हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆.

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार चित्र मुद्गल जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया. ) 

 

☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत

 

(“लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है, उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है, कुछ नहीं कह पाते, कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं”)

 

जानी मानी वरिष्ठ कथा लेखिका अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित चित्रा मुद्गल जी का नाम ही परिचय का बोध कराता है। मैं उन्हें नमन करती हूँ। आज मेरे लिए बहुत ही हर्ष का विषय है और स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ जो मुझे उनसे साक्षात्कार लेने का अवसर प्रपट हुआ। प्रस्तुत है चित्रा मुद्गल जी से डॉ.भावना शुक्ल की लंबी वार्ता। मैं अपनी ओर से तथा आपके असंख्य पाठकों की ओर से आपको विगत दिनों प्राप्त सम्मानों पुरस्कारों के लिए बधाई देती हूँ।                            – डॉ भावना शुक्ल 

 

डॉ.भावना शुक्ल – आपके उपन्यासों में जीवन के यथार्थ को दर्शाया गया है, जैसे विज्ञापन की दुनिया में एक स्त्री किस प्रकार अपनी जमीन तलाश रही है उसकी जद्दोजहद को आपने किस प्रकार व्यक्त किया है. इस उपन्यास को लिखते समय आपकी मनो दशा क्या थी ?

चित्रा मुद्गल – पहली बात मैं कहना चाह रही हूँ कि जिस वक्त हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को एक विशेष उठाए गए आंदोलनों की तरह रेखांकित नहीं किया जा रहा था उस समय मुझे लगा कि इस चीज की बहुत जरूरत है, क्योंकि मुझे यह एहसास हो रहा था की विमर्श जो है कहीं न कहीं जिस दृष्टि से स्त्री के संघर्ष को, स्त्री की पीड़ा को, स्त्री के उत्पीड़न को, उसके बुनियादी अधिकारों को जिस तरह से उठाया जाना चाहिए उस तरह से उठाया नहीं जा रहा है बल्कि उसको थोड़ा सा फॉर्मूला बद्ध किया जा रहा है। पहले हंस पत्रिका थी और 10 वर्ष बहुत ही अच्छी पत्रिका जो सामाजिक सरोकारों से हो सकती है वह हंस थी और 90 के आसपास आते-आते सारिका बंद हो गई थी, धर्मयुग बंद होने की कगार पर था, साप्ताहिक हिंदुस्तान बंद होने की कगार पर था, तो वमुझे यह लगा कि जिस तरह की कहानियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. हंस के माध्यम से वह कहीं ना कहीं सृजनात्मकता में स्त्री विमर्श की एक गलत तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है और उसको फार्मूला बनाया जा रहा है। लिखने वालों के माध्यम से सभी स्त्रियां जो उस समय नई पीढ़ी की लेखिकाएं थी उनको यह बात बहुत आकर्षित कर रही थी।  उसी समय वैश्विक पटल पर भी हम यह देख रहे थे स्त्री संघर्ष की जो बातें हो रही थी उन  बातों में केंद्रीय भूमिका स्त्री की ‘देह’ थी. बातों से मेरा तात्पर्य है थोड़ी चिंता हुई उसके बाद पहले मैं डेटा एडवरटाइजिंग कमेटी से भी जुड़ी थी, लैंड ऑफ एडवरटाइजिंग से भी जुड़ी थी मुझे इन सब बातों ने बहुत चिंतित किया.  सही दिशा जो है वह होनी चाहिए विदेशों में जो चर्चा चल रही है स्त्री विमर्श को लेकर के वह चीज हमारे भारतीय स्त्री के लिए सही नहीं है।  हमारी लड़ाई है कि स्त्री को एक मस्तिष्क के रुप में पहचाना जाए। हमारी लड़ाई है हमारे पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्री को लेकर जरूरी हैं वह जाननी है, उसे संरक्षण की जरूरत होती है, वह अपने दिमाग से कुछ सोच नहीं पाती है, वह बच्चों के भविष्य को लेकर कोई निर्णय नहीं ले पाती है, बच्चों को क्या पढ़ना चाहिए उसके बारे में वह अवगत नहीं होती है, अवगत होना चाहिए वह होती नहीं है, वह अपनी चूल्हे चौके तक सीमित व्यक्तित्व, सारी चीजें बड़ी भ्रामक थी और इसको ही पितृसत्ता ने चला रखा, सदियों से स्त्री को उसी के अनुकूल अनुरूप उठा ले रखा तो उनका स्वार्थ सिद्ध होता था और उस समय उनको जो स्त्री चाहिए वो एक गुलाम।  जरूर चाहिए गुलाम और स्त्री में कोई अंतर नहीं कर पाते थे, वह सब मुझे उस समय बहुत गलत लगा कि एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते समाज को एक गलत संदेश सर्जना के माध्यम से फैलाए जा रहे हैं और जो हमारी नई पीढ़ी एक जागरुक पीढ़ी है भविष्य की नई पीढ़ी है. जैसे पुरानी पीढ़ी की लेखिकाएं लिखा करती थी जैसे मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती और इसी तरह से कविताओं में स्नेहमयी चौधरी उसके पहले शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महीयसी महादेवी वर्मा हालांकि महादेवी वर्मा ने अपने समय में स्त्री विमर्श को जीवन से सिद्ध किया यानी वह एक कवयित्री ही नहीं थी यदि वह कहती है…. “मैं नीर भरी दुख की बदली …और इसी तरह उन्होंने स्त्री पुरुष की परस्परता बराबरी और समानता को लेकर और सामाजिक विषमता को लेकर के बड़े उम्मीदों के साथ और यह भी कहा कि भविष्य होना क्या चाहिए…….. ” आओ हम सब मिलकर झूले….  और उसको उन्होंने अपने जीवन में उतारा भी और वह खुद शिक्षाविद थी उसके बावजूद उन्होंने इस बात की आवश्यकता महसूस की कि   स्त्री के आत्म संपन्न होने के लिए, आत्मनिर्भर होने के लिए अपनी सत्ता के लिए यह चाहिए की वह शिक्षित हो और शिक्षित होकर वह आत्मनिर्भर बने. उन्होंने कन्या विद्यापीठ की स्थापना की। स्त्रियों को सक्षम करने के लिए उस जमाने में यह लगा कि यह सब पटरी से उतर रहा है, शिक्षित हो मस्तिष्क की प्रतिष्ठा और स्थापना ना करके आप अपनी ‘देह’ पर ही लौट रहे हो, मैं चाहे जिस तरह इस्तेमाल करूं यौन आतुरता को लेकर भी पितृसत्ता ने उसकी कभी भी परवाह नहीं की। सिर्फ एक बच्चा पैदा करने की मशीन उसे बना दिया गया था उसका भी हक है कि उसकी परवाह की जानी चाहिए। स्त्री विमर्श का एक मुद्दा यह नहीं है लेकिन मुझे लगा कि एक समय ऐसा लिखना चाहिए और लड़ाई है। क्या यह स्त्रियों को जानना चाहिए कि लड़ाई केवल 24/28/34 बने रहने की नहीं है, लड़कियों को यह बताना कि आपको अपने ही को  संवारने में ही खुला जीवन जीना अपने और किसी को अगर नहीं देखना अपनी आंखों का संयम बरतें, आंखों को घुमा ले। तुम इन वस्त्रों में क्यों नहीं रह सकते? ऐसे क्यों रहोगे? लड़कों को चाहिए कि वह अपनी नजरें झुकाए. जैसे एक वट वृक्ष की खूबी होती है। समय, प्रतिभा और क्षमता जो दूसरों को छांव दे सके जो उसके व्यक्तित्व में है जो उसे इतना सा बना दे। मैंने “एक जमीन अपनी” 1990 में लिखने की आवश्यकता महसूस की और भावना मैंने लिखा लेकिन मुझे नहीं मालूम कि मैंने कैसा लिखा और क्या लिखा, फिर भी  मेरे मन में संतुष्टि है विज्ञापन जगत का जो दायरा है जो औरत को प्रभावित करता है केवल उसकी सुंदरता को ध्यान में रखकर.

अभी आजकल मैं एक विज्ञापन देख रही हूं भावना मुझे बहुत आकर्षित करता है एक मां अपने बच्चे के साथ व्यायाम कर रही है। उसको फिटनेस देना चाह रही है और वह भी व्यायाम कर रहा है जब वह गिरता है तो वह कहती है कि जब तुम गिरोगे तब मैं भी गिरूंगी और कहती है कि जब मैं जीतूंगी तभी जब तुम मुझसे आगे जाओगे। मतलब एक औरत बच्चे को क्या नहीं बना सकती, जो भविष्य की पीढ़ी है। इस तरह संकीर्ण मनोवृत्ति जो पितृसत्ता ने सदियों सदियों से अपनाया है उसको लेकर मुझे लगा जो स्त्री विमर्श का भ्रामक अर्थ जा रहा है उससे लड़ना है.

 

सुश्री चित्र मुद्गल जी का साक्षात्कार लेते हुए डॉ. भावना शुक्ल  

 

डॉ.भावना शुक्ल- एक साक्षात्कार में आपने पितृसत्ता से मुक्ति का विचार दिया है यानी आप मातृ सत्ता के पक्ष में है कृपया स्पष्ट कीजिये ?

चित्रा मुद्गल – पितृसत्ता से मुक्ति का मतलब हो सकता है जो उसने स्त्री को क्या बना कर रखा हुआ था उससे मुक्ति चाहिए और उससे मुक्ति बिना अपने व्यक्तित्व को गढ़े हुए, बुने हुए नहीं मिल सकती और उसके लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। जो कुछ कहा उसने सर झुकाकर मान लिया। मानेंगे अगर सही कहा यदि एक परामर्श के रूप में साझेदारी के रूप में है। हमे नहीं लगता कि आप उस साझेदारी की भावना को लेकर चल रहे हैं। पितृसत्ता को बदलना होगा, उसका आवाहन उसकी सत्ता, उस मातृसत्ता को उस शक्ति को आप तभी स्वीकार करते हैं जब नवरात्रि आती है। तो हमें ऐसे तीज और त्योहारों और पर्व तक बांध के मत रखो और उसको बता कर हमें मूर्ख मत बनाओ और वह सत्ता मूर्तियों से बाहर निकल कर के आप की कलाई नहीं पकड़ सकती थी। आप शोषण कर रहे हैं, दमन कर रहे हैं इसलिए यह ठीक कह रही हो यह बात मैंने कही थी।

डॉ.भावना शुक्ल – आपके लेखन में आपके पति स्मृति शेष अवध नारायण जी मुद्गल की कितनी प्रेरणा रही कितना सहयोग रहा ?

चित्रा मुद्गल – एक बात मैं कहना चाहती हूँ जब हम दोनों ने यह निश्चय किया कि हम परिणय सूत्र में बंधेंगे तो हमारे सामने यह समस्या थी कि मेरे घरवाले इसके लिए राजी नहीं थे। मैं बहुत संपन्न घर से हूं लेकिन विपन्न मानसिकता है उन लोगों की, मैं उस घर से हूँ, जहाँ पिता इतने बड़े नेवल अधिकारी हैं, बाबा डॉक्टर हैं, चाचा पुलिस कमिश्नर हैं, एक होता है ऐसी मानसिकता जो क्षत्रिय में हम लड़कियों को शिक्षा तो देंगे क्योंकि आज का वक्त चीज की मांग करता लेकिन हम उनके मन को नहीं जानेंगे, नहीं पूछेंगे, हम जहां चाहेंगे वही व्याह करेंगे. खानदान से खानदान होता है और मैं इसके लिए राजी नहीं थी। मैं अपनी मां की विरासत को नहीं जी सकती थी। मेरे मन में हमेशा यह आक्रोश रहा कि मैं सर पर पल्ला देकर के चुटकियों में अपना पल्ला साधे हुए घर की डाइनिंग टेबल पर क्या लगेगा केवल इसकी चिंता में ही लगी रहूं, मैं उसकी चिंता जरूर करूंगी लेकिन इसके साथ-साथ इस बात की चिंता करूंगी कि मुझे मेरी अस्मिता को वह सम्मान मिल रहा है की नहीं जो एक स्त्री होने के नाते मिलना चाहिए, और पहचाना जाना चाहिए, स्वीकार किया जाना चाहिए, यहां एक मस्त छवि है जो तुम्हारी मस्तिष्क पर जो तुम्हारे मस्तिष्क से बराबरी करता है। यह कई मायनों में उस से गहरा चेतन है, तुम्हारी संवेदना की वनस्पति उसकी संवेदना का असीम विस्तार है। क्योंकि, स्त्री जिस प्रसव पीड़ा को झेलती है तो कोई उसको सपने में भी नहीं झेल सकता। पुरुष को यह लगता है कि मैं संरक्षण दे रहा हूं, खाना कपड़ा दे रहा हूं और क्या चाहिए? पर भाई तुमको तो घर का काम करना ही पड़ेगा अपना, यह सारी चीजें मुझे स्वीकार नहीं थी और जब मुद्गल जी से जब मैंने ब्याह करने का निश्चय किया बहुत विरोध हुआ और मैंने मुद्गल जी से बात कही हम शादी बहुत सादगी से करेंगे। हमने पांच रूपए माटुंगा आर्य समाज मंदिर में भरकर विवाह किया। मुश्किल से 7 लोग थे जो धर्मयुग के सब एडिटर थे, माधुरी में थे, सारिका में थे, नवभारत टाइम्स में थे, यह लोग थे हरीश तिवारी उन्होंने मेरे भाई की भूमिका निभाई और उसके बाद तो मित्रों का कहना था कि गोरेगांव बांगुर नगर में “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संपादक है तीन सौ का छोटा मकान लेकर अपन रहिए, मैंने कहा नहीं मैं उसी झोपड़पट्टी में जिस झोपड़पट्टी के बीच मैं काम करती हूं, दुनिया के किसी भी कोने से वहाँ मैं थी।  वहाँ निर्धन लोग हैं लेकिन वे वहाँ मेरी बहुत इज्जत करते हैं और जो बड़े बूढ़े लोग युवा पीढ़ी पर भरोसा करते हैं, मेरे सुझावों को मानते हैं, मेरे संकेतों को समझते हैं, मैं उनके लिए धरना दे सकती हूँ, जेल जा सकती हूँ, मैं भूख हड़ताल कर सकती हूँ, उनके अधिकार को बढ़ाने के लिए और वह मुझ पर भरोसा करते हैं, और मैं उन पर भरोसा करती हूँ, मैं वहीं रहना चाहूंगी जिस तरह से वह रहते हैं.

तो हमने वहाँ एक खोली ली उसका किराया उस जमाने में 25 रूपए था और बिजली नहीं थी नल रात को 2:00 बजे आता था। वह जो पाँच/छह कमरों की  छोटी सी चाल थी जिसको रवींद्र कालिया सुपर डीलक्स चाल कहते थे मैं कहती थी जहाँ मै रहूंगी वह डीलक्स ही होनी चाहिए क्योंकि स्वर्ग तो वहीं होता है जहां शांति होती है उन लोगों ने मुझे आश्वस्त किया था आप हमारे साथ रहिए कोई दिक्कत नहीं बाद में बिजली हमने ली सामूहिक रूप से पैसा भर के सामूहिक रूप से और पंखा नहीं था तो कमलेश्वर भाई साहब अस्सी रूपए का ओरिएंट का पंखा  मुझे खरीद के दिया था बोले चित्रा इसे लगवा लो क्यों परेशान होती हो। वहीँ मैंने अपना काम शुरू किया। वहीं से अवध जी भांडुप स्टेशन आते थे और वह भांडुप से सेंट्रल मुंबई बोरीबंदर की ट्रेन पकड़ते थे और ठीक उसको सड़क क्रॉस करके सामने टाइम्स ऑफ इंडिया का ऑफिस था.

उसके बाद कुछ धमकियां मेरे घर से थी मार देंगे, परेशान करेंगे और बीच में करीब डेढ़ 2 महीने हम लोग दिल्ली आए हम लोग इन लोगों की आंखों के सामने से हट जाएंगे तो थोड़ा सा इन लोगों को ये होगा की हमने जो किया है उसको यह अपनी प्रतिष्ठा के प्रश्न से बाहर निकलकर सोचेंगे ये अधिकार है।

तो हम लोग दिल्ली आकर के रहे और दिल्ली आकर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के पास मॉडल टाउन में रहे. मन्नू दी और राजेंद्र यादवजी शक्ति नगर में रहते थे हम उनके यहाँ रहे उन्होंने हम दोनों को बहुत प्यार से रखा और सर्वेश्वर दादा तो सब को बड़े गर्व से कहते थे कि चित्रा मेरी बहू है, उसकी धर्मयुग में कहानी पढ़ी क्या? सबको कहते थे हमारी बहू बहुत सुंदर है देखा तुमने, दादा यह सब बात करते समय ऐसे बोलते जैसे कोई बच्चा हो जाता है। दादा इतने बड़े कवि इतने बड़े सृजनकार रहे, हम लोगो के प्रति आगाध स्नेह रहा। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकती हूँ। और वहीँ मुझे मॉडल टाउन में रामदरश मिश्र जी से मिली वहीं अजीत कुमार से मिली, स्नेहमयी चौधरी से मिली, विश्वनाथ त्रिपाठी से मिली, देवीशंकर अवस्थी जी से मिली।  मतलब हमे इतना प्यार मिला, बड़ी ताकत मिली और फिर हम वापस लौटे क्योंकि छुट्टियां बढ़ाई नहीं जा सकती थी। अवध जी को नोटिस मिल गया था या तो नौकरी से रिजाइन कर दो या नौकरी पर बने रहना है तो तुरंत वापस आकर ज्वाइन कीजिए। फिर हम अपनी उसी चाल में गए।

तुमने जो उस साझेदारी की बात करी तो वह इस बात का ख्याल रखते थे वह हमेशा कहते रहते थे कि तुम को लिखना है तुम लिखो उस वक्त कांच का लैंप चलता था उसमें लिखते थे और बत्तियों वाला स्टोव 5 रूपए का हमने लिया था। तब मेरे मित्रों ने मिलकर के जैसे ममता कालिया भी थी और वह वहाँ पर अंग्रेजी की लेक्चरार थी एसएनडीटी कॉलेज में, और इन सब ने मिलकर के मेरी गृहस्थी की जरूरत के छोटे छोटे बर्तन मुझे लाकर के दिए। सब ने बहुत साथ दिया। मैंने जिस तरह से चाहा था कि अवध जी जैसा इतना जागरुक और तेजस्वी व्यक्तित्व  का साथ जो मुझे मिलेगा एक सही साथी के रूप में मिलेगा और मुझे वही मिला मेरे पहले लिखे हुए कच्चे-पक्के के पाठक सबसे पहले वही होते थे। उसी समय उन्होंने कवंध, संपाती यह सब कहानियां धर्म युग में लिखी।  निःसन्देह, भावना मैं आज भी इस बात को कह सकती हूँ।  लोगों को लगता है कि मैं बहुत अच्छी लेखिका हूँ फिर भी मुझे हमेशा लगता रहा कि अवध जी  में जो लेखन की प्रतिभा थी वह बहुत गजब की थी, गहरी थी और उनकी कहानियां मिथकीय कहानियां होती थी और आज भी वह प्रसंग कितना प्रसांगिक है। सहयोग उनसे हमें बराबर मिला।

डॉ.भावना शुक्ल – आपकी दृष्टि में संयुक्त परिवारों की आज कितनी आवश्यकता हैं ?

चित्रा मुद्गल – संयुक्त परिवारों की बहुत आवश्यकता है। यह जो कहा जाता है कि संयुक्त परिवार तो टूट कर रहेंगे और तब तक साथ रहेंगे जब तक बच्चों को शिक्षा की जरूरत है और उसके बाद हमें नहीं मालूम के बाद हमें नहीं मालूम कि वह कहाँ रोजगार पाएंगे शिक्षित होकर के अपने देश में ही पाएंगे या विदेश जाएंगे कुछ इसका भरोसा नहीं।  संयुक्त परिवार से मेरा तात्पर्य यह रहता है कि देश में रहे विदेश में रहें, वह जहां भी रहे वह अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति सचेत रहें। अक्सर देखने में यह आया है जो टूट रहे हैं विदेश की बात तो छोड़ दीजिए अपने ही देश में कोई बच्चा पुरी चला जाता है कोई बच्चा कलकत्ता चला जाता है, कोई बेंगलुरु चला जाता है, और बड़े  हो जाने के बाद ब्याह हो जाने के बाद क्योंकि दोनों को नौकरी करने की आवश्यकता है जीवन स्तर जो है महंगाई से आक्रांत है बिल्कुल जरूरी होता है। यह कि घर वह किराए पर लेते हैं तो उनको 40000 भरना है। एक अकेला व्यक्ति कमाकर 40000 का दो रूम का फ्लैट नहीं ले सकता और अगर ले सकेगा तो वह घर नहीं चला पाएगा। स्त्री के लिए भी काम करना आवश्यक है, वह मुझे स्वीकार है लेकिन वह अपने संघर्ष के साथ-साथ वह माँ-बाप के उस संघर्ष को भूल गए। मैंने अपनी जवानी, जवानी की तरह नहीं जी, अपने सपने सपनों की तरह नहीं जी, ऐसी साड़ी की कामना माँ को भी है, वह दुकान पर जाती है, वह प्रगति मैदान में जाती है, मेले में देखती है 6000 का टैग देखती है और अपने को सिकोड़ लेती है, यानी अपने सपनों को अपनी कामनाओं को सिकोड़ लेती है। पिता रेमंड का सूट ले सकते हैं लेकिन नहीं चलो सरोजिनी नगर से सेकंड हैंड 100 रूपए का कोई कोट ले लेंगे सर्दियां बिताने के लिए क्योंकि बच्चे को इंजीनियर बनाना है, बच्चे के हॉस्टल का खर्चा भेजना है, क्योंकि बच्चे को एमबीए की फीस देनी है, बच्चों को पढ़ाना है, एक व्यक्ति कमाता था तो वह अपनी पत्नी के लिए साड़ी लेकर नहीं आता था, वह साड़ियां ले करके आता था जो अपनी मां के लिए भी अपनी बहन के लिए भी भाभी के लिए भी। लेकिन ये बात अलग है की बहुत स्त्री ने स्त्री का शोषण किया लेकिन मैं जो बात कहना चाहती हूँ। पारिवारिक जीवन की यह जीवन शैली है एक विकासशील देश की तो उसके लिए तो सब लोगों के लिए अलग-अलग सामान की व्यवस्था होगी। विदेशी फैक्ट्रियां यहाँ पर चलती रहे और इसीलिए फैमिली के और इसी न्यूक्लियर फैमिली के दबाव बनाकर के मानसिकता के अनुकूल आपको ढाल करके वह अपनी जरूरतों को पूरा करेंगे। भारतीय कुटुंबीय जीवन और बिखर रहा है यह बड़ी चिंता की बात है और मैंने एक उपन्यास “गिलिगुडू” लिखा है गिलि का अर्थ है चिड़ियाँ और गुडू का मतलब कलरव मलयालम में कहते हैं गिलिगुडू करो – मतलब है चिड़ियों की चहचाहट, और कुटुम्बिय चहचहाहट भी समाज की जीवन शैली से तिरोहित हो जाता है दूर हो जाता है उस समाज की जीवंतता संवेदना पोखर ही नहीं अंजलि पर जल भरने जैसा नहीं है ना पीने के काम आ सकता ना प्यास की तृप्ति के काम आ सकता है न ही कपड़े धोने के काम आ सकता है। यह छोटेपन का उदाहरण है अपने अलावा किसी के बारे में नहीं सोचता। यह जो हमारे देश में आ गया है, बहुत दुखद लगता है। लोग कहते हैं अरे यह क्या है अपने-अपने रोजगार क्या कर सकते हैं .आप बेंगलुरु में रह रहे हैं पिता बीमार हैं मां बीमार है आप को समय नहीं है.पत्नी के पास समय नहीं है पत्नी के पास 2 घंटे ब्यूटी पार्लर में बिताने के लिए समय है लेकिन इनके लिए समय नहीं है अनुत्तरदायित्वपूर्ण जो जीवन शैली है यह सोचकर चलोगे कि तुम जो अपने माँ बाप के साथ कर रहे हो जिन्होंने अपने सपनों अपने कामनाओं को निचोड़कर तुम पर निछावर कर दिया तुमको सबको सक्षम बनाने में तुम्हारे बच्चे जो हम दो हमारे दो हम दो हमारे एक वह देख रहा है वह दादी नानी से दूर देख रहा है घर में हर चीज की उपस्थिति है, बढ़िया सोफे हैं, फ्रीज है, दो दो गाड़ियां है सब कुछ है, घर में दादी नानी नहीं, खांसता हुआ बूढा नहीं है, क्योंकि खांसता हुआ बूढा आपको शर्म देता है। भीष्म साहनी की एक कहानी है… “चीफ की दावत” बुजुर्ग अपने आप में एक ऐसी उपस्थिति है जो अपने अनुभव के साथ उपस्थित है कला और संस्कृति  का वह वात्सल्य और वह प्रेम वह मोह माया का सब स्नेह का एक ऐसा पुंज है जो अपने बूढ़े आँचल में एक छतनार पेड़ की तरह आसरा दे सके. वह चीफ जो है वह माँ की बनाई फुलकारी वो तारीफ करता है पूछता है यह किसने बनाई तो वह शर्म महसूस करता है यह बताने में कि यह माँ ने बनाई है। यह महिलाये पहले घर में  चूल्हा-चौका करती हैं जब फुर्सत पाती थी तुम मूंज भिगोकर के कठौते में रंगों को रख कर के और उनमे लाल हरे पीले भिगोकर के डलवे बनाती थी। टोकरियाँ बनाती थी, वह बैना बनाती थी, पंखे बनाती थी, और ऐसे बढियां कि मैं क्या बताऊं।  भावना, जिनको मैं गांव जा कर देखती थी तो मैं 8/10 पंखे ले आती थी। मेरी सहेलियों ने तो उन पंखे की डंडी हटाकर उसको मोड़कर उसमे जिप लगवा ली और पर्स बना लिए, अब ये सारी चीजें सब खो गई हैं। आज खरीदी हुई चीजें या किस्तों पर ली गई और उससे अपने घर को सजा रहे हैं अब यह तो क्या हुआ है कि हम भीतर से इतने खाली हो चुके हैं हम सोचने लगे हैं कि बीमा बहुत जरूरी है बुढ़ापे के लिए क्योंकि आज आपकी तीमारदारी करने के लिए घर में कोई उपलब्ध नहीं होगा। हम सोचते हैं कि पंजाब में रहने वाला पंजाबी बोलने वाला जो व्यक्ति है वह भी हमारा भाई बंध है उससे भी हम वही नैतिक मूल्य और जीवन मूल्यों की अपेक्षा करेंगे कि वह कोई बहन बिटिया को देखेगा तो अपनी बहन बिटिया को याद करेगा और आपके सिर पर हाथ रखेगा आज वह चीज सब खत्म हो गए और यह गिलि गुडू मुझे बहुत अच्छा लगा और इसका स्वागत लोगों ने जिस तरह से किया इसमें केवल बुढ़ापे की चिंता ही नहीं थी बुढ़ापे की स्थिति को दर्शाया है इस उपन्यास को लिखने उस संस्कृति को भी मैंने दिखाया और किस तरह से बच्चे वीडियो गेम खेल रहे हैं और वह गली मोहल्ले के बच्चों से मिलना नहीं चाहते है, चिड़िया मार रहे हैं और बड़े खुश हो रहे हैं कि उन्होने 10 चिड़िया मार दी यह खेल कैसा खेल है? किसी देश की सीमा के संरक्षण के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने का जज्बा नहीं पैदा कर रहा हिंसा सिखा रहा है हिंसा हमारी यह जरूरी है कि सीमा पर जाकर के लड़ना है कि देश की सीमाओं की रक्षा करें करने के लिए हमारे सैनिक जो है अपने देश को बचाने के लिए लड़ते हैं, हिंसा हमारी जिंदगी में केवल आल्हाद देने के लिए केवल खिलवाड़ के लिए नहीं। हिंसा हमारे भारतीय जीवन शैली का अंग नहीं है. यहां महावीर हुए हैं यह गाँधी ने भी अपनी पूरी लड़ाई अहिंसा के बूते ही की है। इसकी चिंता मैंने अपने उपन्यास गिलि गुडू में की है। मैं यह मानती हूँ चिड़ियों का कलरव आज भी कस्बे या किसी गांव देहात में या शहर में सांझ की बेला में चिड़िया के समूह लौटते हैं। पक्षियों के समूह जब लौटते हैं अपने बच्चों को छोड़ गए हैं घोंसलों में वे खुश होते हैं उनके लिए दाना पानी लेकर आते हैं, कलरव करते आते है और वही समवेत स्वर हमारे जीवन सुख का आधार है उसके लिए सवाल तुम्हारा जो है वह मेरी चिंता है आप कहीं भी रहिए देश-विदेश में रहिए आप दोनों कमाइए आप के बूढ़े मां बाप को अपने घर में रख कर के उनकी देखभाल करिए। इस सत्य को स्वीकारने में शर्म नहीं आनी चाहिए। अपने देश में वहीं जीवन शैली अपनाने वाले को मै तो कभी माफ़ नहीं कर सकती।

डॉ.भावना शुक्ल – आज देश में नारी उत्पीडन से हम सब तिलमिला उठे है आपने ‘आंवा’ उपन्यास लिखा है इसमें भी नारी के उत्पीडन दर्शाया गया है किस दृष्टि कोण  से इसकी रचना की है, हमें अपनी अभिव्यक्ति दीजिये ?

चित्रा मुद्गल – “आवा” उपन्यास में मैंने कई शताब्दियों की स्थितियों को दर्शाया गया है माँ की सोच है वह बीसवीं शताब्दी की है, स्मिता जो है वह 21वीं सदी की है वह अलग दृष्टिकोण रखती है, और नमिता जो है वह मुंबई जैसे आर्थिक राजधानी में रहते हुए गगनचुंबी इमारतों के बीच में वह एक ऐसे घर में रहती है जहां आम सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं तो “आंवा” जो है वह समय का आंवा है.

डॉ.भावना शुक्ल – थर्ड जेंडर के विषय में आपके क्या विचार है आपने कभी इसे अपनी कहानी का विषय नहीं बनाया?

चित्रा मुद्गल – नहीं मैंने कभी कोई कहानी इस विषय पर नहीं लिखी मैंने इस विषय पर कभी सोचा ही नहीं था कि मैं इस विषय पर कभी लिखूंगी, कभी लोकल ट्रेन में चढ़ जाए एक ही जैसी तालियां बजाते हुए कभी मेरा इनकी तरफ ध्यान नहीं गया।  दूर से बस देख लिया है।  कभी डब्बे में वह चढ़ जाते थे तो औरतें पीछे सिकुड़ जाती थी। और पुरुष डिब्बे में जब वे चढ़ते थे तो पुरुष उनके साथ ठिठोली करते थे बस यही मैंने देखा। मैं एक बार 1981 में दिल्ली से मुंबई वापस जा रही थी। बच्चों की छुट्टियों में मै दिल्ली रहने के लिए आती थी। दिल्ली स्टेशन छोड़ने के बाद बिटिया मेरी बहुत रो रही थी मैं उसे थपका रही थी और उसे कह रही थी बेटा चलो अब हम अपनी सीट पर चलते हैं और जैसे ही हम अपनी सीट पर आए मेरी सीट पर तभी इतने में एक लड़का आकर बैठ गया मैंने कुछ कहा नहीं मैंने सोचा कि इसकी बर्थ भी यहीं होगी. वह  बैठा रहा गाड़ी छूटने के करीब आधे घंटे के बाद टी.टी.आई आता है वह उस बच्चे से पूछता है बच्चे ने  कहा ट्रेन छूट रही थी मैं इसमें चढ़ गया आगे बदल दूंगा मेरा जनरल टिकट  कंपार्टमेंट में है मै चला जाऊंगा ट्रेन दिल्ली स्टेशन से छूटने के बाद रात को 11:00 बजे भरतपुर पहुंचती है मैंने कहा मेरी एक सीट बच्चे की भी है। हमने कहा बैठे रहने दीजिए। बड़ा हैंडसम सा लड़का था तो पहली मुलाकात मेरी उस बच्चे से हुई बातचीत के दौरान मैंने पूछा कहां जाएंगे तो उसने कहा “नालासोपारा” तो मैंने कहा कि यह तो पश्चिम एक्सप्रेस है यह नालासोपारा तो रुकती नहीं है तो क्या करेंगे आप तो उसने कहा कि मैं बोरीवली उतर कर  लोकल पकड़ कर चला जाऊंगा रात भर स्टेशन पर ही रहूंगा। कल मेरी माँ पूजा करने के लिए मंदिर जाने के लिए निकलेगी मुझ से प्लेटफार्म पर मिलेगी। तब मैंने कहा वह प्लेटफार्म पर क्यों ? मैं घर नहीं जा सकता तो वह घर क्यों नहीं जा सकता जब यह प्रकरण जब बातचीत में खुला वह प्रकरण खुलने के बाद मेरी आंख से झर-झर आंसू बहने लगे और मैं सुनकर अवाक रह गई, दंग रह गई और वह भी रो रहा था सामने की सीट पर एक दंपत्ति बैठे थे आगे बैठे थे सामने में बैठे थे सारे लोग सोने का उपक्रम कर रहे थे क्योंकि हमारे कंपार्टमेंट में हमारी 3 सीटें थी बाकी तो कोई आए नहीं थे मैं तो एकदम सन्न रह गई मैंने कहा देखो यह मुंबई पहुंचेगी रात को 3:30 तुम इतनी रात को कहां जाओगे तो तुम बोरीवली नहीं जाऊंगी मैं मुंबई सेंट्रल में उतरूंगी और वहां से मुझे पास पड़ेगा तुम रात को स्टेशन पर कहां सोओगे तो तुम मेरे साथ मेरे घर पर चलो उससे मैंने कहा मुझे बात करते करते आत्मीयता उससे ज्यादा हो गई थी तब मैंने उससे कहा कि तुम मुझे अपनी मां का फोन नंबर एड्रेस सब दो तो मुझे लगा पहली बार मुझे लगा कि मुझे कुछ करना चाहिए तो पहली बार मुझे इस विषय से मेरी मुलाकात हुई जिस तरह से मुलाकात हुई एक ऐसा बच्चा है मैंने इसके बारे में सिर्फ एक यात्रा वृतांत में लिखा “फर्लांग का सफरनामा” पहली बार एक समाज सेविका हो करके मैंने इस ओर कभी नहीं सोचा पर मेरी निगाह नही गई। ‘फर्लांग का सफरनामा’ एक अनुभव लोखंडवाला स्टेशन से लोखंडवाला तक . दिल्ली आने के बहुत दिनों से यह  बच्चा पढ़ना चाहता था मैंने सोचा इग्नू में उसका प्राइवेट फॉर्म भरवाकर के उसकी पढ़ाई जारी रखी। मन में एक बीज पड़ गया था और एक अपराध बोध महसूस हुआ था मेरा वह विषय नहीं था मन में सवाल था मां और बेटा यह क्या है और उनके साथ क्या हो रहा है किसी ने क्या किया? क्या नहीं किया? किस की वजह से समाज ने उनके साथ क्या किया? किस की वजह धर्म के साथ क्या किया किसी की वजह राजनीति ने इनके साथ क्या किया और खुद मां-बाप ने उनके साथ क्या किया? क्यों किसी चीज का किसी को दबाव नहीं होता तो लोग खुद मानते कि इस तरह के बच्चे को घर में नहीं रखना है? वो हमारी विरासत नहीं है। जिससे उनके घर की लड़कियों की शादी नहीं होगी। घर में किसी को खबर हो गई तो उस घर की बेटियों का ब्याह होना बंद हो जाएगा।

मुझे ट्रांसजेंडर पर अलग तरह की चीज लिखना है मुझे वह नहीं लिखना है जो सबके सामने होता है कि वह डांस करती है आती है ताली बजाती वह करते हैं मुझे समाज को मां बाप को धर्म को राजनीति को जो नियंता है इन को कटघरे में लेना है और सर्जना में ढाल करके लेना है सर्जना में होगा तो मन के संवेदन को जाएगा जब वह मनुष्य के संवेदन को कोई खरोंचेगा तब पपड़ियाँ उघडेगी कहीं यह महसूस होगा कि कुछ गलती हुई है उस माँ को भी महसूस होगा कि अपनी कोख पर उसका अधिकार नहीं है यह स्त्री विमर्श की बहुत बड़ी लड़ाई है. तो  नालासोपारा पोस्ट बॉक्स नंबर 203 में हमने कई अंश को उठाया और उपन्यास मेरा 2016 में आया और ‘वागर्थ’ में ‘जनपद’ में उसके दो तीन अंश में आए और 2011 में उस अंश को पढ़कर  एक जज ने मुझे चिट्ठी लिखी मत देने के लिए ट्रांसजेंडर को स्वीकार किया है। हर युवा पीढ़ी की हर बच्चे इस उपन्यास को पढ़ें अगर मां बनी हम दो हमारे दो चाहिए हम दो हमारे एक चाहिए एक बच्चा पैदा हो जाए तो उसे स्वीकार करें। इस उपन्यास के अंत में एक माँ क्या करती है मेरी गुजारिश है इसे आप भी पढ़े और सभी लोग पढ़े। इस उपन्यास का साल भर के अंदर तीसरा एडिशन आ गया।

डॉ.भावना शुक्ल – क्या आपने अपने उपन्यासों, कहानियों में अपने जीवन को उजागर किया  है ?

चित्रा मुद्गल – ऐसा तो अभी तक नहीं हुआ है हां ‘आंवा’ में अपने ट्रेड यूनियन के अनुभव को ही मैंने विषय-वस्तु बनाया है एक जो मेरे भीतर कहीं न कहीं ट्रेड यूनियन को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं, इतनी लड़ाई लड़ने के बावजूद क्या होता है और 6 महीने के बाद ताले बदली हो जाने के बाद फिर पता चलता है कि अगर ताला खुलता है, 10टक्के  पर समझौता होता है, उनके अंदर की जो दुर्दशा है उसका इस्तेमाल नेता तो अपने राजनीतिक जीवन के लिए करता है यह कमजोर है तो इतने पर भी खुश हो जाएंगे चलो हमारी चूल्हे राख पड़ी हुई थी किसी तरह चूल्हा तो जले, वे टूट कर इस पर समझौता कर लेंगे, बिखर कर कर लेंगे, अपने बच्चों को रोड के किनारे डिब्बे लेकर भीख मांगते देखना कटोरा लेकर भीख मांगता हुआ ना देखने के लिए समझौता कर लेंगे, यह जो नेता है मजदूरी मजदूरों की गरीबी की जरूरतों को अपने लड़ाई का मुद्दा बनाकर उनकी हित की लड़ाई का मुखौटा चढ़ाकर जो लड़ाई लड़ते हैं आखिर में वो यहां आकर क्यों पहुंच गए मेरे मन में बहुत आक्रोश है। और मुझे लगता रहा है कि अगर तो इसका समाधान कर दें देश के सारे मजदूरों का घर समाधान मिल जाएगा कायदे कानून से वो अधिकारों की बहाली के लिए लड़ रहे हैं सब उनको मिल जाएंगे तो इनके नेतृत्व का क्या होगा यही है समय का आंवा।

डॉ.भावना शुक्ल – पुराने लेखकों में और आज के इस दौर के लेखकों में साहित्यिक दृष्टि से क्या अंतर आप मानती है?

चित्रा मुद्गल – इतना ही अंतर है कि उन्होंने अपने समय को लिखा। अपनी इस समय की विसंगतियों और संघर्षों को लिखा अपने समय के आम आदमी के बुनियादी हकों को लेकर को लेकर भावनात्मक अधिकारों को लेकर के लिखा था उनके साथ जो भी ज्यादतियां होती रहीं, बहुत से लोगों ने इतिहास को ले करके भी लिखा और स्त्री विमर्श जैसे आपको स्त्री विमर्श यशपाल की दिव्या में मिलेगा, विस्थापन विभाजन झूठा सच में मिलेगा, 12 घंटे में बेबसी मिलेगी, नाच्यो बहुत गोपाल में स्त्री का वो रूप मिलेगा जो ब्राह्मण पति को छोड़कर अपने दलित प्रेमी के साथ चली जाती है और पत्नी बनकर रहती है और अंत में वह कहती है पति तो पति होता है चाहे वो दलित हो या सामान्य। उसके आगे जो पिछली पीढ़ी का प्रेमचंद से जिस तरह से अवगत हुए आधुनिक पहलुओं से अवगत हुए सब लोग गांव में रहते रहे हैं लेकिन इस दृष्टि से किसी ने भी विचार नहीं किया। एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखते रहे।  स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी है, साहित्य है, बहुत दिनों तक वह प्रतिध्वनियां भी रहे सर्जना में उसके बाद जो अटा हुआ समय था, जो करवट लेता हुआ समय था और एक वह समय जो विश्व से सीधे सीधे व्यापार शुरू हुआ उदारीकरण के दौर में, 90 के दौर में, जब उदारीकरण हुआ व जीवन शैली ने नया रूप लेना शुरू किया। जब हम लोगों ने लिखना शुरू किया तो उदारीकरण इस तरह से नहीं हुआ था तब तो अगर कोई विदेश जाता था और पूछता था दिदिया  आपके लिए क्या ले आए तो हम कहते थे कि ऐसा है हमारे लिए वहां से लिपस्टिक ले आना, मेरे देखते-देखते उदारीकरण के चलते किसी को विदेश से मंगाने की जरूरत नहीं आपके स्टोर में मिलती है. हमारी जीवनशैली बदलने लगी। कई तरह की चीजों को इस्तेमाल करने लगे उनका जो सोच था उनका जो विज्ञान है। वही जो आजकल लेखन है, समकालीन लेखन है जो समकालीनता मेरी थी जो मेरे समय की अंतर संगठन नई जीवन जीवन शैली से ऊपर मेरे समय के लेखन के अनुभव बताते कि मैं उनको लिखूँ उनको मैं देखूं जो समय का अभाव था आजादी के बाद जो प्रचलित किया गया, आजादी के बाद जवाब प्रज्वलित किया गया क्योंकि इसमें सब चरित्र नैतिकता है। सब ध्वस्त हो गए, क्योंकि हमने उनसे भी ज्यादा बुरा करना शुरु कर दिया। जो लैंग्वेज कहते रहेंगे हमारे समय की नई नई चुनौतियां नहीं आज जो नई पीढ़ी आ रही है उसकी चुनौतियां और अलग है अपने समय का दस्तावेज होती है सर्जनात्मकता लेखक अगर अपने समय के सरोकारों से नहीं जुड़ा है। मुझे नहीं लगता कि वह अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा।

डॉ.भावना शुक्ल – आपको अपना कौन-सा उपन्यास या कहानी अधिक प्रिय है और वह क्यों?

चित्रा मुद्गल – आजकल अभी मैंने “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा” की जो लड़ाई मैंने लड़ी है अपने क्षेत्र में लड़ी है लिखा है उपन्यास के रूप में आजकल कोई मुझे टेलीफोन करता है और कहते हैं दीदी इसे पढ़कर तो मेरे आंसू नहीं रुक रहे मैं परेशान हूं मैं शॉक्ड हूं मुझे लगा कि हम स्त्रियों ने अपने कितने अधिकार छोड़ दिए हम स्त्री होकर पैदा हुए हमारे अंदर एक अदद कोख है, आज जो लड़ाई भ्रूण हत्या के मामले में लड़ी जा रही है, और यह ट्रांसजेंडर की लड़ाई मुझे लगता है कि मैंने शायद एक अच्छी कोशिश की है। हां मेरी 49 पुस्तके हो गई है। और ‘नक्टोरा’ आ जायेगा तो मेरी 50 किताबे हो जाएँगी। 7 बच्चो की किताबे 3 बच्चों के ऊपर नाटक है, कथा रिपोतार्ज है 12 कहानी संकलन है 4 उपन्यास लिखे हैं, कितनी किताबें हैं लेकिन मैं जब भी इस बारे में सोचती हूँ और इस सवाल से जूझती हूँ अब तक अपनी प्रिय चीज को लिखना अभी बकाया है मेरे लिए मेरी कलम के लिए वह प्रिय जो मेरे चेतन को झकझोर देगा जब मैं उसको अपने दिल से और दिमाग से एक गंभीरता से उसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति दूंगी शायद मैं उस चीज को अपनी प्रिय चीज के रूप में जन्म दूँगी अभी तक तो मैं कुछ कह नहीं सकती  आज कल मैं इमानदारी से कहूं भावना मैं नालासोपारा से गुजर रही हूँ।

अगर अच्छी कोई कहानी पढ़ती है उसके पहले आपने उस लेखक का नाम नहीं जाना होता नहीं सुना होता वह कहानी पढ़ते हुए पढ़ने के बाद निकलते हैं घर से साड़ी पहनकर और जाते हैं कहीं और बैठते हैं मंच पर और बीच-बीच में वह याद आ जाती है। कहानी ने आपके मर्म को छू लिया है, कहानी जब पीछा करती है, हफ्तों महीनों सालों इसका मतलब है कि वह कहानी अपने सामाजिक सरोकारों को पूरा कर रही है, चाहे वह अपने पति पत्नी के बीच के तनाव की कहानी है चाहे सामाजिक विसंगति को लेकर हो चाहे राजनीति विसंगति को लेकर हो चाहे किए जानेवाले ओ जानेवाले नकाब पर नकाब उद्घाटित करने वाले कहानी हो यानी व्यक्तित्व के चेहरे पर चेहरा चढ़ाए रखने की मजबूरी की व्यवस्था की कहानी हो। कोई भी कहानी हो वह बहुत गहरे उतर कर के डूब के लिखी गई है वह पीछा करती है कभी-कभी ऐसा होता था एक नया नाम सारिका में आते हुए कभी पढ़ती थी नया ज्ञानोदय में भागवत में नई पीढ़ी को पढ़ती थी। परिकथा में पढ़ती हूँ, हंस में पढ़ती हूं पहले पहले मुझे कहानी भी याद है शीर्षक भूल गई।  कभी इस बात का गर्व नहीं करती मैंने ऐसा लिख दिया कोई और नहीं लिख सकता। लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है। कुछ नहीं कह पाते कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं। जो नहीं कह पाते अपनी पीड़ा को कुछ ना कहने वाली की आवाज कह लेखक अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त कर पाने वाले आवाज में उसकी आवाज शामिल होती है, चित्रा मुद्गल की आवाज में उन सब की आवाज शामिल है, जो मैं शब्दों में ढालकर लिखती हूँ, पता नहीं कैसा लिखती हूँ पर मुझे भरोसा है नई पीढ़ी पर है।

डॉ.भावना शुक्ल – सम्मानों का दौर चल रहा है आपके क्या विचार है ?

चित्रा मुद्गल – मुझे लगता है कि कभी आपने सम्मान को इसलिए ग्रहण नहीं किया होगा कभी मौका आएगा तो आप उसको लौटा आएंगे क्योंकि सम्मानों की जो कामना भरी हुई है जिसकी वजह से तमाम ईर्ष्या द्वेष हैं, सृजनकारों की दुनिया में कि मैं भी बहुत महत्वपूर्ण लिख रहा हूँ लिख रही हूँ इनको कैसे मिल गया उसने कभी नहीं सोचा होगा यह एक चालाकी है यह चालाकी है जिन चीजों से आप असहमत है।  पुरस्कार वापस करने से क्या होगा वह तो उनके लिए है कि वह डिग्रियां बांट रहे हैं। मैं नहीं समझती कि यह सही काम था। मैं एक लेखक हूँ। भावना, लेखन की ताकत को जानती हूँ क्योंकि जब भी कोई विसंगति मन को कचोटती है मन के भीतर अंतर्द्वंद पैदा करती है रातों की नींद उचट जाती है। चलते-फिरते बोलते तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है मेरे अवचेतन में मुझे लगता है कि लिखना आसान काम नहीं है बड़ी हिम्मत जुटाने पड़ती है।

डॉ.भावना शुक्ल – आप हमारे पाठकों दर्शको लेखकों को लेखन प्रकिया के सन्दर्भ बताएं, या  कोई सन्देश दे जिससे वे अपने लेखन को बेहतर बना सकें ?

चित्रा मुद्गल फार्मूला में ना जाए लिखने का शौक है तो यह मत सोचो कि क्या लिखा जा रहा है क्यों मन में ऐसा होता है शायद ऐसा ही छपेगा आज परिकथा में कविताएं भरी रहती हैं। वही बातें जो लोग कहते हैं आप किस दृष्टि से लिखना चाहते हैं और आप जब परिवर्ती लेखन को पढ़ेंगे नहीं कि क्या लिखा जा चुका है और जो लिखा जा चुका है अपने समय का और उसके आगे जिस तरह की चुनौतियां आ रहीं हैं उसका मोर्चा क्या होना चाहिए उसमें क्या चीज है? गलत आ गया उसे कैसे लड़ा जाना चाहिए? पहली चीज अपने अनुभवों से सीखिए अपने अनुभवों से जो समाज आपको सामने मिला है और समाज क्या है यहां से मेट्रो पकड़ेंगे। मेट्रो पकड़कर विश्वविद्यालय जाएंगे उसके बाद के लिए राजीव गांधी चौक उतरेंगे विश्वविद्यालय तक पहुंचने के लिए अपनी कक्षा तक पहुंचने के लिए हमको राजीव गांधी चौक के एक बहुत बड़े पीर के जिले से टकराना पड़ेगा एक समंदर लहरा रहा होता है, वह चुप हो रहे होते हैं,  हड़बड़ी में होते हैं। कैसे पकड़े इस हड़बड़ी में, आप भी होते और आपके साथ और भी लोग होते हैं कहां किस की कहानी लगती है? कहां किसका पर्स गिर जाता है? कहां किसके पास से मोबाइल निकल जाता है? तो यह कौन लोग हैं ? यह तो अपना लोगे आप अपने अनुभवों की खिड़की को खुला रखें उसे पढ़ें सोचे रोज रात में मंथन करें डायरी लिखे क्या महसूस किया जब आप देखेंगे तो आपको विषयों की कमी नहीं नजर आएगी।  फॉर्मूला पिछले 15 वर्षों से चल रहा है।  जरूरी नहीं है कि भावना भी उसी पर लिखें।  जरूरी नहीं है जान्हवी भी उसी पर कविता लिखे दे, वही वही बातें मैं यह कहना चाहती हूँ, लिखना चाहते हो या चाहती हो। लिखने की ललक लिखने से पहले मैं पढ़ने को मानती हूँ। पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़कर के विज्ञान की रसायनों की केमिस्ट्री को समझ पाएंगे, लेकिन समाज की जो केमिस्ट्री है समाज के अलग-अलग व्यक्तित्व सोचने समझने की जरूरत बन रही है उसको समझने के लिए जरूरी है पढ़ना, यदि आप ‘झूठा सच’ पढ़ेंगे तो आपने विभाजन को नहीं देखा विभाजन के क्या परिणाम होते हैं? क्या दुष्परिणाम होते हैं कैसे आपके ताऊ, चाचा, चाची गहने लूटने के लिए उनके हाथ काट लेते हैं? क्योंकि उनके पास समय नहीं है? अपने घर से बेघर कर दिया गया इसको आप जब तक नहीं जानेंगे अपने वर्तमान समाज को जो 10 दिनों से ऐतिहासिक घटनाओं की कड़वी स्मृतियों को इतिहास में दर्ज किया लेकिन जब सर्जना में दर्ज होता है, लेकिन इतिहास में तो राजे-रजवाड़ों की वह बड़े नेताओं की बात होगी लेकिन उस आम आदमी को लेकर नाम का जिक्र नहीं होगा । जब जन की बात होगी तब आप समझ सकेंगे आप समाज के आंदोलन से आप समझेंगे इतिहास आपको नहीं देगा पाठ्यक्रम में रेशमा अशोका होंगे, वाजिद अली शाह होंगे कि आम आदमी?  उसमें आम आदमी किस रूप में होगा कि अशोक, अकबर के जमाने में यह था वह था और उनके जमाने में इंतजार की प्रजा सुखी थी या नहीं थी। इसका अगर इतिहास जानना है, साहित्य पढ़ना पड़ेगा साहित्य ही बताएगा, जो प्रेमचंद का गोदान ने बताया, प्रेमचंद की निर्मला औरतों की मन की बात कही उसने नहीं सुना था कि उसकी दोहाजू से शादी हो जाए लेकिन जब दोहाजू का बेटा भी उसकी उम्र का है उसके मन में कुछ नहीं है फिर भी आप वह कलुष मन में डाल रहे हो, मनोवैज्ञानिक पक्ष जब तक आप इसको पढ़े बिना नहीं समझ सकेंगे।  मैं यह नई पीढ़ी को कहना चाहती हूँ पहले बहुत पढ़ो आज मुझे बहुत सारी रचनाएं ऐसी लगती है यह तो लिखा जा चुका है इसमें मैंने ही नहीं लिखा, मन्नू भंडारी की कहानी, महादेवी जी ने ‘श्रंखला की कड़ियों’ में क्या लिख दिया उसे पढो और सबसे पहले अपने अनुभवों को पढ़ो और वह अपने समाज को,अपने इतिहास को आप अपने साथ नहीं रख सकते अगर आपको लिखना है तो आप सबसे पहले पढ़ें और अपने अनुभवों की किताब लिखिए।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 20 – व्यंग्य – एक संगीतप्रेमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   एक ऐसे चरित्र का विश्लेषण किया है जो आपके आस पास ही मिल जायेंगे.  फिर ऐसे चरित्रों से पीछा छुड़वाना किसी कठिन कवायद से कम नहीं है. ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “एक संगीतप्रेमी ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 20 ☆

 

☆ व्यंग्य  – एक संगीतप्रेमी ☆

 

नन्दू भाई को वैसे तो संगीत से कभी कुछ लेना-देना नहीं रहा। संगीत में वे कव्वाली ही पसन्द करते थे, या फिर कोई ‘आसिक मासूक’ की ‘सायरी’ सुनकर मगन हो जाते थे। लेकिन एक दिन एक घटना हो गयी। एक मित्र उनको संगीत समाज के एक कार्यक्रम में पकड़ ले गया। नन्दू भाई वहाँ शास्त्रीय गायन सुनकर उबासियाँ लेते रहे और चुटकियाँ बजाते रहे। गायिका वृद्धावस्था की देहरी पर थी, इसलिए वे उसके मुखमंडल में भी कोई रुचि नहीं ले सके। लेकिन गायिका के साथ जो तबलावादक था उसने समय मिलने पर तबले के कुछ ‘लोकप्रिय’ हाथ दिखाये। नन्दू भाई को और हाथ तो खास नहीं रुचे, लेकिन जब तबलावादक ने तबले पर ट्रेन चलने की आवाज़ निकाली तब वे मुग्ध हो गये। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि तबला सीखना है और ज़रूर सीखना है।

शहर में संगीत विद्यालय नया नया खुला था। उसे छात्रों की ज़रूरत थी। इसलिए जब नन्दू भाई वहाँ पहुँचे तो प्राचार्य ने सर-आँखों पर बैठाया। जब नन्दू भाई ने तबला सीखने की इच्छा प्रकट की तो प्राचार्य ने गौ़र से उनकी अरवी के गट्टे जैसी उँगलियों को देखा। पूछा, ‘आप तबला सीखेंगे?’ नन्दू भाई ने उत्तर दिया, ‘जी हाँ, मुझे बड़ा ‘सौक’ है। ‘

नन्दू भाई की तबला ट्रेनिंग शुरू हो गयी। तबला शिक्षक अपनी मेहनत को अकारथ जाते देखता और कुढ़ता, लेकिन क्या करे? बेचारा रेत में से तेल निकालने के लिए मगज मारता रहता।

ट्रेनिंग के दूसरे महीने में एक दिन नन्दू भाई ने तबले पर ज़ोर का ठेका लगाया कि उनका हाथ तबले में घुस गया। तबले का चमड़ा उनकी शक्ति के आगे चीं बोल गया। तबला-शिक्षक का खून सूख गया, लेकिन वह क्या कहे?

उसके अगले महीने फिर एक तबले ने नन्दू भाई के प्रहार के आगे दम तोड़ दिया। संस्था में खलबली मच गयी। नया नया काम था, अगर ऐसे दस-बीस विद्यार्थी आ जाएं तो संस्था का दम निकल जाए।

चौथे महीने में फिर नन्दू भाई ने जोश में ठेका लगाया और उनका हाथ फिर भीतर घुसकर तबले की भीतरी खोजबीन करने लगा। प्राचार्य जी ने हथियार फेंक दिये।

उन्होंने नन्दू भाई को बुलाया, कहा, ‘नन्दू भाई, हमारे खयाल से आप काफी सीख चुके, और फिर पूरा कोर्स करके कौन आपको कहीं नौकरी करना है। जो बाकी बचा है उसे आप घर पर खुद ही सीख सकते हैं। ‘

नन्दू भाई बोले, ‘साहब, नौकरी तो नहीं करनी है लेकिन मेरी डिगरी लेने की इच्छा थी। ‘

प्राचार्य महोदय को पसीना आ गया। बोले, ‘डिग्री लेकर क्या करोगे? वैसे हमने विशिष्ट व्यक्तियों को देने के लिए कुछ मानद उपाधियाँ रखी हैं। आप चाहें तो इनमें से एक आपको दे सकते हैं। ‘

नन्दू भाई ने पूछा, ‘कौन कौन सी उपाधियाँ हैं?’

प्राचार्य बोले, ‘एक ‘तबला वारिधि’ की उपाधि है, एक ‘तबला निष्णात’ की और एक ‘तबलेश’ की। आप जो उपाधि पसन्द करें हम आपको दे सकते हैं। ‘

‘तबला वारिधि’ और ‘तबला निष्णात’ शब्द नन्दू भाई की समझ में नहीं आये। उन्हें ‘तबलेश’ पसन्द आया। एक दिन प्राचार्य जी ने विद्यालय के दस-पाँच लोगों को इकट्ठा करके भाई धनीराम को यह उपाधि प्रदान कर दी और छुटकारे की साँस ली।

चलते समय नन्दू भाई ने प्राचार्य से पूछा, ‘क्या मैं इन फूटे हुए तबलों को निशानी के तौर पर रख सकता हूँ? मैं इनका पैसा दे दूँगा। ‘ प्राचार्य जी ने सहर्ष उनको तीनों फूटे हुए तबले सौंप दिये।

अब नन्दू भाई अपनी तबला ट्रेनिंग के प्रमाण के रूप में लोगों को अपनी ‘तबलेश’ की उपाधि और तीनों फूटे हुए तबले दिखाते हैं। उनको एक ही अफसोस है कि तबला शिक्षक ने उन्हें तबले पर ट्रेन चलाना नहीं सिखाया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #17 – देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 17☆

 

☆ देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆

 

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर।  अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीद की प्रचिति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के  द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 5 – विशाखा की नज़र से ☆ कल, आज और कल  ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना कल, आज और कल.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 5  – विशाखा की नज़र से

 

☆  कल, आज और कल ☆

 

रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर

देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को

जो, आ लगता है वर्तमान में,

हो जाते हैं हम लहूलुहान ..

 

भविष्य को तकते, रखते है

उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर

निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे ,

पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …

 

कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में

झूलते हैं  दोलक की तरह

बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में

और,

काल बदल जाता है

इसी अंतराल में ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #24 – ☆ अपेक्षा ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी अपेक्षा .  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  यह मानव जीवन में संभव ही नहीं है कि कोई किसी से अपेक्षा न रखे. जबकि हम जानते हैं और स्वीकार भी करते हैं की किसी से अपेक्षा मत रखो. यदि हम अपेक्षा नहीं रखेंगे और कुछ पा जायेंगे तो अत्यंत प्रसन्नता होगी और यदि अपेक्षानुरूप कुछ न पा सकेंगे तो कष्ट होगा. फिर भी अपेक्षा रखना मानवीय स्वभाव ही है.  सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #24 ☆

 

☆ अपेक्षा ☆

 

ह्या शब्दाचा नक्की काय अर्थ असेल?

बऱ्याच वेळा एखाद्या प्रश्नाने सुरुवात केली की मग उत्तराचा मागोवा घेत असताना खूप गोष्टी विचार करायला लावतात, नाही !

म्हटलं तर अतिशय सोप्पा आणि म्हटलं तर फार खोल अर्थ दडलेला आहे…

प्रत्येक नाते संबंधांमध्ये पुरून उरलेला… नात्यातील एक अनिवार्य घटक असं म्हटलं तर अतिशयोक्ती होऊ नये… हे आयुष्य, देणे आणि घेणे ह्या व्यावहारिक तत्वावर चालत असताना अपेक्षा निर्माण होणं हा मनुष्याचा स्थायी भाव आहे…

निर्व्याज प्रेमाची संकल्पना कितीही भावली तरी कधी ना कधी ह्या अपेक्षा रूपी साधनांमुळे निर्व्याज प्रेमाला तडा जातो… मग त्यातून अपेक्षाभंगाला सामोरे जावे लागणे, ह्या सारखे दुःख फार बोचरे असते… तरीही माणूस त्याच गुंत्यात अडकलेला असतो… कुठे तरी ती सुप्त भावना असतेच ना, की आपल्याला जे हवे ते मिळेल… पण मग कधी कधी नशीब आपली खेळी खेळून अनेक गोष्टी हिरावरून नेते तर कधी आपणच अव्वा च्या सव्वा अपेक्षांनी स्वतःला दुःखाचा दरीत ढकलून देतो…

नशिबाने साथ दिली तर उत्तमच, सगळंच आपल्याला हवं तसं घडेल, पण जर तसं घडलं नाही, आणि आपली अपेक्षा अपूर्ण राहिली तर काय? त्याला सामोरे कसे जाणार, हा विचार बऱ्याचवेळा अपेक्षाभंगानंतर येतो आणि तेव्हा हातातून बऱ्याच गोष्टी निसटून गेलेल्या असतात… खरं तर, एखाद्या व्यक्तीकडून अपेक्षा ठेवण हे योग्य की अयोग्य हे व्यक्तिसापेक्ष असलं तरी अपूर्ण अपेक्षांनाबरोबरही जमवून घेता आलं पाहिजे, ह्याचा खूप उपयोग होईल. पण त्यासाठी बऱ्याच वेळा भावनिक न होता थोडा प्रॅक्टिकल विचार करणं गरजेचं आहे… गुंता सुटला नाही तरी गुंता अजून वाढत जाणार नाही ह्याची खात्री आहे…

-आरुशी दाते

 

© आरुशी दाते, पुणे

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।40।।

 

भगवान के कहा-

पार्थ ! न ही इस लोक में न ही परलोक विनाश

थोडे भी शुभ कर्म का कभी न होता नाश।।40।।

            

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।।40।।

 

O Arjuna, neither in this world, nor in the next world is there destruction for him; none, verily, who does good, O My son, ever comes to grief!  ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “आँसूओं की भी एक फितरत होती है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆

 

कुदरत हैरान थी. इतना पानी बरसाया, बांध भरा भी, मगर लबालब नहीं हो पाया. हार मानने को ही थी कुदरत कि कचरू पिता मांगीलाल निवासी ग्राम चिखल्दा की आँख से एक आँसू छलका, सरोवर में गिरा और झलक गया बांध. विकास के लिये तैयार – चारों और पानी ही पानी. बैकवाटर है श्रीमान. एक चुल्लू पीकर तो देखिये. मीठा  लग रहा है ना ! आँसूओं की एक फितरत होती है, जब इंसान अपने स्वयं के पीता है तो वे खारे लगते हैं, जब दूसरों के पीता है तो फीके लगते हैं, जब दूसरों के एंजॉय करता है तो मीठे लगते हैं. विकास जिनके घरों का बंधुआ है – मीठे आंसुओं की उनकी प्यास बुझती नहीं.

तो आईये श्रीमान, दिलकश नज़ारा है. जहाँ गाँव थे वहाँ पानी ही पानी है. वाटर स्पोर्ट्स के लिये फेसिनेटिंग डेस्टिनेशन. एक्वाजॉगिंग, वाटर एरोबिक्स, स्कीईंग, कयाकिंग, केनोइंग या फिर रिवर राफ्टिंग हो जाये. क्या कहा आपने – राफ्टिंग कैसे करते हैं ? कमाल करते हैं आप. कभी बाढ़ में डोंगियों पर जिंदगी बचाने का संघर्ष करते मज़लूम नहीं देखे आपने ? कुछ ऐसी ही डोंगियों पर खाये-पिये अघाये लोग रोमांच के लिये जब बहते हैं तो वे बहते नहीं हैं, राफ्टिंग करते हैं. उनके पीछे–पीछे चलती है लाइफ सेविंग बोट. आईये, उन खूबसूरत तितलियों को उड़ते हुये एंजॉय कीजिये जो थैले में से मुक्त कर दी गईं हैं. ये सवाल बेमानी है वे किसने कैद की थीं और क्यों? आईये, जंगल सफारी एंजॉय कीजिये. अब ये आदिवासी मुक्त क्षेत्र है. झोपड़े थे उनके, मिट्टी के चूल्हे, हंडा, थाली, कड़छी, चटाई, मुर्गा, बकरी, छोटी सी ही सही पूरी एक दुनिया, जो अब डूब गई है. बस एक जिंदगी बची थी जिसे लेकर वे मजदूरी करने शहरों की ओर निकल गये हैं. मिलेंगे आपको, शहर के लेबर चौक पर.

यहाँ से देखिये, एक सौ चालीस मीटर ऊपर से, जहां तक नज़र जायेगी, पानी ही पानी दिखेगा आपको. डूबने को तो गाँव के गाँव डूब गये हैं मगर चुल्लू भर पानी में कोई नहीं डूबा. डूबेगा भी नहीं. जो दूसरों को डुबोने के प्लान्स पर काम करते हैं वे चुल्लू भर पानी के पास भी नहीं फटकते हैं. बोतल में कैद करके साथ लिए चलते हैं, लीटर भर. वाटर ऑफ कार्पोरेट, वाटर फॉर कार्पोरेट. पूरी नदी उनकी कैद में. विकास की अट्टालिकाओं के निर्माण में पानी आँख का लगता है श्रीमान और जिनकी ये अट्टालिकायेँ हैं उनकी आँखों में बचा नहीं, सो कचरू, दत्तू, मोहन, बेनीबाई, कमलाबाई या मानक काका की आँखों से छलकवा लेते हैं. कुदरत नदी में पानी लाती है, वे मज़लूमों की आँख में लाते हैं. मीठे आँसू पीने का चस्का जो है उनको. बहरहाल, तब भी बद्दुआएँ देना कचरुओं की तासीर में नहीं है, एक आँसू ढलका कर जी हल्का कर लेते हैं, फिर निकल जाते है खंडवा, इंदौर, भोपाल की ओर. मीठे आंसुओं के चस्केबाज जीने नहीं देते, जिजीविषा मरने नहीं देती. जिजीविषा कुदरत को परास्त नहीं कर पाती मगर वो उसे हैरान तो कर ही देती है. कुदरत हैरान थी. कुदरत हैरान है.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ महानगर की काया पर चाँद ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

 

(आज प्रस्तुत हैं सुश्री निर्देश निधि जी  की एक भावप्रवण कविता “महानगर की काया पर चाँद”. )

 

(इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆ Moon’s hide and seek with the metropolis☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ महानगर की काया पर चाँद ☆

 

महानगर की काया पर तैरता चाँद

उसकी चकाचौंध से अकसर मात खाता है

खींच लेता है अपनी,चाँदी की चादर,

छिप जाता है, ऊंची इमारतों के पीछे

डरता फिरता है इंसानी इरादों से

नहीं पीना चाहता है वो धुएँ

ईर्ष्या की सुलगती आग के

वो नहीं देख सकता

अपनी ठंडी हथेलियों पर टपकता गरम मानवी रक्त

नहीं चाहता सहना अपने नरम सीने पर

हमशकल मासूम ललनाओं की

तार – तार  हुई आबरू की कड़ी चोट

जीना चाहता है अंतहीन भ्रम में

खुद के चेहरे के लिए दीवानगी देखकर इंसान की

जानता तो खुद भी है शायद

अपना भी फंस जाना

इंसानी महत्वाकांक्षाओं में

तभी तो सीखता फिरता है

विधा चक्रव्यूह ध्वंस की

सारे आकाश में इस ओर से उस छोर तक।

 

संपर्क – निर्देश निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र ) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आग ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – आग

 

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर, दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उस पर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry – ☆ Moon’s hide and seek with the metropolis ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

 

(We present an English Version of  Ms.  Nirdesh Nidhi’s Hindi poem ☆ महानगर की काया पर चाँद☆   published in today’s issue .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

☆ Moon’s hide and seek with the metropolis ☆

 

Moon obsessedly floating above

corporeal frame of the metropolis,

Often loses to its glitzy glare…

Pulls out its silver sheet,

Keeps hiding behind

the towering skyscrapers

Afraid of human intentions,

it keeps running away…

It doesn’t want to inhale that

smoke of the inferno of envy

It can’t see the hot human blood

dripping on its innocent palms

Doesn’t want to endure the hurt

of a young innocent damsel’s

dignity being ripped apart,

on its soft chest…

Probably knows about its

own weaknesses of getting

snared in human falacies

Still, wants to live in endless euphoria of man’s madness

about its charming face…

That’s why it keeps wandering

endlessly all over the sky

to learn the art of demolishing the **Chakravyuh* …

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

* Chakravyuh  –  A mythological multi-tiered defensive formation that looked like a disc (chakra) when viewed from above. The warriors at each interleaving position would be in an increasingly tough position to fight against. The formation was used in the battle of Kurukshetra in the   Mahabharat epic, which was considered as an extremely maze to crack

 

Please share your Post !

Shares
image_print