हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 25 – लघुकथा – चुनाव के बाद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की लघुकथा में  डॉ परिहार जी ने चुनाव के पूर्व एवं चुनाव के बाद नेताजी के व्यवहार परिवर्तन का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है।  यह  किस्सा तो हर के बाद का है यदि जीत के बाद का होता तो भी शायद यही होता ? ऐसी सार्थक लघुकथा  के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनकी  का ऐसे ही विषय पर एक लघुकथा  “चुनाव के बाद”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 25 ☆

☆ लघुकथा – चुनाव के बाद ☆

 

महान जनसेवक और हरदिल-अज़ीज़ नन्दू बाबू चुनाव में उम्मीदवार थे। आठ दिन में वोट पड़ने वाले थे। नन्दू बाबू के घर में चमचों का जमघट था—-तम्बाकू मलते चमचे, चाय पीते हुए चमचे, सोते हुए चमचे, बहस करते चमचे, मस्का लगाते हुए चमचे। दीवारों से तरह तरह की इबारतों वाली तख्तियां टिकीं थीं—-‘नन्दू बाबू की जीत आपकी जीत है’, ‘नन्दू बाबू को जिताकर प्रजातंत्र को मज़बूत कीजिए।’

एकाएक नन्दू बाबू के सामने उनकी पत्नी, आठ साल के बेटे का हाथ थामे प्रकट हुईं। उनके मुखमंडल पर आक्रोश का भाव था। चमचों से घिरे पति को संबोधित करके बोलीं, ‘सुनो जी, तुमने इन छोटे आदमियों को खूब सिर चढ़ा रखा है। उस दो कौड़ी के हरिदास के लड़के ने बल्लू को मारा है।’

नन्दू बाबू उठकर पत्नी के पास आये। मीठे स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करती हो गुनवन्ती? वक्त की नज़ाकत को पहचानो। तुम राजनीतिज्ञ की बीवी होकर ज़रा भी राजनीति न सीख पायीं। यह वक्त इन बातों पर ध्यान देने का नहीं है।’

इतने में एक चमचे ने खबर दी कि बाहर हरिदास खड़ा है। नन्दू बाबू बाहर गये। हरिदास दुख और ग्लानि से कातर हो रहा था। बोला, ‘बाबूजी, लड़के से बड़ी गलती हो गयी। उसने छोटे बबुआ पर हाथ उठा दिया। लड़का ही तो है, माफ कर दो।’

नन्दू बाबू हरिदास की बाँहें थामकर प्रेमपूर्ण स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हो हरिदास? उन्नीसवीं सदी में रह रहे हो क्या? अब कौन बड़ा और कौन छोटा? सब बराबर हैं। और फिर बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’

चुनाव का परिणाम निकला। नन्दू बाबू चारों खाने चित्त गिरे। सब मौसमी चमचे फुर्र हो गये। स्थायी चमचे दुख में डूब गये। घर में मनहूसी का वातावरण छा गया।

परिणाम निकलने के दूसरे दिन हरिदास अपने घर में लेटा आराम कर रहा था कि गली में भगदड़ सी मच गयी। इसके साथ ही कुछ ऊँची आवाज़ें भी सुनायी पड़ीं। उसके दरवाज़े पर लट्ठ का प्रहार हुआ और नन्दू बाबू की गर्जना सुनायी पड़ी, ‘बाहर निकल, हरिदसवा! तेरे छोकरे की यह हिम्मत कि मेरे लड़के पर हाथ उठाये?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से ☆ पाठशाला ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पाठशाला अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से 

☆ पाठशाला ☆

 

लगती है परिंदों की पाठशाला ,

वृक्ष की कक्षाओं में ।

गूँज उठती हैं हर दिशा ,

इस पाठ के दुहराव में ।

 

चीं -चीं करती माँ चिड़ियाँ ,

क्या कुछ नन्हे को सिखलाती है ।

कुछ आरोहित स्वर में ,

घटनाक्रम समझाती है ।

 

मैं खिड़की से देख दृश्य ,

भ्रमित हर बार हो जाती हूँ ।

इतने शब्द है मेरे पास ,

पर ना अंश को समझा पाती हूँ ।

 

नन्हे परिन्दें माँ की सीख

आत्मसात कर जाते है ।

अंश मेरी सीख पर

प्रश्न चिन्ह लगाते है ।

 

क्या मस्तिष्क का विकसित होने

विकास की निशानी है ।

या परिदों सा जीवन जीना ,

जीवन  की कहानी है ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र




हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # सात ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # सात ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

11.11.2019 सुबह-सुबह घुघरी से यात्रा पुनः प्रारंभ हुई। नदी किनारे रास्ता सफर करने लायक न था सो गांव से होकर निकले।

कोई दो किलोमीटर दूर एक गौड़ परिवार के आशियाने में रुके। उसने सीताफल खाने को दिया और भैंस का ताजा दूध पीने को। उनके भोजन में शाकाहार और मांसाहार दोनों हैं। बटेर, खरगोश और मछली भोजन हेतु आसानी से मिल जाते हैं। आगे बढ़े  तो अन्नीलाल लोधी पत्नी व दो पुत्रों के साथ अपने खेत में आलू बोते दिखे।  उन्होंने नर्मदे हर के साथ हमारा स्वागत किया और चाय पिलाई ।

डांगर टीले पार करते हुए महादेव पिपरिया गांव पहुंचे। गांव में नर्मदा तट पर भगवान शंकर की विशालकाय लिंग है और यह  शिव मंदिर इस गांव की पहचान बन गया है।  लोग इसे मोटा महादेव भी कहते हैं। अन्य देवी देवताओं के  भी मंदिर हैं पर वे अपेक्षाकृत नये हैं।

यहां से हमें पुनः नदी के किनारे पर चलने का मौका मिला। उत्तरी तट की ओर एक छोटी पर्वत माला ने हमें आकर्षित किया। ग्रामीणों ने बताया यह झिल्पी ढाना है, भोपाल तक गई है। हमें मैकलसुता के दादा विन्ध्य पर्वत की एक और श्रृंखला के दर्शन हो गये। पौराणिक कथाओं के अनुसार नर्मदा का उद्गम स्थल मैकल, विन्ध्य पर्वत का पुत्र है।  कुछ दूर चले होंगे कि एक अद्भुत चट्टाननुमा आकृति ने आकृष्ट किया। समीप जाकर देखा तो समझ में आया कि यह करोड़ों वर्ष पूर्व किसी प्राकृतिक हलचल का साक्षी वृक्ष का जीवाश्म है।

नदी किनारे खेती-बाड़ी की तैयारियों में अब तेजी दिखने लगी है। जगह जगह किसानों ने तट पर बबूल आदि कंटीले वृक्षों की बारी लगा दी है तो कहीं कहीं बोनी के पहले स्प्रिकंलर से सिंचाई भी  हो रही है। रास्ता फिसलन भरा होने से सम्भल कर चलना पड़ता है। कहीं कहीं छोटे छोटे नाले भी हैं वहां जमीन दलदली है, हमारे एक साथी असावधानी वश ऐसे ही दलदल में फंस गये और किसी तरह बाहर निकलने में सफल हुए।

नदी किनारे चलते चलते-चलते हम करहिया गांव पहुंचे। नदी का तट रेतीला था अतः हम सबने स्नान किया और समीप ही  ग्राम पंचायत द्वारा निर्मित सामुदायिक भवन में विश्राम हेतु व्यवस्था की। गांव का मिडिल स्कूल भी सामने था व स्कूल की शिक्षिका रजनी मेहरा से अपना प्रयोजन बता बच्चों से गांधी चर्चा की इच्छा जताई वे सहर्ष तैयार हो गई। मैंने और प्रयास जोशी ने मोर्चा संभाला बच्चों को गांधी जी की जीवनी और संस्मरण सुनाए। सामने प्राथमिक शाला के बच्चों ने अविनाश को घेर लिया और पढ़ाने का आग्रह किया। बच्चों की बात भला कौन टालता है। हमने स्मार्ट कक्षा का टीव्ही देखा। कमलेश पटैल, शिक्षक ने बताया कि बच्चे स्कूल आते नहीं हैं और वे स्मार्ट टीवी से कार्टून आदि दिखाकर बच्चों को स्कूल आने आकर्षित करते हैं।

मेरे पास गांधी जी एक पुस्तक ‘ रचनात्मक कार्यक्रम’ बची थी वह मैंने कमलेश पटेल को दे दी।  उधर सामुदायिक भवन में हमें मुन्नालाल लोधी मिल गये, उन्होंने दोपहर के भोजन दाल बाटी की व्यवस्था कर दी। हमने कुछ देर आराम किया और नदी किनारे चलते चलते गरारु घाट पहुंचे। यहां तट पर नरेश लोधी मिल गये। वे गांव में नर्मदा पुराण कथा के आयोजन में शामिल हैं। हमें आग्रह पूर्वक चांदनी पंडाल के नीचे रात्रि विश्राम हेतु रोक लिया। बिछाने को गद्दे लेकर हम लेट गये। जब करहिया में दाल बाटी बनी तो अविनाश के पास घी था उसे गुड़ में मिलाकर चूरमा बना लिया था। यहीं चूरमा हमारा डिनर था ।

गरारू तट से नर्मदा की कल-कल करती प्रवाहमान थी, कल-कल की यह ध्वनि केवल घाट पर ही सुनाई देती थी। उधर आकाश में चौदहवीं का चांद अपनी छटा बिखेरते हुए दर्शन दे रहा था। हमने कोई एक बजे रात उसे अपने कैमरे में कैद किया।आज परिक्रमा में तट पर सोने का आनंद लिया।

 




हिन्दी साहित्य – कविता/ग़ज़ल ☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

 

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य  की ,गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी एक आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल  “मेरे घर का मंज़र देखना ”. )

 

☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆

 

तुम कभी  आकर के मेरे घर  का मंज़र देखना,

दर्द के बिस्तर पे  फ़ैली ग़म की चादर देखना।

 

रात की तन्हाई में जब मैं लिखूंगी खत कभी,

आग में लिपटे  हुए  अक्षर उठाकर देखना।

 

खुद समझ जाओगे तुम पीडा मेरे मन की जनाब,

एक पल मेरी जगह पर खुद को लाकर देखना।

 

आईनो को छोडकर खुदको कभी तन्हाई में,

दीन-ओ-ईमान की मूरत बना कर देख्नना।

 

लोग धोखा खायेंगे इस बार भी ‘शुभदा’ सुनो

खोखली मुस्कान चेहरे पर सजाकर देखना।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ।।28।

 

किन्तु द्वन्द से मुक्त जो सदाचारी सज्ञान

नष्ट पाप हो मुझे ही जपते ईश्वर जान।।28।।

 

भावार्थ :  परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।।28।

 

But those men of virtuous deeds whose sins have come to an end, and who are freed from the delusion of the pairs of opposites, worship Me, steadfast in their वोस। ।।28।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  मृत्यु!

मृत्यु क्या है..?

फोटो का फ्रेम में टँक जाना,

जीवन क्या है…?

फ्रेम बनवाना, फोटो खिंचवाना,

एक सिक्के के दो पहलू हैं,

कभी इस ओर आना

कभी उस पार जाना…!

आजका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 – पंचमुखी हनुमान ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “पंचमुखी हनुमान ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 ☆

☆ पंचमुखी हनुमान

 

मकरध्वज ने भगवान हनुमान से कहा कि महल में प्रवेश करने से पहले उन्हें उससे लड़ना होगा। क्योंकि वह अपने स्वामी अहिरावण के साथ छल नहीं कर सकता है, और सेवक धर्म का पालन करने के लिए अपने पिता का सामना करने के लिए भी तैयार है। मकरध्वज की भक्ति और वचनबद्धता को देखकर, भगवान हनुमान खुश हुए और उसे आशीर्वाद दिया । उसके बाद भगवान हुनमान और मकरध्वज के बीच संग्राम हुआ जिसमे भगवान हनुमान विजयी हुए । उसके बाद उन्होंने मकरध्वज को बंदी बना दिया और भगवान राम और लक्ष्मण की खोज में महल में प्रवेश किया ।

वहाँ पर भगवान हनुमान चन्द्रसेना (अर्थ : चंद्रमा की सेना) से मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि अहिरावण को मारने का एकमात्र तरीका पाँच अलग-अलग दिशाओं में जलते दीपकों को एक ही फूँक से बुझाना है । ऐसा करने के लिए भगवान हनुमान ने पाँच चेहरों के साथ पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया, जो घरेलू प्रार्थनाओं के लिए बहुत शुभ है ।

भगवान हनुमान ने अपने मूल चेहरे के अतरिक्त वरहा, गरुड़, नृसिंह और हयग्रीव चेहरे चार दिशाओं में निकाले और इस प्रकार उनके पाँच दीपक एक साथ बुझाने के लिए पाँच चेहरे दिखाई देने लगे। भगवान हनुमान का मूल चेहरा पूर्व दिशा में था, वरहा उत्तर दिशा, गरुड़ पश्चिम दिशा नृसिंह दक्षिण दिशा में, और हयग्रीव वाला चेहरा ऊपर की ओर को था ।

इन पाँच चेहरों का बहुत महत्व है। भगवान हनुमान का मूल चेहरा जो पूर्वी दिशा में है, पाप के सभी दोषों को दूर करता है और मन की शुद्धता प्रदान करता है। नृसिंह का चेहरा दुश्मनों के डर को दूर करता है और जीत प्रदान करता है। गरुड़ का चेहरा बुराई के मंत्र, काले जादू प्रभाव, और नकारात्मक आत्माओं को दूर करता है; और किसी के शरीर में उपस्थित सभी जहरीले प्रभावों को हटा देता है। वरहा का चेहरा ग्रहों के बुरे प्रभावों के कारण परेशानियों से गुजरते व्यक्तियों को आराम प्रदान करता है, और सभी आठ प्रकार की समृद्धि (अष्ट ऐश्वर्य) प्रदान करता है। ऊपर की ओर हयग्रीव का चेहरा ज्ञान, विजय, अच्छी पत्नी और संतान को प्रदान करता है ।

भगवान हनुमान के इस रूप (पाँच मुखों वाले हनुमान) का वर्णन पराशर संहिता (ऋषि पराशर द्वारा लिखित एक अगामा पाठ) में भी किया गया है। भगवान हनुमान का यह रूप बहुत लोकप्रिय है और पंचमुखी मुखा अंजनेय (पाँच चेहरों के साथ अंजना का पुत्र) भी कहा जाता है । इन चेहरों से पता चलता है कि दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन पाँच में से किसी ना किसी चेहरे के प्रभाव के तहत नहीं आता है, और जो सभी भक्तों के लिए सुरक्षा प्रदान करता है । ये पाँच चेहरे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊपर की दिशा पर सतर्कता और नियंत्रण का प्रतीक है ।

प्रार्थना के पाँच रूप, नमन, स्मरण,कीर्तन, यचनाम और अर्पण के पाँच तरीके हैं। पाँच चेहरे इन पाँच रूपों को दर्शाते हैं ।

पाँच चेहरे प्रकृति के निर्माण के पाँच तत्वों के अनुसार भी हैं। गरुड़ अंतरिक्ष को दर्शाता है, भगवान हनुमान ने वायु को इंगित किया है, नृसिंह अग्नि को दर्शाता है, हयग्रीव पानी को दर्शाता है, और वरहा पृथ्वी तत्व को दर्शाता है ।

इसी तरह पाँच चेहरे मानव शरीर के पाँच महत्वपूर्ण वायु या प्राणों को भी दर्शाते हैं। गरुड़ उदान के रूप में, भगवान हनुमान प्राण के रूप में, नृसिंह समान के रूप में, हयग्रीव व्यान और वरहा अपान के रूप में ।

तो इस पंचमुखी रूप में, भगवान हनुमान एक ही समय में सभी पाँच दीपक बुझाने में सक्षम हुए। उसके बाद उन्होंने चाकू के एक तेज झटके के साथ अहिरावण को मार दिया। भगवान हनुमान अंततः भगवान राम और लक्ष्मण को बचाकर, अहिरावण को मारने और विभीषण को दिए गए वचन को पूरा करने में सफल हुए ।

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  विधुर बंधुओं को समर्पित एक कविता – आर्तनाद

श्री सूबेदार पाण्डेय जी के शब्दों में  – ‘आर्तनाद’ का अर्थ है, दुखियारे के दिल की दर्द में डूबी आवाज।  कवि की ये रचना उसी बिछोह के पीड़ा भरे पलों का चित्रण करती है। जब जीवन में साथ चलते-चलते जीवनसाथी अलविदा हो जाता है, तब रो पड़ती हैं दर्द में डूबी आँसुओं से भरी आँखें, और जुबां से निकलती है गम के समंदर में डूबी हुई आवाज। यह रचना समाज के विधुर बन्धुओं को समर्पित है।)

☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद  ☆

 

हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई,
अब मैं तुमसे मिल न सकूंगा।
अपने सुख-दुख मन की पीड़ा,
कभी किसी से कह न सकूं गा।

 

घर होगा परिवार भी होगा,
दिन होगा रातें भी होगी।
रिश्ते होंगे नाते भी होंगे,
फिर सबसे मुलाकातें होगी।

 

जब तुम ही न होगी इस जग में,
फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।1।।

 

मेरे जीवन में ऐसे आई तुम,
जैसे जीवन में बहारें आई थी।
सुख दुःख में मेरे साथ चली,
कदमों से कदम मिलाई थी।

 

जब थका हुआ होता था मैं,
तुमको ही सिरहाने पाता था।
तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श,
मेरी हर पीड़ा हर लेता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।2।।

 

इस जीवन के झंझावातों में,
दिन रात थपेड़े खाता था।
फिर उनसे टकराने का साहस,
मैं तुमसे ही तो पाता था ।

 

रूखा सूखा जो भी मिलता था,
उसमें ही तुम खुश रहती थी,
अपना गम और अपनी पीड़ा,
क्यों कभी न मुझसे कहती थी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।3।।

 

मेरी हर खुशियों की खातिर,
हर दुख खुद ही सह लेती थी।
मेरे आँसुओं के हर कतरे को,
अपने दामन में भर लेती थी।

 

जब प्यार तुम्हारा पाता तो,
खुशियों से पागल हो जाता था।
भुला कर सारी दुख चिंतायें
तुम्हारी बाहों में सो जाता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।4।।

 

तुम मेरी जीवन रेखा थी,
तुम ही  मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,
तुम ही तो आवाज थी।

जब नील गगन के पार चली,
मेरे शब्द खामोश हो गये।
बिगड़ा जीवन से ताल-मेल,
मेरे हर सुर साज खो गये।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।5।।

मँझधार में जीवन नौका की,
सारी पतवारें जैसे टूट गई हो।
तूफानों से लड़ती मेरी कश्ती,
किनारे पर जैसे डूब रही हो।

मेरे जीवन से तुम ऐसे गई,
मेरी बहारें जैसे रूठ गई हो।
इस तन से जैसे प्राण चले,
जीने की तमन्ना छूट गई हो।

शेष बचे हुए दिन जीवन के,
तुम्हारी यादों के सहारे काटूंगा,
अपने पीड़ा अपने गम के पल,
कभी नहीं किसी से बाटूंगा।

तुम्हारी यादों को लगाये सीने से,
अब बीते कल में मैं खो जाउंगा।
ओढ़ कफन की चादर इक दिन,
तुमसा गहरी निद्रा में सो जाऊंगा।

।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।6।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266




हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆ विजय ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “विजय”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆

☆ विजय

कालरात्रि पर विजय पाना,
बड़ा कठिन होता है।
पर अमावस हो या हो पूनम,
जीना सिखलाता है…..

अंबर से एक तारा टूटे,
उसे क्या फर्क पड़ता है
जिनका एक मात्र सहारा छूटे,
उन्हें जीना तो पड़ता है…..

लंका दहन हो मर्कट का
या कुरूक्षेत्र का चक्रव्यूह हो
शत्रु पर पाने को विजय
भेदन तो करना पड़ता है…..

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684



हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

10.11.2019 सुबह अविनाश भाई दवे जबलपूर से चलकर नरसिंहपुर होते हुए सांकल आने वाले थे, अतः हम सभी साहू जी से विदा लेकर बस स्टैंड आ गये गुड़ की जलेबी और समोसे का नाश्ता किया और उस चबूतरे पर बैठ गए जहां कल सायंकाल ग्रामीण जन चौपड़ खेल रहे थे।

पैंट शर्ट धारी परिक्रमावासियों के विषय में कल से ही गांव में चर्चा थी अतः हमें देखते ही ग्रामीण एकत्रित हो गए। पटवाजी ने पुनः महाभारत की कथा सुनाना शुरू कर दिया। यह जोशी जी को पसंद नहीं आया और उन्होंने धीरे से इसे रोजगारपरक शिक्षण-प्रशिक्षण की दिशा दी, गांधी चर्चा भी हुई और कुछ प्रतीकात्मक सफाई भी। बस स्टैंड के दुकानदारों ने कचरा संग्रहण हेतु डब्बे रखें हैं पर इसका सार्वजनिक डिस्पोजल नहीं होता है अतः यह कचरा दुकानों के पीछे फेंक दिया जाता है।

मेरी इच्छा हुई कि सरपंच से इस संबंध में बात करनी चाहिए पर उनसे मुलाकात असंभव ही रही। यहां संतोष सेन मिले, वे पेशे से नाई हैं, और दंबगों से उन्होंने बैर लिया, जिससे रुष्ट हो दंबगों ने उन पर तेजाब फेंक दिया था। लेकिन इस दुर्घटना के बाद वहां दंबगई खत्म हुई और लोगों की दुकानें खुली।

धानू सोनी मिले। वे परिक्रमा करने वालों को चाय नाश्ता उपलब्ध कराते हैं। हमें भी उन्होंने चाय पिलाई पर मूल्य न लिया। हमने उनकी पुत्री के हाथ कुछ रुपये रख विदा ली। यहीं सिलावट परिवार से मुलाकात हो गई,  उन्होंने मुआर घाट से परिक्रमा उठाई थी। मैंने उनसे पुश्तैनी पेशा के बारे में पूंछा, वे न बता सकें, खेती-बाड़ी करते हैं, ऐसा बताया। शरद तिवारी, सोशल वर्कर हैं, नर्मदा में प्रदूषण, अतिक्रमण, तराई में फसल आदि को लेकर चिंतित दिखाई दिये।

कोई साढ़े नौ बजे अविनाश की बस आ गई और हम नहर मार्ग से अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर चले होंगे कि राजाराम पटैल मिल गये, उन्होंने प्रेम के साथ अपने खेत का गन्ना हमें चूसने को दिया। हम लोगों में से केवल पटवाजी ही गन्ने को दांत से छीलकर चूस सके बाकी ने उसे पहले हंसिया से चिरवाया फिर चूसा।  रास्ते भर गन्ने के खेत और बेर की झाड़ियां मिली। पके मीठे बेर खूब तोड़ कर खाते हुए हम आगे बढे।

गुढवारा के रास्ते में हमें आठवीं फेल कैलाश लोधी मिल गये। वे बड़े प्रेम से हम सबको घर ले आए चाय पिलाई और अपने पुत्र रंजीत लोधी से मिलवाया। रंजीत ने इंदौर के निजी कालेज से बी ई किया है और पीएससी की तैयारियों में लगे हैं। कहते हैं कि जनता की सेवा करने शासकीय सेवा में जाना चाहते हैं। पटवाजी ने उन्हें अपनी पुस्तक गुलामी की कहानी से कुछ उद्धरण सुनाये।

गांव से निकलकर हम पुनः नर्मदा के किनारे आ गये। तट पर रेत पत्थर न थे सो नहाया नहीं और आगे बढ़ चले।  कुछ दूर चले होंगे कि नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई देने लगी। आश्चर्य हुआ, झांसी घाट से अभी तक हमने शांत होकर बहती नर्मदा के दर्शन किये थे, यहां नर्मदा संगीतमय लहरियों के साथ बह रही थी। यह घुघरी घाट है। यहां नर्मदा पत्थरों के बीच कोलाहल करती प्रवाहमान है। उत्तरी तट की ओर से विन्ध्य पर्वत माला की हीरापुर श्रृंखला के दर्शन होते हैं। तट पर हम सबने विश्राम किया और नहाया। कल-कल ध्वनि इतनी मधुर थी कि उठने का मन ही न हुआ।

हम सबने अविनाश भाई के द्वारा लाई गई मेथी की भाजी की पूरियां, आवलें के अचार और घी के साथ खाई और कुछ विश्राम किया। अविनाश स्वादिष्ट भोजन के प्रेमी हैं। यह गुण उन्हें उनके माता व पिता से विरासत में मिला है। बाबूजी बताते थे कि हमारे फूफा, अविनाश के पिता, स्वादिष्ट खेडावाडी व्यंजनों के बड़े प्रेमी थे। अविनाश के बैग का एक खंड खाद्य सामग्री से भरा है। उसके पास चाय काफी से लेकर पोहा,नमकीन, अचार, मैगी मसाला लड्डू सब मिल जायेगा। हमने घुघरी घाट में नर्मदा के साथ कोई दो घंटे बिताए और फिर  रात्रि विश्राम के लिए ठौर ढूंढने घुघरी गांव की ओर चल पड़े। यहां चढ़ाई सांकल घाट की तुलना में कम थी।

एक जगह टीलों के कटाव की मैं फोटो खींचने लगा। इतने में एक गौड़ अधेड़ दिखा चर्चा चली कि पेड़ लगे होते तो यह टीले ऐसे न कटते। उसने बताया कि यह नदी की बाढ का नहीं मनुष्य की लालच का फल है। नहर में मिट्टी भराई कार्य हेतु जेसीबी मशीनों के तांडव का नतीजा है। दुःखी मन ने सोचा कि हम ईशोपनिषद के श्लोकों को भी भूल गये हैं। गांधीजी ने हिंद स्वराज में मशीनों का उपयोग सोच समझकर करने कहा था। उनकी चेतावनी हमने नहीं मानी और यह  अब पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। थोड़ी दूर पर बम-बम बाबाजी द्वारा संचालित श्री राधाकृष्ण मंदिर धर्मशाला है। बाबा की उम्र अस्सी के आसपास है और परिक्रमा पश्चात घर-बार छोड़कर यहां बस गये हैं। परिजन व पत्नी अक्सर मिलने आते रहते हैं। वहीं रात कटी बाबा ने भोजन व्यवस्था की और हम लोगों ने मोटे-मोटे टिक्कड मूंग की दाल के साथ उदरस्त किये।

आश्रय स्थल  के सामने स्थित विशालकाय बरगद वृक्ष देखा। पेड़ काफी पुराना है और लगभग सात आठ स्तंभ हैं। नर्मदा तट के निवासियों ने जगह जगह बट, पीपल, इमली आदि के वृक्ष लगाए हैं इससे कटाव रूकता है। पर यह वृक्षारोपण दो पीढ़ियों के पहले का है अब तो युग अपना और केवल अपना भला सोचने का है। परहित सरिस धर्म नहिं भाई का जमाना हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )