आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।

ज्ञान रहित,श्रद्धाविहीन,संशयी नष्ट हो जाता है

इस जग में,न अन्य लोक में शांति और सुख पाता है।।40।।

 

भावार्थ :  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।।40।।

 

The ignorant, the faithless, the doubting self proceeds to destruction; there is neither this world nor the other nor happiness for the doubting. ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-4 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 4

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

बीस  

 

वह धोती है कपड़े

फटकारती है कपड़े

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं।

 

इक्कीस 

 

वह मथती है दही

नवनीत निकालती है,

समुद्र मंथन का विचार

समाहित था

उसकी मथानी में।

 

बाईस 

 

वह जानती है

उससे कुछ ही

बेहतर जियेगी

उसकी बेटी,

फिर भी बेटी

जनती है वह ,

सृष्टि को टिकाये रखने की

ज़िम्मेदारी नहीं भूलती वह!

 

तेईस 

 

वह जाना चाहती है

उसके कांधे

पर उससे आँच

नहीं लेती वह,

सदा अखंड ज्योति

बनी रहती है वह!

 

चौबीस 

 

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी-नानी,

वह बुआ-मौसी,

चाची-मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट रूप की

जननी है वह!

 

आज का दिन चिंतन को दिशा दे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆ बह गई तोड़ के बंधन ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी के हम आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – कोहरे के आँचल से ” शीर्षक प्रारम्भ करना  स्वीकार किया। सौ. सुजाता जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘बह गई तोड़ के बंधन ’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆

☆ बह गई तोड़ के बंधन

सालों जो बँधी हुई थी
दो पाटल के धारों में
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

हाहाकार मचाया उसने
राहों में चौराहों में,
उद्दंड़ बनकर बह गई माता
गोद लिए खलियानों में।

 

हुआ अनर्थ, अनर्थ यह भारी

देख दृश्य यह आँखों ने।
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों  में गलियारों में।

 

धूम मचाई घर नगर में उसने
संसार सभी के ध्वस्त किए।
कहीं गिरि को भेदती निकली
कहीं  सागर से गले मिले।

 

जो जो मिला राह में उसको
सब आँचल में छुपा लिया।
चल अचल को ध्वंस करती
हिलोरें लेकर बहा दिया।

 

स्नेहाशीष का आँचल क्यों
फिर सरकाया है माँ ने,
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 3 – महादेव ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “महादेव ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #3  ☆

 

☆ महादेव 

 

नन्दी तेजी से भाग कर रावण की ओर अपने सींग से आक्रमण करने के लिए आया, लेकिन जैसे ही वह रावण के पास आया, तो रावण आकाश में गायब हो गया और जल्द ही दूसरी जगह पर प्रकट हुआ ।उसने अपने शरीर को आकाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित कर लिया था ।

लेकिन रावण ने ऐसा कैसे किया ?

क्योंकि रावण को लय योग (विघटन का योग) का ज्ञान था, जिससे वह सूर्य की ऊर्जा के माध्यम से एक तत्व को अन्य तत्व में परिवर्तित कर सकता था। ब्रह्मांड का प्रत्येक तत्व परमाणुओं की एक संरचना है, और यदि हम परमाणु में इलेक्ट्रॉनों की संख्या बदलते हैं तो एक तत्व दूसरे तत्व में परिवर्तित हो सकता है । रावण ध्यान केंद्रित करके सूर्य की ऊर्जा को एक बिंदु पर केंद्रित करके उसका उपयोग करने का विशेषज्ञ था । तो रावण ने क्या किया?, उसने अपने शरीर पर सूर्य की ऊर्जा केंद्रित की और अपने शरीर के अंदर के तत्वों की संरचना को पूरी तरह से पारदर्शी जगह में बदल दिया। फिर वह उस रचना को किसी अन्य स्थान पर ले गया और अपने मूल रूप में वापस लाने के लिए इसे फिर से मूल संरचना में परिवर्तित कर दिया । रावण की शक्ति को देख के नन्दी भी आश्चर्यचकित था ।

अप्सरा ‘अप’ का अर्थ है पानी और ‘सरा’ का अर्थ है मादा या स्त्री, इसलिए अप्सरा बादलों और पानी की स्त्रीलिंग भावनायेंहैं। अप्सरा सुंदर,अलौकिक स्त्री योनि की प्राणी हैं। वे युवा और सुरुचिपूर्ण, और नृत्य की कला में शानदार हैं। वे इंद्र के दरबार के संगीतकार, गंधर्वो की पत्नियां हैं। वे आमतौर पर देवताओं के महल में गंधर्व द्वारा बनाए गए संगीत पर नृत्य करती हैं, देवताओं का मनोरंजन करती हैं और कभी-कभी देवताओं और पुरुषों के साथ छेड़छाड़ भी करती हैं। अप्सराओं को अक्सर आसमान के निवासियों के रूप में, ईश्वरीय प्राणी के रूप में, और आकाश में उड़ते हुए या भगवान की सेवा करते हुए चित्रित किया जाता है, उनकी तुलना स्वर्गदूतों से की जा सकती है। कहा जाता है कि अप्सराएँ इच्छा अनुसार अपना आकार बदल सकती हैं, और जुआ जैसे किस्मत केखेलों में खिलाड़ी का भाग्य बदल सकती हैं। उर्वशी, मेनका, रम्भा, तिलोत्तम, अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा और घृताची आदि कुछ सबसे प्रसिद्धअप्सराएँ हैं।

अप्सराओं की तुलना कभी-कभी प्राचीन ग्रीस की काव्य प्रतिभा से भी की जाती है ।इंद्र की सभा की 26 अप्सराओं में से हर एक प्रदर्शन कला के एक विशिष्ट पहलू का प्रतिनिधित्व करती हैं । अप्सराओं को प्रजनन संस्कार से भी जोड़ कर देखा जाता है । अप्सराओं को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया गया हैं: लौकिक (सांसारिक), जिनकी संख्या चौबीस निर्दिष्ट हैं, और देविका (दिव्य), जिनकी संख्या दस हैं ।

भागवत पुराण यह भी कहता है कि अप्सरायें कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियों में से एक ‘मुनी’ से पैदा हुई है । यह भी कहा जाता है कि बरसात के मौसम के दौरान बादलों में दिखाई देने वाली आकृति और कुछ नहीं बल्कि स्वर्ग में इंद्र के दरबार में नृत्य करती हुई अप्सराएँ हैं और जिनके नृत्य से प्रसन्न होने के बाद, इंद्र पृथ्वी पर बारिश करते हैं ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ जल भर-भर ले आए मेघा ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक भावप्रवण सामयिक  कविता।)

 

☆ जल भर-भर ले आए मेघा 

 

जल भर भर ले आए मेघा,

घटा घिरी घनघोर।

दादुर मोर पपीहा बोले,

झींगुर करता शोर।।

 

रिझरिम रिमझिम बरसे सावन,

लगे नाचने मोर।

टर टर करते दादुर निकले,

धूम मची चहुँओर ।।

 

प्यास बुझी प्यासी धरती की,

मनहि रही हरषाय।

तप्त हृदय की तृषा मिटी अब,

शीत हुआ हिय जाय।।

 

तड़ तड़ करती बूँदें देखो,

तरुवर को नहलाय ।

मंद हवा के पवन झकोरे,

नव संगीत सुनाय।।

 

©मालती मिश्रा मयंती✍️

दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ त्याग ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है। आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है। एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते।  हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  उनका एक आलेख – त्याग ।)

 

☆ त्याग ☆

 

कालचाच किस्सा. ऑफिसमध्ये मीटिंग होती. रिजेक्शन का येताहेत. बिझनेस वाढत का नाहीये. या कारणांची मिमांसा करण्यासाठी मिटिंग घेतली गेली. ऑफिसचीच सुपर थर्टी मयुरीने मिटिंगला सुरूवात केली. आणि सगळ्यांकडून कारणे जाणुन घेतली. कारणे जाणुन घेतल्यावर बिझनेस कसा ग्रो करायचा. आणि आपण इथे कशा साठी आलो आहोत याची कारणे लक्षात आणुन दिली. ही कारणे लक्षात आणतांना एका भावनिक विषयाला हात घातला. विषय अर्थातच आई-वडीलांना सम्मान मिळवून देणे. आणि समाजामध्ये ताठ मानेने जगावं असं काही करून दाखवणे. आणि त्यांनी आयुष्यभर केलेलं काम त्यांच्या हातातुन काढून एक सम्मानपूर्वक आयुष्या देणे. हे उद्दिष्ट लक्षात आणुन दिले.

विषय खरोखर भावनिक होता. स्वतःच्या आई बाबांना एक चांगलं आणि आरामदायि आयुष्य देणं यापेक्षा चांगले विचार काय असू शकतात. जेव्हा मयुरीने तिचा स्वतःचा अनुभव शेअर केला तेव्हा तिच्या डोळ्यात पाणी आलं. कारण ती ज्यासाठी झटत आहे. आणि सगळीच मुलं ज्यासाठी एवढ सहन करताहेत त्यासाठी त्यांना खुप समस्यांना सामोरे जावं लागतं आहे.  त्यांच्या स्वतःच्या आयुष्यातल्या समस्या आणि वरून लोकांचे टोमणे. तरी न डगमगता ते अगदी संयमाने ते काम करताहेत. जेव्हा मयुरी हे सगळं बोलत होती तेव्हा तिचे डोळे भरून आले आणि मिटिंग तशीच अर्धी सोडून चालली गेली.

मयुरी गेल्या नंतर स्वातीने मिटींग पुढे सुरू ठेवली. सुरूवातीला तिने कठीण शब्द प्रयोग केला. पण मयुरी का रडली त्याचे कारण ही सांगीतले. आणि मिटिंगला बसलेल्या प्रत्येकाला विचारले कि त्यांनी तर त्यांच्या ध्येयासाठी खुप काही त्यागलंय पण तुमचं काय? तुमचं ध्येय काय आणि त्यासाठी तुम्ही काय त्याग केला. तसं मयुरीच्या भावनिक होण्याने अर्धी मंडळी तर रडायला लागलीच होती. आणि तशातच स्वातीचं असं  विचारणं म्हणजे सरळ-सरळ भावनांना चेतवणारं होतं. प्रत्येक जण आपलं ध्येय सांगुन त्यांनी केलेला त्याग आणि यश मिळवण्यासाठी ठेवलेला संयम सांगु लागले. ज्यावेळी माझा नंबर आला. तेव्हा मी “शाॅ नाही करू शकत” असं म्हणुन उत्तर देणे टाळले.

मला जेव्हा कोणी असं विचारतं कि तुमच्या आयुष्याचं ध्येय काय त्यासाठी काय संघर्ष केला आणि संघर्ष करतांना काय त्याग केला. तेव्हा मला हसू येतं. आता ते का येतं ते मलाही स्पष्ट नाहीये.  ते माझ्या कमी पडलेल्या प्रयत्नांवर येतं. कि माझ्यासाठी  अशक्य नसलेलं स्वप्नावर कि मग त्यांनी माझ्या बद्दल केलेल्या विचारांवर येत हे सांगणं कठीण आहे. पण उत्तर याच दोन-तिन गोष्टींमध्ये आहे. हे मात्र नक्की.  काही लोकं असल्या भावनिक गोष्टी ऐकून किंवा नुसतं आठवन करून रडतात किंवा खुप भावुक होऊन त्यांचे डोळे पाणावतात. मिटींग मध्ये जेव्हा ती मंडळी रडत होती तेव्हा माझ्या डोळ्यांत थेंब काय पण माझ्या चेह-यावरचे भावही बदलले नव्हते. त्यात काहींनी असा विचार केला कि दगडाचा काळीज असलेला माणुस आहे हा. याला भावनाच नाहीत. त्यांची प्रश्नार्थक तेवढीच तुच्छ नजर माझ्यावर होती. मला त्यांच असं वागणं पाहून हसू आलं.

ते त्यांच्या समजण्यावर  नाही तर माझ्या स्वतः वर आलं. जेव्हा मला असं सांगितलं जातं की तु मिटीवेशनल व्हीडीओ बघ किंवा डेमो लेक्चर अॅटेंड कर तेव्हा त्यांना माझं प्रामाणिक उत्तर असतं. कि मला कोणाचे शब्द मोटोवेट करत नाहीत. माझा संघर्षच मला लढण्याची शक्ति देतो. माझं आयुष्य बद्दल एकच मत आहे रडा नाही तर लढा. कारण जिवन जगतांना अनेक संकटं येतात. त्याच्याशी लढणं हा एकमेव पर्याय मला दिसतो. मला वाटतं आपण ठरवलेलं ध्येय पुर्ण करण्यासाठी ज्या जिद्दीने संघर्षाच्या मैदानात उतरतो. जी आग मनामध्ये लागलेली असते. अश्रू गाळल्या ने ती विझायला लागते. नव्हे विझतेच. असं माझं मत आहे. हे चुकीचंही  असू शकते.पण परिस्थितीबददल बोलून किंवा त्यागाचे आकडे देऊन मला वाटतं आपण आपली कमजोर बाजू उजागर करत असतो. त्याग तर प्रत्येक माणुस कोणत्या ना कोणत्या स्वरूपात करतच असतो. तसा मी ही केलेला आहे. त्याच्यापेक्षा कमी किंवा जास्तही केलाय. या स्पष्टीकरण मला द्यायचं नाही. पण मला स्वतःला या प्रकारे समोर आणनं आवडत नाही.

मला वाटतं जे करायचं त्यावर पुर्णपणे लक्ष केंद्रित केले पाहीजे. मग जगाला आपल्या त्यागाचे आकडे द्यायला वेळच मिळणार नाही. कोणीतरी मला म्हटलं कि आम्ही आमचं ध्येय आणि कशासाठी त्याग करतोय. हे लिहुन ठेवलंय. आणि त्याचा मोबाईलवर फोटोही काढला आहे. जेव्हा कधी आम्हाला आमचं ध्येय विस्मरणात जातं तेव्हा ते वाचुन घेतो, कोप-यात जाऊन रडून घेतो, आणि पुन्हा जोमाने कामाला लागतो. त्यांना जर असं केल्याने नवी उर्जा मिळत असेल तर नक्किच ही चांगली गोष्ट आहे. पण मी माझं ध्येय माझ्या मनावर कोरलंय. आणि ते कधीच विस्मरणात जाऊ देत नाही. म्हणुन डोळ्यातुन अश्रू गाळण्याचा प्रसंगच ओढावत नाही. माझे लक्ष फक्त माझ्या ध्येयावर केंद्रित असतं.

पण त्यांनी ठरवलेलं ध्येय, केलेला त्याग आणि ते गाठण्यासाठी ठेवलेला संयम  खरोखरचं कौतुकास्पद वाटला.

 

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा

जि. नंदुरबार

मो  9168471113

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।39।।

 

श्रद्धावान संयमी तत्पर कर लेता है पार उसे

परम शांति वह पाता मन में शीघ्र मिल गया ज्ञान जिसे।।39।।

 

भावार्थ :  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।।39।।

 

The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued all the senses, obtains (this) knowledge; and, having obtained the knowledge, he goes at once to the supreme peace. ।।39।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 10 ☆ नाथ! चले आओ ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनका एक गीत  “नाथ! चले आओ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 10 ☆

 

☆ नाथ! चले आओ ☆

 

जीवन संध्या होने को है, अब तो नाथ चले आओ

नैनो की ज्योति बोझिल, आके दरस दिखा जाओ

जीवन संध्या…

 

मन व्याकुल है, नेत्र विकल, अधरों पर उमड़ी है प्यास

स्नेह सुधा बरसाओ आकर, मेरे मन को हर्षा जाओ

जीवन संध्या…

 

सांसो की सरगम मध्यम हुई, जीवन से आशा बिछुड़ी बाधित हैं

स्वर मेरे उर के, आकर प्यास जगा जाओ

जीवन संध्या…

 

सहमे-सहमे अंधकार में, मार्ग बताने वाला कोई नहीं

ऐसे में बनकर  रहबर तुम,  सही कहा दिखला जाओ

जीवन संध्या…

 

जीवन नैया  डोल  रही,  मझधारों के बीच प्रभु

तुम तारणहार जगत् के, मुझको पार लगा जाओ

जीवन संध्या…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ जाकी रही भावना जैसी….☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “जाकी रही भावना जैसी…. ”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जाकी रही भावना जैसी…. ☆☆

 

कॉलोनी के मेन गेट पर नया सिक्युरिटी गार्ड आया है – महेश. उसके आने के तीन चार दिन बाद से ही गोयल साब ने मेन गेट से आना जाना कम कर दिया है. पीछेवाले गेट से जुड़ी सड़क ऊबड़ खाबड़ है. बाज़ दफा स्ट्रीट लाईट बंद रहती है. मेन रोड पर आने के लिए लंबा चक्कर लेना पड़ता है. परेशानियों के बाद भी यही गेट उनकी पहली पसंद बन गया है.

यूँ तो वे कहीं से भी आयें-जायें. किसी को क्या ? लेकिन, मन है कि कयास लगाता रहता है. टोटका हो सकता है. जाते समय काणा आदमी दिख जाये तो काम बिगड़ जाता है. लेकिन महेश की एक आँख बकरे की नहीं है. उस तरफ कुछ आवारा कुत्ते घूमते तो रहते हैं लेकिन महेश ने कभी उनको गोयल साब पर छूssss नहीं किया. वो इच्छाधारी साँप भी नहीं है कि व्हीकल के साईड मिरर में उनको उसका असली रूप नज़र आ गया हो. मामला स्टार प्लस के फेमिली सीरियल्स वाला भी लग नहीं रहा था कि उनकी मैरेज एनिवर्सरी की पार्टी में केक कटने से जस्ट तीस सेकंड पहले महेश की इंट्री हो और वो बताये कि वो उन्हीं का खून है. तब भी कुछ तो है !!!

क्या है ये धीरे धीरे मेरी समझ में आया. वे महेश की नमस्ते से बचने की यथासंभव कोशिश करते हैं. वे हर उस गार्ड से, सफाई कर्मी से, मेसन से, प्लंबर से बचते हुवे चलते हैं जो उनसे नमस्ते करता है. महेश तो झुककर नमस्ते करता है. अदब से, जितनी बार निकलो उतनी बार नमस्ते करता है. वे इसी से डरते हैं. एक दिन उन्होने मुझे महेश से बात करते हुवे देख लिया. एक तरफ ले जाकर धीरे से बोले – “शांतिबाबू बच कर रहना, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं. नमस्ते नमस्ते कर के रिलेशन बढ़ाते हैं और एक दिन उधार मांग लेते हैं. देखना एक दिन वो आपसे सौ रूपये मांगेगा और लौटा देगा, फिर दो सौ, पाँच सौ, हज़ार सब वापस कर देगा. फिर पाँच हज़ार ले जायेगा. और एक दिन गायब हो जायेगा.”

“मुझे तो स्वाभिमानी और ईमानदार लगता है. रूपया नहीं माँगेगा.”

“उधार न सही, स्कूटर ही मांग ले या फ्रिज, टीवी, सोफा, टेबल कुछ भी कि साब आप नया ले लो, पुराना मेरे को दे दो. छोटे लोग हैं, मुफत सामान की जुगत लगे रहते हैं. हफ्ते-दस दिन नमस्ते की, आपने रिस्पांस दिया कि फंसे उनके ट्रेप में.“

“नहीं साब, गाँव से अभी अभी आया सीधा लड़का है, कोई बेहतर काम ढूंढकर चला जायेगा.“

“यस, अब सही पकड़ा है आपने. एक दिन वो जरूर कहेगा कि मेरी पक्की नौकरी लगवा दो. तब क्या ?”

“सब करते हेंगे गोयल साब, आपने भी तो मंत्रीजी को बोलके लड़के को प्राधिकरण में इंजीनियर फिट करवा दिया.“

“मेरे को ही लपेट रहे हो शांतिबाबू. मैं तो आपके भले की कह रहा था. बाय-द-वे हमारे घरेलू रिलेशन हैं मंत्रीजी से, पुराने.” – कह कर वे कट लिए.

तुलसी ने चार सौ बरस पहले लिखा था – “जाकी रही भावना जैसी….”. कौन जाने गोयल साब के लिये ही लिखा हो.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-3 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 3 

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

पन्द्रह 

 

वह जलाती है

चूल्हा..,

आग में तपकर

कुंदन होती है।

 

सोलह 

 

वह परिभाषित

नहीं करती यौवन को

यौवन उससे

परिभाषित होता है,

वह परिभाषा को

यौवन प्रदान करती है।

 

सत्रह 

 

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

आकार को मनुष्य

बनाने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह!

 

अठारह 

 

वह मांजती है बरतन

चमकाती है बरतन,

धरती को

महापुरुषों की चमक

उसी के बूते मिली है।

 

उन्नीस 

 

वह बुहारती है झाड़ू

सारा कचरा

घर से निकालती है,

मन की शुचिता के सूत्र

अध्यात्म को

उसी ने दिये हैं।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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