हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अभिनेता ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अभिनेता

सुबह जल्दी घर से निकला था वह। ऑफिस के एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की शादी थी। दक्षिण भारत में ब्रह्म मुहूर्त में विवाह की परंपरा है। इतनी सुबह तो पहुँचना संभव नहीं था। दस बजे के लगभग पहुँचा। ऑफिस के सारे दोस्त मौज़ूद थे। जमकर थिरका वह।

समारोह में भोजन के बाद मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल पहुँचा। पड़ोस के सिन्हा जी की पत्नी आई सी यू में हैं। किसी असाध्य रोग से जूझ रही हैं। वह अपनी चिंता जताता रहा जबकि उसे बीमारी का नाम भी समझ में नहीं आया था। आधा किलो सेब ले गया था। सेब का थैला पकड़ाकर इधर उधर की बातें की। दवा नियमित लेने और ध्यान रखने की रटी-रटाई बिनमांगी सलाह देकर वहाँ से निकला।

घर लौटने की इच्छा थी पर सुबह अख़बार में अपने दूर के रिश्तेदार के तीये की बैठक की ख़बर पढ़ चुका था। आधा घंटा बाकी था। सीधे बैठक के लिए निकला। ग़मगीन, लटकाया चेहरा बनाये आधा घंटा बैठा वहाँ।

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ा ही था कि हरीश मिल गया। पिछली कंपनी में दोनों ने चार साल साथ काम किया था। ख़ूब हँसी-मज़ाक हुआ। खाना साथ में खाया।

रात ग्यारह बजे घर आकर सोफा पर पसर गया। टेबल पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग का पत्र पड़ा था। खोलकर देखा तो लिखा था, ‘बधाई। गत माह क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित एकल अभिनय प्रतियोगिता के आप विजेता रहे। आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है।’

वह मुस्करा दिया।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर हर गंगे ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “हर हर गंगे ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी की कविता  गंगा जी की गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा और इस अद्भुत यात्रा में उनके विभिन्न स्वरूप,उनके विभिन्न पड़ाव, उत्तुंग पर्वत शिखरों से हरे भरे मैदानों से होते हुए गंगा सागर में विलीन होते हुए विभिन्न धर्मों, संप्रदायों को सर्वधर्म समभाव व एकता का  संदेश देती  हैं। )

 

 ☆ हर हर गंगे ☆

गंगोत्री के उत्तुंग शिखर से,

आती हो बन  पापनाशिनी।

कल कल करती,  हर-हर करती,

बन जाती हो जीवनदायिनी।

 

तीव्र वेग से धवलधार बन

हरहराती, आती बल खाती।

चंचल नटखट बाला सी,

इतराती,  इठलाती आती।

 

मन खिल उठता मेरा,

दिव्य रूप देखकर तेरा,

हर-हर गंगे,  हर-हर गंगे।।

 

जब मैदानों में चलती हो,

तो मंथर-मंथर बहती हो।

अपने दुख अपनी पीड़ा को,

कभी न व्यक्त करती हो।

 

सब तीरथ करते अभिनंदन,

स्पर्श जब तुम उनका  करती हो।

सुबह शाम सब करते वंदन,

जब मध्य उनके तुम बहती हो।

 

जनमानस श्रद्धापूर्वक

करते रहते जयजयकार,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरे पावन जल मिट्टी से,

समस्त जग है जीवन पाता।

वृक्ष अन्न फल-फूल धरा से,

गंग कृपा से, है  मानव उपजाता।

 

तीर्थराज का कर अभिनंदन,

जब काशी तुम आती हो।

अर्धचंद्र का रूप धर,

भोले का भाल सजाती हो।

 

मनोरम दृश्य देख, हो प्रसन्न

देवगण भी बोल उठते,

हर-हर गंगे, हर-हर गंगे।।

 

अपने पावन जल से मइया,

शिव का अभिषेक तुम करती हो।

भक्तों के पाप-ताप हरती,

जन-जन का मंगल करती हो।

 

सारा जनमानस काशी का,

हर हर बंम बंम बोल रहा है।

ज़र्रा ज़र्रा, बोल रहा है

हर हर गंगे, हर हर गंगे।।

 

सूर्यदेव की स्वर्णिम आभा,

जब गंगा में घुल जाती है।

स्वच्छन्द परिन्दो की टोली,

उनके ऊपर मंडराती है।

 

घाटों की नयनाभिराम झांकी,

बरबस मन को हरती है।

जाने अनजाने दिल के भीतर से

ये आवाज उभरती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

कहीं मन्दिरों के भीतर,

हर-हर का नाद सुनाई देता।

कहीं अजानों की पुकार में,

वो ही तत्व दिखलाई देता।

 

गिरजों और गुरूद्वारों में भी,

वो ही छटा दिखाई देती।

हर जुबान हर दिल  के भीतर,

वो ही आवाज़ सुनाई देती।

हर हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरा पावन जल ले अंजलि भर,

कोई श्रद्धांजलि देता है

कोई मुसलमां तेरा जल ले,

रोज़ वजूकर लेता है।

 

सिख ईसाई गंगा जल से

पूजा अपनी करते हैं।

सदा सर्वदा हर दिलसे

यही सदा, सदा सुनाई देती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

बहते-बहते मंथर-मंथर,

जब सागर में मिल जाती हो।

सागर का मान बढ़ाती,

गंगासागर कहलाती हो।

 

सागर की अंकशायिनी बन,

लहरों पे इठलाती हो।

उत्ताल तरंगें बोल उठती,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ♥ कम्प्यूटर पीडित ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कम्प्यूटर पीडित”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ☆ 

 

♥ कम्प्यूटर पीडित ♥

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।

कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है – दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।

कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें  “सिंगल विंडो प्रणाली” बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को ओबलाइज कैसे करेगा? हुये ना बड़े बाबू कम्प्यूटर पीड़ित।

दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहाँ तो “एंटर” का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।

वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीड़ा भर नहीं देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूँ । जो पहली नौकरी मिली, आज तक उसी में लगा हुआ हूँ यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता “नौकरी डॉट कॉम” की मदद से, पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीड़ित युवाओं की तरह नहीं कि सगाई के समय किसी कंपनी में, शादी के समय किसी और में, एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में, ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही-सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूँ, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते-उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।

आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी, फिर बीटिंग करते हुए तलाक।

हॉं, हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीड़ाओं की चर्चा कर रहे थे, अब तो ”पेन ड्राइव” का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अर्थात कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, “सेलरॉन” से “पी-5” के कम्प्यूटर बदलते-बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर, डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदेशों के चलते मेरी कम्प्यूटर पीड़ित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहाँ इंटरनेट पर सब कुछ खुला-खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11 ☆ न्याय ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 11 – मित्रा…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मेरे विचार से हम मित्रता दिवस वर्ष में एक बार मनाते हैं किन्तु,  मित्रता वर्ष भर ही नहीं आजीवन निभाते हैं। श्री सुजित जी की यह कविता इतनी संवेदनशील और भावुक है कि पढ़ते हुए मित्रों के मिलन का सजीव चित्र नेत्रों के समक्ष अपने आप आ जाता है और नेत्र नम हो जाते हैं।  मुझे अनायास ही मेरी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा –

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता।

निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “मित्रा…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #11 ☆ 

 

☆ मित्रा…! ☆ 

 

आज ब-याच वर्षानंतर तो घरी आला

दारावरची बेल वाजवली .

आणि बघता क्षणी आम्ही एकमेकांना

कडकडून मिठी मारली .

अगदी श्रीकृष्ण सुदाम्या सारखी

दोघांच्याही डोळ्यांत .. . .

शाळा सोडताना दाटून आलेलं पाणी

आज पुन्हा एकदा दाटून आलं.

आणि..आमच्या भेटीनं

आज माझ घर सुध्दा हळव झालं.

बालपणीच्या सा-याच आठवणीं

डोक्यात भोव-या सारख्या फिरू लागल्या.

अन् वयाच अंतर पुसून ,

चिंचेखाली धावू लागल्या.

शाळेत जाताना दोघांत मिळून

आमची एक पिशवी ठरलेली

अन् पिशवी मधली अर्धी भाकर

रोज दोघांत मिळून खाल्लेली..

मी जिंकाव.. म्हणून तो

कितीदा माझ्यासाठी हरलेला. . . . !

त्याच्यासाठी मी कितीदा

मी बेदम मार खाल्लेला.. . . !

त्याच्या इतका जवळचा मित्र

मला आजपर्यंत कुणीच भेटलाच नाही.

गाव सोडून आल्यापासून

आमची भेट काही झालीच नाही…..!

बराच वेळ एकमेकांशी

आमचं बरंच काही बोलणं झालेलं

तो निघतो म्हणताना त्याच्या डोळ्यांत

एकाएकी आसवांच गाव उभं राहिलेलं

तो म्हंटला..,

माय गेली परवा दिवशी .. . .

तेव्हापासून एकट एकट वाटत होतं

मनमोकळ रडायला कोणी

आपलं असं मिळत नव्हतं..

शाळेत असताना बाप गेला

तेव्हाही मित्रा

तुझ्यापाशीच रडलो होतो..!

खरंच सांगतो मित्रा

माय गेली तेव्हापासून

तुझाच पत्ता शोधत होतो..

मित्रा..,तुझ्या

खांद्यावरती डोकं ठेऊन

मला एकदा मनमोकळं रडू दे

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

© सुजित कदम




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

श्रीभगवानुवाच

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।2।।

भगवान ने कहा-

 

कर्म योग सन्यास द्वय करते हैं कल्याण

किंतु कर्म सन्यास से कर्म योग ही प्रधान।।2।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।।2।।

 

Renunciation and the Yoga of action both lead to the highest bliss; but of the two, the Yoga of action is superior to the renunciation of action. ।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 9 – कौन दूध इतना बरसाता है? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “कौन दूध इतना बरसाता है?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कौन दूध इतना बरसाता है? ☆  

 

सौ घर की बस्ती में

कुल चालीस गाय-भैंस

फिर इतना दूध कहाँ से

नित आ जाता है।

 

चार, पांच सौ के ही

लगभग आबादी है

प्रायः सब लोग

चाय पीने के आदि है

है सजी मिठाईयों से

दस-ग्यारह होटलें

वर्ष भर ही, पर्वोत्सव

घर,-घर में, शादी है।

नहीं, कहीं दूध की कमी

कभी भी पड़ती है,

सोचता हूँ, कौन

दूध इतना, बरसाता है

सौ घर की………….।

 

शहरों में सजी हुई

अनगिन दुकाने हैं

दूधिया मिष्ठान्नों की

कौन सी खदाने हैं

रंगबिरंगे रोशन

चमकदार आकर्षण

विष का सेवन करते

जाने-अनजाने हैं।

जाँचने-परखने को

कौन, कहाँ पैमाने

मिश्रित रसायनों से

जुड़ा हुआ, नाता है

सौ घर की……….।

 

नए-नए रोगों पर

नई-नई खोज है

शैशव पर भी,अभिनव

औषधि प्रयोग है

अपमिश्रण के युग में

शुद्धता रही कहाँ

विविध तनावों में

अवसादग्रस्त लोग हैं।

मॉलों बाजारों में

सुख-शांति ढूंढते

दर्शनीय हाट,

ठाट-बाट यूँ दिखाता है

सौ घर की बस्ती में….।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014




हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि  –  कल्पनालोक – धरती का स्वर्ग ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  कल्पनालोक – धरती का स्वर्ग

……हिंदी की बात छोड़ दीजिए। कल्पनालोक से बाहर आइए। हिंदी कभी पढ़ाई-लिखाई, एडमिनिस्ट्रेशन, डिप्लोमेसी की भाषा नहीं हो सकती। हिंदी एंड इंग्लिश का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।

 

उसकी बात सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई। यह वही शख्स है जिसने कहा था,…जम्मू एंड कश्मीर की बात छोड़ दीजिए। जे एंड के का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।

 

देश उम्मीद से है।

आपका दिन उम्मीद से भरा हो। शुभ प्रभात।

?????

 

©  संजय भारद्वाज , हिन्दी आंदोलन, पुणे

9890122603

[email protected]

( 5 अगस्त 2019 को सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक प्रस्तुत किये जाने से एक दिन पहले, 4 अगस्त को प्रातः 5:20 पर जन्मी रचना।)

 




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ दृष्टिकोण ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है  बेटे और बेटी में अंतर जैसी एक सामाजिक विचारधारा पर आधारित कहानी बेटियाँ ।)

☆ बेटियाँ ☆

 

अर्पणा दूसरी बार माँ बनने वाली थी। उसकी सासू माँ, “स्नेहा” पिछले नौ माह से एक ही रट लगाए हुए थी, “बहू, इस बार पोती नहीं,मुझे पोता चाहिये, मैंने तुझसे पहले ही कह दिया है!”

“माँ जी, यह तो ऊपर वाला ही जानें कि आपको पोता मिलेगा या पोती, इस पर मेरा क्या वश है।” अर्पणा का उत्तर होता।

आखिर वह घड़ी भी आ गयी, जब अर्पणा को प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हो गयी और उसे अस्पताल ले जाया गया। साथ में उसका पति ‘माधव’ और स्नेहा भी थी। वह पीड़ा से दोहरी हुई जा रही थी, अतः नर्स ने उसे तुरंत वील-चेयर पर बिठाया और सीधे लेबर-रूम की ओर तेज़ी से ले जाने लगी। पीछे-पीछे स्नेहा भी चली जा रही थी। उसने लेबर-रूम के दरवाज़े के बाहर ही रुककर एक बार पुनः अर्पणा को स्मरण कराया कि उसे इस बार पोता ही चाहिये। परन्तु अर्पणा को इतनी सुध कहाँ थी कि वह स्नेहा की बात का उत्तर देती, अतः वह चुप रही।

स्नेहा और उसका पुत्र माधव बड़ी उत्सुकता से शुभ समाचार की प्रतीक्षा कर रहे थे। आखिर वह घड़ी आ गयी, जब अंदर से नर्स शुभ समाचार के रूप में रुई-सी मुलायम और अतिसुन्दर बालिका को गोद में लेकर उपस्थित हुई और चहकती हुई बोली, “बधाई हो, बेटी हुई है, लाइये इनाम दीजिये!”

स्नेहा ने सुनते ही अपना माथा ठोक लिया और बड़बड़ाती हुई गैलरी में एक ओर चली गयी।  माधव ने शर्माशर्मी पाँच सौ का नोट निकाल कर नर्स को दे दिया।

“बस पाँच सौ?” नर्स ने कहा।

“अरे, और क्या तेरे नाम अपनी पूरी सम्पत्ती लिख दें, कौन-सा लाल जना है उसने? और हाँ, उसका बच्चे बंद करने वाला ऑपरेशन मत कर देना!” स्नेहा ने गुस्से से लाल-पीली होते हुए नर्स से कहा। नर्स बेचारी चुपचाप अंदर चली गयी।

लगभग एक-डेढ़ घंटे के पश्चात् मूर्छित अवस्था में अर्पणा को वार्ड में लाया गया। जैसे ही अर्पणा की मूर्छा टूटी, स्नेहा ने उसपर प्रश्न तथा शिकायतों की झड़ी लगा दी। उसे सबसे अधिक गुस्सा इस बात पर था कि अर्पणा ने ऑपरेशन क्यों करवाया। अर्पणा ने मुस्कुराते हुए कहा,

माँ जी, आज बेटियाँ बेटों से अधिक ज़िम्मेदार हैं। वे किसी भी प्रकार बेटों से कम नहीं हैं।  इसके अलावा इसकी क्या गारंटी थी कि अगली बार बेटा हो ही जाता? मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मुझे ईश्वर ने दो-दो परियाँ दी हैं। इसे देखिये तो सही, आपको कितने प्यार से देख रही है! क्या आपको इसपर प्यार नहीं आ रहा?”

“बहू, तू ने मेरी आँखें खोल दीं, मैं पोते पाने की चाह में इस नन्ही परी के साथ वास्तव में अन्याय कर रही थी।” कहते हुए स्नेहा ने नवजात बालिका को प्यार से गोद में उठा लिया।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – बाल कथा – ☆ किस्सा सियार और जुलाहे का ☆ – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  की एक  बाल कथा “किस्सा सियार और जुलाहे का “। ) 

 

☆ बाल कथा – किस्सा सियार और जुलाहे का

 

एक जुलाहा था।

हाँ…..

वह काम की तलाश में एक जंगल से होकर गुजर रहा था। उसने अपने कंधे पर रूई धुनकने वाला पींजन और हाथ में उसका मुठिया पकड़ रखा था।

हाँ….

बीच रास्ते में उसे एक सियार मिल गया।  अचानक दोनों का आमना-सामना हुआ तो सियार डर गया।  कहीं  जुलाहा अपने हाथ में पकड़े मुठिये से मारने लगा तो!

हूँ….

उसका दिमाग चला, उसने जुलाहे की शान में एक कविता पढ़ी –

हाँ …. कौन सी कविता पढ़ी?

 

कांधे धनुष हाथ लिए बाना (बाण)

कहाँ चले दिल्ली सुल्ताना।

 

जुलाहे  ने अपनी तुलना सुल्तान से करते देख सियार को बड़ी प्यारी-प्यारी नज़रों से देखा, वाह!  सियार तो बड़ा गुणी दिखाई देता है।

हूँ….

जुलाहे ने भी सियार की शान में कविता पढ़ी –

 

वन के राव (राजा) बेर  का खाना।

 

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782