आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (3)प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।3।।

योगेच्छुक मुनि के लिये,कारण होता कर्म

योगारूढ उसी का पर कारण होता शम।।3।।

      

भावार्थ :  योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।।3।।

 

For a sage who wishes to attain to Yoga, the action is said to be the means; for the same sage who has attained to Yoga, inaction (quiescence) is said to be the means. ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिंदी साहित्य – श्री गणेश विसर्जन विशेष – ☆ अथ श्री गणेश  व्यथा ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंजहरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं  जिन्होंने श्री गणेश विसर्जन से सम्बंधित हमारी परम्पराओं के साथ ही पर्यावरण पर अपनी पैनी दृष्टी डालते हुए  इस विचारात्मक आलेख की रचना की है. )

 

☆ अथ श्री गणेश  व्यथा ☆

 

भाद्रपद पूर्णिमा की सुबह, मंगलमूर्ति गणपतिजी कैलाश पर महाकाल शंकर जी के समक्ष बैठे हुये थे। चेहरा म्लान, शरीर क्लांत दिखाई दे रहा था। पास ही मूषकराज भी शरीर को झटक झटक कर सुखाने का उपक्रम करते दीख रहे थे।

भगवान आशुतोष ने माता पार्वती की ओर गहरी दृष्टि से देखा और गणपतिजी से पूछा- क्या बात है वत्स ? उल्लासित नहीं दिख रहे हो ?

वे आगे कुछ और पूछते इतने में मंगलमूर्ति व्यग्रता से बोल उठे- पिताजी मुझे यह हर वर्ष धरती पर कब तक जाना होगा?

भोलेनाथ- क्यों क्या हो गया? धरती पर तो तुम्हारा बड़ा स्वागत सत्कार होता है। फिर ?

गणनाथ – स्वागत और सत्कार ? पिताश्री अब आज धरती पर झांक कर देखिये, मेरी प्रतिमायें सिरविहीन, भुजाविहीन, भग्रावस्था में जलाशयों के किनारों पर पैरों तले पड़ी मिलेंगी।

भोलेनाथ – अच्छा … ऐसी अवमानना . . . मैं अभी डमरू बजा दूँ तो चहुँ ओर प्रलय आ जायेगी।

गणपति- रहने दीजिये पिताजी, धरती पर मेरी प्रतिमाओं की स्थापना के पास मानव निर्मित वृहदाकार ध्वनि विस्तारक यंत्रों का शोर आप दस दिनों तक अहर्निश सुनेंगे तो अपने डमरू और शंख रुद्र की ध्वनि को भूल जायेंगे। कुछ दिन तक तो आपको बधिरता लगेगी। उफ्फ, आप स्वागत-सत्कार की बात कह रहे थे, पहले दिन तो खूब धूमधाम से मेरा स्वागत होता है, भजन, आरती, नारे लगते हैं पर अगले दिन से मानव न मालूम कौन सी वाणी में गीत बजाता है, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता है। सायंकाल में महिला पुरुष भक्त दर्शनों को आते हैं, तो मेरे स्थापना करने वाले भी एकदम संत प्रकृति के हो जाते हैं, पर रात्रि बढने पर वे ही आपकी सेना के भूत पिशाचों की श्रेणी में आकर मदिरापान करने लगते हैं और आपके महाप्रलय की शैली में अबूझ नृत्य करते हैं।

मुझे अर्पित किया गया प्रसाद भी न मालूम किस पदार्थ का होता है, बड़ा अप्रिय लगता है, और दान का धन भी न जाने कहाँ चला जाता है। धरती पर विद्युत ऊर्जा अतिशय अपव्यय मैं देखता हूँ। पिताश्री, यह यंत्रणा दस दिनों तक मैं सहता हूँ।

दसवें दिन फिर मुझे बड़े आदर के साथ विसर्जन हेतु जुलूस में ले जाया जाता है और किसी जलाशय, समुद्र के तट पर ले जाकर जयकारों के साथ अत्यंत गंदे जल में विसर्जित किया जाता है। जल में मैं देखता हूँ, नाना प्रकार के जलचर बड़े घबराये हुये से भागते दिखाई पड़ते हैं और वह जल भी, उफ्फ . .  कितना गंदा होता है। पिताजी , उनके जयकारों में वे कहते हैं- अगले बरस तू जल्दी आ, आप ही बताईये मैं फिर क्या करने जाऊँ? कहाँ है भक्ति, श्रद्धा, समर्पण एवं आदर्श के प्रति प्रेम? मुझे बताईये पिताजी, क्या पुण्यात्मा लोकमान्य तिलक जी से स्वर्ग में मेरी भेंट हो पायेगी ?? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने किन पवित्र उद्देश्यों को लेकर मोहल्ले में सार्वजनिक गणेश उत्सव की परम्परा आरम्भ की थी?

पिताश्री, मेरी पीड़ा आप स्वयं भी समझ सकते हैं, जब श्रावण में कांवड यात्रा रूपी हुडदंग में आपकी घोर अवमानना होती है। अगले माह मेरी स्नेहमयी माताजी को भी नवरात्रि में धरती पर जाना होता है, मैं तो कहूँगा कि वे भी इस विषय में एक बार सोच लें।

यह सब सुनकर भगवान पशुपतिनाथ को अतिशय क्रोध आ गया और वे आवेश में खड़े होकर गर्जना करने लगे- जाग, जाग, जाग, मानव जाग।

दूर कहीं से आवाज आ रही थी उठो, उठो, उठो और अचानक जोर का धक्का लगा तो मेरी नींद झटके से खुल गई और देखा, पिताजी मुझे झकझोर कर कह रहे थे- अरे निकम्मे, विसर्जन करके रात देर में आया, अब कब तक सोयेगा, चल उठ और काम पर लग जा।

 

©  सदानंद आंबेकर

(इस विषय पर अभी पढने में आई एक छोटी सी मराठी कविता से प्रेरणा लेकर साभार लिखा गया)

 




Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 7 – Pandu’s sons ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Pandu’s sons”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 7

 

☆ Pandu’s Sons☆

 

Cursed by Rishi Kindima

Into the realms of the forest, Pandu retired

The news of pregnant Gandhari

In him, the desire to have a son fired.

 

Seeing him desolate and murky

His dutiful wife, Kunti consoled

“For his wife to bear another man’s child,”

She said, “The law of Dharma allowed”.

 

“Let me call a Rishi,” said Pandu

“Let us call a Deva,” Kunti stated

Blessed by Rishi Durvasa, she had a boon;

The knowledge made Pandu elated.

 

Pleased by Kunti’s solution

First to be invoked was Lord Yama

She gave birth to Yudhishtra

Who would be the upholder of Dharma

 

Next to be summoned was the God of wind

Of all Gods, most powerful and mightiest

And thus was born courageous Bhima

Who, one day, would be the strongest

 

And then, blessings were sought

From Indra, King of all Devas, who ruled the sky

Arjuna, the valiant archer was born

He became Kunti’s favourite by and by

 

And then, Kunti could invoke no more

Four were the maximum allowed

Pandu thought for a few days and then

For Madri, his second wife, implored

 

The Ashwini twins were invoked for Madri

The Lord of morning and evening stars

Nakula, the handsomest man was born

Along with his twin, with knowledge of near and far

 

Pandu, thus had five sons

Together, they came to be as Pandavas known

Had the wisdom of ‘King perfect’ collectively

Honesty, strength, skill, beauty, and wisdom they honed

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन ☆

…समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?

 

…. फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा होता है, वह क्या है?… विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर!

 

… समुद्र मंथन क्या सचमुच एक बार ही हुआ था..?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ न चीनी कम ना नमक ज़्यादा ☆ – श्री अनिमेष श्रीवास्तव

श्री अनिमेष श्रीवास्तव

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर)   

 

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” – श्री अनिमेष श्रीवास्तव ☆

 

* निर्देशकीय *

नियति है.. अकेलापन.. ।

आना भी अकेले और जाना भी…. इससे दूर रहने के लिए इंसान ने ख़ूब उपाय किये । समाज बनाया, रीति-रिवाज बनाये, नियम बनाया, क़ानून बनाये.. कि सभ्य और सुसंस्कृत रूप से जी सके.. मगर फिर भी अकेलेपन से निजात नहीं पा सका.. क्योंकि वह इसकी जड़ में अपने मूल स्वभाव.. अहंकार को कभी समझ ही नहीं पाया ।

अहंकार जिसके ना रहने पर प्रेम होता है, प्रेम क़रीब लाता है । उसके अभाव में लोगों से घिरे रहने के बावजूद भी मनुष्य तनहा है। अनगिनत संबंधों की डोर से जुड़ा होने पर भी जो सिरा उसके पास है वह अकेलेपन का ही है…।

मनोवैज्ञानिक और तथाकथित सामाजिक रूप में संबंधों (दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के संबंध) की महती आवश्यकता हर इंसान की ज़रूरत है। यह रिश्ते मानसिक जीवन के भरण-पोषण के लिए अवश्यम्भावी हैं। दोस्त के रूप में मां-बाप, भाई-बहन या अन्य कोई भी बाहरी, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में किसी भी आदर्श व्यक्ति या अपने ही किसी संबंधी की छवि जो पति-पत्नी के चयन में भी परिलक्षित होती है, के लिए मन खेल खेलता है और अपने मुताबिक ना होने पर खुद को छला महसूस करता है । मन का ये भ्रमण विलास और खोजते रहने की प्रवित्ति ही मानव जीवन का सत्य है ।

दुरूह है यह जानते हुए भी इंसान ने जीवन को स्वाभाविक ढंग से जीना शुरू किया और अपने सबसे बड़े गुण, बुद्धि का इतना विकास किया कि उससे अविष्कृत सुख-सुविधा में दुःख (जो मूल रूप में अकेलापन है, उसे) भूलने का छल भी अपने से किया ।

दिवा-स्वप्नों को जीते हुए इंसान अपने जीने के कारणों को तलाश रहा है और जीता चला जा रहा है।

मनुष्य अकेला है मगर उजागर नहीं है । दर्शन का उपयोग और शास्त्र का प्रयोग उसके अकेलेपन का बचाव है ।

प्रस्तुत नाटक में मानवीय अकेलापन सीधे-सीधे तो परिलक्षित नहीं होता मगर हास्य के क्षणों को, जो नाटक में हैं, हम देखें तो उसका दर्शन अवश्य होता है ।

यह एक मनोवैज्ञानिक नाटक है । एक एकाकी अविवाहित महिला जो जीने के कारणों को स्वप्न-दिवास्वप्न में तलाशती है । उसके यह सपने तो कभी पूरे नहीं होते किन्तु उसकी संपूर्णता की चाह ही उसके जीने का सबब हैं।

शारीरिक ज़रूरत कई समस्याओं की जड़ है लेकिन उसकी पूर्ति किसी समस्या का हल भी नहीं है।

नाटक की मुख्य पात्र मीरा के अकेलेपन का एक कारण लीबीदो है, जो जैविक मनोवैज्ञानिक कारण जैसे व्यक्तित्व और तनाव, और सामाजिक कारक जैसे काम और परिवार से प्रभावित होता है। इसके अलावा चिकित्सीय स्थितियों, जीवन शैली, रिश्ते के मुद्दों और उम्र से भी अपना स्वरूप ग्रहण करता है ।

मनुष्यों में अंतरंग संबंधों के निर्माण और निर्वहन में यौन इच्छाएं अक्सर एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं।

ऐसे ही लीबीदो से वशीभूत होकर मीरा के जीवन में किसी एक दिन तीन लोगों का आगमन होता है । यह लोग उसके मनःस्थिति में बसे संबंधों के आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं । उनमें से एक दोस्त है, एक हीरो रूप (प्रेरणा) और तीसरा प्रेमी । इनसे दो-चार होकर उसे खुशी भी मिलती है और नैराश्य भी। इस खुशी और नैराश्य के पीछे लीबीदो ही है।

क्या खुशी और नैराश्य एक स्वप्न है ? सिर्फ लीबीदो ?

निर्णय आपका है !

 

मंच पर

मीरा – आस्था जोशी

सोनू – सोनू चौहान

अरुण – सतीश मलासिया

हरीशंकर – सौरभ लोधी

मुरली मनोहर – पीयूष पांडा

कुली – आशुतोष मिश्रा

(नाटक “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” के लिए यह पेंटिंग नाटक के सेट डिजाइनर चैतन्य सोनी जी ने बनाया था। चैतन्य ने इस नाटक के लिए ना सिर्फ सेट डिजाइन किया, बल्कि वस्त्र-विन्यास भी उन्ही का था, जिसके लिए उन्होंने एक पूरी शर्ट भी पेंट किया। इसके अलावा नाटक में मेकअप भी उन्ही का था।)

मंच परे

मंच व्यवस्थापक – आशुतोष मिश्रा

मंच परिकल्पना एवं निर्माण – चैतन्य सोनी / अक्षिका यादव

मंच सामाग्री – सोनू चौहान

वस्त्र विन्यास – चैतन्य सोनी

रूप सज्जा – चैतन्य सोनी

प्रचार प्रसार – भगवती चरण

विडियो फोटो – कृष्णा गर्ग

प्रकाश परिकल्पना – मुकेश जिज्ञासी

मूल लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय

हिन्दी अनुवाद – समर सेनगुप्ता

संगीत संकलन – अंकित शिरबावीकर

संगीत संचालन – अभिषेक सिंह राजपूत

सहयोगी कलाकार – चन्द्र कुमार फाये, पीयूष तिवारी, अक्षिका यादव

परिकल्पना एवं निर्देशन – अनिमेष श्रीवास्तव

 

मार्गदर्शक  – मुकेश शर्मा

* निर्देशकीय संस्मरणात्मक अभिव्यक्ति *

समान्तर नाट्य संस्था, भोपाल के कलाकारों के साथ पिछले एक महीने से रंगमंचीय कार्यशाला करने का अनुभव ले रहा हूँ… सिखाया क्या हूँ कुछ नहीं, बल्कि खुद जाने कितनी चीज़े सीख गया हूँ। नए और जवान प्रशिक्षु लबरेज़ होते हैं अनगढ़ खूबसूरती से जिसे आकार देने की ज़िम्मेदारी किसी पुराने को दी जाती है। मैं पुराना नहीं हूँ बल्कि मुझ से नया और कोई नहीं, मगर फिर भी एक दिन श्री मुकेश शर्मा सर ने कहा कि आइए और हमारे कलाकारों के साथ कुछ काम कीजिये। मैं गया साहब। कलाकारों से मिला। बातें-वातें की । कुछ खेल खेले। कभी नाचे तो कभी रेंके । कभी पढ़ने लगे तो कभी एक्सरसाइज़ की। अपने तथाकथित सीखे को उनके तथाकथित नौसिखियेपन से जोड़ा, हिलाया, मिलाया, और जब सबने मिलकर खूब पसीना बहाया तब जाके रिजल्ट में निकला यह प्रहसन। जिसे मोहित चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने बांग्ला में  ‘गनधोराजेर हाथताली’ नाम से रचा था मगर हिंदी में हमारे लिए जिसका अनुवाद वरिष्ठ रंगकर्मी श्री समर सेनगुप्ता जी ने किया । जबलपुर में रहने वाले समर दा अभिनय और निर्देशन के अलावा लेखन में भी दखल रखते हैं और उनका यह अनुवाद अच्छा बन पड़ा है ।

इधर मुकेश सर की बेशकीमती सलाहियत से नाटक के कई कमज़ोर पक्षों को मजबूती मिली तो कहानी और साफ हुई।

मूल बांग्ला से अनुदित इस नाटक की हिंदी में संभवतः यह पहली प्रस्तुति है ।

यह कक्षा अभ्यास प्रस्तुति महज परिदृश्य है उसका जिसे इन कलाकारों ने कार्यशाला के दौरान समझा है और जाना है। कितना जाना है इसे तो आपका अवलोकन ही बेहतर बयान कर सकेगा।

 

प्रस्तुति : श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल   




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆ बेबस ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “बेबस ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆

 

☆ बेबस ☆

 

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहू हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है .

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहू ले गया. अब ५ बोरी गेहू बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहू भरा . ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करू ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ?” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ 

 

 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय☆

 

धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं। यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें, पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है, तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं, यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हमें इस पर गर्व है। इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं, कुल, जाति, उपजाति,गोत्र, संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है। समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं, आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है। वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं। जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ। इन जातियों, कुल, गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन, अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी, जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया। चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये, कहीं ये हौसले दबा दिये गये, तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई। जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली, और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर, तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी। जो भी हो, इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है। धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह, रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये। पर दिल तो दिल है, गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े, प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं। प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं। इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है।

यह सदी नवाचार की है। नई पीढ़ी नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है। आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से, डाक्टर की डाक्टर से, साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से, जज की जज से, मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं। ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं। ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं। माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं। बच्चों से संबंध रखना है तो, उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता। मतलब शिक्षा, व्यवसाय, कंपनी, ने कुल, गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है। इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं। रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं। ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है। सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली, बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है। कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है। ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं। कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं। लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है। लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है, इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है। हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है, पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है, क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है।

यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, अफेयर, ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है, पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई, पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है, उसकी जगह शादी डाट काम, जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है। युवा पीढ़ी एस एम एस, चैटिग, मीटिग, डेटिंग, आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है। सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं, हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री, ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं। नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन। सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं। मैं इस परिवर्तन को व्यंजना, लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 15 – सहवास……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है।  श्री सुजित जी द्वारा डेढ़ दिन के गणपति जी  में स्वर्गीय पिता की डेढ़ दिन तक छवि देखना और उनके साथ रहने की कल्पना ही अद्भुत है. ऐसा सामंजस्य कोई श्री सुजित जी जैसा संवेदनशील कवि ही कर सकता है. प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “सहवास …! ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #15☆ 

 

☆ सहवास…! ☆ 

 

दर वर्षी मी घरी आणणा-या गणपतीच्या

मुर्तीत मला माझा बाप दिसतो

कारण…!

मी लहान असताना माझा बाप जेव्हा

गणपतीची मुर्ती घेऊन घरी यायचा

तेव्हा त्या दिवशी

गणपती सारखाच तो ही अगदी….

आनंदान भारावलेला असायचा

आणि त्या नंतरचा

दिड दिवस माझा बाप जणू काही

गणपती सोबतच बोलत बसायचा…

माझ्या बापानं केलेल्या कष्टाची आरती

आजही…

माझ्या कानातल्या पडद्यावर

रोज वाजत असते

आणि कापरा सारखी त्याची

आठवण मला आतून आतून जाळत असते

आज माझा बाप जरी माझ्या बरोबर नसला

तरी..,त्याच्या नंतर ही गणपतीची मुर्ती

मी दरवर्षी घरी आणतो

कारण.. तेवढाच काय तो

बापाचा..!

आणि

बाप्पाचा..!

दिड दिवसाचा सहवास मिळतो..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626




मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ ☆ मानाचा मुजरा ! – मातोश्री बहिणाबाई चौधरी यांची १३९वी जयंती ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है.  आज उनकी प्रस्तुति है आदरणीया बहिणाबाई  के १३९वें जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति.)

श्रीमती उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  के ही शब्दों में – 

-बहिणाबाई. या निरक्षर-अशिक्षित माऊलीने दारी आलेल्या ज्योतिषाला सुमारे १०० वर्षांपूर्वी हे खणखणीत सत्य सोप्या पण परखड भाषेत सुनावलं.

डोके(बुध्दी नाही म्हणत)गहाण ठेवून भविष्यादि अंधश्रध्दांपुढे सपशेल शरणागती पत्करणारी आजची तथाकथित थोर  उच्चविद्याविभूषित मनुक्षे बघतांना या माऊलीची थोरवी लख्ख होऊन समोर येते.

ह्या माउलीने शंभर वर्षांपूर्वी व्यक्त केलेली खंत आजही कायम आहे.

दंडवत माय !

स्मृतींना विनम्र अभिवादन ! !

 – श्रीमती उर्मिला उद्धवराव इंगळे

☆ मानाचा मुजरा !☆

(खानदेशकन्या मातोश्री बहिणाबाई चौधरी यांची आज १३९ वी जयंती.)

नको नको रे ज्योतिषा

माह्या दारी नको येऊ,

माह्य दैव मले कळे

माह्या हात नको पाहू.

 

धनरेषांच्या च-यांनी

तळहात रे फाटला,

देवा तुह्याबी घरचा

झरा धनाचा

आटला.

 

नशिबाचे नऊ ग्रह

तळहाताच्या रेघोट्या,

बापा नको मारू थापा

अशा उगा ख-या खोट्या.

-बहिणाबाई

 

प्रस्तुति – 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (2)प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )

 

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ।।2।।

 

कहलाता सन्यास जो योग उसे ही मान

नहि संकल्प से त्याग बिन योगी की पहचान।।2।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।2।।

 

Do thou, O Arjuna, know Yoga to be that which they call renunciation; no one verily becomes a Yogi who has not renounced thoughts! ।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)