हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ बँटा हुआ आदमी ☆ डॉ मुक्ता (समीक्षक – श्रीमती माधुरी पालावत)

भाव कथा संग्रह  – बँटा हुआ आदमी – डॉ. मुक्ता 

समीक्षक – श्रीमती माधुरी पालावत

बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह) : लेखिका डॉ. मुक्ता,

प्रकाशक – पेसिफिक बुक्स इन्टरनेशनल, 108 फ़र्स्ट फ्लोर, 4832 /24 प्रहलाद स्ट्रीट, अंसारी  रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002

मूल्य – 220/…रू.

फ्लिपकार्ट लिंक –  बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह)

 

श्रीमती डॉ. मुक्ता जी की भाव रचनाओं की नवीन कृति है ‘बँटा हुआ आदमी’ स्वत: सिद्ध है । उनका भावुनुभूति का क्षेत्र अधिक सक्रिय है । उनके मानस में जो सहज स्पन्दन हुए है वे लिखती गई । उनकी भावना और संवेदना से प्रेरित यह कृति प्रकाशित हुई है । इसीलिए इस कृति में मणि को निर्मिति की प्रक्रिया पूरी हुई । डॉ. मुक्ता जी ने अपनी अनुभूति विशेषकर अन्तर्निहित भावानुभूति को अक्षरबद्ध किया है और इस प्रकार उनका मन रचनाओं को मणि बना सका है और बिना किसी कलात्मक करतूत या कौशल के स्वयं रचना के एक विशेष रूप या प्रकार में ढ़ल गई जैसे कार्बन हीरा बन गया हो ।

“बँटा हुआ आदमी” जैसी साहित्यिक कृति बौद्धिक तनाव, जटिल संरचना और भाव रहित, संवेग विहीन यांत्रिक सभ्यता के इस दौर में अपनी प्रासंगिकता उपलब्ध कर लेती है ।

डॉ. मुक्ता जी हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका है । साहित्य जगत के लिए अपरिचित नाम नहीं है वरन एक सशक्त हस्ताक्षर है । कथा साहित्य, लेख, व्यंग्य, कविता आदि लेखन में उनका विशेष योगदान है और उनकी वरिष्ठता का साहित्य में पूर्णत: आभास मिलता है । इस नवीन कृति में मानवीय जीवन के जीवंत प्रश्नों को उदघाटित किया है और विवेक जागृत कराने का पुरुषार्थ किया है । इस सन्दर्थ में मुझे किसी महापुरुष की ये पंक्तियां स्मृति में आ रही है-

“जीवन सच्चा सूत्र, उलझ कर अकल बिगाड़े, पक्ष विपक्षी लक्ष, इसे उलझा देता है

यूं दक्ष करे वो आंत गांठ से रक्ष, मूल यारी कारण ताड़े, जीवन सच्चा सूत्र …..”

जब मानव लोक पक्ष…विपक्ष में उलझ जाता है तो एक सरल स्री जिन्दगी को रेशम के धागे में पडी गांठों की तरह उलझा देता है जिससे जीवन का सच्चा सूत्र अर्थात धागा उलझ जाता है और मानव अपनी अकल के बिगड़ जाने के करण सदा परेशान बना रहता है । जीवन को विभीषिकाओं से त्रस्त हर पल स्वयं से जूझते, आत्म संघर्ष करते मुखौटे क्रो धारण करने को विवश हो जात्ता है और ऐसी परिस्थिति में अनबूझ पहेली बनकर जीवन रह जाता है । इससे उसके जीवन में सुख…दुख, खुशी-गम, हंसी-रूदन एक छलावा मात्र हो जाता है । वह हालात का आरा, संवेदन शून्य, अस्तित्वहीन और बँटा हुआ सा प्रतीत होता है । आज जिसे देखो वह उलझनों, परेशानियों में जकड्रा हुआ नजर आता है । उसे जीवन में शिकवा-शिकायतें, तनाव आदि घेर लेते है और जब तक तनाव रहता है सब कुछ असंतुलित, बिखरा-बिखरा, बोझिल सा जीवन लगता है तथा यह खुबसूरत सी जिन्दगी समस्याओं का पिटारा बन कर रह जाती है । दिलों-दिमाग में हर समय चिन्ताओं का धुँआ छाया रहता है ।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

वर्तमान में जीवन मूल्य बिखर रहे हैं, अनास्था का बोलबाला बढ़ रहा है, रिश्तों की अहमियत नहीं के बराबर हो गयी है, पारस्परिक स्नेह…सौन्दर्य से वह दूर होता जा रहा है । मानव मशीन बन कर रह गया है । उसके जीवन का ध्येय बस अधिकाधिक धन कमाना व येन…केन अपना रूतबा प्रदर्शित करने में लगा रहता है जिसके लिए वह उचित-अनुचित कार्यों की भी परवाह नहीं करता है परिणाम स्वरूप वह चारों ओर सन्देह, भय, आशंका, अविश्वास व संत्रास में घुला

रहता है । मुक्ता जी द्वारा रचित यह पुस्तक इतनी गहरी व निराली है कि सागर के तत्वों से मुक्ता ला कर देती है । मानव की आशुप्रज्ञा दर्पणवत बनाती है । जीते तो सब ही है लेकिन जीने का अर्थ समझाती है यह पुस्तक न केवल रास्ता बताती है बल्कि मंजिल का साक्षात्कार भी कराती है ।

सभी महापुरुषों ने कहा है “मनुष्य भव दुर्लभ है”, जब इतनी दुर्लभ जिंदगी हमें मिली है तो क्यों न इसका लाभ उठाकर अपना जीवन सार्थक करें । सच तो यह है मानव जीवन जब तक है तब तक चुनौतियों आयेंगी, प्रतिकूलताएं, बाधाएं व परीक्षाएं भी आएंगी ऐसे में इन सबके लिए तैयार रह कर अपने जीवन को सार्थक बनाएँ जैसे सूर्य की किरणे अंधियारे क्रो हरने के लिए हैं वैसे ही हर चुनौती हमारी किस्मत की किताब का नया अध्याय रचने के लिए है । प्राप्त मानव जीवन को सुन्दर तरीके से जीएं । यह पुस्तक जीवन जीने का सही अन्दाज देती है मन की समझ को अनेकायामी विस्तार देती है, सही निर्णय लेने की कुशलता का उपहार देती है । इस कृति में लेखिका ने 118 विषयान्तर्गत क्रमशः ‘विषम परिस्थिति’ से ‘मदर्स डे’ तक रचित की है जो इंगित करते है कि मानव का व्यवहार कैसे संतुलित रह सकता है ।

आज इक्कीसवीं सदी में आधी आबादी के समानाधिकारों व आधी जमीन की मांग छोरों पर है, कानून भी इसका साक्षी बना है, पर हकीकत इसके विपरीत है । आज भी पुरुष वर् औरत/महिला/स्त्री को दोयम दर्जें के रूप में समझता है, जबकि यह ममत्व, वात्सल्य, प्रेम अर्थात् सत्यं शिवम सुन्दरम् को व्याख्यायित करती है । इस कृति की रचियता स्वयं महिला है अतएव इस विषय को उन्होंने गहराई से लेकर अनेकों लेख/अपने भाव पुस्तक में महिमा मंडित किए हैं जो संवेदनशील भावनाओं में उन गहराईयों तक पहुँचने का प्रयास है जो दिखायी तो नहीं देती परन्तु अभाव, पीडा, उपेक्षा और अपेक्षाओं का जाल बुनकर जीवन पथ पर अवरोधक अवश्य खड़े कर देती है । लेखिका ने भाव अभिव्यक्ति और संवाद के माध्यम से वर्तमान के धरातल पर बिखरे हुए प्रश्न, टूटत्ते रिश्ते और अनुभूतियों को ऊंची-नीची भूमि पर छाये छलनामय कोहरे में झांक कर सच्चाई तक पहुंचने का प्रयास किया है ।

‘बँटा हुआ आदमी’ की  ये भाव कथाएँ यथार्थ के तप्त धरातल की निर्ममता और कड़वाहट, दुर्भावनाए, दुश्चिन्ताए, भयावह, विषाक्त वातावरण व पनप रही अनास्था, अजनबीपन, संवेदन शून्यता, स्वार्थपरता व अलगाव की त्रासदी का दस्तावेज है धूल भरे गुब्बारे में गुब्बार में तैरते  बिन्दु हैं, जो समन्वय व सामंजस्य लाने का यथासंभव प्रयास करती हैं जिससे सुन्दर व स्वस्थ समाज का सपना साकार हो सके।

कहते हैं जब समाज टूटता है या बँटता है तो सभ्यता, संस्कृति, मर्यादा और परम्पराएं आँसू बहाती हैं, परिवार टूटता है तो जड़े हिल जाती हैं उसे बाँधे रखने वाली आत्मीयता, अपनापन, रिश्ते-नाते क्रन्दन करके भी अपने आँसुओं का गम अन्दर ही अन्दर पीते रहते है, पर जब व्यक्ति टूटता है तो मानों जीवन का दर्पण ही टूट गया हो, जो फ्रेम में लगा रहकर भी अनेक टुकडों में बँट जाता है तो जीवन के सारे अभाव, अधूरापन, सपने, अपेक्षाएं, आकांक्षाएँ सब कुछ बिखर जाते है । दूर…दूर तक, यदि कोई टुकड़। पाव के बीच में आ गया तो रहे सहे व्यक्तित्व को भी लहुलुहान कर देता है । यदि उठाकर देख लिया तो एक ही दर्पण में अपना चेहरा सैकड़ों टुकडों में बँटा नजर आता है । समझ में नहीं आता कि असली कौन सा है? किसे अपना कहा जाए और आपसी सम्बन्धों को टूटन, बेरूखी,बिगड़ती स्थितियाँ, उलझे हुए मोड़ से सब ओर हताशा का अंधेरा और अकेलापन नजर आता है । इसी आधार पर डॉ. मुक्ता जी ने नवीन कृति की रचना की है।

मैं आशा करती हूँ कि मुक्ता जी की यह कृति ‘बँटा हुआ आदमी’ निश्चय ही बृहद पाठक समुदाय को आकर्षित करने में सफल हो सकेगी । जैसे फटे हुए बादलों के उगने से सूर्य चमकने लगता है वेसे ही कृति को पढ़कर पाठक झूम उठेगा तथा मानवता का कण…कण सुशोभित होगा। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए लेखिका बधाई की पात्र है ।

बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह) : लेखिका डॉ. मुक्ता,

प्रकाशक – पेसिफिक बुक्स इन्टरनेशनल, 108 फ़र्स्ट फ्लोर, 4832 /24 प्रहलाद स्ट्रीट, अंसारी  रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002

मूल्य – 220/…रू.

समीक्षक श्रीमति माधुरी पालावत

साभार – जगमग दीपज्योति (मा.), महावीर मार्ग, अलवर (राज ) 30300

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ भारत में चीन ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भारत में चीन”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ से अलंकृत 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है कि ई-अभिव्यक्ति परिवार के आदरणीय श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी को ‘साहित्य सहोदर‘ के रजत जयंती वर्ष में व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ अलंकरण से अलंकृत किया गया। e-abhivyakti की ओर से आपको इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ 

 

☆ भारत में चीन☆

 

मेरा अनुमान है कि इन दिनो चीन के कारखानो में तरह तरह के सुंदर स्टिकर और बैनर बन बन रहे होंगे  जिन पर लिखा होगा “स्वदेशी माल खरीदें”, या फिर लिखा हो सकता है  “चीनी माल का बहिष्कार करें”. ये सारे बैनर हमारे ही व्यापारी चीन से थोक में बहुत सस्ते में खरीद कर हमारे बाजारो के जरिये हम देश भक्ति का राग अलापने वालो को जल्दी ही बेचेंगे. हमारे नेताओ और अधिकारियो की टेबलो पर चीन में बने भारतीय झंडे के साथ ही बाजू में एक सुंदर सी कलाकृति होगी जिस पर लिखा होगा “आई लव माई नेशन”,  उस कलाकृति के नीचे छोटे अक्षरो में लिखा होगा मेड इन चाइना. आजकल भारत सहित विश्व के किसी भी देश में जब चुनाव होते हैं तो  वहां की पार्टियो की जरूरत के अनुसार वहां का बाजार चीन में बनी चुनाव सामग्री से पट जाता है .दुनिया के किसी भी देश का कोई त्यौहार हो उसकी जरूरतो के मुताबिक सामग्री बना कर समय से पहले वहां के बाजारो में पहुंचा देने की कला में चीनी व्यापारी निपुण हैं. वर्ष के प्रायः दिनो को भावनात्मक रूप से किसी विशेषता से जोड़ कर उसके बाजारीकरण में भी चीन का बड़ा योगदान है.

चीन में वैश्विक बाजार की जरूरतो को समझने का अदभुत गुण है. वहां मशीनी श्रम का मूल्य नगण्य है .उद्योगो के लिये पर्याप्त बिजली है. उनकी सरकार आविष्कार के लिये अन्वेषण पर बेतहाशा खर्च कर रही है. वहां ब्रेन ड्रेन नही है. इसका कारण है वे चीनी भाषा में ही रिसर्च कर रहे हैं. वहां वैश्विक स्तर के अनुसंधान संस्थान हैं. उनके पास वैश्विक स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले अपने होनहार युवकों को देने के लिये उस स्तर के रोजगार भी हैं. इसके विपरीत भारत में देश से युवा वैज्ञानिको का विदेश पलायन एक बड़ी समस्या है. इजराइल जैसे छोटे देश में स्वयं के इन्नोवेशन हो रहे हैं किन्तु हमारे देश में हम बरसो से ब्रेन ड्रेन की समस्या से ही जूझ रहे हैं.  देश में आज  छोटे छोटे क्षेत्रो में मौलिक खोज को बढ़ावा  दिया जाना जरूरी है. वैश्विक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके भी युवाओ को देश लौटाना बेहद जरूरी है. इसके लिये देश में ही उन्हें विश्वस्तरीय सुविधायें व रिसर्च का वातावरण दिया जाना आवश्यक है. और उससे भी पहले दुनिया की नामी युनिवर्सिटीज में कोर्स पूरा करने के लिये आर्थिक मदद भी जरूरी है. वर्तमान में ज्यादातर युवा बैंको से लोन लेकर विदेशो में उच्च शिक्षा हेतु जा रहे हैं, उस कर्ज को वापस करने के लिये मजबूरी में ही उन्हें उच्च वेतन पर विदेशी कंपनियो में ही नौकरी करनी पड़ती है, फिर वे वही रच बस जाते हैं. जरूरी है कि इस दिशा में चिंतन मनन, और  निर्णय तुरन्त लिए जावें, तभी हमारे देश से ब्रेन ड्रेन रुक सकता है .

निश्चित ही विकास हमारी मंजिल है. इसके लिये  लंबे समय से हमारा देश  “वसुधैव कुटुम्बकम” के सैद्धांतिक मार्ग पर, अहिंसा और शांति पर सवार धीरे धीरे चल रहा था.  अब नेतृत्व बदला है, सैद्धांतिक टारगेट भी शनैः शनैः बदल रहा है. अब  “अहम ब्रम्हास्मि” का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है. देश के भीतर और दुनिया में भारत के इस चेंज आफ ट्रैक से खलबली है. आतंक के बमों के जबाब में अब अमन के फूल  नही दिये जा रहे. भारत के भीतर भी मजहबी किताबो की सही व्याख्या पढ़ाई जा रही है. बहुसंख्यक जो  बेचारा सा बनता जा रहा था और उससे वसूल टैक्स से जो वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति चल रही थी, उसमें बदलाव हो रहा है. ट्रांजीशन का दौर है .

इंटरनेट का ग्लोबल जमाना है. देशो की  वैश्विक संधियो के चलते  ग्लोबल बाजार  पर सरकार का नियंत्रण बचा नही है. ऐसे समय में जब हमारे घरो में विदेशी बहुयें आ रही हैं, संस्कृतियो का सम्मिलन हो रहा है. अपनी अस्मिता की रक्षा आवश्यक है. तो भले ही चीनी मोबाईल पर बातें करें किन्तु कहें यही कि आई लव माई इंडिया. क्योकि जब मैं अपने चारो ओर नजरे दौड़ाता हूं तो भले ही मुझे ढ़ेर सी मेड इन चाइना वस्तुयें दिखती हैं, पर जैसे ही मैं इससे थोड़ा सा शर्मसार होते हुये अपने दिल में झांकता हूं तो पाता हूं कि सारे इफ्स एण्ड बट्स के बाद ” फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “. तो चिंता न कीजीये बिसारिये ना राम नाम, एक दिन हम भारत में ही चीन बना लेंगें.  हम विश्व गुरू जो ठहरे. और जब वह समय आयेगा  तब मेड इन इंडिया की सारी चीजें दुनियां के हर देश में नजर आयेंगी चीन में भी, जमाना ग्लोबल जो है. तब तक चीनी मिट्टी से बने, मेड इन चाइना गणेश भगवान की मूर्ति के सम्मुख बिजली की चीनी झालर जलाकर नत मस्तक मूषक की तरह प्रार्थना कीजीये कि हे प्रभु ! सरकार को, अल्पसंख्यको को, बहुसंख्यकों को, गोरक्षको को, आतंकवादियो को, काश्मीरीयो को,  पाकिस्तानियो को, चीनियो को सबको सद्बुद्धि दो.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆ उपहार ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆

 

☆ उपहार ☆

 

नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .

उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.

जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .

अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”

यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.

इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”

यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.

कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.

वे क्या बोलते. चुप हो गए .

और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 4 – ऋतू हिरवा…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता ऋतू हिरवा….)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #4 ☆ 

 

☆ ऋतू हिरवा….☆ 

 

येता आभाळ भरून मन झराया लागते

मग आधार शोधण्या तुझा आसरा मागते..

 

येता आभाळ भरून कसे डोळे पाणावती

पावसाच्या थेंबामध्ये आयुष्यच डोकावती…

 

येता आभाळ भरून वारा वाहे पानोपानी

भेटायला येईल ती अशी हाक येई कानी…

 

येता आभाळ भरून तन मन भारावते

बरसता थेंबसरी विरहाचे गीत होते…

 

येता आभाळ भरून पाऊसही ओला झाला

तुझ्या माझ्या भेटीसाठी ऋतू हिरवा जाहला…

 

 

…..सुजित कदम

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।।39।।

 

हे कुन्तीसुत,सबके बैरी, नित अतृप्त अग्नि से ये

काम,क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को अनचाहे से ढक लेते।।39।।

 

भावार्थ :  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है।।39।।

 

O Arjuna, wisdom is enveloped by this constant enemy of the wise in the form of desire, which is unappeasable as fire! ।।39।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक भावप्रवण कविता।)

 

☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है?

 

प्रिय क्या तुझको यह अहसास है,

तू उर में अब भी रहती मेरे पास है।

प्रिय क्या तुझको यह आभास है,

पूर्ववत तू अब भी मेरी सांस है ।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – -पास हो।

 

उर वीणा की वही मादक झंकार है,

बंधा हुआ अब भी तेरा नेह पाश है।

अब भी बज रहा नित प्रणय राग है,

खिल रहा मन में नेह का पलाश है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – —- पास हो।

 

आई कालचक्र की निर्दयी हुंकार है,

प्रिय टूट गई हमारे प्रणय की सांस है।

अनगिनत बंधनों की क्रूरतम पुकार है,

फिर भी मन में ज्वलित कोई आस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – —– – पास हो।

 

क्यों बस रहा फिर वो मोही संसार है,

पल रहा मन में अनचाहा संत्रास है।

मृगतृष्णा का निरंतर बढ़ता अंबार है,

चुभती उर में कोई अनचाही फांस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – – पास है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #3 – सुहाग की चूड़ी……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुहाग की चूड़ी…… ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3  ☆

 

☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆

 

हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।

बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।

प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।

आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-

क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….

मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे,  यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?

पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!

सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।

भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?

अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई  कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #4 – सार्थक आणि लक्ष्य ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  एक बाल  कविता  “सार्थक आणि लक्ष्य”।  हिन्दी में एक कहावत है  “मूलधन से ब्याज प्रिय होता है “।  सभी दादा दादी/नाना नानी को अपने  नाती पोते सर्वप्रिय होते हैं। मैं क्या आप सभी सुश्री प्रभा जी के कथन से सहमत होंगे । 

“नातवंडे प्रत्येक आजी आजोबांना खुप प्रिय असतात, त्यांच्या बाललीला पहाणं हे एक *आनंद पर्व* असतं ,एका  लग्न समारंभात माझ्या नातवाकडे पाहून एक महिला मला म्हणाली, “तुमचा नातू गोड आहे” यावर पाच वर्षाचा माझा नातू पटकन म्हणाला होता, “सगळे नातू गोडच असतात”. याच माझ्या नातवाच्या -सार्थक  च्या मैत्रीची एक कविता….” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 4 ☆

 

 ☆ सार्थक आणि लक्ष्य ☆

एक बालकविता

 

आजकालची मुलं भलतीच दक्ष,

आमचा सार्थक आणि शेजारचा लक्ष !

 

दोघे आहेत अगदी सख्खे मित्र

सारखे काढत असतात चित्र!

 

बागेमधे भरपूर खेळतात,

वाळूमधे मस्त लोळतात !

 

सायकलवरून फेरफटका

बसतोय किती उन्हाचा चटका ?

 

घरी येताच लागते भूक

भाजी पोळी त आहे सुख !

 

शहाणी बाळं घरचंच जेवतात

तब्येत आपली नीट ठेवतात !

 

आजीला शिकवतात इंटरनेट ,

आजोबांना करतात चेकमेट !

 

बेबलेट ,कॅरम ,चेस,सापशीडी

अभ्यासात ही आहे गोडी !

 

सार्थक लक्ष ची जोडी छान

लहानवयातही मोठं भान !!

 

  • प्रभा सोनवणे (प्रभा आजी)

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Buddha: The Ultimate Happiness Guru ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ Buddha: The Ultimate Happiness Guru

Generally, it is believed that the Buddha was a pessimist who preached misery. Nothing can be farther from the truth.
Buddha had great compassion for all beings. He saw their misery, felt deep empathy, explored the causes, and discovered a way out.

Not only that. He gave us a valuable guide for deep and lasting happiness.

The building blocks of an authentically happy life are outlined in the Discourse on Blessings – Maha-mangala Sutta – thus:

• Not to associate with the foolish, but to associate with the wise; and to honor those who are worthy of honor

• To reside in a suitable locality, to have done meritorious actions in the past and to set oneself in the right course

• To have much learning, to be skillful in handicraft, well-trained in discipline, and to be of good speech

• To support mother and father, to cherish wife and children, and to be engaged in peaceful occupation

• To be generous in giving, to be righteous in conduct, to help one’s relatives, and to be blameless in action

• To loathe more evil and abstain from it, to refrain from intoxicants, and to be steadfast in virtue

• To be respectful, humble, contented and grateful; and to listen to the Dhamma on due occasions

• To be patient and obedient, to associate with monks and to have religious discussions on due occasions

• Self-restraint, a holy and chaste life, the perception of the Noble Truths and the realisation of Nibbana

• A mind unruffled by the vagaries of fortune, from sorrow freed, from defilements cleansed, from fear liberated

These are the greatest Blessings.

Buddha closes the discourse with the words, “Those who thus abide, ever remain invincible, in happiness established. These are the greatest blessings.”

There is no doubt whatsoever that the Buddha is the Ultimate Happiness Guru!

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

 

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌।।38।।

 

अग्नि धुयें से मल से दर्पण, गर्भ श्र्लेष्म संवेष्ठित ज्यों

मनो विकारों के जालों में ज्ञान,पार्थ! आच्छादित त्यों।।38।।

 

भावार्थ :  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है।।38।।

 

As fire is enveloped by smoke, as a mirror by dust, and as an embryo by the amnion, so is this enveloped by that. ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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