हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 10 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग दो”।  जिस तरह एक झूठ छुपाने के लिए दस झूठ और बोलने पड़ते हैं  उसी तरह आज के जमाने में यदि कोई एक गलती सुधारना चाहे तो सामाजिक प्रणाली उससे दस गलतियाँ और करने के लिए बाध्य करती हैं। ऐसे में हमें बाबूलाल जैसे निरीह प्राणी के चरित्र की बजाय दारोगा जैसे चरित्र पर हँसी आनी चाहिए। किन्तु, अक्सर ऐसा होता नहीं है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 10 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆

 

बाबूलाल को रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ धर लिया गया है। अब बाबूलाल धीरज की मूर्ति बना, मौन,थाने में बैठा है। आसपास पुलिस वाले घूम रहे हैं।

सामने वाली कुर्सी पर बैठा दरोगा कहता है, ‘अब तुम गये काम से। जेल जाना पक्का है।’

बाबूलाल सहमति में सिर हिलाता है।

दरोगा पूछता है, ‘तुम्हें डर नहीं लगता?’

बाबूलाल ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘डरने से क्या होने वाला है? जैसा किया है वैसा भोगेंगे।’

दरोगा कुछ मायूस हो जाता है। थोड़ी देर मौन रहने के बाद जाँघ पर हाथ पटककर जोर-जोर से हँसने लगता है। बाबूलाल आश्चर्य से उसे देखता है।

हँसी रुकने पर दरोगा कहता है, ‘कुच्छ नहीं होगा। बेफिकर रहो। तुम दूध के धुले साबित होगे।’

बाबूलाल मुँह बाये उसकी तरफ देखता है।

दरोगा कहता है, ‘सब परमान-सबूत तो हमारे पास ही हैं न। हम बड़े बड़े केसों का खात्मा अपने लेविल पर कर देते हैं। हम कहेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं।’ वह फिर ताली पीट कर हँसने लगता है।

बाबूलाल पूछता है, ‘यह कैसे होगा?’

दरोगा जवाब देता है, ‘रोज होता है। कुछ पैसे का त्याग करोगे तो तुम्हारे केस में भी हो जाएगा।’

बाबूलाल थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है, ‘लेकिन यह ठीक नहीं होगा।’

अब दरोगा अचरज में है। पूछता है, ‘क्यों ठीक नहीं होगा?’

बाबूलाल कहता है, ‘हम जीवन भर ईमानदार रहे। सिर्फ इसी बार हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। हम भ्रष्ट तो हो गये, लेकिन अब हम झूठे और बेईमान नहीं होना चाहते। हम अपने किये की सजा भुगतेंगे।’

दरोगा अपने बाल नोचने लगता है, कहता है, ‘तुम पागल हो। हमारी बात मानोगे तो तुम बच जाओगे और हमें भी अपने पेट के लिए तुमसे दो पैसे मिल जाएंगे।’

बाबूलाल असहमति में सिर हिलाता है, कहता है, ‘नईं दरोगा जी,हमसे एक पाप हो गया, दूसरा नईं करेंगे। आप अपना काम करो ।हम सजा के लिए तैयार हैं। झूठ नहीं बोलेंगे।’

दरोगा माथा पीट कर कहता है, ‘ससुरा सनकी कहीं का!’ फिर सिपाहियों की तरफ देखकर कहता है, ‘कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरे का नुकसान करने के लिए अपना सिर कटवा दें। खुद मरें और दूसरे को भी नरक में ढकेलते जाएं।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #7 – मिट्टी – जमीन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 7 ☆

 

☆ मिट्टी – जमीन ☆

 

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब अधिकांश आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्त्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

 

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

 




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #14 – Calligraphy ! ! ! ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की चौदहवीं कड़ी  Calligraphy ! ! !।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  जिस प्रकार हम वार्तालाप में सुंदर और मन को भाने वाले शब्दों का उपयोग करते हुए अन्य व्यक्तियों के हृदय में अपने प्रति एक अमिट छवि बनाते हैं या  हमारी छवि अपने आप बन जाती है।  उसी प्रकार कागज पर सुंदर मोतियों जैसे अलंकृत लिपिबद्ध शब्द हमें अनायास ही आत्मसात करने के लिए बाध्य करते हैं।  कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #14 ?

 

☆ Calligraphy ! ! ! ☆

 

शब्दांशी खेळताना, शब्दांवर वापरलं जाणारं आणि मला भावलेलं art…

सगळे साज लेऊनी माझ्या भाषेचं सौन्दर्य जेव्हा शब्दांद्वारे कागदावर अवतरतं, तेव्हा ते काळजावर नक्कीच काही तरी कोरून जातं… कायमचं…

एक गमतीशीर तुलना मनात डोकावते…

Make up केलेली अक्षरं…

अक्षरशः हसून हसून डोळ्यात पाणी आलं…

हसायचं काय त्यात, तू नाही स्टेजवर यायच्या आधी मेक अप करत… प्रसंगानुरूप पेहराव नको करायला ! मला आठवण करून देण्यात आली, माझ्याचकडून !

अय्या, खरच की … आपणही बऱ्याच वेळा आपलं सौन्दर्य खुलावण्याचा प्रयत्न करतो.. मग आपल्या अंतर्मनातील जाणिवेला शब्दात जर मांडू शकलो तर तिलाही दगदागिन्यांनी सजवायला काहीच हरकत नाही… हे सुंदर शब्द किती समरस होऊन बोलतात, वागतात, त्यात नवजात अर्भकाचे निरागस हास्य दडलेलं असेल, नवं वधूची आशा असेल, आईची माया असेल, बापाची कडक शिस्त असेल, नात्यांची गुंफण असेल, समाजातील जबाबदारी असेल, शिक्षकाने दिलेली ज्ञानाची पुंजी असेल, घराची सुरक्षितता असेल, पावसाची चिंब भेट असेल, सागराची अथांगता असेल, आभाळाची काळजी असेल किंवा मातीची साथ असेल…

आपले विचार शब्दांद्वारे प्रवाही होत असताना, त्या शब्दांवरील calligraphic संस्कार, शब्दरूपी भावनांना, विचारांना अजून जवळ आणतात, मोत्यांसारखे श्रीमंती थाटात, आपल्या मनावर गारुड घालतात… अंगोपांगी खुलून दिसतात, हो ना !

 

© आरुशी दाते, पुणे 




हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ व्यक्तित्व ही हमारी पहचान ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का  व्यक्तित्वपर  विशेष  लेख।  )

 

☆ व्यक्तित्व ही हमारी पहचान

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा उसका स्वभाव ही उसका भविष्य है।  समाज का दर्पण साहित्य को कहा गया है, क्योंकि समाज की अच्छाइयां और बुराइयां, सामाजिक गतिविधियों की जानकारी साहित्य में ही परिलक्षित होती हैं।

कुदरत की रची इस सुंदर एवं हसीन दुनिया में हर इंसान समाज में रहते अपने लिए एक सुंदर, अपना कह सकने वाला, घर हो इसकी कल्पना करता है और बनाता भी है। अपने श्रम से निरंतर उसे सिंचित कर एक समय ऐसा आता है जब वह बगिया हरी-भरी हो जाती है। इस बगिया को हरी-भरी बनाए रखने के लिए और हमारे व्यक्तित्व निर्माण में वाणी (बोलचाल) का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के बाहरी रूप को देखने के बाद वाणी से ही उसकी पहचान होती है, और मीठा- मधुर बोलने वाला व्यक्ति अपना चिर – स्थाई जगह बना लेता है। मीठी वाणी व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है।

व्यक्ति का बोलना संसार में सबसे बड़ा आभूषण माना जाता है। अच्छी बोली, अच्छा व्यवहार एक असाधारण इंसान बनने की ओर पहला कदम है। क्या बोलना है ये लगभग सभी जानते हैं। लेकिन व्यक्तित्व की सही पहचान, तभी बनती है जब यह ज्ञान आ जाए कि कब और कहां बोलना है। इसी से वाणी की पहचान भी होती है। सज्जनता और शालीनता हमारी जीभ में ही रहती है।

“ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।”

आप जीभ से मिठास बांटना शुरू कीजिए, यकीनन आपके मुंह से निकले हुए शब्द वरदान बनेंगे। हमारी वाणी सूर्य की किरणों के समान बलशाली होती हैं । लेजर किरणों के हिसाब से इस वाणी की सामर्थ भी बहुत अधिक होती है। वाणी का दिया हुआ श्राप भी काम का हो सकता है। वाणी में नुकसान करने की क्षमता अधिक होती है। इसीलिए जीभ पर नियंत्रण होना भी बहुत जरूरी है।

दूसरों से वार्तालाप करते समय शालीनता का ध्यान रखना, सज्जनता का ध्यान रखना, सेवा का ध्यान रखना और वाणी का विश्राम होना बहुत ही आवश्यक है। आपने देखा होगा कि मरते समय आदमी में क्या परिवर्तन होता है। आंखें काम करती हैं, हाथ पैर काम करते हैं पर वाणी का चलना बंद हो जाता है। जीभ में आफत आ जाती है। होठं चल रहे हैं, आंख काम करती हैं, आंसू आ रहे हैं पर मृत्यु के समय आवाज नहीं निकलती है। यह वोकल साउंड साधारण चीज नहीं हैं, इसीलिए शब्दों का उच्चारण हमेशा रोकथाम कर, सोच – विचार कर करने की आदत होना चाहिए।

हम अच्छा काम करें, अपने पीछे ऐसी छाप छोड़ दें कि समय भी उसे मिटा न सके। आप और हम जो जीवन जी रहे हैं उस पर असर करने वाले शब्दों का चयन अक्लमंदी से करना चाहिए। कबीर दास जी एक संत, ज्ञानी, भक्त, कवि व समाज सुधारक के रूप में याद किए जाते हैं और जाने जाते रहेंगे। उनके व्यक्तित्व अनोखा था, उन्होंने झूठ का सहारा कहीं और कभी भी नहीं लिया। उनके जीवन की सबसे बड़ी सौगात उनकी वाणी और सर्वजयी व्यक्तित्व रहा। जो सदैव अमर रहेगा। बहुत ही सरल शब्दों में उन्होंने जीवन की चार बातें कह दी हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने वाणी के संदर्भ में बहुत ही सुंदर पंक्तियां लिखी हैं।

“तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर॥”

महात्मा विदुर जी ने महाभारत में सुंदर वर्णन किया है की वाणी से विधा हुआ घाव भी भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष भी समय पश्चात हरा- भरा हो जाता है, परंतु कटु वाणी द्वारा बोले गए शब्दों के घाव कभी भी नहीं भरते हैं। हर युग में वही महाभारत का कारण बनता है। अपने व्यक्तित्व निर्माण में मधुर भाषण, नम्रता, विनयशीलता, हमेशा हंसते मुस्कुराते और यथासंभव सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत को अपनाना चाहिए।

सिर्फ वही आदमी अच्छे और बुरे का निर्माता हो सकता है जो आदमी की मंजिल की रचना कर सके और दुनिया को उसका अर्थ और भविष्य दे सके। शब्द उनके लिए होते हैं जो वजन सह सकते हैं। हल्के लोगों के लिए शब्द व्यर्थ हैं।

वाणी एक पर रूप अनेक हैं, शब्द एक पर अर्थ अनेक हैं। कभी शब्द सी मीठी वाणी, कभी कोयले – सी कड़वी वाणी, कभी प्रशंसा का पात्र बनाती, कभी तिरस्कृत करती वाणी सारे संयम ओं में वाणी, सारे संयम अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे शरीर में जीभ खुद तो बात कह कर मुंह के अंदर चली जाती है, परंतु उसका परिणाम कहने वाले को भुगतना पड़ता है।

 “रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल

आपु तो कही भीतर रही जूती सहत कपाल।”

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।33।।

 

द्रव्य  यज्ञ से ज्ञान यज्ञ है अधिक सदा मंगलकारी

क्योंकि पार्थ! सब कर्मो का है अंत ज्ञान सब सुखकारी।।33।।

 

भावार्थ :  हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।।33।।

 

Superior is wisdom-sacrifice to sacrifice with objects, O Parantapa! All actions in their entirety, O Arjuna, culminate in knowledge! ।।33।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डायलर-रिसीवर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – डायलर-रिसीवर

यात्रा पर हूँ और गाड़ी की प्रतीक्षा है। देख रहा हूँ कि कुछ दूर चहलकदमी कर रही चार- पाँच साल की एक बिटिया अपनी माँ से मोबाइल लेकर जाने किससे क्या-क्या बातें कर रही है। चपर-चपर बोल रही है। बीच-बीच में जोरों से हँसती है। ध्यान देने पर समझ में आया कि मोबाइल के दोनों छोर पर वही है। जो डायल कर रहा है, वही रिसीव भी कर रहा है। माँ के आवाज़ देने पर बोली, ‘अरे मम्मा, फोन पर बात कर रही हूँ, झूठी-मूठी की बात…’ और खिलखिला पड़ी। अलबत्ता उसके झूठमूठ में दुनिया भर की सच्चाई भरी हुई है। सच्चे मोबाइल पर सच्ची सहेली से बातें। सब कुछ इतना सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना सच्चा कि मोबाइल  सैटेलाइट की जगह मन के तारों से कनेक्ट हो रहा है।

बच्चों के चेहरे तपाक से कनेक्ट कर लेते हैं। निष्पाप, सदा हँसते, ऊर्जा से भरपूर। उनकी सच्चाई का कारण स्पष्ट है, जो डायल कर रहा है, वही रिसीव कर रहा है। भीतर-बाहर कोई भेद नहीं। भीतर-बाहर एक। द्वैत भीड़ में अद्वैत।

इस एकात्म ‘डायलर-रिसीवर’ फॉर्मूले को क्या हम नहीं अपना सकते? याद करो पिछली बार अपने आप से कब बातचीत की थी? अपने आप से बात करना याने अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र से बात करना, ऐसी आत्मा से बात करना जिससे अपना भीतर या बाहर कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। अपने आप से वार्तालाप याने परमात्मा से संवाद।

एकाएक बिना कोई नम्बर फिराये अपने आप से बात कर रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि यों चपर- चपर बोलना और खिलखिलाना ज़रा भी कठिन नहीं। भीतर नई ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।

अब तुम्हारा मेरी ओर खिंचा आना स्वाभाविक है पर सुनो, सदा लौह बने रहने के बजाय चुंबक बनने का प्रयास करो। खुद को डायल करो, खुद रिसीव करो, चुंबकत्व खुद तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा।

आइए, आज खुद से बतियाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 




मराठी साहित्य – कविता ☆ मुका होता. . !☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(आज प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की एक भावप्रवण कविता  मुका होता. . !)

 

☆ मुका होता. . ! ☆

 

मुका रसिक म्हणूनी

कुणी हिणवले त्याला

भाषा शब्दांची बोलत

मुका होता,  कवी झाला. . . !

 

वाचा गेली अपघाती

बोलणारा मूक झाला

त्याच्या मुक्या वेदनेचा

कवितेत जन्म झाला. . . . !

 

मुकेपणा लेणे त्याचे

काव्यविश्व साकारते

एका एका शब्दातून

मायबोली  आकारते. . . . !

 

मुक्याचीच मायबोली

लेखणीत सामावली

त्याच्या काळजाची भाषा

आसवात पाणावली.. . . . !

 

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 2 – असत्य की रात्रि ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “असत्य की रात्रि।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #2 ☆

 

☆ असत्य की रात्रि  

 

भारद्वाज (अर्थ : जिसके पास ताकत है)ऋषि, विश्रवा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपनी बेटी इलाविडा (अर्थ :भूमि से ग्रहण करना) कोपत्नी के रूप में दे दिया था ।इलाविडा से विश्रवा को एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुबेर रखा गया। कुबेर का अर्थ है विकृत संरचना/आकृति या राक्षसी या बीमार आकार वाला ।एक अन्य सिद्धांत के अनुसार कुबेर का अर्थ मूल क्रिया ‘कुम्बा’ से लिया जा सकता है, जिसका अर्थ है ‘छुपाएं’ तो कुबेर में कु अर्थ ‘पृथ्वी के अंदर छुपा हुआ’ और ‘वीरा’ का अर्थ नायक है तो कुबेर का अर्थ हुआ पृथ्वी के अंदर छिपे हुए ख़जाने का नायक । कुबेर छिपे हुए धन के भगवान है और अर्द्ध दिव्य यक्षों के राजा हैं । कुबेर को उत्तर दिशा का ‘दिकपाल’ भी माना जाता है (दिक का अर्थ है ‘दिशा’ और पाल का अर्थ है ‘पोषण’) अर्थात उत्तर दिशा का पालन करने वाला । कुछ लोग कुबेर को लोकपाल भी मानते है (लोक अर्थ ‘दुनिया’ और पाल का अर्थ है ‘पोषण’ तो कुबेर हुए दुनिया का पोषण करने वाले) । कई ग्रंथों ने कुबेर को कई अर्ध-दैवीय प्रजातियों के अधिग्रहण के रूप में और दुनिया के खजानों के मालिक के रूप में उजागर किया है । कुबेर को अक्सर एक मोटे शरीर के साथ चित्रित किया जाता है, जो गहनों से सजे हुए होते हैं, हाथों में धन-बर्तन और एक गदा लिए हुए होते हैं, कुबेर ही लंका के मूल शासक थे । भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले गये। वह घोर तप या तो भगवान शिव ने किया था या फिर कुबेर ने किया, अन्य कोई भी देवता उसे पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया था। कुबेर से प्रसन्न होकर शिव ने कहा-‘तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम एकाक्षीपिंगल कहलाओंगे। देवी भद्रा (अर्थ : कल्याणकारिणी शक्ति) ,हिन्दू धर्म में भद्रा शिकार की देवी है कुबेर की पत्नी है ।

यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है ‘जादू की शक्ति’, येप्रकृति-आत्माओं की एक श्रेणी है आमतौर पर उदार, जो पृथ्वी और वृक्ष की जड़ों में छिपे प्राकृतिक खजाने की देखभाल करते हैं । दूसरी ओर, यक्षों को वन और पहाड़ों से जुड़े अपमानजनक, प्रकृति का सन्देशवाहक भी माना जाता है । लेकिन यक्ष का एक नकारात्मक संस्करण भी है, जो एक प्रकार के भूतहैं और जो जंगलों मेंशिकार करते हैं ।ये वे यक्ष हैंजो राक्षसों के समान जंगलों से गुजरने वाले यात्रियों को भस्म करके खा लेते हैं ।

स्वर्ग के निवासियों के तीन वर्ग हैं :

  1. देवता (वातावरण और प्राकृतिक चक्र के देव)
  2. गणदेव (देवताओं की विभिन्न श्रेणियाँ)
  3. उपदेव (देवताओंकेसहायक देव)

इंद्र, सूर्य, सोम, वायु आदि देवता हैं ।

गणदेव में हैं :

12 आदित्य (12 महीनो के 12 सूरज देवता),

10 विश्वदेव (10 सार्वभौमिक सिद्धांतो के देव),

8 वासु (8 प्रकार के निवास स्थानों के देव),

36 देवी,

64 अभास्वर (64 प्रकार की चमक के देव),

49 अनिल (हवाओं की देवताओं),

220 महाराजिका (220 प्रकार की रियासतो के देव),

12 साध्य (12 सिद्धि प्राप्ति के तरीकों के देव) और

11 रुद्र (11 विनाश के देव)

उपदेवों के 10 उपभाग हैं :

विद्याधर (ज्ञान के धारक),

अप्सरा (सार),

यक्ष,

राक्षस,

गंधर्व (गंध के मालिक),

किन्नर (आंशिक आदमी एवं आंशिक जानवर या कुछ और),

पिशाच (कच्चा माँस खाने वाले),

गुह्यक (रहस्यो को छिपाकर रखने वाले),

सिद्ध (महान ज्ञान रखने वाले) और

भूत (पृथ्वी से जन्मी भटकती आत्माएँ)

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होशोहवास ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘होशोहवास ’।)

☆ होशोहवास
मेरे शहर में हज़ारों लोग हैं जो
दूसरों के गिरहबान में झाँक रहे हैं
अपने गिरहबान में झाँकने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में अनगिनत लोग हैं जो
दूसरों की गलतियों पर ताना देते हैं
अपनी गलतियों पर पछताने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में हजारों लोग हैं जो
दूसरों के दुखों पर खुश होते हैं
अपने सुख से परे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में लाखों लोग हैं जो
दूसरों के हार पर खुश होते हैं
अपनी जीत के आगे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ याद रखना ☆ – श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी  के अनुसार – “मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और स्क्रिप्ट लिखता हूँ। एक लेखक के रूप में स्वयं को संतुष्ट करना अत्यंत कठिन है किन्तु, मैं पाठकों को संतुष्ट करने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयत्न करता हूँ। मुझे लगता है कि एक लेखक कुछ भी नहीं लिखता है, वह / वह सिर्फ एक दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, वास्तव में पाठक अपनी समझ के अनुसार अपने मस्तिष्क में वास्तविक आकार देते हैं। “कला” हमें अनुभव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है और मैं जीवन भर कला की सेवा करने का प्रयत्न करूंगा।”)

 

☆ क्षितिज ☆

याद रखना

बदलते वक़्त में क्या न बदला,

लाख कोशिशों से कौन न पिघला,

याद रखना।

 

तुम्हारे मौजूदगी में कौन था खिन्न,

तुम्हारे जिक्र से ही कौन था प्रसन्न,

याद रखना।

 

तुम्हारे कहानियों में कौन था साथ,

बद से बदतर होते हालत में किसने छोड़ा हाथ,

याद रखना।

 

तुम्हारे आंसुओ पे किसने जताया अपना हक़,

तुम्हारे अच्छे इरादों पे भी किसने किया शक,

याद रखना।

 

एक चेहरे के पीछे कई चेहरों की परतें,

सामने गुणगान पीछे घमासान जो करते,

याद रखना।

 

तुम्हारे प्रयासों का किसने रखा मान,

भरोसे पर किसने छोड़े तीखे बाण,

याद रखना।

 

हर वक़्त किसे थी तुम्हारी तलब,

पीठ दिखाया किसने साधकर अपना मतलब,

याद रखना।

 

तेरे अरमानों को किसने जगाया,

कुछ प्राप्ति के बिना किसने रिश्तों को निभाया,

याद रखना।

 

तुम्हारे लबों की हसीं पे किसने किया काम,

तुम्हारे प्रेम का किसने लगाया दाम,

याद रखना।

 

ज़िन्दगी वृत्त की परिक्रमा काटती,

जाती वापस वहीं लौट के आती,

भले समय लगे लेकिन अच्छे और बुरे का फर्क समझाती,

याद रखना।

 

रास्तों के सफर में न किसी से गिले न कोई शिकवे रखना,

जो मिले उन अनुभवों से सीखना,

बढ़ते रहना,

पर याद रखना।

 

© दिवयांशु  शेखर, कोलकाता