव हर..??’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते  हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बींधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।

जन्म-जन्मांतर बीत जाते हैं प्रेम में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 13 ☆ माँ तुम याद बहुत आती हो ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक हृदयस्पर्शी कविता  “माँ तुम याद बहुत आती हो ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 13  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो.

 

पूछा है तुमसे, एक सवाल
छोड़ गई क्यों हमें इस हाल
जीवन हो गया अब वीराना
तेरे बिना सब है बेहाल
कुछ मन की तो कह जाती तुम
मन ही मन क्यों मुस्काती हो ?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो .

 

मुमुझमे बसती तेरी धड़कन
पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन
तुमको खोकर सब है खोया
एक झलक तुम दिखला जाती .
जाने की इतनी क्यों थी जल्दी
हम सबसे क्यों नहीं कहती हो?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
हम सबको तुम तरसाती हो.

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 15 ☆ ऑनर किलिंग ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का एक आलेख जिसमें उन्होंने  समाज की एक हृदयविदारक परंपरा  ऑनर किलिंग पर अपनी बेबाक राय रखी है.  साथ ही उन्होंने आह्वान किया है कि कैसे  समाज में इस बुराई को दूर कर एक सकारात्मक समाज की स्थापना की जा सकती है. आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 15 ☆

 

☆ ऑनर किलिंग ☆

 

‘ऑनर किलिंग’ विपरीतार्थक शब्द… सम्मान-पूर्वक मृत्यु, अर्थात् समाज का एक घिनौना सत्य…जो सदियों से हर जाति, हर मज़हब के लोगों में प्रचलित है। प्रश्न उठता है, ‘आखिर यह प्रथा आई कहां से?’ शायद इसका जन्म हुआ मानव में निहित सर्वश्रेष्ठता के भाव से, उसके अहं से, उसके ग़ुरूर से।  यह वह दुर्भाव अर्थात् दूषित भाव है, जो मानव को मानवता से कोसों दूर ले जाता है। उसकी संवेदनाएं मर जाती हैं और वह ठूंठ मात्र रह जाता है, क्योंकि संवेदन- शून्य व्यक्ति हृदयहीन, दैवीय गुणों से विहीन…स्नेह,  सौहार्द, ममता,त्याग, सहानुभूति आदि की भावनाओं से बहुत दूर…अहंलीन मानव दूसरों के अस्तित्व को नगण्य समझता है।

वह घर-परिवार में एकछत्र साम्राज्य चाहता है, यहां तक कि वह अपने आत्मजों को भी अपनी सम्पत्ति- धरोहर स्वीकारता है तथा आशा करता है कि वे कठपुतली की भांति उसका हर हुक्म बजा लाएं… उसके हर आदेश की अनुपालना तुरंत करें।’ नो’ व ‘असंभव’ शब्द उसके शब्दकोश से नदारद होते हैं। उसमें प्रत्युत्तर सुनने का सामर्थ्य नहीं होता। वह शख्स अजीब होता है…जो अपने से अधिक बुद्धिमान, सामर्थ्यवान व शक्तिशाली किसी दूसरे को नहीं समझता।

सब परिवारजन उसकी अमुक प्रवृत्ति से सदैव परेशान  रहते हैं। उसके घर आते ही बच्चे इधर-उधर छिप जाते हैं और पत्नी का चेहरा भी भय से कुम्हला जाता है क्योंकि वह नहीं जानती कब वह उस पर अकारण बरसने लगे?और उसके माता-पिता भी उसके व्यवहार के प्रति आशंकित रहते हैं क्योंकि वह किसी भी पल सीमाओं को लांघ सकता है। वह किसी भी पल, किसी को कटघरे में खड़ा कर सकता है।

चलिये! अब बच्चों की नियति पर चर्चा करते हैं… किस मन:स्थिति में वे उस घर में रहते हैं, जहां पिता, पिता नहीं, एक हिटलर की मानिंद सदैव व्यवहार करता है। बच्चों को वह अपनी संपत्ति समझता है और उन्हें अपने अंकुश में रखना चाहता है। बच्चों को उसकी हर गलत बात को सही कहना पड़ता है क्योंकि दूसरे पक्ष की बात सुनने का धैर्य उसमें होता ही नहीं। बच्चे उसे अपनी नियति स्वीकार, सुंदर कल की कल्पना में खोए रहते हैं कि आत्मनिर्भर होने के पश्चात् उन्हें वह सब नहीं सहना पड़ेगा…वे निरंकुश व स्वछंद हो जाएंगे तथा अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने में स्वतंत्र होंगे।

परंतु वह समय आने से पूर्व, यदि बेटा या बेटी,किसी को चाहने लगते हैं, प्रेम करने लगते हैं, तो सुनामी की गगनचुंबी लहरें उस घर की शांति व सुख चैन को समाप्त कर देती हैं, लील जाती हैं। उसका तीसरा नेत्र खुल जाता है और वह लातों व घूसों पर उतर आता है। बेटी को तो वह घर की चारदीवारी में कैद कर लेता है और उससे मोबाइल आदि भी छीन लिया जाता है। वह मासूम दीवारों से सिर टकराती, आंसू बहाती, बार-बार ग़ुहार लगाती रहती है कि वह उसके साथ अपना जीवन बसर करना चाहती है। वह दिल की गहराईयों से उसे पसंद करती है और उसके बिना ज़िन्दा नहीं रह सकती।

परंतु उसकी आवाज़ उसके कानों से टकरा कर लौट आती है। यदि वह कभी उससे जिरह करने का साहस जुटाती है, तो उस पर पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं और कुलनाशिनी, कुलक्षिणी कहकर उसे ही नहीं, उसकी मां को भी लताड़ा जाता है। जब जुल्म की इंतहा हो जाती है तो अक्सर वह उन ज़ंजीरों को तोड़ कर भाग निकलती है,जहां वे स्वतंत्रता से सुख की सांस ले सके।

इसके पश्चात् अक्सर उस घर में हंगामा व गाली- ग़लौच होता रहता है और वह ज़ालिम हर पल आसमान को  सिर पर उठाए डोलता रहता है। उसके  मन में यही ख़लिश रहती है कि यदि वह एक बार उसके सामने आ जाए, तो वह उसे अपनी ताकत का एहसास दिला कर सुक़ून पा सके। पिता होने से पहले वह हिटलर है। वह किसी भी सीमा तक जा सकता है और यही ‘शक्ति-प्रदर्शन’ है ऑनर किलिंग।

लड़की का पिता व परिवारजन अपने-अपने मान- सम्मान की दुहाई देते हुए उन दोनों की हत्या पर अपनी पीठ ठोंकते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बच्चों को जन्म देकर कोई एहसान नहीं किया और न ही वे गुलाम हैं उनकी सल्तनत में…सो! वे उससे मनमाने व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?

प्रेम सात्विक भाव है…प्रेम सामीप्य का प्रतिरूप है …एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए क़रीब लाने का उपादान है। प्रेम संगीत है…प्रेम उच्छ्वास है … प्रेम वह पावन भाव है, जो मलय वायु के झोंकों सम शीतलता प्रदान करता है। परंतु जन्मदाता ही बच्चों में प्रेम का भाव प्रकट होते ही उनके दुश्मन क्यों बन जाते हैं? क्या झूठा अहं व मान-सम्मान बच्चों की ज़िन्दगी से अधिक अहमियत रखता है? शायद उनकी नज़रों में प्रेम करना ग़ुनाह है, जिसका मूल्य उनके आत्मजों को अपने प्राणों की बलि देकर ही चुकाना पड़ता है।

चलिए! इन कट्टरपंथी विचारधारा वाले माता-पिता के व्यवहार पर  दृष्टिपात कर लें…आजकल तो वे स्वयं को ख़ुदा स्वीकारने लगे हैं क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार बच्चों को जन्म देते हैं, अन्यथा भ्रूण हत्या करवा देते हैं और बच्चों के युवा होने पर उनकी भावनाओं को न समझते हुए उनकी हत्या तक कर डालते हैं। क्या आप ऐसे सिरफिरे लोगों को ख़ुदा से कम आंकेंगे?

यह कहावत आजकल मान्य नहीं है कि जन्म व मृत्यु तो सृष्टि-नियंता के हाथ में है। मानव उसके हाथों का खिलौना मात्र हैं। वह जितनी सांसें लिखवा कर इस संसार में जन्म लेता है, उससे एक सांस भी अधिक  नहीं ले सकता। अरे! यह इक्कीसवीं सदी है… परंपरागत मान्यताएं बदल गई हैं… सोच भी पहले सी कहां है? शायद! वह ज़ालिम पिता यह सोचकर फूला नहीं समाता कि उसने ही उसे जन्म दिया था, तो उसे मार कर, उसकी  जान लेकर उसने कोई गुनाह नहीं किया।

विभिन्न प्रदेशों में खापें इस विचारधारा की पक्षधर हैं, पोषक हैं। युवाओं को अपनी इच्छानुसार विवाह करने का अधिकार प्रदत्त नहीं है। वे कुल-गोत्र, जात-बिरादरी की मर्यादा पर अधिक ध्यान देती हैं और उनकी हत्या करने को उचित ठहराती हैं। आश्चर्य होता है यह देख कर कि अनेक वर्ष तक साथ, एक छत के नीचे ज़िन्दगी बसर कर रहे पति- पत्नी को, भाई-बहन के रूप में राखी बांधने का फरमॉन स्वीकारना पड़ता है। तभी उन्हें व उनके माता-पिता को जात-बिरादरी व गांव से निष्कासित कर दिया जाता है, तो कभी उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जातीं हैं।

परन्तु आज कल कुछ सुखद परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। चंद खापों का मृत्यु-भोज की परंपरा का  विरोध करना या विवाह पर डी•जे• आदि न चलाने की पेशकश, दहेज न लेने-देने की मुहिम आदि उन की सकारात्मक सोच की ओर संकेत करते हैं। परंतु आवश्यकता है… खापें व समाज के ठेकेदार, बच्चों को अपनी इच्छानुसार जीवनसाथी चयन करने की स्वतंत्रता प्रदान कर, उदार हृदयता का परिचय दें। उनके विरुद्ध मनमाने निर्णय ले, बेतुके व विचित्र फरमान जारी न करें।

ऑनर किलिंग यदि एक की होती है, तो दोनों परिवार सकते में आ जाते हैं… उनमें मातम पसर जाता है…. क्योंकि वे एक-दूसरे के अभाव में जीने की कल्पना भी नहीं कर पाते। यह आघात  दोनों परिवारों की खुशियों को समूल नष्ट कर देता है, सुनामी की लहरों की भांति लील जाता है। प्रेम प्रतिदान का दूसरा रूप  है। यह देने का नाम है। सो! यदि समाज के रसूख-दार लोग बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करें तथा मनचाहे जीवनसाथी को वरण करने का अधिकार प्रदान करें ताकि वे प्रसन्नता से अपना जीवन बसर कर सकें। वे उनकी भावनाओं का तिरस्कार न करें, यही जीवन की  सार्थकता है। आइए! मिलकर जीवन में नया उजाला लाएं। एक स्वर्णिम सुबह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। सारी सृष्टि उपवन की भांति महक रही है,जहां चिर वसन्त है। हम भी मनोमालिन्य मिटाकर, प्रेम भाव से एक नए युग का सूत्रपात करें, जहां सम्बन्धों की गरिमा व अहमियत हो…स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाओं के स्थान पर हम अलौकिक प्रेम व अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 1 ☆ फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  हम श्री संतोष नेमा जी के  ह्रदय से अभारी हैं जिन्होंने  हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” के लिए रचनाएँ प्रेषित करना स्वीकार किया है.   हमें पूर्ण विश्वास है कि “इंद्रधनुष” को पाठकों का स्नेह /प्रतिसाद मिलेगा और उन्हें इस स्तम्भ में हिंदी के साथ ही बुंदेली रचनाओं को पढनें का इंद्रधनुषीय अवसर प्राप्त होगा. आज प्रस्तुत है वर्षा ऋतु पर एक सामयिक बुंदेली कविता “फूटी मेड़ें बही क्यारी “. अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष #1 ☆

 

☆  फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆

 

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

 

गरज गरज,बादर डरा रये ।

बिजली भी,अब कौंधा रये ।।

जा बरस की बरखा न्यारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी  ।।

 

नाले नरवा भी इतरा रए ।

गांव कस्बा डूब में आ गए ।।

बहकी नदियां भरे खुमारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

 

नदी सीमाएं लांघ गई हैं  ।

छलक रए अब बांध कईं हैं ।।

परेशान है जनता सारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

मंदिरों के शिखर डूब गये ।

हम सें भगवन भी रूठ गये ।।

अति वृष्टि सें दुनिया हारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

हैरां हो रये ढोर बछेरु  ।

ठिया ढूंडे पंक्षी पखेरू ।।

अब “संतोष”करो तैयारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

जा साल भईं बरखा भारी ।।

 

कछु अपनी भी जिम्मेदारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

———————-

@संतोष नेमा “संतोष”

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799




मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प चौदावा # 14 ☆ सिग्नलवरचा भारत ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।   आज श्री विजय जी ने एक गंभीर विषय “सिग्नल का भारत” चुना है।  हम प्रतिदिन सिग्नल पर जी रही दुनिया और लोगों को देखते हैं किन्तु, न तो हम उन लोगों के लिए कुछ विचार करते हैं और न ही शासन।  ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प चौदावा # 14 ☆

 

☆ सिग्नलवरचा भारत ☆

 

दारिद्रय रेषेखालील जनता म्हणजे हा  सिग्नलवरचा भारत.  ज्यांना  अन्न, वस्त्र आणि निवारा या मूलभूत गरजा देखील स्वायत्त तेने भागवता येत नाहीत  अशी कुटुंबे. भीक मागणारी मुले म्हणून त्यांची उपेक्षा होत रहाते. फुटपाथ वर पथारी पसरून किंवा  एखाद्या झाडाच्या  आडोश्याने यांचा संसार सुरू होतो. असे  बेघर जगणे आणि यातून जन्माला येणारी नवी पिढी,  जीवन संघर्ष करताना व्यसनाधीन  आणि गुंडगिरी याकडे मोठ्या प्रमाणावर वळत आहे

सिग्नलवर राहणाऱ्या लोकांच्या समस्या सामाजिक व्यवस्थेशी झगडा करीत  समाघास घातक ठरत आहेत. जीवनाश्यक मुलभूत गरजा,  शिक्षण,  संस्कार  यांचा अभाव, पुरेश्या सेवा  सुविधा उपलब्ध नसताना, उघड्यावर थाटलेले संसार  प्रदुषण,  दैन्य,  चोरी मारी यांना खतपाणी देताना दिसतात.

प्रथमत: सर्व दारिद्रय रेषेखालील लोकांना रोजगार  उपलब्ध करून देण्यासाठी महापालिका स्तरावर विशेष  उपाय योजना राबविण्यात यायला हव्यात. रस्त्यावर बेवारसपणे फिरणारे हे लोक यांची ठोस व्यवस्था व्हायला हवी.  भीक मागून जगायचे  आणि पुरेशी भीक मिळाली नाही की चोरी करायची ही वृत्ती  बळावत चालली आहे.

रोजगार निर्मिती  आणि मुलभूत गरजा  उपलब्ध करून दिल्यास हा समाज  उपेक्षित रहाणार नाही.   फुटाथवर राहणाऱ्या लोकांसाठी स्वत:चा हक्कांचे घर मिळेल. उघड्यावर मांडलेला संसार त्यांना स्वतःच्या पायावर उभे  करेल.  शिक्षण मोफत  आणि विशिष्ट ठिकाणी  अशा लोकांना निवारा  उपलब्ध करून दिल्यास सार्वजनिक ठिकाणी होणारे दैन्य प्रदर्शन  आपोआप थांबेल.  भीक मागायला मनाई करून  रोजगार उपलब्ध करून दिल्यास बरेच परीवर्तन घडून येईल.

सिग्नलवरील  अनाथ मुलांस अनाथश्रम तसेच  अंध, वृद्ध अपंगांना  महापालिकेने विशिष्ट ठिकाणी आसरा द्यायला हवा.  सामाजिक कार्यकर्ते यांच्या मदतीने त्यांना विशेष सेवा उपलब्ध करून देता येईल.   ज्यांना मुलेबाळ नाही अशा  सधन कुटुंबातील व्यक्तींनी  अशी मुले  दत्तक घेतल्यास हे  मागासलेपण दूर होईल.

माणसाने माणसाला मदतीचा हात देऊन त्यांचा सांभाळ करणे उत्तम शिक्षण व संस्काराची प्रेरणा अंतरी रुजवणे  गरजेचे  झाले आहे. भीक देणे बंद केले की माणूस  आपोआप रोजगार शोधून स्वतःच्या  उदरनिर्वाहचे साधन शोधेल. काम करणा-या व्यक्तीला मदत करणे गैर नाही पण भिकारी जमात पोसणे हे मात्र पाप आहे.

प्रत्येक व्यक्तीस  तो निराधार नाही,  भिकारी नाही,  माणूस  आहे,  भारतीय नागरिक  आहे ही जाणीव करून दिल्यास ती व्यक्ती स्वतःचे आयुष्य  मार्गी लावू शकेल. सदर व्यक्ती रोजगार निर्मिती करेपर्यंत मुलभूत सेवा सुविधा दिल्यास ती व्यक्ति  समाजात स्वतःचे स्वतंत्र  अस्तित्व निर्माण करू शकेल.

भीक मागण्या पेक्षा भीक देणे हा  गुन्हा आहे  ही भावना मनात ठेऊन केलेली मदत सेवा कार्य  खूप मोलाचे ठरेल.  धडधाकट व्यक्तीला कष्टाची कामे करायला लावून  अर्थार्जन  उपलब्ध करून दिल्यास  भीकारी संख्या कमी होईल.  जेंव्हा भीक देणे बंद होईल तेव्हाच ही जमात  स्वयंरोजगार उपलब्ध करून स्वतःच्या पायावर उभे राहिल.

शेवटी  व्यक्ती घडली की कुटुंब घडते. कुटुंब घडले की समाज सुधारतो,  समाज घडला की देशाची प्रगती होते हे सत्य विसरून चालणार नाही.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ गणेश स्तवन ☆ – डॉ. रवींद्र वेदपाठक

डॉ. रवींद्र वेदपाठक

(प्रस्तुत है डॉ रवीन्द्र वेदपाठक जी की सुधाकरी काव्य रचना गणेश स्तवन . यह कविता मन स्पर्शी साहित्य मंच द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय *सुधाकरी* काव्य रचना स्पर्धा के लिए  भी समर्पित है.)

 

☆  गणेश स्तवन ☆

 

नमो नमः आद्या ! नमो वेद पाद्या !!

चतुर्दश विद्या ! अनंताय !! १ !!

 

नमो शूर्पकर्णा ! नमो एकदंता !!

लंबोदरवंता ! गणेशाय !! २ !!

 

नमो शिवपुत्रा ! पार्वती नंदना !!

मुषक वाहना ! हेरंबाय !! ३ !!

 

शमीपत्र प्रिया ! दुर्वांकूर भाळी !!

शेंद्र गंड स्थळी ! अमेयाय !! ४ !!

 

तप्त हेम वर्णी ! सिंदुरवदनी !!

कृष्ण पिंगाक्षणी ! गजास्याय !! ५ !!

 

नागबंद कटी ! फरश तो करी !!

चंद्रबिंब शिरी ! सुमुखाय !! ६ !!

 

ललित लाघवी ! शतशब्द ब्रम्ही !!

गणाधिश स्वामी ! सर्वज्ञाय !! ७ !!

 

ब्रह्मसुखानंद ! शोभे लंब शुंड !!

करी विघ्न खंड ! करूणाय !! ८ !!

 

चतुर्भुज रूपा ! नमो विघ्नांतका !!

सर्वे सुखात्मका ! आनंदाय !! ९ !!

 

नित्य निराकार ! निर्गुण आकार !!

त्रिगुण साकार ! निरामय !! १० !!

 

प्रथम स्मरण ! साष्टांगी नमन !!

चरण वंदन ! शरण्याय  !! ११ !!

 

© डॉ. रवींद्र वेदपाठक

तळेगाव.