हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटी हूँ ☆ – श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी का e-abhivyakti.  श्री कुमार जीतेन्द्र कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं.)

 

? बेटी हूँ ?

हे! माँ

मैं आपकी बेटी हूँ,

हे! माँ

में खुश हूँ,

ईश्वर से दुआ करती हूँ

आप भी खुश रहें,

ख़बर सुनी है

मेरे कन्या होने की,

आप सब मुझे

अजन्मी को,

जन्म लेने से

रोकने वाले हो,

मुझे तो एक पल

विश्वास भी नहीं हुआ,

भला मेरी माँ,

ऎसा कैसे कर सकती है?

हे! माँ

 

 

बोलो ना

बोलो ना,

माँ – माँ

मैंने सुना

सब झूठ है,

ऎसा सुनकर मैं

घबरा गई हूँ,

मेरे हाथ भी

इतने नाजुक हैं,

कि तुम्हें रोक

नहीं सकती,

हे! माँ

कैसे रोकूँ तुम्हें,

दवाखाने जाने से,

मेरे पग

इतने छोटे,

कि धरा पर

बैठ कर

जिद करूँ,

हे! माँ

मुझे बाहर

आने की बड़ी

ललक है,

हे! माँ

मुझे आपके आँगन को,

नन्हें पैरो से

गूंज उठाना है,

हे! माँ

में आपका

खर्चा नहीं बढ़ाऊँगी,

हे! माँ

में बड़ी दीदी की,

छोटी पड़ी पायजेब

पहन लूंगी,

बेटा होता

तो पाल लेती तुम,

फिर मुझमे

क्या बुराई है,

नहीं देना

दहेज,

मत डरना

दुनिया से,

बस मुझे

जन्म दे दो,

देखना माँ

मेरे हाथों,

मेहंदी सजेंगी,

मुझे मत मारिए,

खिलने दो,

फूल बन के,

हे! माँ,

में आपकी बेटी हूँ,

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।।25।।

नष्ट पाप जो संयमी,संदेहों से दूर

सर्वभूत रत जो सतत ब्रम्ह ज्ञान भरपूर।।25।।

भावार्थ :  जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।25।।

 

The sages obtain absolute freedom or Moksha-they whose sins have been destroyed, whose dualities (perception of dualities or experience of the pairs of opposites) are torn as  under।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – संस्मरण – ☆ हमारे आदर्श – कक्काजी ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

शिक्षक दिवस विशेष

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत है  शिक्षक दिवस पर श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी का  अविस्मरणीय संस्मरण  “हमारे आदर्श – कक्का जी ”, जो  हम सबके लिए वास्तव में आदर्श हैं और जिस सहजता से लिखा गया है, बरबस ही उनकी छवि नेत्रों के सम्मुख आ जाती है।)

 

☆  संस्मरण – हमारे आदर्श – कक्काजी  ☆

 

मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री मोहनलाल जी शुक्ला, ईश्वर के वरदान की तरह प्रदत्त, बड़े गुरुजी के नाम से आज भी सुविख्यात हैं मेरे कस्बे पुलगांव और आसपास! – – – – और देश के अनेक क्षेत्रों में भी जहाँ उनके विद्यार्थी हों।

लेकिन आप को जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया के लिये आदरणीय, आदर्श, अतुलनीय मेरे पिताजी आजकी दुनिया के लिये सही गुरु नहीं थे। सतयुग के उस प्रणेता ने हमें कलयुग में जीने की शिक्षा नहीं दी। उनके सतयुगी सिद्धांतों ने इस कलियुग में सबसे ज्यादा जरूरी– छल कपट द्वेष ईर्ष्या नहीं सिखाई। दूसरों के अधिकारों को लड़कर छीनना नहीं सिखाया। लोगों को सीढियाँ बनाकर ऊंचाईयों पर पहुँचना नहीं सिखाया। यहाँ तक कि रिश्तों को भी  अपने परिप्रेक्ष्य में नहीं दूसरों के संदर्भ में जीना सिखाया।

जी हाँ – – – होश सँभालते ही पिताजी को” कक्का “कह कर पुकारा। तीन बडे़ ताऊजी जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे, उनके बच्चे बरसों तक सदैव पिताजी के पास रहकर पढे लिखे – – इसीलिए वही संबोधन हम भाई बहन भी देते रहे। माँ को भी “काकी “कहा। आदर्शवादिता की इंतेहा कि बच्चों में अलगाव की भावना ना आये अतः पिताजी ने कभी नहीं सिखाया कि मुझे पिताजी कहो।

दुनिया में अच्छा इंसान बनना सिखाया परंतु दुर्जनों के साथ कैसा बर्ताव करें ये नहीं सिखाया। गुरु को तो चाणक्य की भांति होना चाहिए जो साम दाम दंड भेद की नीतियां सिखाये। गुरु द्रोणाचार्य की तरह होना चाहिए जो अपने शिष्य के लिए एकलव्य से अंगूठा माँगने में भी संकोच ना करे।। गुरु को तो कर्ण अर्जुन और दुर्योधन तीनों से निपटने की कला अपने छात्रों को सिखाना चाहिए। आदर्श शिक्षक का तमगा आपके लिए आशीष बन सकता है लेकिन दुनिया की भीड़ में छात्रों का सहारा नहीं बन सकता।

तात्पर्य यही कि आजके युग के शिक्षकों की तरह हाड़मांस के रोबोट तैयार करना चाहिए – – – संवेदनाहीन राग विराग अनुराग– भाव विभाव अनुभाव से परे।

निःसंदेह चौंकानेवाला लगा होगा  यह प्रलाप। अरे ये तो बस व्यवस्था के प्रति और स्वार्थी दुनिया के प्रति मन की भड़ास निकाल ली जितनी उबल रही थी भीतर।—-

लेकिन सच कहूँ तो मेरे पिताजी मेरे कक्का स्वयं तो बहुत अच्छे शिक्षक थे ही – – – शिक्षकों के शिल्पी भी थे। वे खुद तो अच्छे शिक्षक थे ही अपने अंतर्गत शिक्षकों को भी उत्तम शिक्षक बनाया। वे लगभग बीस वर्ष प्रधानाचार्य रहे। तिवारी गुरुजी, पेशवे गुरुजी, जोशी गुरुजी सारे मेरे पिताजी की प्रतिकृति ही थे मानो। मजाल है कोई शिक्षक ट्यूशन को पैसे से तोल ले। कमजोर बच्चों को अलग से ध्यान दो मगर सहयोग स्वरूप सक्षम अमीर माता-पिता दूध, दही-मही, सब्जियाँ, ऋतुफल, कपड़ा लत्ता भिजवाते। पैसे से शिक्षा दान नहीं। इसी सिद्धांत पर चले पिताजी सारी जिंदगी। इसलिए बडे़ मजे भी रहे। राशनिंग के दौर में भी जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव कभी नहीं देखा। मिल मालिक से लेकर बड़े व्यवसायियों के बिगडैल, पढाई में कमजोर बच्चों को पिताजी अलग से पढाते और कमाल कि आज भी वे बड़े व्यवसायिक व्यक्ति  गुरु बहन का आशीष लेते हैं मेरे चरणस्पर्श करके।

इससे बड़ा क्या सबूत चाहिए एक शिक्षक की पुत्री को अपने शिक्षक पिता की महिमा का महत्ता का? हाँ महान थे मेरे गुरु मेरे पिता जिनके कारण इस देश में आज भी मानवता की सेवा में विश्वास करने वाले व्यवसायी हैं। स्कूल में आज भी वे उसूल चल रहे हैं जो मेरे आदर्श गुरु पिता के जमाने में चलते थे। आज भी वे चंद लोग मौजूद हैं जो गुरुजी के रामायण मंडल को लेकर चल रहे हैं। होली के होलियारे, महीना पहले से एक एक घर मे फाग गाते हैं—-“सदा अनंद रहे यह द्वारा मोहन खेलैं होरी हो” इस आशीष के साथ। और क्या चाहिए एक शिक्षक को युगों तक लोगों के जेहन में जीवित रहने के लिए। संस्मरण और अभिनंदनंदनीय क्षणों का तो विपुल भंडार है मेरे परम गुरु पिता के व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए। लेकिन शेष फिर कभी—-

गौरवान्वित हूँ मैं एक शिक्षक की बेटी कहलाकर। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र से आदर्श शिक्षक – – – आज के इस भ्रष्टाचारी युग के पचास साल पहले के शिक्षक शिल्पी की बेटी का शत शत नमन है समस्त शिक्षकों को शिक्षक दिवस पर।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” ✍

नागपुर, महाराष्ट्र




हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – गुरुजनों को नमन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

शिक्षक दिवस विशेष

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ गुरुजनों को नमन ☆

प्रेरकः सूचकश्चैव वाचको दर्शकस्तथा

शिक्षको बोधकोश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः।

प्रेरणा देनेवाले, सूचना या जानकारी देनेवाले, सत्य का भान करानेवाले, मार्गदर्शन करनेवाले, शिक्षा देनेवाले, बोध करानेवाले- ये सभी गुरु समान हैं।

मेरे माता-पिता, सहोदर, शिक्षक, संतान, साथी, पाठक, दर्शक, शत्रु, मित्र, आलोचक, प्रशंसक हर व्यक्ति मेरा शिक्षक है। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर विभिन्न पहलुओं का ज्ञान देनेवाले सभी गुरुजनों को नमन।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 14 ☆ कैसी विडम्बना ? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “कैसी विडम्बना ? ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 14 ☆

 

☆ कैसी विडम्बना ? ☆

 

सड़क किनारे

पत्थर कूटती औरत

ईंटों का बोझ सिर पर उठाए

सीढियों पर चढ़ता

लड़खड़ाता मज़दूर

झूठे कप-प्लेट धोता

मालिक की  डाँट-फटकार

सहन करता

वह मासूम अनाम बालक

माँ बनकर छोटे भाई की

देखरेख करती

चार वर्ष की नादान बच्ची

जूठन पर नजरें गड़ाए

धूल-मिट्टी से सने

अधिकाधिक भोजन पाने को

एक-दूसरे पर ज़ोर आज़माते

नंग-धड़ंग बच्चे

अपाहिज पति के इलाज

व क्षुधा शांत करने को

अपनी अस्मत का सौदा

करने को विवश

साधनहीन औरत को देख

अनगिनत प्रश्न

मन में कौंधते-कोंचते

कचोटते, आहत करते

क्या यही है, मेरा देश भारत

जिसके कदम विश्व गुरु

बनने की राह पर अग्रसर

जहां हर पल मासूमों की

इज़्ज़्त से होता खिलवाड़

और की जाती उनकी अस्मत

चौराहे पर नीलाम

एक-तरफा प्यार में

होते एसिड अटैक

या कर दी जाती उनकी

हत्या बीच बाज़ार

 

वह मासूम कभी दहेज के

लालच में ज़िंदा जलाई जाती

कभी ऑनर किलिंग की

भेंट चढ़ायी जाती

बेटी के जन्म के अवसर पर

प्रसूता को घर से बाहर की

राह दिखलाई जाती

 

आपाधापी भरे जीवन की

विसंगतियों के कारण

टूटते-दरक़ते

उलझते-बिखरते रिश्ते

एक छत के नीचे

रहने को विवश पति-पत्नी

अजनबी सम व्यवहार करते

और एकांत की त्रासदी झेलते

बच्चों को नशे की दलदल में

पदार्पण करते देख

मन कर उठता चीत्कार

जाने कब मिलेगी मानव को

इन भयावह स्थितियों से निज़ात

 

काश! मेरा देश इंडिया से

भारत बन जाता

जहां संबंधों की गरिमा होती

और सदैव रहता

स्नेह और सौहार्द का साम्राज्य

जीवन उत्सव बन जाता

और रहता चिर मधुमास

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 12 ☆ ☆ किससे माँगे क्षमा ? ☆ ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक कहानी   “किससे मांगे क्षमा?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 12  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ किससे माँगे क्षमा ?

 

आज बेटी को विदा करने के बाद मन बहुत उदास था आँसू है जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे।इतने में कहीं से एक स्वर उभरा आज जो हुआ वह सही था या पहले जो मैंने निर्णय किया था तुमने वह सही था ।

दिमाग के सारे दरवाजे खिड़कियाँ खुल गई और मन विचारों के सागर में गोते लगाने लगा पहुंच गए कई वर्ष पीछे…..

दरवाजे पर आहट हुई दरवाजा खोलते ही पड़ोस के अंकल ने कहा… कि आज हमने तुम्हारी बहन को किसी सरदार के साथ स्कूटर पर जाते देखा है।

मेरा तो जैसे खून ही खौल गया। बस इसी प्रतीक्षा में थे कब शुभा घर आए और उस तहकीकात की जाए. जैसे ही शुभा का घर में प्रवेश हुआ मैंने तुरंत पूछा “वह कौन सरदार था जिसके पीछे तुम बैठी थी।”

शुभा अचकचा गई ।

बोली “क्या हुआ भैया आप किसकी बात कर रहे हैं?”

“देखो शुभा बातें बनाने का समय नहीं है सीधे-सीधे से मेरे सवाल पर आओ.”

शुभा सर नीचे करके खड़ी हो गई उसके के पास मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं था।

“मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ जिसके जवाब की मुझे प्रतीक्षा है।”

“जी भैया, वह मेरा दोस्त है और मैं उसके साथ जीवन बिताना चाहती हूँ।”

“तुम्हारा यह सपना कभी पूरा नहीं होगा।”

तभी पिताजी ने कहा – “बेटा एक बार देख सुन तो लो, शायद पसंद आ जाए। जात पात से क्या होता है?”

“पिताजी हम हिंदू हैं और हम किसी दूसरे समाज में जाना पसंद नहीं करेंगे।”

“हम नहीं चाहते कि हमारी बहन किसी सरदार को ब्याही जाए. अब तेरा जाना घर से बंद अगर मिलने मिलाने की कोशिश की तो काट देंगे।”

“जहाँ हम तेरा सम्बंध करेंगे वहीं तुझे करना पड़ेगा।”

लेकिन हमारे किसी भी सम्बंध से बहन तैयार नहीं हुई बोली – “मैं शादी ही नहीं करूंगी।” तब अंततोगत्वा सरदार के साथ बहन का विवाह मंदिर में हो गया हम लोगों ने उस दिन से बहन से सम्बंध तोड़ दिए. माता पिता को भी आगाह कर दिया गया कि आप भी उससे सम्बंध नहीं रखेंगे।

कुछ वर्षों बाद पता चला की बहन बीमारी से पीड़ित होकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई उसका एक बेटा भी है। लेकिन तब भी मेरे मन में कोई भाव जागृत नहीं हुये। माँ तड़पती थी रोती थी लेकिन मैंने कहा –  “ऐसी बहन से ना होना ज़्यादा बेहतर है।”

आज किसी ने मुझे अतीत में पहुंचा दिया ।मुझे महसूस हो रहा है इतिहास अपने आप को दोहराता है।

कई वर्ष बीत जाने के बाद जब मेरी बेटी का रिश्ता नहीं हुआ तो मेरी बेटी ने मुझसे कहा – “पापा मेरे ऑफिस में काम करने वाला मेरा साथी सुब्रतो है।” तब हमने कहा- “ठीक है हम लोग चलकर उसका घर परिवार दिखाएंगे।”

तब एक क्षण को भी यह-यह ख्याल नहीं आया कि बेटी भी उसी दिशा की ओर जा रही है जिस दिशा को मेरी बहन गई थी। हमने उस बंगाली परिवार के रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया और धूमधाम से विवाह किया।

क्या हुआ भाई आँखे क्यों नम हो गई.

हमने हाथ जोड़कर कहा – “आज आपने हमारी आँखे खोल दी”

बहन बेटी के रिश्ते में कितना फर्क किया हमने।जो आज निर्णय लिया है वही पहले लिया होता तो शायद बहन हमारी आज जीवत होती। आज अंतर्मन धिक्कार रहा है मैं आज क्षमा मांगने के लायक भी नहीं रहा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची



हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ देवालय ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(आज प्रस्तुत है  श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  की कविता देवालय . ग्राम्य पृष्ठभूमि में बने देवालय का अतिसुन्दर शब्दचित्र . )

 

☆ देवालय ☆

 

गाँव का मंदिर, छोटी – सी मूरत

और विशाल सा प्राँगण

ना मूर्ति स्वर्ण – रजत से जड़ित

ना वहाँ दर्शन की भगदड़

शांत, रम्य, जागृत, अद्भुत

 

केवल फूलों का सुवास

तीर्थ में तुलसी का अमृत जल

ना भरभर फूलों के हार

ना नारियलों की बौछार

ना मन्नतों से पटी दीवार

ना अमूल्य उपहार

तेजस्वी गर्भगृह, शीतल सभागृह

 

किनारे बिछी रंगीन दरी

उसमे विराजित ग्रामजन

ढोलक की थाप, मंजरी का हल्का सा नाद

ना लाऊडस्पीकर में बजते भजन

ना होते रोज के होम हवन

फिर भी सुगन्धित, प्रफुल्लित आलय

 

मजबूत स्तम्भ देते जिसे आधार

तालों में ना कैद मूरत

बिखरे पड़ते हो जहां कभी अनायास सूखे पत्र

जैसे पुरखे भी लेना चाहें पुनः शरण

इतना शांत आलय

सच्चे अर्थ में देवालय ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र




मराठी साहित्य – मराठी कथा – ☆ वेग वाढला आणि शर्यत संपली ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

आज प्रस्तुत है  उनकी एक हृदयस्पर्शी कहानी  वेग वाढला आणि शर्यत संपली. हम सड़क पर भावावेश में  अपने वाहनों की गति बढ़ाकर स्पर्धा  करते हैं  और अचानक एक क्षण आता है जब स्पर्धा, दौड़ , शर्त और जीवन सब समाप्त हो जाता है. हम यह भी भूल जाते हैं क़ि हमारे साथ कई लोग जुड़े हुए हैं जो  जीवनपर्यन्त उस दुर्घटना को जीते हैं.  )

 

☆ वेग वाढला आणि शर्यत संपली ☆

 

स्पर्धेच्या मैदानावर धावतांना वेग अतिशय महत्वाचा असतो. आणि त्या वेगाला संयमाची जोड असली कि स्पर्धक स्पर्धेत शेवटपर्यंत टिकून राहतो. आयुष्यही तसंच आहे अगदी स्पर्धेसारखं. इथ प्रत्येक माणुस स्पर्धा करतो आणि पळतो. आणि शर्यत जिंकतो. पण आशा काही शर्यती असतात ज्या जीवावर बेततात. माणसाला आपला प्राण गमवावा लागतो. आणि एकदा जीव गेला म्हणजे शर्यत संपते.

अशीच एक वेगाची शर्यत परवाच झाली. काही दिवसांपूर्वी जल संकटाने महाराष्ट्राला हैराण केलं होतं. त्या जखमातून महाराष्ट्र अजून सावरलेलं नाही तोच महाराष्ट्राच्या उत्तरेत असलेल्या नंदुरबार जिल्ह्यातल्या शहादा तालुक्यातील निमगूळ येथे बस आणि कंटेनर मध्ये धडक झाली. आणि वेगाचा या अघोरी खेळात तेरा ते चौदा लोकांचा बळी चालला गेला. औरंगाबादहून शहादा कडे येणारी बस समोरून येणा-या कंटेनर मध्ये अशी काही घुसली जणू बनवणा-याने त्यांना त्यांच्या मर्जी विरूध्द वेगळे बनवले असावे. बसचा निम्म्यापेक्षा जास्त भाग त्या कंटेनर मध्ये घुसला होता. दोन्हीही ड्रायव्हर सोबतच बस मधील प्रवाशांचा यात नाहक बळी गेला. याच रस्त्यावर अशाच बसेस मधुन मी ही कधीतरी प्रवास केला होता. म्हणुन मला हा अपघात जरा मझ्या भावनांना जवळचा वाटून गेला

रक्षाबंधन आणि स्वतंत्र दिवसाचे पावन पर्व साजरे करण्यासाठी मी घरी गावाकडे जाऊन आलो. गावाकडे गेल्यावर शांतता असते. कसलीही वेळ फिक्स नसते.  रोजच्या वेळेवर ऑफिसला जायचे नव्हते म्हणुन मी उशीराच उठलो.  आणि सवयीप्रमाणे हाती मोबाईल घेतला. आणि डेटा चालू केला. रात्रीपासून डेटा बंद असल्यामुळे बरेच मॅसेज पेंडींगवर होते. मी पुर्ण मॅसेज येण्याची वाट पाहू लागलो. तेव्हा कानी आवाज आला. आमच्या शेजारी राहणारी मायाबाई तीच्या एकवीस वर्षीय मुलाच्या  हाती टिफीन देता म्हणत होती कि “वेळेवर जेवून घे. जेवन परत आणू नको. पुर्ण टिफीन संपव”  तो मुलगा आपल्या आईच्या शब्दाना होकार देत चालला गेला. एका आईची आपल्या मुलाबद्दलची काळजी सहाजीकच होती.

मी पुन्हा मोबाईल मध्ये लक्ष देउन एक कवितांचा समुह उघडून साहित्यीकांच्या दर्जेदार कविता आवडीने वाचायला लागलो. काही वेळाने उठलो आणि फ्रेश होऊन मामांच्या घरी गेलो. माझ्या मामांची मोठी मुलगी तीच्या बाळंतपणाला माहेरी आलीय. ती टि.व्ही. बघत बसली होती. मी सवयीप्रमाणे तीची खोडी काढायला लागलो. तेवढ्यात टि.व्ही वर एक बातमी झळकली. *नंदुरबार जिल्ह्यात शहादा तालुक्यातील निमगूळ येथे बस आणि कंटेनर मध्ये धडक* . ज्यात ड्रायव्हरसह तेरा ते चौदा लोकांचा मृत्यु झाला असं म्हणत होते. माझं लक्ष आपोआपच तिकडे वेधलं गेलं.

टी. व्ही वर दाखवण्यात येत असलेल्या चित्रफितीमध्ये औरंगाबाद-शहादा  बसची पाटी पडलेली होती. ज्यावर रक्ताचे डाग स्पष्टपणे दिसत होते. निम्म्यापेक्षा  जास्त बसचा भाग कंटेनरमध्ये घुसला होता. समोरचं चित्र अगदी विदारक दिसत होतं.  बातमी पाहून सुन्न झालो. ती रक्ताने माखलेली पाटी जणू हेच सांगत होती.  वेगाची नशा करू नका. कारण वेग फक्त रक्ताची नशा करत असतो.

पाटी आणि मृत झालेल्यांची स्थिती पाहून मला त्या आईची आठवण झाली. जीने कामावर जाणा-या मुलाला काळजीपूर्वक जायला सांगीतले होते. तसंच त्या मृतांच्या आईनेही त्यांना काळजीपूर्वक प्रवास करायला सांगितलं असेल. तिनेही त्यांना पाठवतांना देवाचं नामस्मरण केलं असेल. आणि त्यांनीही आईला तसाच होकार दिला असेल. पण रस्त्यावरच्या वेगाने त्यांचा तो होकार खोटा ठरवला होता. त्यांनी दिलेले  सुखरूप पोहोचायचे आश्वासन फोल ठरले होते. त्या आईची काळजी कधीच अश्रूमध्ये रुपांतरीत झाली होती.

मामांची मुलगी ते समोरील दृश्य पाहून घाबरली होती. तिच्याही उदरात एक प्राण वेगाने वाढत होता. काही दिवसांनी त्यालाही जगाच्या या शर्यतीत पळायचे होते.तो कसं हे सगळं सहन करेल. याच विचाराने  कदाचित ती हादरली असणार.  ती अगदी अधीर होऊन मला म्हटली. “कसं काय चालवतात हे गाड्या काय माहीत. एका क्षणांत एवढ्या लोकांना संपवून टाकले. दैव असं का सूड घेत कोणास ठाऊक. काय चुक होती त्या प्रवाशांची. ड्रायव्हरच्या चुकीमुळे एवढ्या लोकांनी जीव गमवावा लागला” तीच्या या निरागस प्रश्नात मला एका आईची काळजी जाणवली. मी तीला म्हटलं “इथं ना बस ड्रायव्हरची चुकी आहे ना कंटेनरच्या ड्रायव्हरची. इथं चुकी फक्त माणसाची आहे. ते रस्ते माणसाने बनवले. ती बस आणि कंटेनर माणसानेच बनवले. त्यांना वेगही माणसानेच दिला. माणुसच त्या गाड्या वेगाने चालवत होता. आणि त्यात मेलाही माणूसच.त्यात दैव ते काय करणार?” माझ्या ये उत्तराने ती समाधानी झाली की नाही मला माहीत नाही. पण तिच्या चेह-यावरचे भाव सांगत होते. कि माणसाने सुरू केलेली ही जीवानाची शर्यत त्याच्या जीवनासोबतच संपून जाते. आणि रक्ताने माखलेली ती नाही त्याच्या कधीतरी होण्याची ग्वाही देत पडून राहते. रस्त्यावर……..

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा

जि. नंदुरबार

मो  9168471113




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।।24।।

 

जिनके मन सुख शांति है,जिनके हदय प्रकाश

वे योगी हैं ब्रम्हवत निर्मल ज्यों आकाश।।24।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है।।24।।

 

He who is ever happy within, who rejoices within, who is illumined within, such a Yogi  attains absolute freedom or Moksha, himself becoming Brahman. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिंदी साहित्य ☆ शिक्षक दिवस विशेष ☆ विमर्श – शिक्षक कल आज और कल ☆ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, श्रीमति समीक्षा तैलंग,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे एवं सुश्री स्मिता रविशंकर

शिक्षक दिवस विशेष 

विमर्श – शिक्षक कल आज और कल

मैं इस विमर्श में भाग लेने के लिए सभी सम्माननीय लेखकों का आभारी हूँ जिन्होंने मात्र एक दिवस के समय में अपना बहुमूल्य समय देकर हमारे पाठकों को एक विचारणीय विषय शिक्षक कल आज और कल पर अपने अनुभव,  संस्मरण और बेबाक राय रखी.  जब मैंने  अपने व्हाट्सएप्प ग्रुप पर यह सन्देश डाला -” शिक्षक आज और कल (गुजरा और आने वाला),  कृपया अपने विचार (हिंदी/मराठी/अंग्रेजी में ) भेजें, शब्द सीमा 200,  समय सीमा – 4  सितम्बर 2019  दोपहर 12  बजे” तो अचानक सन्देश एवं फोन कॉल आने लगे कि – “समय सीमा तो ठीक है किन्तु शब्द सीमा अत्यंत सीमित है. ”

मैं आपसे करबद्ध क्षमा चाहूंगा – किन्तु, सत्य मानिये यह एक प्रयोग था और वास्तव में कम से कम हम अपने शिक्षक और शिक्षा जैसे  शब्दों / विषयों को शब्द सीमा में बाँध ही नहीं सकते. इस विमर्श के माध्यम से मैंने प्रयास किया है साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र से वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे, वरिष्ठ शिक्षक श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारा श्रीमती समीक्षा तैलंग एवं एक युवा लेखिका सुश्री स्मिता रविशंकर के विचार आप तक पहुंचाऊं. 

यह एक शाश्वत सत्य है कि सर्वप्रथम हम जीवन में छात्र ही होते हैं फिर जीवन के विभिन्न पड़ावों पर शिक्षक की भूमिका भी यथावत निभाते रहते हैं.  हमारे खट्टे-मीठे अनुभव हमें अपने छात्र मित्रों और शिक्षकों की छवि को लेकर जीवन पर्यन्त हमारे साथ अपनी  जीवन यात्रा में चलते रहते हैं और समय समय पर उन्हें स्मरण कर कदाचित मुस्कराते अथवा विस्मित होते रहते हैं.

इस विमर्श में एक विशेष बात यह है कि वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी ने ई-अभिव्यक्ति के साहित्य से प्रेरित होकर पहली बार हिंदी में अपने विचार प्रकट करने का प्रयास किया है जो वास्तव में राज भाषा मास पर हमारी एक बड़ी उपलब्धि है.

मेरे जीवन में ई-अभिव्यक्ति की इस यात्रा में मेरे गुरुजनों का आशीर्वाद सदा बना रहा और बना रहे ऐसी अपेक्षा करता हूँ .  मेरे प्रथम प्राचार्य प्रोफेसर श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव और डॉ राज कुमार  ‘सुमित्र’ जी का वरदहस्त तो आज भी मुझ पर बना हुआ है. ईश्वर उन्हें शतायु दे एवं वे सदैव स्वस्थ रहें और ऐसे ही मार्गदर्शन देते रहें. ई-अभिव्यक्ति में सतत रूप से जुड़े हुए वरिष्ठ साहित्यकार और पूर्व प्राचार्य   / प्राध्यापक / शिक्षाविद डॉ मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित), आचार्य भगवद दुबे, सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे , मराठी साहित्यकार श्री अशोक भाम्भुरे, मराठी साहित्यकार कविराज विजय सातपुते,  पूर्व प्राचार्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ कुंदन सिंह परिहार, सुश्री नीलम सक्सेना चंद्र (अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित एवं  लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में दर्ज), एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, महा मेट्रो, पुणे, सुश्री निशा नंदिनी भारतीय (सुदूर उत्तर पूर्व से अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध शिक्षाविद एवं साहित्यकार), डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’, डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ श्री जय प्रकाश पाण्डेय और एक लम्बी फेहरिस्त है( जिनका नाम छूट रहा है उनसे क्षमा याचना सहित)  जिनका मार्गदर्शन समय समय पर मिलता रहता है.  सबको सादर प्रणाम एवं अभिवादन.  सबका आशीर्वाद स्नेह बना रहे.

इसी अभिलाषा के साथ ….

हेमन्त बावनकर, पुणे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

* मेरे गुरुजन * 

मैं प्रायमरी स्कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। तब पूज्यनीय एम. एम. कुरेशी नामक अध्यापक हार्मोनियम बजाकर हमे रोज की प्रार्थना सिखाते थे।

वह पान खाने के बहुत शौकीन थे। उसकी वजह से उनका मुँह हमेशा लाल रंग का दिखायी देता था। उनके बालों का रंग मी शायद मेहंदी की वजह से लाल था। इसलिये सब उन्हें लालमिया पुकारते थे। साल पूरा होने के बाद उनका तबादला कर दिया गया। हम सब बहुत रोये। फिर कभी हमें हार्मोनियम वाले अध्यापक नहीं मिले।

माध्यमिक विद्यालय में हमें अंग्रेजी विषय पढ़ाने के लिये पूज्यनीय शेंडे सर थे। उनकी वेषभूषा धोती, काला कोट और टोपी थी! वह बहुत ही अनुशासनप्रिय थे।

उनके सामने से जाने से ही हम घबराते थे। उन्होंने मनसे हमें पढाया उसकी वजहसे हमें अंग्रेजी सीखने में रुचि पैदा हो गयी।

मेरा प्यारा विषय संस्कृत सिखाने के लिए  पूज्यनीय म. स. आपटीकर नाम के  अध्यापक थे।  उन्होंने हमें संस्कृत भाषा का अति उत्तम ज्ञान दिया। उनकी अच्छी पढाई की वजहसे मुझे हमेशा अच्छे अंक मिले ! महाविद्यालयीन परीक्षाओं में भी मैं उच्चतम अंकों से पास हुई।

उनकी कृपा से वेदपाठन वर्ग में मुझे बहुत अच्छा ज्ञान मिला। उनकी खुद की लिखी हुई कई पुस्तकों में से “शिवस्तोत्रावली” में से कुछ स्तोत्र हमारे वेदपाठन मे समाविष्ट किये गये हैं।  आज भी मैं उन्हें रोज पढ़ती हूँ।

अच्छे गुरुजन सबको मिले यही शुभकामना करती हूँ।

“शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!”

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक ५ सितंबर २०१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

 

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

*शिक्षक कल आज और कल*

 

पहले शिक्षक निडरता से बच्चों को पढ़ाते थे । बच्चों को केवल पढ़ना और खेलना होता था । समय के साथ सब कुछ बदलता रहा हैं ।

शिक्षक और बच्चों का बदलना प्रकृति का नियम है । इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। शिक्षक से पहले बच्चे बहुत डरते थे । इस के विपरित, अब बच्चों से शिक्षक डरने लगे हैं । कहीं बच्चा कुछ कह न दें । अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाएगा।

इसी अनर्थ ने बच्चों को अर्थयुक्त युक्ति और शिक्षा से दूर कर दिया है । बच्चों ने भी अब निडर रहना सीख लिया है । इससे उनमें अनुशासनहीनता घर कर गई है । यानि जिसे वे पसंद नहीं करते उस की बात मानना छोड़ दिया हैं । यह धारणा उनमें फलीभूत हो गई है। जिसे उन के मित्र, पत्रकार साथी और पालक हवा दे रहे हैं। इसी बहती हवा से उन में अनुशासनहीनता की प्रवृति बढ़ रही हैं ।

बचीकुची कसर राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने पूरी कर दी । जब से आरटीई आया है तब से बच्चे ने पढ़ना बंद कर दिया हैं। उसे पता है कि वह पढ़े या न पढ़े, उसे कोई अनुतीर्ण नहीं कर सकता हैं । इस से वे आलसी हो गए हैं । इसी वजह से उन्होंने पढ़ना बंद कर दिया है। डरे हुए शिक्षकों ने पढ़ाना छोड़ दिया है।

बच्चा पढ़ाई से दूर होता चला गया है। संस्कार की जगह उद्दंडता में उत्तीर्ण होने की कोशिश लगा हैं।  डर की जगह दूसाहस ने ले ली और वह उस में पास होने लगा ।

पढ़ने की जगह देखने ने ले ली है। यानी हर चीज उसे देखना पसंद आने लगी है। पुस्तक देखने और कहानी सुनने की जगह देखने में उस की रुचि बढने लगी।  शिक्षक ने कुछ कहा तो वह उसे भी ‘देख’ लेने की कोशिश करने लगा है । वह यह नहीं ‘देख’ पाता है तो उसके माता-पिता और पत्रकार ‘देख’ लेने की धमकी दे देते हैं ।

यही वजह है कि बच्चा अपने माता-पिता को दूसरे के पास ‘देख’ कर खुश होता रहता है । उसे सरकार से मिली सुविधा की कारस्तानी की कार चाहिए । वह संस्कार से मिली कार से दूर होने लगा है ।

बस यही फर्क रह गया है शिक्षक के कल, आज और कल की भूमिका में ।  उस की गरिमा और गौरव अब घट गया हैं । उस की पहले जो पूछपरख थी वह अब कम हो गई । इस वजह से उसकी गरिमा में से गुरुता चली गई है।

अब शिक्षा का मंत्र उस के गुण में समा गया है । संस्कार चले गए हैं। काम चोरी की निडरता आ गई है। छात्रों में शिक्षकों को सम्मान करने की परंपरा नहीं रही है । इस के विपरित उनका पुतला जलाने की विचारधारा हावी होने लगी है।

गुरु का दूर नियंत्रक मंत्र अब दूसरे के हाथ में चला गया हैं ।  पहले गुरु को देखकर बच्चा हाथ में पकड़ी सिगरेटबीड़ी छूपा लेता था अब वह गुरु को बीड़ी सिगरेट हाथ में देने लगा है । पहले विद्या सीखी जाती थी  जाती थी। अब केवल उत्तीर्ण होने के लिए पढ़ी जाती है ।

बस यही अंतर रह गया है कल, आज और कल के गुरु और उस की शिक्षा में ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

* वो शिक्षक कम, पालक ज़्यादा थे *

 

मेरे करकरे सर। प्यार से उन्हें सभी बापू कहते। अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। वो भी बग़ैर मानदेय। सरकारी कॉलेज से रिटायर्ड थे। दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। घर में बस पति पत्नि। मुझसे उनका बहुत लगाव रहा। अंग्रेज़ी में एक बार मैंने निबंध लिखा, वो भी चार धाम यात्रा पर। उन्हें इतना पसंद आया कि कभी तारीफ़ न करने वाले, उन्होंने जमकर तारीफ़ की। बड़ा अच्छा लगा। तब शिक्षक काफ़ी स्ट्रिक्ट हुआ करते थे। बच्चों को सुधरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। बीमार होने पर वे होम्योपैथी की दवा बनाकर कई बार घर भी पहुँचा जाते। और उनकी दवा से मैं ठीक भी हो जाती। ये हुआ करता था आपसी रिश्ता, एक शिक्षक और छात्रों के बीच। मुझे अच्छे से याद है कि जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर हुआ तो उन्होंने कहा था, पापा का नाम लेकर कि बेटा इसे मेरे पास छोड़ जाओ। बिलकुल चिंता मत करना। मैं इसे अपनी बेटी ही मानता हूँ। बड़ी हो गई है, मेरी गाड़ी दे दूँगा। कहीं भी अकेले नहीं जाना पड़ेगा। मेरे पापा भी बहुत भावुक हो गए थे उनकी बातें सुनकर। लेकिन वो भी अपनी बेटी को किसी को सौंपना नहीं चाहते थे। हम लोग ग्वालियर शिफ़्ट हो गए। सर ने “पेड़” पर एक लेख लिखा था और कहा था कि बेटा तुम अब पत्रकार हो। अच्छा लगे तो कहीं छपवा देना। मैंने उसे अभी तक बहुत सम्भालकर रखा था। लेकिन अबकि ट्रांसफर में कहीं दाएँ बाएँ हो गया। उसका मुझे बहुत दुःख होता है। लेकिन मैं अपने सर को हमेशा याद करती हूँ। उनकी छवि मेरे दिमाग़ में अंकित है, जिसे कोई मिटा नहीं सकता। उनके जैसे कर्तव्यनिष्ठ, सही मायने में समाजसेवी, परोपकारी, ज्ञानी, सभी छात्रों को अपना बच्चा मानने वाले और घर में भी मुफ़्त शिक्षा बाँटने वाले मेरे शिक्षक को मेरा हमेशा ही प्रणाम और नमन रहेगा। शायद इस पीढ़ी में ये सम्बंध और गहरा विश्वास डोल चुका है।

समीक्षा तैलंग, पुणे (महाराष्ट्र)

 

स्मिता रविशंकर

शिक्षा और शिक्षक – आज और कल 

शिक्षक आज नये विचारो के होगें ऐसा हमें लगता है, पर शिक्षा के कई क्षेत्रों में पुरानी घिसी-पिटी परंपरा कहकर पुरानी विचारधारा ही दिखाई देती है।

आदि काल मे सीमित लोगों को ही पढ़ने का हक था। हम बरसों गुलाम रहे। हम सभी को पढ़ने का हक तो मिला किन्तु, ऐसा लगता है कि हमें मैं, मेरा और अहंकार आदि से आज घमंड ही ले डूब रहा है।

शायद मेरा अनुभव अच्छा न रहा हो। कहीं-कहीं पर आज भी कुछ शिक्षक भेदभाव कर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आज हर गाँव में शालाएँ हैं किन्तु शिक्षा देने वाले अच्छे शिक्षकों का अभाव है। मेरे विचार से आदर्श शिक्षकों को बिना किसी जाति, धर्म आदि भेदभाव से अलग होकर छात्रों में बिना कोई खामियाँ निकाले शिक्षा देना चाहिए। भेदभाव की भावना वाले शिक्षक से दी गई शिक्षा से तो …..

कभी कभी लगता है कि आज अगर पुस्तकें और इंटरनेट ना होता तो क्या होता? शायद समाज पिछड़ा होता या…. आत्मविश्वास मेहनत और गरीबी के साथ ही आगे जा रहा होता….

ऐसे शिक्षक और शिक्षा का क्या फायदा …..

जिन्होने खुद की सोच और विचारधारा में कोई प्रगति नहीं की….

जो समाज को बड़ी बड़ी बातें बताकर खुद को नहीं बदल नहीं सके….

प्रकृति ने सबको समान बनाया है, समान बुद्धि दी है, उसका आप कैसे उपयोग करते हैं वह आप पर छोड़ दिया है। अच्छी पुस्तकें ही आपकी अच्छी शिक्षक हैं।

स्मिता रविशंकर