English Literature – Poetry – ☆ Black Hole…. ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national level projects. We present a translation of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” ब्लेक होल ” published in today’s  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #8 – ब्लेक होल ☆ . We extend our heartiest thanks for this beautiful translation. )

 

☆ Black Hole…. ☆

 

How do you manage

to absorb

so many hardships

so much of sadness

within yourself,

Science says:

Decay of substance

Happens from more to less

Dense to sparse…

Misery of world

Comes and gets

consumed in me,

My inside is getting

used to of it

Entire emptiness of mine

is gradually turning

into the ‘Black hole!’

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ मैत्री दिवस विशेष – मैत्री ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मैत्री दिवस विशेष 

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  मैत्री दिवस पर एक विशेष आलेख  मैत्री ।  

 

☆ मैत्री ☆

 

आज सकाळपासून मला माझ्या मैत्रीणी ची आठवण येत होती.खरंच मैत्रीचे धागे एकदा विणले की ते विलग होत नाहीत,उलट दिवसेंदिवस अधिक दृढ होत जातात.

मैत्री ही अशी आहे असं सांगून भागत नाही ती प्रतिसाद देत टिकवायची असते.मैत्रीत ना असतं तुझं नाव माझं,ना खरं ना खोटं ! तिला कुठल्याही पारड्यात तोला. तिचं पारडं नेहमी जडंच !

मैत्री केव्हाही,कुठंही होऊ शकते.तिला वेळ काळ कशाचही बंधन नसतं.

मैत्रीच्या नात्यात प्राण असतो म्हणून रक्ताची नाती तुटू शकतात पण मैत्रीची नाही.

मैत्री असावी “द्वारकाधीश श्रीकृष्णाची व दरिद्री सुदाम्याची “!श्रीकृष्णाने सुदाम्याने आणलेल्या मूठभर पोह्यासाठी हट्ट धरला,पोहे कसले ते फाटक्या धोतराच्या पुरचुंडीत घरातल्या मडक्यातला उरलासुरला पोह्यांचा चुरा पण तो श्रीकृष्णाने अत्यंत प्रेमानं खाल्ला, आणि त्याला अमृताची गोडी आली कारण त्या पोह्यात सुदाम्याच्या मैत्रीची श्रीमंती होती.

मागच्या वर्षीच्या मैत्रीदिनानिमित्त एका चिनी मित्रांची कथा माझ्या वाचनात आली.त्यात एकजण दोन्ही डोळ्यांनी जन्मांध तर दुसरा लहानपणी अपघातात दोन्ही हात गमावलेला.दोघांनाही काम नव्हतं.एके दिवशी बेकारांच्या रांगेत दोघांची ओळख झाली.त्या दोघांनीही कुणाकडं भिकाऱ्यासारखं मागत बसण्यापेक्षा वेगळं काहीतरी कां करु नये असा विचार केला व त्यातूनच त्या दोघांची मैत्री झाली अन् त्याक्षणी “ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे ” म्हणत त्यांनी एका उदात्त ध्यासाची शपथ घेतली.दोघांनी स्थानिक प्रशासनाकडे पाठपुरावा करुन नदीकाठची पण पडीक जमीन भाड्यानं मागितली.आम्हाला अपंगत्वान भविष्य ठेवलेलं नाही पण भावी पिढ्यांच्या कल्याणासाठी आम्हाला पर्यावरणपूरक वनीकरण करायचं आहे असं सांगून त्यांनी त्या पडीक माळरानाच्यातब्बल तीन हेक्टरवर वृक्षारोपण केल. खड्डे खणण्यापासून पाणी घालण्यापर्यंत सारं या दोघांनीच केवळ एकमेकांच्या साथीनं “तू माझे हात व मी तुझे डोळे ” असं म्हणत असाध्य ते साध्य केलं.

आज पंधरा वर्षांनी हे सगळं माळरान सुंदर हिरवाईने फुललंय !माणसांचा आधार, चिमण्या पाखरांचा पशुपक्ष्यांच्या अनेक जातींचा “विसावा “झालंय !

कधीकाळी उपाशीपोटी पण समाधानी मनानं केलेल्या कामाला उदात्त व गोड फळं आलीत.

देह अपंग असले तरी अभंग मनातल्या आपल्या क्षमतांवरचा विश्र्वास व मैत्रीची भरभक्कम साथ यामुळे या दोघांनी अनेकांसाठी एक आदर्श निर्माण केला.

धन्य ती आयुष्याच्या सफलतेला कारणीभूत ठरणारी सुंदर मैत्री.!!

मैत्री ही नेहमी असते गोड तिला ना कशाची तोड!”

” मैत्रीदिनाच्या मनापासून शुभेच्छा !”

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक :- ४-८-१९

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #15 – क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ? ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की पंद्रहवीं  कड़ी  क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ?।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि जीवन के प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण हैं।  जो क्षण हम खो देते हैं वे क्षण भविष्य में पुनः नहीं आएंगे। कुछ क्षण ऐसे भी होते हैं जिनके लिए हमारा सारा जीवन व्यतीत हो जाता है और हम उन्हें नहीं पा पाते। कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जो हमारे सामने से मुट्ठी में से रेत की तरह फिसल जाते हैं और हम उन्हें रोक नहीं पाते। कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #15 ?

 

☆ क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ? ☆

 

क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ?

नक्की काय झालं ते कळलंच नाही…
क्षणोक्षणीचे विचार क्षणभंगूर की तो क्षणच…

मनात जे येतं, ते क्षणभर पकडायचा प्रयत्न ?असंच वाटतं, हो ना?
ह्या पकडा पकडीमध्ये किती तरी क्षण निसटून जातात नाही !

ओंजळीत उरतात ते फक्त आठवणीतले क्षण… क्षणभर विसावा !
पण हा विसवाही क्षणभरच असतो… इथेही क्षणभरच रमता येतं…

प्रत्येक क्षणाशी लढावं लागतं, कधी आनंदाने तर कधी इच्छा नसताना…
अनेक आशा आकांक्षांना सोबत घेऊन… तुझं माझं करत …

मग एक असा क्षण येतो की त्यात बाकी उरते ती असते, मी…
ह्या क्षणावर फक्त माझा हक्क असतो कारण तो मला माझ्यासाठी जगायचा असतो… ह्या क्षणाची वाट पहात असताना आयुष्य खूप काही शिकवून जातं, खूप काही घेऊन जातं, देऊन जातं, हातात उरतात ते क्षण सोनेरी करून जातं, क्षणभर !

एका लाटेतून जन्मणारी दुसरी लाट क्षणाक्षणांचा प्रवास करून येते अगदी तस्संच… नक्की कुठली लाट आपली आहे हे कळेपर्यंत दुसरी लाट मनाचा ताबा घेते, पायाला स्पर्शून जाते, पण थांबत नाही… तिची किनाऱ्याची ओढ अद्वैतात जाण्याची, पण तिथूनही परतावं लागतं, कारण जगलेले क्षण क्षणभंगूर आहेत ना ! सतत वाहत असतात, क्षणा क्षणाने !

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।

ज्ञान रहित,श्रद्धाविहीन,संशयी नष्ट हो जाता है

इस जग में,न अन्य लोक में शांति और सुख पाता है।।40।।

 

भावार्थ :  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।।40।।

 

The ignorant, the faithless, the doubting self proceeds to destruction; there is neither this world nor the other nor happiness for the doubting. ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-4 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 4

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

बीस  

 

वह धोती है कपड़े

फटकारती है कपड़े

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं।

 

इक्कीस 

 

वह मथती है दही

नवनीत निकालती है,

समुद्र मंथन का विचार

समाहित था

उसकी मथानी में।

 

बाईस 

 

वह जानती है

उससे कुछ ही

बेहतर जियेगी

उसकी बेटी,

फिर भी बेटी

जनती है वह ,

सृष्टि को टिकाये रखने की

ज़िम्मेदारी नहीं भूलती वह!

 

तेईस 

 

वह जाना चाहती है

उसके कांधे

पर उससे आँच

नहीं लेती वह,

सदा अखंड ज्योति

बनी रहती है वह!

 

चौबीस 

 

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी-नानी,

वह बुआ-मौसी,

चाची-मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट रूप की

जननी है वह!

 

आज का दिन चिंतन को दिशा दे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆ बह गई तोड़ के बंधन ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी के हम आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – कोहरे के आँचल से ” शीर्षक प्रारम्भ करना  स्वीकार किया। सौ. सुजाता जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘बह गई तोड़ के बंधन ’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆

☆ बह गई तोड़ के बंधन

सालों जो बँधी हुई थी
दो पाटल के धारों में
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

हाहाकार मचाया उसने
राहों में चौराहों में,
उद्दंड़ बनकर बह गई माता
गोद लिए खलियानों में।

 

हुआ अनर्थ, अनर्थ यह भारी

देख दृश्य यह आँखों ने।
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों  में गलियारों में।

 

धूम मचाई घर नगर में उसने
संसार सभी के ध्वस्त किए।
कहीं गिरि को भेदती निकली
कहीं  सागर से गले मिले।

 

जो जो मिला राह में उसको
सब आँचल में छुपा लिया।
चल अचल को ध्वंस करती
हिलोरें लेकर बहा दिया।

 

स्नेहाशीष का आँचल क्यों
फिर सरकाया है माँ ने,
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 3 – महादेव ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “महादेव ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #3  ☆

 

☆ महादेव 

 

नन्दी तेजी से भाग कर रावण की ओर अपने सींग से आक्रमण करने के लिए आया, लेकिन जैसे ही वह रावण के पास आया, तो रावण आकाश में गायब हो गया और जल्द ही दूसरी जगह पर प्रकट हुआ ।उसने अपने शरीर को आकाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित कर लिया था ।

लेकिन रावण ने ऐसा कैसे किया ?

क्योंकि रावण को लय योग (विघटन का योग) का ज्ञान था, जिससे वह सूर्य की ऊर्जा के माध्यम से एक तत्व को अन्य तत्व में परिवर्तित कर सकता था। ब्रह्मांड का प्रत्येक तत्व परमाणुओं की एक संरचना है, और यदि हम परमाणु में इलेक्ट्रॉनों की संख्या बदलते हैं तो एक तत्व दूसरे तत्व में परिवर्तित हो सकता है । रावण ध्यान केंद्रित करके सूर्य की ऊर्जा को एक बिंदु पर केंद्रित करके उसका उपयोग करने का विशेषज्ञ था । तो रावण ने क्या किया?, उसने अपने शरीर पर सूर्य की ऊर्जा केंद्रित की और अपने शरीर के अंदर के तत्वों की संरचना को पूरी तरह से पारदर्शी जगह में बदल दिया। फिर वह उस रचना को किसी अन्य स्थान पर ले गया और अपने मूल रूप में वापस लाने के लिए इसे फिर से मूल संरचना में परिवर्तित कर दिया । रावण की शक्ति को देख के नन्दी भी आश्चर्यचकित था ।

अप्सरा ‘अप’ का अर्थ है पानी और ‘सरा’ का अर्थ है मादा या स्त्री, इसलिए अप्सरा बादलों और पानी की स्त्रीलिंग भावनायेंहैं। अप्सरा सुंदर,अलौकिक स्त्री योनि की प्राणी हैं। वे युवा और सुरुचिपूर्ण, और नृत्य की कला में शानदार हैं। वे इंद्र के दरबार के संगीतकार, गंधर्वो की पत्नियां हैं। वे आमतौर पर देवताओं के महल में गंधर्व द्वारा बनाए गए संगीत पर नृत्य करती हैं, देवताओं का मनोरंजन करती हैं और कभी-कभी देवताओं और पुरुषों के साथ छेड़छाड़ भी करती हैं। अप्सराओं को अक्सर आसमान के निवासियों के रूप में, ईश्वरीय प्राणी के रूप में, और आकाश में उड़ते हुए या भगवान की सेवा करते हुए चित्रित किया जाता है, उनकी तुलना स्वर्गदूतों से की जा सकती है। कहा जाता है कि अप्सराएँ इच्छा अनुसार अपना आकार बदल सकती हैं, और जुआ जैसे किस्मत केखेलों में खिलाड़ी का भाग्य बदल सकती हैं। उर्वशी, मेनका, रम्भा, तिलोत्तम, अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा और घृताची आदि कुछ सबसे प्रसिद्धअप्सराएँ हैं।

अप्सराओं की तुलना कभी-कभी प्राचीन ग्रीस की काव्य प्रतिभा से भी की जाती है ।इंद्र की सभा की 26 अप्सराओं में से हर एक प्रदर्शन कला के एक विशिष्ट पहलू का प्रतिनिधित्व करती हैं । अप्सराओं को प्रजनन संस्कार से भी जोड़ कर देखा जाता है । अप्सराओं को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया गया हैं: लौकिक (सांसारिक), जिनकी संख्या चौबीस निर्दिष्ट हैं, और देविका (दिव्य), जिनकी संख्या दस हैं ।

भागवत पुराण यह भी कहता है कि अप्सरायें कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियों में से एक ‘मुनी’ से पैदा हुई है । यह भी कहा जाता है कि बरसात के मौसम के दौरान बादलों में दिखाई देने वाली आकृति और कुछ नहीं बल्कि स्वर्ग में इंद्र के दरबार में नृत्य करती हुई अप्सराएँ हैं और जिनके नृत्य से प्रसन्न होने के बाद, इंद्र पृथ्वी पर बारिश करते हैं ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ जल भर-भर ले आए मेघा ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक भावप्रवण सामयिक  कविता।)

 

☆ जल भर-भर ले आए मेघा 

 

जल भर भर ले आए मेघा,

घटा घिरी घनघोर।

दादुर मोर पपीहा बोले,

झींगुर करता शोर।।

 

रिझरिम रिमझिम बरसे सावन,

लगे नाचने मोर।

टर टर करते दादुर निकले,

धूम मची चहुँओर ।।

 

प्यास बुझी प्यासी धरती की,

मनहि रही हरषाय।

तप्त हृदय की तृषा मिटी अब,

शीत हुआ हिय जाय।।

 

तड़ तड़ करती बूँदें देखो,

तरुवर को नहलाय ।

मंद हवा के पवन झकोरे,

नव संगीत सुनाय।।

 

©मालती मिश्रा मयंती✍️

दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ त्याग ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है। आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है। एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते।  हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  उनका एक आलेख – त्याग ।)

 

☆ त्याग ☆

 

कालचाच किस्सा. ऑफिसमध्ये मीटिंग होती. रिजेक्शन का येताहेत. बिझनेस वाढत का नाहीये. या कारणांची मिमांसा करण्यासाठी मिटिंग घेतली गेली. ऑफिसचीच सुपर थर्टी मयुरीने मिटिंगला सुरूवात केली. आणि सगळ्यांकडून कारणे जाणुन घेतली. कारणे जाणुन घेतल्यावर बिझनेस कसा ग्रो करायचा. आणि आपण इथे कशा साठी आलो आहोत याची कारणे लक्षात आणुन दिली. ही कारणे लक्षात आणतांना एका भावनिक विषयाला हात घातला. विषय अर्थातच आई-वडीलांना सम्मान मिळवून देणे. आणि समाजामध्ये ताठ मानेने जगावं असं काही करून दाखवणे. आणि त्यांनी आयुष्यभर केलेलं काम त्यांच्या हातातुन काढून एक सम्मानपूर्वक आयुष्या देणे. हे उद्दिष्ट लक्षात आणुन दिले.

विषय खरोखर भावनिक होता. स्वतःच्या आई बाबांना एक चांगलं आणि आरामदायि आयुष्य देणं यापेक्षा चांगले विचार काय असू शकतात. जेव्हा मयुरीने तिचा स्वतःचा अनुभव शेअर केला तेव्हा तिच्या डोळ्यात पाणी आलं. कारण ती ज्यासाठी झटत आहे. आणि सगळीच मुलं ज्यासाठी एवढ सहन करताहेत त्यासाठी त्यांना खुप समस्यांना सामोरे जावं लागतं आहे.  त्यांच्या स्वतःच्या आयुष्यातल्या समस्या आणि वरून लोकांचे टोमणे. तरी न डगमगता ते अगदी संयमाने ते काम करताहेत. जेव्हा मयुरी हे सगळं बोलत होती तेव्हा तिचे डोळे भरून आले आणि मिटिंग तशीच अर्धी सोडून चालली गेली.

मयुरी गेल्या नंतर स्वातीने मिटींग पुढे सुरू ठेवली. सुरूवातीला तिने कठीण शब्द प्रयोग केला. पण मयुरी का रडली त्याचे कारण ही सांगीतले. आणि मिटिंगला बसलेल्या प्रत्येकाला विचारले कि त्यांनी तर त्यांच्या ध्येयासाठी खुप काही त्यागलंय पण तुमचं काय? तुमचं ध्येय काय आणि त्यासाठी तुम्ही काय त्याग केला. तसं मयुरीच्या भावनिक होण्याने अर्धी मंडळी तर रडायला लागलीच होती. आणि तशातच स्वातीचं असं  विचारणं म्हणजे सरळ-सरळ भावनांना चेतवणारं होतं. प्रत्येक जण आपलं ध्येय सांगुन त्यांनी केलेला त्याग आणि यश मिळवण्यासाठी ठेवलेला संयम सांगु लागले. ज्यावेळी माझा नंबर आला. तेव्हा मी “शाॅ नाही करू शकत” असं म्हणुन उत्तर देणे टाळले.

मला जेव्हा कोणी असं विचारतं कि तुमच्या आयुष्याचं ध्येय काय त्यासाठी काय संघर्ष केला आणि संघर्ष करतांना काय त्याग केला. तेव्हा मला हसू येतं. आता ते का येतं ते मलाही स्पष्ट नाहीये.  ते माझ्या कमी पडलेल्या प्रयत्नांवर येतं. कि माझ्यासाठी  अशक्य नसलेलं स्वप्नावर कि मग त्यांनी माझ्या बद्दल केलेल्या विचारांवर येत हे सांगणं कठीण आहे. पण उत्तर याच दोन-तिन गोष्टींमध्ये आहे. हे मात्र नक्की.  काही लोकं असल्या भावनिक गोष्टी ऐकून किंवा नुसतं आठवन करून रडतात किंवा खुप भावुक होऊन त्यांचे डोळे पाणावतात. मिटींग मध्ये जेव्हा ती मंडळी रडत होती तेव्हा माझ्या डोळ्यांत थेंब काय पण माझ्या चेह-यावरचे भावही बदलले नव्हते. त्यात काहींनी असा विचार केला कि दगडाचा काळीज असलेला माणुस आहे हा. याला भावनाच नाहीत. त्यांची प्रश्नार्थक तेवढीच तुच्छ नजर माझ्यावर होती. मला त्यांच असं वागणं पाहून हसू आलं.

ते त्यांच्या समजण्यावर  नाही तर माझ्या स्वतः वर आलं. जेव्हा मला असं सांगितलं जातं की तु मिटीवेशनल व्हीडीओ बघ किंवा डेमो लेक्चर अॅटेंड कर तेव्हा त्यांना माझं प्रामाणिक उत्तर असतं. कि मला कोणाचे शब्द मोटोवेट करत नाहीत. माझा संघर्षच मला लढण्याची शक्ति देतो. माझं आयुष्य बद्दल एकच मत आहे रडा नाही तर लढा. कारण जिवन जगतांना अनेक संकटं येतात. त्याच्याशी लढणं हा एकमेव पर्याय मला दिसतो. मला वाटतं आपण ठरवलेलं ध्येय पुर्ण करण्यासाठी ज्या जिद्दीने संघर्षाच्या मैदानात उतरतो. जी आग मनामध्ये लागलेली असते. अश्रू गाळल्या ने ती विझायला लागते. नव्हे विझतेच. असं माझं मत आहे. हे चुकीचंही  असू शकते.पण परिस्थितीबददल बोलून किंवा त्यागाचे आकडे देऊन मला वाटतं आपण आपली कमजोर बाजू उजागर करत असतो. त्याग तर प्रत्येक माणुस कोणत्या ना कोणत्या स्वरूपात करतच असतो. तसा मी ही केलेला आहे. त्याच्यापेक्षा कमी किंवा जास्तही केलाय. या स्पष्टीकरण मला द्यायचं नाही. पण मला स्वतःला या प्रकारे समोर आणनं आवडत नाही.

मला वाटतं जे करायचं त्यावर पुर्णपणे लक्ष केंद्रित केले पाहीजे. मग जगाला आपल्या त्यागाचे आकडे द्यायला वेळच मिळणार नाही. कोणीतरी मला म्हटलं कि आम्ही आमचं ध्येय आणि कशासाठी त्याग करतोय. हे लिहुन ठेवलंय. आणि त्याचा मोबाईलवर फोटोही काढला आहे. जेव्हा कधी आम्हाला आमचं ध्येय विस्मरणात जातं तेव्हा ते वाचुन घेतो, कोप-यात जाऊन रडून घेतो, आणि पुन्हा जोमाने कामाला लागतो. त्यांना जर असं केल्याने नवी उर्जा मिळत असेल तर नक्किच ही चांगली गोष्ट आहे. पण मी माझं ध्येय माझ्या मनावर कोरलंय. आणि ते कधीच विस्मरणात जाऊ देत नाही. म्हणुन डोळ्यातुन अश्रू गाळण्याचा प्रसंगच ओढावत नाही. माझे लक्ष फक्त माझ्या ध्येयावर केंद्रित असतं.

पण त्यांनी ठरवलेलं ध्येय, केलेला त्याग आणि ते गाठण्यासाठी ठेवलेला संयम  खरोखरचं कौतुकास्पद वाटला.

 

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा

जि. नंदुरबार

मो  9168471113

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।39।।

 

श्रद्धावान संयमी तत्पर कर लेता है पार उसे

परम शांति वह पाता मन में शीघ्र मिल गया ज्ञान जिसे।।39।।

 

भावार्थ :  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।।39।।

 

The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued all the senses, obtains (this) knowledge; and, having obtained the knowledge, he goes at once to the supreme peace. ।।39।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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