हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 – शक्ति का मद ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “शक्ति का मद।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 ☆

 

☆ शक्ति का मद 

 

राम, नाम अग्नि बीज मंत्र (रा) और अमृत बीज मंत्र (मा) के साथ संयुक्त है, अग्नि बीज आत्मा, मन और शरीर को ऊर्जा देता है एवं अमृत बीज पूरे शरीर में प्राण शक्ति (जीवन शक्ति) को पुन: उत्पन्न करता है । राम दुनिया का सबसे सरल, और अभी तक का सबसे शक्तिशाली नाम है । भगवान राम कोसला साम्राज्य (अब उत्तर प्रदेश में) के शासक दशरथ और कौशल्या के यहाँ सबसे बड़े पुत्र के रूप में पैदा हुए, भगवान राम को हिंदू धर्म के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पूर्ण पुरुष’ या ‘स्व-नियंत्रण भगवान’ या ‘पुण्य के भगवान’ । उनकी पत्नी देवी सीता को पृथ्वी पर अवतारित एक महान स्त्री माना जाता हैं जो वास्तव में किसी के लिए भी आदर्श की परिभाषा है उन्हें हिंदु देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं ।

भगवान राम अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी सौतेली माँ कैकेयी (अर्थ : भाग्य, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की चरम सीमा) को दिए वचनों के पालन हेतु 14 सालोंतक के लिए वन  में रहने आये थे ।

दशरथ – दश का अर्थ नंबर दस तक की गिनती है और रथ का अर्थ युद्ध में प्रयोग करने वाला वहान, इसलिए दशरथ का शाब्दिक अर्थ है दस रथ। दशरथ को यह नाम मिला क्योंकि उनके पास दस दिशाओं में रथ चलाने की अनूठी क्षमता थी। परंपरागत रूप से हम केवल आठ दिशाओं को जानते हैं- उत्तर (उत्तर), दक्षिणी (दक्षिण), पूरव (पूर्व), पश्चिम (पश्चिम), ईशान (उत्तर पूर्व), आग्नेय (दक्षिण पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम), वायव्य (उत्तर पश्चिम), और इन पारंपरिक आठ दिशाओं के अतिरिक्त, दशरथ ऊर्ध्व (आकाश की ओर ऊपर को) और अदास्था(पाताल की ओर नीचे को) में रथ चला सकते थे ।

भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीताऔर छोटे भाई लक्ष्मण (अर्थ : भाग्यशाली अंग, अन्य अर्थ ‘लक्ष’ का अर्थ है लक्ष्य और ‘मन’ का अर्थ ‘मन’ है, इसलिए लक्ष्मणअर्थात जिसका मस्तिष्क हमेशा लक्ष्य पर रहता है) के साथ वन में रह रहे थे ।

सीता – जनकपुर के राजा जनक ( अर्थ : निर्माता) और उनकी पत्नी रानी सुनैना (अर्थ : सुंदर आँखें) की पुत्री, एवं उर्मिला (अर्थ : मोहिनी) और चचेरी बहन मंडवी (अर्थ : पारदर्शी ह्रदय वाली) और श्रुतकीर्ति (अर्थ : चरम प्रसिद्धि) की बड़ी बहन थीं। वह देवी लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आदिशक्ति), धन की देवी और विष्णु की पत्नी का अवतार थीं। उन्हें सभी हिंदू स्त्रियों के लिए पारिवारिक और स्त्री गुणों के एक आदर्श स्त्री माना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

 




मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆ ताई बालवाड़ी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। हम श्रीमती उर्मिला जी के आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” शीर्षक से  प्रारम्भ करने हेतु अपनी अनुमति प्रदान की। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख नवनिर्मिती  

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆

 

☆ ताई बालवाडी ☆

 

सकाळी उठल्यावर हातात वर्तमानपत्र घेतलं..लक्षात आलं आज दहावीचा निकाल आहे त्यामुळे अख्ख्या पेपरमध्ये त्याच बातम्या !

तेवढ्यात माझं लक्ष १०० टक्के निकाल लागलेल्या शाळांच्या बातमीकडं गेलं.दुर्गम व डोंगराळ अशा भागातल्या एका माध्यमिक शाळेच्या निकाल १०० टक्के लागला हे वाचून माझं मन भुर्रकन पस्तीस वर्षामागं गेलं..

१९८३ साल होतं मी शिक्षण विभागात बदलून आल्याने माझ्या कामाचा चार्ज मी यादीप्रमाणे पाहून घेत होते.तेवढ्यात ‘ताई बालवाड्या ‘ असं शीर्षक असलेल्या एका फाईलनं माझं लक्षं वेधून घेतलं.मी समाज कल्याण विभागाच्या बालवाड्यांचं काम केलं होतं पण हे ‘ताई बालवाडी ‘प्रकरण जरा वेगळंच वाटलं म्हणून उत्सुकतेनं अख्खी फाईलच मी तिथं बसल्या बसल्या वाचून काढली.

त्यांचं असं होतं, ज्या ठिकाणी यापूर्वी कसलीही शिक्षणाची सोय नाही अशा २०० ते ५०० लोकवस्ती असलेल्या अति दुर्गम -डोंगराळ भागातील वाड्या-वस्त्यांना शासनाने १९७१ च्या जनगणनेनुसार बालवाड्या मंजूर केलेल्या होत्या.म्हणजे त्या वाडीवस्तीवर मुलांची शिक्षणाची सुरुवात झाली होती.

आमच्या जिल्ह्यासाठी १००बालवाड्या मंजूर होत्या. पैकी १९७६ ला ही योजना आली त्यावेळी प्रत्यक्षात ७७बालवाड्या सुरू होऊन त्या सर्व कार्यरत होत्या.परंतु १००पैकी २३ बालवाड्या सुरू होऊ शकलेल्या नव्हत्या असे ही फाईल वाचल्यावर माझ्या लक्षात आले.

अशा सर्व बालवाड्यांना शासनाने अति पावसाळी- दुर्गम भाग म्हणून मुलांना बसायला मोठे लांब सुंदर सागवानी पाट,छान खेळणी व ती सुरक्षित ठेवण्यासाठी भलीमोठी सागवानी लाकडी पेटी ,जिचा दुसरा उपयोग बालवाडी शिक्षिकेला बसण्यासाठी ही व्हावा.

हे सर्व वाचल्यावर माझी चौकस बुद्धी मला स्वस्थ बसू देईना.या बालवाड्या कां सुरु होऊ शकलेल्या नाहीत व त्यांचं साहित्याचं काय ?

मी याचं कारण शोधून काढायचं ठरवलं.व या बालवाड्या कसंही करुन सुरू करायच्याचं असा दृढनिश्चय करून पुढील कामाला लागले.आणि मला एक कल्पना सुचली त्या दरम्यान तालुका मास्तरांची एक मिटींग येऊ घातली होती म्हटलं ह्या निमित्ताने तालुका मास्तरांकडून याबाबतची वस्तुस्थिती कळू शकेल.व माझा अंदाज योग्य ठरला.त्या सभेसाठी येणाऱ्या ता.मास्तरांनी माझ्या टेबलकडे येऊन भेटावे अशी विनंती वजा सूचना नोटीसबोर्डंवर लावली.त्याचा खूपच छान उपयोग झाला ता..मास्तराशी चर्चा करता असे समजले की शासनाच्या निकषानुसार त्या गावातीलच महिला ताई म्हणून नेमायची होती.त्याकाळी वाड्यावस्त्यांवरच्या मुलींची लग्ने लौकर होत असल्याने अशी शिक्षिका न मिळाल्याने बालवाड्या सुरू होऊ शकल्या नाहीत.

आज  मी ही फाईल पहात होते तेव्हा ७-८ वर्षांचा कालावधी गेलेला होता,आता ता.मास्तरांच्या मदतीने त्या २३ बालवाड्यांपैकी २२ बालवाड्या सुरू झाल्या त्यांचं जपून ठेवलेलं साहित्य त्यांना वाटप केलं.पण एका गावाला शिक्षिकाच मिळेना कारण अतिदुर्गम भागात ७वी पास‌ शिक्षिका तेथे मिळेना.मग चौकशी करता त्या गावात ४थी पास झालेली एक विधवा महिला असल्याचे समजल्यावर तिला कार्यालयात बोलावून सर्व सांगितले व तिला नियमानुसार बाहेरून सातवीच्या परीक्षेस बसविले.सुदैवाने ती चांगल्या गुणांनी उत्तीर्ण झाली याचा तिच्यापेक्षा आम्हाला जास्त आनंद झाला.कारण आमची १००वी बालवाडी सुरू झाली.

आज ३५वर्षानंतर त्या ‘ताई बालवाडी ‘ चं रुपांतर कालांतराने माध्यमिक शाळेपर्यंत आलं आणि त्या शाळेचा दहावीचा १००टक्के निकाल लागल्याची बातमी वाचून मला भरुन पावल्यासारखं झालं

श्री समर्थ रामदास स्वामी म्हणतात नां ‘ केल्याने होत आहे रे’ ! पण आधि केलेचि पाहिजे!!’

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।।12।।

 

योगी पाते शांति सुख सहज कर्म फल त्याग

बंध जाते है अन्य जन, फल से रख अनुराग।।12।।

 

भावार्थ :  कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है।।12।।

 

The united one (the well poised or the harmonised), having abandoned the fruit of action, attains to the eternal peace; the non-united only (the unsteady or the unbalanced), impelled by desire and attached to the fruit, is bound ।।12।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ⌚

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन, असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(युगपुरुष कर्मयोगी श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की ही कविताओं से प्रेरित उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित।)

 

☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆

 

स्वतन्त्रता दिवस पर

पहले ध्वज फहरा देना।

फिर बेशक अगले दिन

मेरे शोक में झुका देना।

 

नम नेत्रों से आसमान से यह सब देखूंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

स्वकर्म पर भरोसा था

कर्मध्वज फहराया था।

संयुक्त राष्ट्र के पटल पर

हिन्दी का मान बढ़ाया था।

 

प्रण था स्वनाम नहीं राष्ट्र-नाम बढ़ाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

सिद्धान्तों की लड़ाई में

कई बार गिर पड़ता था।

समझौता नहीं किया

गिर कर उठ चलता था।

 

प्रण था हार जाऊंगा शीश नहीं झुकाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

ग्राम, सड़क, योजनाएँ

नाम नहीं मांगती हैं।

हर दिल में बसा रहूँ

चाह यही जागती है।

 

श्रद्धांजलि पर राजनीति कभी नहीं चाहूँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

काल के कपाल पे

लिखता मिटाता था।

जी भर जिया मैंने

हार नहीं माना था।

 

कूच से नहीं डरा, लौट कर फिर आऊँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 




हिन्दी साहित्य – ☆ अटल स्मृति – कविता ☆ अटलजी आप ही ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई उनकी एक कविता “अटलजी आप ही”। )

अटलजी आप ही ☆ 

शीतल कवि मन के व्यक्ति थे आप
संयम का बल रूप थे आप ।

धीरे धीरे सीढ़ी चढते गये आप 
मुस्कुराकर मुश्किलों को सुलझाते गये आप ।

सरल वाणी से आकर्षित करते गये आप
कठोर निर्णय से हानि को टालते रहे आप ।

 देश का अपमान सह ना सके आप
 दृढ़ निश्चय का प्रण लेते थे आप।

शत प्रतिशत सर्वगुण संपन्न थे आप
हर क्षेत्र मे सफलता का शिखर बने आप ।

सुहाना सफर अकेला मुसाफिर थे आप 
सबके दिलों मे घर कर चांद बन गये आप।

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

 




रंगमंच – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – नाटक – ☆ स्वतन्त्रता दिवस ☆ – डॉ .कुँवर प्रेमिल

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 
डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  द्वारा स्वतन्त्रता दिवस  के अवसर पर  रचित  सामाजिक चेतना का संदेश देता हुआ एक नाटक  “स्वतन्त्रता दिवस “। ) 

 

☆ नाटक – स्वतन्त्रता दिवस

 

एक मंच पर कुछेक पुरुष-महिलाएं एकत्रित हैं। वे सब विचारमग्न प्रतीत होते हैं। मंच के बाहर पंडाल में भी कुछेक पुरुष-महिलाएं-बच्चे बड़ी उत्सुकता से मंच की ओर देख रहे हैं।

तभी एक विदूषक जैसा पात्र हाथ में माइक लेकर मंच पर पहुंचता है।

विदूषक – भाइयों-बहिनों आज स्वतन्त्रता दिवस है। आज के दिन हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। तभी न हम सिर उठाकर जीते हैं। अपना अन्न-पानी खाते-पीते हैं।

‘हम स्वतंत्र हैं’ – कहकर-सुनकर कितना अच्छा लगता है। बोलिए, लगता है कि नहीं। ‘

पंडाल से –  आवाजें आती हैं अच्छा लगता है जी बहुत अच्छा लगता है, बोलो स्वतन्त्रता की  जय, स्वतन्त्रता दिवस की जय।

(सभी स्त्री-पुरुष स्वतन्त्रता की जय बोलते हैं।)

मंच से – तभी एक महिला ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगती है- ‘अरे काहे की स्वतन्त्रता, और कैसा स्वतन्त्रता दिवस। हम महिलाएं कुढ़-कुढ़कर जिंदगी व्यतीत करती हैं। शक का साया उन पर पूरी जिंदगी छाया रहता है।  उन्हें अविश्वास में जीना पड़ता है। न पति न सास-ससुर कोई उनकी नहीं सुनता है। जिनकी अभिव्यक्ति समाज-परिवार के साथ गिरवी रखी हो, उनकी कैसी स्वतन्त्रता। कपड़े-लत्ते, गहने सब दूसरों की पसंद के, उनका अपना कुछ नहीं है। बच्चे भी वे दूसरों की अनुमति के बिना पैदा नहीं कर सकतीं।  इक्कीसवीं सदी में भी उनकी हालत हंसी-मज़ाक से कम नहीं है।

पंडाल से – तभी पंडाल से एक आदमी बिफरकर बोला – स्त्रियों का हम पुरुषों पर मिथ्या आरोप है। हम पूरी कोशिश करते हैं उन्हें प्रसन्न रखने की फिर भी वे पतंग सी खिंची रहती हैं। हम उत्तर-दक्षिण कहेंगे तो वे पूरब-पश्चिम कहेंगी। माँ-बाप उलटे हमें ‘औरत के गुलाम’ कहकर पुकारते हैं। मज़ाक उड़ाते हैं।  छींटाकशी करते हैं। हमें तो इधर कुआं उधर खाई है। साथ में जग हँसाई है।

मंच से – एक बूढ़ा एक बूढ़ी लगभग रोते हुए बोले – ‘हमें न तो बहू पसंद करती है न हमारा सपूत ही। हमारी जमीन-जायदाद पर अपना हक बताते हैं पर सेवा से जी चुराते हैं।

बहुएँ वक्र चाल चलती हैं। पुत्र बहुओं के मोह जाल में फँसकर उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। अवसान होती जिंदगी का आखिर रखवाला कौन है? मँझधार में हमारी जीवन-नैया है। बेहोशी में नाव खिवैया है। उनके पास हमारे लिए समय नहीं है। ये हमें तिल-तिल जलाते हैं। हमें वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं।

पंडाल से – तभी कुछ लड़के-लड़कियां पंडाल में उठकर खड़े होकर शुरू हो जाते हैं। हमारे दादा-दादी की मुसीबतें हमसे देखी नहीं जाती हैं। पूछा जाए तो उन्हीने हमें पाला है। माताएँ हमें दादी के पास सुलाकर खुद निर्विघ्न सोती हैं। बेचारी दादी रात भर हमारे गीले कपड़े बदलती हैं। खुद गीले में सॉकर हमें सूखे में सुलाती हैं।

दादाजी लोग बिस्कुट – टॉफी – खिलौने, बाल मेगज़ीन ला लाकर देते हैं।  बिजली जाने पर दादियाँ रात भर अखबार से मच्छर उड़ाकर हमें चैन की नींद सुलाती हैं।  आखिर क्यों है ऐसा?  क्या कोई हमें बताएगा?

(मंच एवं पंडाल दोनों में अफरा-तफरी मच जाती है।  छोटा सा नाटक जी का जंजाल बन जाता है। किसी को क्या पता था कि इतनी बड़ी उलझन आकार खड़ी हो जाएगी।)

विदूषक बोला – हम सब आखिर अंधे कुएं के मेंढक ही साबित हुए। ऐसे में तो परिवार उजाड़ जाएंगे हम सब एक दूसरे पर आरोप ही लगाते रह जाएँगे। परिवार/समाज में मोहब्बत के बीज कौन डालेगा?  समाज में जो घाट रहा है – अक्षम्य है।  ऐसे में मेलजोल की भरपाई कब होगी। कब पूरा परिवार होली-दशहरा-रक्षाबंधन-स्वतन्त्रता दिवस हंसी-खुशी मनाएगा।

कब बच्चे मौज में नाचेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी कब आँगन में रांगोली डालेंगे। कब दादा सेंतकलाज बनाकर बच्चों को उपहार बांटेंगे। कब दादा-दादी के दुखते हाथ-पैर दबाये जाएंगे। बच्चों को कब रटंत विद्या, घोंतांत पानी से निजात मिलेगी। कब प्यार-स्नेह-आत्मीयता से छब्बीस जनवरी मनेगी।

माइक बजाकर राष्ट्रगीत बजाकर मोतीचूर के लड्डू बांटने से कुछ नहीं मानेगा।  केवल स्वतन्त्रता रटने भर से स्वतन्त्रता का एहसास नहीं होगा।  जब तक आपस में प्यार-मोहब्बत,  आदर-सेवभाव, विनम्रता विकसित नहीं होगी, असली स्वतन्त्रता के दर्शन नहीं होंगे। कभी नहीं होंगे। बोलिए – स्वतन्त्रता दिवस की जय, भाई-चारे की जय, माता-पिता की जय-गुरुओं कि जय।

भाइयों, आजकल न तो पहले जैसे गुरु हैं और न पहले जैसे विद्यार्थी। स्वतन्त्रता दिवस की जय बोलने से पहले यह सब करना होगा। वरना वही ढाक के तीन पात हाथ में लगेंगे। जयहिन्द!

(इतना कहकर विदूषक नाचने लगता है। उसे नाचते देख, मंच और पंडाल में सभी नाचने लगते हैं।)

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782




हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता ☆ स्वतंत्रता-मंथन ☆ – सुश्री पल्लवी भारती 

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 

सुश्री पल्लवी भारती 

(सुश्री पल्लवी भारती जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आजादी के सात दशकों बाद भी देशवासियों की चेतना को जागृत करने हेतु स्वतंत्रता के मायनों का मंथन करने पर आधारित उनकी रचना  ‘स्वतन्त्रता मंथन’।)

संक्षिप्त परिचय:

शिक्षा– परास्नातक मनोविज्ञान, बनारस हिन्‍दू विश्वविद्यालय (वाराणसी)

साहित्यिक उपलब्धियाँ– अनेक पुरस्कार, सम्मान, उपाधियाँ प्राप्त, मुख्य पत्र-पत्रिकाओं एवं अनेक साझा काव्य संग्रहों में कविता एवं  कहानियाँ प्रकाशित।

 

स्वतंत्रता-मंथन 

 

विद्य वीरानों में सँवरती, कब तक रहेगी एक माँ?

घुट रही वीरों की धरती, एक है अब प्रार्थना।

ना रहे ये मौन तप-व्रत, एक सबकी कामना।

मानवता पनपें प्रेम नित्-नित्, लहु व्यर्थ जाए ना॥

 

हो रहे हैं धाव ऐसे, कर उन्मुक्त कालपात्र से।

है बदलते भाव कैसे, संत्रास भाग्य इस राष्ट्र के!

हो भगत-सुखदेव जैसे, वीर सुत जिस राष्ट्र में।

टिक सकेंगे पाँव कैसे, मोहांध धृतराष्ट्र के॥

 

बारूद में धरती धुली, कह रही है वेदना।

इस बलिवेदी की कीर्ति, बन गयी ब्रह्म-उपमा।

अमर गीत क्रांति की, बन गयी जन-चेतना।

स्वयं बद्ध पतनोत्थान की, जग कर रहा है मंत्रणा॥

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

 




हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता – रक्षा बंधन – डॉ. हर्ष तिवारी

रक्षा बंधन विशेष 

डॉ हर्ष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है डॉ  हर्ष तिवारी जी , डायनामिक संवाद टी वी .प्रमुख का e-abhivyakti में स्वागत है । आज प्रस्तुत है रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता  रक्षा बंधन ।)

 

? रक्षा बंधन  ?

 

आदमी निकल गया है

इक्कीसवीं सदी के सफर में

बहुत आगे

अब उसके लिए

बेमानी है

सूट के धागे

रिश्ते रिसने लगे हैं

घाव की तरह

रक्षा सूत्र हो गए हैं

कागज की नाव की तरह

कागज की नाव आखिर

किस मुकाम तक जायेगी

वो तो खुद डूबेगी

और

हमें भी डुबायेगी।

 

© डॉ. हर्ष तिवारी

जबलपुर, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆

 

☆ घरौंदा ☆

 

घरौंदा

 

मालिक की

नजर पड़ते ही

घोंसले में बैठे

चिड़ा-चिड़ी चौक उठते

और अपने नन्हें बच्चों के

बारे में सोच

हैरान-परेशान हो उठते

गुफ़्तगू करते

आपात काल में

इन मासूमों को लेकर

हम कहां जाएंगे

 

चिड़ा अपनी पत्नी को

दिलासा देता

‘घबराओ मत!

सब अच्छा ही होगा

चंद दिनों बाद

वे उड़ना सीख जाएंगे

और अपना

नया आशियां बनाएंगे’

 

‘परन्तु यह सोचकर

हम अपने

दायित्व से मुख

तो नहीं मोड़ सकते’

 

तभी माली ने दस्तक दी

और घोंसले को गिरा दिया

चारों ओर से त्राहिमाम् …

त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी

आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं

 

जैसे ही उन्होंने

अपने बच्चों को

उठाने के लिये

कदम बढ़ाया

उससे पहले ही

माली द्वारा

उन्हें दबोच लिया गया

और चिड़ा-चिड़ी ने

वहीं प्राण त्याग दिए

 

इस मंज़र को देख

माली ने मालिक से

ग़ुहार लगाई

‘वह भविष्य में

ऐसा कोई भी

काम नहीं करेगा

आज उसके हाथो हुई है

चार जीवों की हत्या

जिसका फल उसे

भुगतना ही पड़ेगा’

 

वह सोच में पड़ गया

‘कहीं मेरे बच्चों पर

बिजली न गिर पड़े

कहीं कोई बुरा

हादसा न हो जाए’

 

‘काका!तुम व्यर्थ

परेशान हो रहे हो

ऐसा कुछ नहीं होगा

हमने तो अपना

कमरा साफ किया है

दिन भर गंदगी

जो फैली रहती थी’

 

परन्तु मालिक!

यदि थोड़े दिन

और रुक जाते

तो यह मासूम बच्चे

स्वयं ही उड़ जाते

इनके लिए तो

पूरा आकाश अपना है

इन्हें हमारी तरह

स्थान और व्यक्ति से

लगाव नहीं होता

 

काका!

तुमने देखा नहीं…

दोनों ने

बच्चों के न रहने पर

अपने प्राण त्याग दिए

परन्तु मानव जाति में

प्यार दिखावा है

मात्र छलावा है

उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?

 

‘हर इंसान पहले

अपनी सुरक्षा चाहता

और परिवार-जनों के इतर

तो वह कुछ नहीं सोचता

उनके हित के लिए

वह कुछ भी कर गुज़रता

 

परन्तु बच्चे जब

उसे बीच राह छोड़

चल देते हैं अपने

नए आशियां की ओर

माता-पिता

एकांत की त्रासदी

झेलते-झेलते

इस दुनिया को

अलविदा कह

रुख्सत हो जाते

 

काश! हमने भी परिंदों से

जीने का हुनर सीख

सारे जहान को

अपना समझा होता

तो इंसान को

दु:ख व पीड़ा व त्रास का

दंश न झेलना पड़ता’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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