हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 21 – दीपावली उपहार ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “दीपावली उपहार”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  स्वस्थ मित्र संबंधों का सन्देश दिया है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 21 ☆

 

☆ दीपावली उपहार ☆

 

विजय और शंकर दोनों बचपन के परम मित्र। कक्षा 1 में जब से एडमिशन लिया था तभी से दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। साथ-साथ पढ़ना-लिखना खेलना-कूदना यहां तक कि टिफिन में क्या है दोनों मिलकर खाते थे। बच्चों की दोस्ती की घर में बात होती थी। स्कूल में पैरंट्स मीटिंग के दौरान माता-पिता से बातचीत होते-होते घर परिवार सभी एक दूसरे को अच्छी तरह जानने लगे थे। कभी अनबन भी हो जाती दोनों में परंतु, एक दिन से ज्यादा नहीं चल पाता था। क्योंकि विजय और शंकर दोनों का एक दूसरे के बिना साथ अधूरा लगता था।

धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई बढ़ती गई और उनकी समझदारी भी बढ़ने लगी। साथ ही साथ मित्रता भी बहुत ही प्रगाढ़ हो गई। उनके साथ उनके और भी दोस्त जुड़ गए थे। जिनका आना जाना सभी के घर बराबर से होता रहता था। कभी किसी के यहां बैठ दिन भर मस्ती और पढ़ाई तो कभी किसी दूसरे दोस्त के घर मस्ती। परंतु विजय और शंकर एक दूसरे के घर जाना ज्यादा पसंद करते थे।

हाई स्कूल पढ़ाई सब्जेक्ट चॉइस के बाद दोनों की दिशा पढ़ाई एवं लक्ष्य अलग-अलग हो चुका था परंतु दोस्ती बेमिसाल रही। विजय ने अपने लिए विज्ञान विषय लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वही शंकर ने अपने लिए इंजीनियरिंग का कोर्स पसंद किया। दूर-दूर रहने के बाद भी फोन पर हर बात और यहां तक कि दिवाली पर क्या शर्ट लेना है तक की बातें होती थी। दोनों बच्चों की सादगी और दोस्ती पर घर परिवार भी गर्व करता था।

ऐसे ही एक साल दिवाली का समय था। धनतेरस के दिन शंकर के पिता जी ने उसके लिए एक अच्छी सी गाड़ी ले कर दिया। शोरूम से गाड़ी घर आ गई। पिताजी ने कहा तुम अपनी नई गाड़ी चलाकर मंदिर ले जाओ और मिठाई प्रसाद चढ़ा देना भगवान को। यह कहकर पिताजी अपनी ड्यूटी पर निकल गए।

दिवाली का दिन शुभ होता है। शाम को गाड़ी ज्यों की त्यों खड़ी मिली। पूछने पर पता चला कि कल लेकर जाऊंगा। पिताजी ने भी हामी भरकर डांटते हुए कहा कोई काम समय पर नहीं करते हो। आज अच्छा दिन था। परंतु शंकर तो कुछ और ही सोच कर बैठा था। रात को माँ पिता जी से कहा कि सुबह जल्दी उठा देना मेरा दोस्त आ रहा है विजय। उसको लेने स्टेशन जाना है। सुबह जल्दी उठ अपनी नई गाड़ी निकाल शंकर स्टेशन अपने दोस्त को लेने पहुंच गया। पिताजी उठे नहा धोकर तैयार हो सोचा कि आज दिवाली है। मैं ही गाड़ी से मंदिर होकर आ जाता हूं। नई गाड़ी है शुभ काम होना चाहिए। परंतु देखा की गाड़ी की चाबी नहीं है। घर में पूछने पर पता चला कि शंकर लेकर गया है।

शंकर की नई गाड़ी देख विजय बहुत खुश हुआ। ट्रेन से उतरने पर और गाड़ी चलाकर सामान के साथ दोनों दोस्त घूम कर आ गए। विजय को उसके घर छोड़ते हुए शंकर अपने घर आया। माँ पिताजी ने कहा नई  गाड़ी लेकर स्टेशन क्यों चला गया था। शंकर बहुत खुश होकर बोला आप ही कहते हैं कोई भी चीज के शुभ दिन और शुभ समय होना चाहिए। मेरी गाड़ी में मेरा दोस्त पहले बैठ चला कर आया है। मेरे लिए तो ये बहुत ही शुभ है। मेरा दोस्त पहले मेरी गाड़ी में बैठा है मेरे लिए ये मंदिर जाने से भी बढ़कर है।

माँ पिताजी भी उसकी खुशी देख बहुत खुश हुए और दोनों की दोस्ती की सलामती के लिए ईश्वर से बार-बार प्राथना करने लगे। विजय और शंकर के लिए *शुभ दीपावली* हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 – ☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  अनाम वीरा – कुसुमाग्रज ” .   ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी  साहित्यकार  स्व विष्णु वामन शिरवाडकर अपने  उपनाम कुसुमाग्रज के नाम से जाने जाते हैं। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 ☆

☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज  ☆ 

श्वेता, तुमच्या ह्या अनोख्या काव्यदिंडीत मला चार पावलं चालायची संधी दिल्याबद्दल तुला मनापासून धन्यवाद ! ठेक्यात कविता म्हणता म्हणता तिच्या रस, रंग, गंधाची मोहिनी मनाला कधी पडली हे कळलंच नाही. आणि सुरू झाली एक रसयात्रा ! गदिमा, बाकिबाब, विंदा या शब्दप्रभूंच्या प्रासादिक शब्दवैभवाने कधी मनावर गारूड केले तर कधी शांताबाई, बालकवि, ना. धों.च्या वासंतिक शब्दलावण्याची मनाला भुरळ पडली. दिंडीतली पावलं कोणाचं बोट धरून टाकावीत हा माझ्यासाठी मोठा यक्षप्रश्न ! माझे आराध्यदैवत कुसुमाग्रज यांच्या कवितेचं बोट धरून पहिलं पाऊल टाकायला मला खुप आवडेल !

अत्यंत तरल आणि संवेदनक्षम अभिव्यक्ती लाभलेल्या ह्या कविश्रेष्ठाने केलेलं हे एक कृतज्ञ स्मरण. तहान भूक विसरून, मायापाश तोडून, सीमेवर लढणा-या, आणि युद्धात कामी येणा-या जवानाच्या कर्तव्य बुद्धीचं, बलिदानाचं, प्रखर वास्तवाचं ह्या कवितेतील वर्णन वाचतांना, अंगावर रोमांच उभे राहतात, डोळ्यांच्या कडा पाणावतात, शब्द मूके होतात, आणि फक्त आणि फक्त हात उचलला जातो, त्या अनामवीराला सॅल्यूट ठोकण्यासाठी !

 

☆ अनाम वीरा ☆

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्‍त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात!

 

धगधगत्या समराच्या ज्वाला या देशाकाशी

जळावयास्तव संसारातून उठोनिया जाशी!

 

मूकपणाने तमी लोपती संध्येच्या रेषा

मरणामध्ये विलीन होसी, ना भय ना आशा!

 

जनभक्‍तीचे तुझ्यावरी नच उधाणले भाव

रियासतीवर नसे नोंदले कुणी तुझे नाव!

 

जरी न गातिल भाट डफावर तुझे यशोगान!

सफल जाहले तुझेच हे रे, तुझेच बलिदान!

 

काळोखातुनि विजयाचा ये पहाटचा तारा

प्रणाम माझा पहिला तुजला मृत्युंजय वीरा!

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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मराठी साहित्य ☆ दीपावली विशेष ☆ भाऊबीज ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । 

(इस  दीपावली  के पवन पर्व पर कविराज विजय जी  ने  अष्टाक्षरी विधा में  कुछ  विशेष कविताओं की रचना की है।   उनमें से  चार कवितायेँ  (1) वसुबारस (अष्टाक्षरी)  (2) धेनू  पूजा (चाराक्षरी)  (3) आली धन त्रयोदशी.. . ! (अष्टाक्षरी)  (4) नर्क चतुर्दशी  (अष्टाक्षरी) (5) लक्ष्मी पूजन  (अष्टाक्षरी)  (6) पाडवा  (अष्टाक्षरी) आप पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत हैं कविता  भाऊबीज  (अष्टाक्षरी). आपसे अनुरोध है कि आप इन कविताओं को इस दीपोत्सव पर आत्मसात कर  हृदय से स्वीकार करें। दीपोत्सव पर्व पर हृदय से हार्दिक शुभकामनाओं सहित )

☆ दीपावली विशेष – भाऊबीज ☆

*अष्टाक्षरी*

कार्तिकात द्वितीयेला

आली आली भाऊबीज

म्हणे बहिण भावाला

जरा आसवात भीज.. . . !

 

भाऊ बहीणीचा स`ण

औक्षणाचा थाटमाट

आतुरल्या अंतरात

भेटवस्तू पाहे वाट. . . . !

 

दोन घास जेवूनीया

आशिर्वादी मिळे ठेव

दीपोत्सव ठरे सार्थ

आठवांचे फुटे पेव. . . . !

 

किती दिले किती नाही

हिशोबाचा नाही सण

एकमेकांसाठी केले

आयुष्याचे समर्पण. . . . !

 

अशी स्नेहमयी वात

घरोघरी  उजळावी.

मांगल्याची भाऊबीज

मनोमनी चेतवावी.. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #21 – माझा परिचय ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

((वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “करू दिवाळी साजरी”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 22 ☆

 

☆ करू दिवाळी साजरी ☆

उठू पहाटेच्यापारी

करू दिवाळी साजरी

स्नान उरकले आता

जाऊ दर्शना राऊळी

 

आनंदाची ही दिवाळी

गाली आणते हो खळी

साऱ्या संसारा सोबत

नटे फुलांची डहाळी

 

आज अभ्यंगस्नानाला

न्हाऊ घालते ती मला

ओवाळणीत मागते

नवी साडी आणि चोळी

 

माहेराहून येईन

माझी लाडकी बहीण

आणि भरून नेईल

प्रेम नात्यांची ही झोळी

 

रंगीबेरंगी फटाका

मारी आकाशी धडका

आनंदाने ही लेकर

बघा वाजवती टाळी

 

दारामधे ही रांगोळी

हाती फराळाची थाळी

पाडव्याच्या मुहुर्ताला

नवी सोन्याची साखळी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।2।।

 

बतलाता विज्ञान सह तुझको वह सब ज्ञान

शेष न रहता जानना,उसे पूर्णतः जान।।2।।

 

भावार्थ :  मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।।2।।

 

I shall  declare  to  thee  in  full  this  knowledge  combined  with  direct  realisation,  after knowing which nothing more here remains to be known.।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप

☆ पहला दीप ☆
दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?
प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।
इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रंगोली, रंग बिखेर रही है।
रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।
सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे  खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी।  हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।
कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने  के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।
दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।
पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।
अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।
पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.49 बजे,  9.11.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ दीपावली विशेष – आइए जलते हैं ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक सामयिक कविता  “आइए जलते हैं”.)

 

☆ दीपावली विशेष – आइए जलते हैं ☆ 

 

आइए जलते हैं
दीपक की तरह।
आइए जलते हैं
अगरबत्ती-धूप की तरह।
आइए जलते हैं
धूप में तपती धरती की तरह।
आइए जलते हैं
सूरज सरीखे तारों की तरह।
आइए जलते हैं
अपने ही अग्नाशय की तरह।
आइए जलते हैं
रोटियों की तरह और चूल्हे की तरह।
आइए जलते हैं
पक रहे धान की तरह।
आइए जलते हैं
ठंडी रातों की लकड़ियों की तरह।
आइए जलते हैं
माचिस की तीली की तरह।
आइए जलते हैं
ईंधन की तरह।
आइए जलते हैं
प्रयोगशाला के बर्नर की तरह।

क्यों जलें जंगल की आग की तरह।
जलें ना कभी खेत लहलहाते बन के।
ना जले किसी के आशियाने बन के।
नहीं जलना है ज्यों जलें अरमान किसी के।
ना ही सुलगे दिल… अगर ज़िंदा है।
छोडो भी भई सिगरेट की तरह जलना!
नहीं जलना है
ज्यों जलते टायर-प्लास्टिक।
क्यों बनें जलता कूड़ा?

आइए जल के कोयले सा हो जाते हैं
किसी बाती की तरह।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18– मार्मिक संस्मरण – जीवन जीने की कला ……. ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  मार्मिक संस्मरण   “जीवन जीने की कला …….” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18☆

 

☆ मार्मिक संस्मरण –  जीवन जीने की कला ……. 

 

जीवन है चलने का नाम …..। जो लोग परेशानी भरी जिंदगी जीते है उनकी संवेदनाये मरती नहीं है, उनकी संवेदनाएं विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में शाखा प्रबंधक रहते हुए एक घटना रह रह कर याद आ जाती है, शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये ”रंगैया ” ने भी कुछ ऐसी छाप छोड़ी ……..

”रंगैया” जब खाता खोलने आया तो बेंकवाले ने पूछा – ”रंगैया” खाता क्यों खुलवा रहे हो? ‘ ‘

रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घर  मे दो-दो बेटियां …घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आयके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ-तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भूखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है, तह्सीलवाला बाबू बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेंगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब!” …. बैंक वाले ने पूछा – “सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया?”

‘रंगैया बोला – “कहाँ साब !  गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है, वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जाएगी और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबू को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है। तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दोगे तो ?………..” रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग है प्राण जाय पर वचन न जाही …साब, यदि नहीं दूंगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबू उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”

रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में सिटिजनशिप का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो, भीड़ को चीरता हुआ मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पेकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबान से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते है कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि खुशियाँ हमारे आस-पास ही छुपीं होती हैं यदि हम उनकी परवाह करें तो वे कहीं भी मिल सकती हैं ……….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य ☆ दीपावली विशेष ☆ पाडवा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । 

(इस  दीपावली  के पवन पर्व पर कविराज विजय जी  ने  अष्टाक्षरी विधा में  कुछ  विशेष कविताओं की रचना की है।   उनमें से  चार कवितायेँ  (1) वसुबारस (अष्टाक्षरी)  (2) धेनू  पूजा (चाराक्षरी)  (3) आली धन त्रयोदशी.. . ! (अष्टाक्षरी)  (4) नर्क चतुर्दशी  (अष्टाक्षरी) (5) लक्ष्मी पूजन  (अष्टाक्षरी) आप पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत हैं   कविता  पाडवा   (अष्टाक्षरी). शेष कवितायेँ  समय समय  पर प्रकाशित करेंगे। आपसे अनुरोध है कि आप इन कविताओं को इस दीपोत्सव पर आत्मसात कर  ह्रदय से स्वीकार करें। दीपोत्सव पर्व पर हृदय से  नर्क चतुर्दशीहार्दिक शुभकामनाओं सहित )

 

☆ दीपावली विशेष – पाडवा ☆

*अष्टाक्षरी*

 

कार्तिकाची प्रतिपदा

येई घेऊन गोडवा.

दीपावली दिनू खास

होई साजरा पाडवा. . . . !

 

तेल, उटणे लावूनी

पत्नी हस्ते शाही स्नान.

साडेतीन मुहूर्ताचा

आहे पाडव्याला मान. . . . !

 

रोजनिशी, ताळमेळ

वही पूजनाचा थाट

येवो बरकत घरा

यश कीर्ती येवो लाट. . . . !

 

सहजीवनाची  गाथा

पाडव्याच्या औक्षणात

सुख दुःख वेचलेली

अंतरीच्या अंगणात.. . . . !

 

भोजनाचा खास बेत

जपू रूढी परंपरा.

व्यापारात शुभारंभ

नवोन्मेष स्नेहभरा.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #21 – महिलायें समाज की धुरी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “महिलायें समाज की धुरी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 21 ☆

 

☆ महिलायें समाज की धुरी 

 

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है. अतः समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं अति महत्वपूर्ण है. समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई एक महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी,ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी पर ही समाज का महाप्रासाद अविचल खड़ा है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के घटक तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं (शस्त्र) एक स्थान पर रखे. शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

कवि ने कहा है….

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ” प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है,रणभुमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करती रहेंगी……

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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