डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं. आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का रिश्तों को लेकर एक बेहद संवेदनात्मक एवं शिक्षाप्रद आलेख “विश्वास बनाम बर्दाश्त”. रिश्तों की बुनियाद ही विश्वास पर टिकी होती है. रिश्तों में एक बार भी शक की दीमक लग गई तो रिश्तों की दीवार ढहने में कोई समय नहीं लगता. कहते हैं कि – शक की बीमारी का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। डॉ मुक्ता जी ने वर्तमान समय में रिश्तों की अहमियत, उन्हें निभाने की कला एवं रिश्तों में कड़वाहट आने से टूटने तक की प्रक्रिया की बेहद बेबाक एवं बारीकी से विवेचना की है. इस बेहद संवेदनशील आलेख के लिए उनकी कलम को नमन. )
☆ आलेख – विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆
‘रिश्ते बनते तो विश्वास से हैं, परंतु चलते बर्दाश्त से हैं‘ इस वाक्य में इतनी बड़ी सीख छिपी है… जैसे सीप में अनमोल मोती। विश्वास ज़िन्दगी की अनमोल दौलत है। विश्वास द्वारा आप किसी का हृदय ही नहीं जीत सकते, उसमें स्थायी बसेरा भी स्थापित कर सकते हैं। विश्वास से बड़े-बड़े देशों में संधि हो सकती है, युद्ध-विराम की कसौटी पर भी विश्वास सदा खरा उतरता है। विश्वास द्वारा आप गिरते को थाम कर, उसमें धैर्य, साहस व उत्साह का संचार कर सकते हैं, जिसे जीवन में धारण कर वह कठिन से कठिन आपदाओं का सामना कर सकता है। हिमालय पर्वत की चोटी पर परचम लहरा सकता है, सागर के अथाह जल में थाह पा सकता है…यह है विश्वास की महिमा।
‘रिश्ते विश्वास से बनते हैं’और जब तक विश्वास कायम रहता है, रिश्ते मज़बूत रहते हैं, पनपते हैं, विकसित होते हैं…परंतु जब हृदय रूपी आकाश पर संदेह रूपी बादल मंडराने लगते हैं, शक़ हदय में स्थान बना लेता है…तब थम जाता है यह दोस्ती का सिलसिला और एक-दूसरे को बर्दाश्त करना कठिन हो जाता है। ह्रदय का स्वभाव बन जाता है… हर पल दोषारोपण करने का, कमियां ढूंढने का, अवगुणों को उजागर करने का, अहं-प्रदर्शन करने का और ज़िन्दगी उस पड़ाव पर आकर थम जाती है, जहां वह स्वयं को एकांत से जूझता हुआ अनुभव करता है। लाख चाहने पर भी वह शंका रूपी व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता
शायद! इसीलिए हमारे ऋषि मुनि सहनशीलता का संदेश बखानते हैं, क्योंकि यह वह संजीवनी है जो बड़े-बड़े दिग्गजों के हौंसले पस्त कर देती है। दूसरे शब्दों में ‘सहना है, कहना नहीं ‘ इसी का प्रतिरूप है, मानो ये सिक्के के दो पहलू हैं। नारी को बचपन से ही मौन रहने व ऊंचा न बोलने की हिदायत दी जाती है और बचपन में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि उसे दूसरे घर में जाना है।सो! उसे मौन रूपी गुणों को आत्मसात् कर प्रत्युत्तर नहीं देना है। यही दो घरों की इज़्ज़त बचाने का मात्र साधन है,उपादान है, कुंजी है। इसी के आधार पर ही वह दो कुलों की मान-मर्यादा की रक्षा कर सकती है।
परंतु आजकल इससे उलट होता है। संसार का कोई भी प्राणी किसी के अंकुश में नहीं रहना चाहता। हर इंसान अहर्निश अहं में डूबा रहता है, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है जिसके सम्मुख दूसरों का अस्तित्व नगण्य होता है। वास्तव में रिश्ते बर्दाश्त से चलते हैं अर्थात् उनका निर्वाह दूसरे को उसकी कमियों के साथ स्वीकारने से होता है। जैसा कि सर्वविदित है कि इंसान गलतियों का पुतला है, अवगुणों की खान है, स्व-पर व राग-द्वेष की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ इंसान मोह-माया के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाता। संसार के आकर्षण उसे हर पल आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करते हैं और वह स्वार्थ के आधीन होकर,अपने जीवन के मूल लक्ष्य से भटक जाता है
रिश्ते बनाना बहुत आसान है। मानव पल भर में रूप-सौंदर्य व वस्तुओं-संसाधनों की ओर आकर्षित हो जाता है, जो देखने में सुंदर-मनभावन होते हैं। परंतु कुछ समय बाद उसका भ्रम टूट जाता है और विश्वास के स्थान पर जन्म लेता है…अविश्वास, संदेह, भ्रम व आशंका, जिसके कारण संबंध अनायास टूट जाते हैं।
सत्य ही तो है, ‘आजकल संबंध व स्वप्न ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुने हुए पापड़।’ एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने के कारण संबंध-विच्छेद होने में पल भर भी नहीं लगता। उसके पश्चात् मानव ‘तू नहीं, और सही’ की राह पर चल निकलता है और ‘लिव इन’ में रहना पसंद करता है… जहां कोई बंधन नहीं, सरोकार नहीं, दायित्व नहीं…. और एक दिन यह उन्मुक्तता जी का जंजाल बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वह रह जाता है, नितांत अकेला, खुद से बेखबर, अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशता, सुक़ून पाने को लालायित, इत-उत झांकता,परिवार- जनों से ग़ुहार लगाता… परंतु सब निष्फल।
ऐसी विसंगतियों से उपजे रिश्ते कभी स्थायी नहीं होते। आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है।कोई भी रिश्ता पाक़-साफ़ नहीं रहा। गुरु-शिष्य व पिता- पुत्री का संबंध, जिसे सबसे अधिक पावन स्वीकारा जाता था, उस पर भी कालिख पुत गई है। अन्य संबंधों की चर्चा करना तो व्यर्थ है। आजकल बहन- बेटी का रिश्ता भी अस्तित्वहीन हो गया है और शेष बचा है, एक ही रिश्ता… औरत का, जिसे वासना पूर्ति का मात्र साधन समझा जाता है। समाज में गिरते मूल्यों के कारण चंद दिनों की मासूम कन्या हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा…दबंग लोग उससे दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते क्योंकि उन्हें तो पल भर में अपनी हवस को शांत करना होता है। उस स्थिति में वे जाति-पाति व उम्र के बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं।
रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। खून आजकल पानी होता जा रहा है और इंसान मानवता के नाम पर कलंक है, जिसका उदाहरण है…गली-गली,चप्पे- चप्पे पर दुर्योधन और दु:शासन का द्रौपदी का चीर- हरण कर, मर्यादा की सीमाओं को लांघ जाना… जिसके उदाहरण हर शहर में निर्भया, आसिफ़ा व अन्य पीड़िता के रूप में मिल जाते हैं, जो लंबे समय तक ज़िन्दगी व मौत के झूले में झूलती संघर्षरत देखी जा सकती हैं। उन्हें हरपल सामाजिक अवमानना, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। तनिक स्वयं को उसके स्थान पर रख कर देखिए …क्या मन:स्थिति होगी उन मासूम बालिकाओं की, जिन्होंने इतने दंश झेले होंगे। आजकल तो सबूत मिटा डालने के लिए, निर्मम हत्या कर डालने का प्रचलन बदस्तूर जारी है।
यह है समाज का घिनौना सत्य….यहां ऐसिड अटैक का ज़िक्र करना आवश्यक है। एकतरफ़ा प्यार या प्रेम का प्रतिदान न मिलने की स्थिति में सरे-आम तेज़ाब डालकर उस मासूम को जला डालने को सामान्य-सी घटना समझा जाता है। क्या कहेंगे आप इसे… अहंनिष्ठता, विकृत मानसिकता या दबंग प्रवृत्ति, जिसके वश में हो कर इंसान ऐसे कुकृत्य को अंजाम देता है, जिसका मूल कारण है… संस्कार- हीनता, जीवन-मूल्यों का विघटन व समाज में बढ़ गई संवेदनशून्यता, जिसके कारण रिश्ते रेत होते जा रहे हैं।
संदेह, शक़ व अविश्वास के वातावरण में व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेलने को विवश है और मानव स्वयं को इन रिश्तों के बोझ तले दबा हुआ असहाय-सा पाता है और उन्हें निर्भयता से तोड़ कर स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन-यापन करना चाहता है। संबंधों को गले में लिपटे हुए मृत्त सर्प की भांति अनुभव करता है, जिनसे वह शीघ्रता से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहता है। इसलिए रिश्तों में ताज़गी,माधुर्य व संजीदगी के न रहने के कारण, वह उसे बंधन समझ कुलबुलाता है और ठीक-गलत में भेद नहीं कर पाता। आजकल मानव रिश्तों को ढोने में विश्वास नहीं करता और उन्हें सांप की केंचुली की भांति उतार फेंकने के पश्चात् ही सुकून पाता है… जिसका मुख्य कारण है, सहनशीलता का अभाव। मानव अपनी मनोनुकूल स्थिति में जीना चाहता है। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ और ‘जो गुज़र गया, उसे भूल जाओ’ तथा स्मृतियों में व उसके साथ ज़िन्दगी मत बसर करो और जो तुम्हारे गले की फांस बन जाए, उसे अनुपयोगी समझ अपनी ज़िन्दगी से बेदखल कर, नये जीवन साथी की तलाश करो।’यही ज़िन्दगी का सार है और आज की संस्कारहीन युवा पीढ़ी इन सिद्धांतों में विश्वास रखती है, जो ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ऐसे लोग, जिनमें सहनशीलता का अभाव होता है..जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते, कभी भी उस भटकन से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! सहनशीलता मानव का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च व सर्वोत्तम आभूषण है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
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