आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।32।।

 

अर्जुन ! जो सबको सदा लखता आत्म समान

सुख में या दुख में हो कोई,योगी वही महान।।32।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना ‘अपनी भाँति’ सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।।32।।

 

He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees equality everywhere, be it  pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi! ।।32।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्षय – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Inexhaustiblepublished today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय ☆

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी।  दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

जीवन ऊर्जा अक्षय रहे।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 19 ☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  एक आध्यात्मिक  कविता/गीत   “तेरे दर्शन पाऊं”.  डॉ  मुक्ता जी के इस  रचना में  गीत का सार भी  कहीं न  कहीं इस पंक्ति “मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं “ में निहित है.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 19 ☆

 

☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆

 

मनमंदिर की जोत जगा कर तेरे दर्शन पाऊं

तुम ही बता दो मेरे भगवान कैसे तुझे रिझाऊं

मन मंदिर……

 

पूजा-विधि मैं नहीं जानती, मन-मन तुझे मनाऊं

जनम-जनम की  दासी  हूं  मैं, तेरे ही गुण गाऊं

मन मंदिर……

 

मेरी अखियां रिमझिम बरसें, कैसे दर्शन पाऊं

कब रे  मिलोगे, गुरुवर नाम की  महिमा गाऊं

मन मंदिर……

 

जीवन नैया ले हिचकोले, पल-पल डरती जाऊं

बन जाओ तुम  ही खिवैया, बार-बार यही चाहूं

मन मंदिर…….

 

घोर अंधेरा राह न  सूझे, मन-मन  मैं घबराऊं

मन ही मन डरूं बापुरी, नाम की टेर  लगाऊं

मन मंदिर…….

 

सुबह से  सांझ हो  चली,  तुझे पुकार लगाऊं

मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं

मन मंदिर…….

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 17 ☆ व्यंग्य – मोहनी मन्त्र ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  समाज के एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करता बेबाक व्यंग्य   “मोहिनी मंत्र ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 17  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ व्यंग्य – मोहिनी मंत्र

 

जब भगवान् विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया तो असुर और देव सब उसे पाने के लिए   दौड़ पड़े यहाँ तक की विरागी नारद का भी मन डोल गया।

मै अभी कथा के किसी भाग तक पहुंची ही थी कि मेरा ध्यान आधुनिक काल के असुरों  देवों और नारदों की और चला गया।  .

कहते है जो मन में हो उसे कह डालना चाहिए और खास तौर पर स्त्रियों के लिए कहा जाता है की ज्यादा समय तक अपने पेट में रखती है तो गड़बड़ झाला हो जाता है यानि पेचिश की सम्भावना बढ़ जाती है।  मै नही चाहती की मै किसी गड़बड़ झाले में फसूं इसलिए उन सुंदर चरित्रों का वर्णन करने विवश हो रही हूँ जो मोहनी मन्त्र के मारे है।

अब इनमे कुछ तो ऐसे मिलेंगे जो ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते है। तो अब मै आपके कथा रस को भंग नहीं करूंगी सुनिए ….एक दिन सुबह-सुबह मुआ मोबाईल बज उठा। जैसे ही फोन उठाया एक मरदाना स्वर उभरा नमस्कार मैडम नमस्कार तो इतने लच्छेदार था भाई जलेबी इमरती क्या होगी मानो सारा मेवा मलाई मिश्रित सुनकर मै चौंक गई नमस्ते कहकर सोच में पड़ गई इतने मधुर कंठ से कोई कुंवारा ही बोल रहा है जिसे चाशनी को जरुरत है। उन्होंने बड़े ही अदब से कहा आप डॉ. साहिबा ही बोल रही है।  मैंने कहा जी कहिये क्या इलाज करवाना है वहां से स्वर फूटा अजी आप करेंगी तो हम जरुर करवा लेंगे। आपकी बात करने की अदा लाजबाव है जी।  हमसे रहा नही गया हमने कहा ‘न जान न पहचान मै तेरा मेहमान’। अरे मैम बात हो गई समझो जान पहचान हो गई मै मिलकर पहचान बनाने में विश्वास नही रखता।  आपका मधुर स्वाभाव है मिर्ची जैसा तीखापन आपको शोभा नही देता। आपके लेख की तारीफ करने के लिए फोन किया है मै भी एक लेखक हूँ। ओह्ह्ह मुझे लगा आप किसी कॉलेज के छात्र है। उनका कहना था अरे डियर आप अपना शिष्य बना लीजिये गुरु दक्षिणा मिलती रहेगी इतना सुनते ही हमने छपाक से फोन रख दिया।

अगले दिन सुबह फोन का स्वर कर्कश-सा जान पड रहा था नम्बर  बदला हुआ था। फोन उठाते ही वही स्वर राधे–राधे उभरा हमने भी राधे-राधे कहा और चुप हो गए फोन रखने लगे तो आवाज़ आई प्लीज मैडम कल की गुस्ताखी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, आपके शहर में आया हूँ, आपके दर्शन का अभिलाषी हूँ। हमारा दिमाग गरम हो रहा, पारा आसमान छू रहा है सुनिए दर्शन करना हो तो मंदिर जाइये।  भगवान के दर्शन करेंगे तो कुछ लाभ मिलेगा बुद्धि में सुधार होगा। अरे मैडम आपके दर्शन करके हम धन्य हो जायेंगे ज्ञान बुद्धि सबका विकास हो जायेगा। आप जनाब हद पार कर रहे है और अब आपसे यही कहना है कृपा करके रोज-रोज घंटी न घनघनाये जब मुझे आवश्यकता होगी तब आपको कॉल कर लेंगे राधे-राधे ……..

इन ज्ञानी ध्यानी लेखक के विषय में सारी पोल परत—दर-परत खुलती चली गई। वह चरित्र हीन नहीं है पर महिलाओं से फोन पर बाते करने का आशिक है उनका नम्बर  पत्र  पत्रिकाओं से पढ़कर उनकी रचनाओं की तारीफ करते है भले ही रचना पढ़ी न हो पर तारीफ इतनी की जैसे घोल कर पी लिया हो और बातों के मोहजाल में इस कदर फांस लेते है लगता है मोहनी मन्त्र जैसे यंत्र की कला में पारखी है।  जो इन जैसे लोगो को समझ नही पाती वे अपनी तारीफ सुनकर लट्टू हो जाती है और इन जैसे लोग अपना समय पास करने के लिए घंटों फोन पर बाते करते है और वह डियर, डार्लिंग, मोहना, मेरी राधा आदि शब्दों की वरमाला पहनाकर फोन से ही आश्वस्त हो जाते है।

इसी तरह एक और महाशय है जो तलाकशुदा शुदा है लेकिन अब दुबारा शादी नही कर रहे बस यहाँ वहां राधा को तलाश करते है वह भी नामी है पर फिर भी परवाह नही नाम की, एक दिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी गलती से ‘सांप के बिल में हाथ डाल’ दिया कहने लगे डियर तुम बहुत खूबसूरत हो, मिलती नहीं तो क्या कम से कम फोन पर ही जाम पिला दो। इतना कहना ही क्या था इन्हें बातों की इतनी पन्हैया लगाई की सारी आशिकी हवा हो गई।  अब लगता है कभी वो सामना करने की भी जुर्रत नही करेंगे लेकिन ऐसे लोगो को कोई फर्क नही पड़ता है।

एक और महाशय फेस बुक पर आये और चैट करने लगे वे कहते है आपकी फोटो इतनी सुंदर है तो आप कितनी सुंदर होगी। पता चला ये महाशय कवि है और कविता के माध्यम से इतनी तारीफ की वो तो फूली नही समाई और बोल पड़ी आपसे मिलने का मन है पहले तो ये महाशय खुश हुए फिर बोले नही मै किसी से मिलता नही यदि मै मिल लिया तो मेरा धर्म कर्म नष्ट हो जायेगा मै भ्रष्ट की श्रेणी में आ जाऊंगा।  तो सखी बोल पड़ी अच्छा बाते करने से धर्म कर्म नष्ट नही होता मोहनी मन्त्र के अदृश्य जाल में फांसते हो सबको जैसे कृष्ण भगवान ने तो अपने मोह पाश में सबको मोह कर वे भगवान् कहलाये आप अपने को कृष्ण न समझो युग बदल गया है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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English Literature – Short Story – ☆ Inexhaustible ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Short Story “अक्षय” published in today’s  ☆ संजय दृष्टि  – अक्षय ☆ We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

☆ Inexhaustible ☆

 

In the childhood, he had read the story of three *’D’*. *Daya*, the kindness, is expected from the demons; *Daman*, the sensory repression from the deities, and *Daan*, the donations from the humans.

He was a pauper, had nothing to give.  Then, he started giving a portion of his bread to others.  He started drinking water only after distributing it to the thirsty people. He would give supporting hands to the little ones and  accompaniment to the elders.

As the adage goes, the pauper’s accumulation always remained inexhaustible.

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆ साल दर साल पुतले जलते गये ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “साल दर साल पुतले जलते गये ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆

☆  साल दर साल पुतले जलते गये ☆

साल दर साल पुतले जलते गये ।

फिर भी रावण नये पलते गये ।।

साल दर साल पुतले जलते गये ।

 

कद पुतलों का भी बढ़ाया गया ।

बिस्फोटक भी खूब मिलाया गया ।।

तमासा देख लोग मचलते गए ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

धन दौलत का यहां अब जोर है ।

यहां हर तरफ कलियुगी शोर है ।।

आदमी सच्चे हाथ मलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

बुराई पर अच्छाई की विजय ।

हो असत्य पर सदा सत्य की जय ।।

सोच यह लेकर हम चलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

क्रोध,कपट,कटुता का है प्रतीक ।

विकार सब रावण पर हैं सटीक ।।

ये अवगुण सारे अब बढ़ते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

तम अंदर का जब तक न मिटेगा ।

तब तलक अब न “संतोष”मिलेगा ।।

हम पुतले जला के बहलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

जो इस दौर में  भी संभलते गए ।

बेधड़क राह सच की चलते गए ।।

ऐसे भी हमें लोग मिलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प अठरावे # 18 ☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी  का आलेख है  “प्रेमा तुझा रंग कसा?”। ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प अठरावे # 18 ☆

 

☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆

 

या विषयावर विचार प्रकट करताना, आठवतात ओळी, ‘पाण्या तुझा रंग कसा? ‘ एखाद्या व्यक्तीवर जीव जडतो. त्याचं शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सौंदर्य मनाला भुरळ घालत.  अशा व्यक्तीच्या सहवासात मन रमत.  आणि सुरू होतो प्रेमाचा प्रवास. प्रेम हे पाण्याइतकच जीवनावश्यक. जीवनदायी. प्रेमाचा अविष्कार नसेल तर,  आयुष्य निरर्थक, निरस, कंटाळवाणे होईल.

प्रेम दिसत नसले तरी,  त्याचे रंग अनुभुतीतून जाणवतात. कुणाच्या नजरेतून, कुणाच्या स्पर्शातून, कुणाच्या काळजीतून,  कुणाच्या आचारातून , कुणाच्या विचारातून, कुणाच्या सेवेतून, कुणाच्या त्यागातून, कुणाच्या आधारातून प्रेमरंगाच्या विविध छटा  अनुभवता येतात. असं हे रंगीबेरंगी प्रेम,  ह्रदयात जाणवत. . . आणि व्यक्त होताना कुणाचं तरी ह्रदय हेलावून टाकत. हा प्रवास  असतो. . सृजनाचा. माणूस माणसाशी जोडला जातो. परस्परात नातं निर्माण होत.  अनेक विध नात्यातून व्यक्त होणारे प्रेम माणसाला पदोपदी एकच संदेश देत. . . तो म्हणजे. . . ”तू माणूस आहेस …..”

एकदा का व्यक्तीला स्वत्वाची जाणिव झाली कि तो स्वतःवर, नात्यांवर,  देशावर प्रेम करायला लागतो. प्रेम हे एक रेशमी कुंपण  असते.  आपणच आपल्या आत्मीयतेने हा परीघ स्वतःभोवती निर्माण करतो. नात्यांचे भावबंध गुंफत  असताना, गुणदोषासकट आपण प्रेमाची बांधिलकी स्विकारतो. वेळ, काळ, पद, पत,  पैसा प्रतिष्ठा,  तन, मन, धन,  सारं काही पणाला लावतो. या प्रेमाच्या रंगात आपण स्वतः तर रंगतोच पण  इतरांनाही रंगीत करतो.

एकतर्फी प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा,  आदर, यांच्या पलीकडे जाऊन दुसर्‍या वर हक्क प्रस्थापित करू पहात. . . तेव्हा ते घातक ठरत. कुंपण शेत खात या म्हणीनुसार,  एकतर्फी प्रेम  आधी व्यक्ती, मग कुटुंब, मग समाज,  यांना गोत्यात  आणत. प्रेमाचा  उगम हा सरितेसारखा. प्रेम ह्ददयातून उत्पन्न होत असलं तरी त्याचं मूळ नी प्रिती च कूळ शोधायला जाऊ नये. ही सहज सुंदर तरल भावना,  आपले जीवन  उत्तरोत्तर  अधिकाधिक रंगतदार करत असते.

प्रेमाच्या विविध छटा, त्याचे पैलू, नानाविध  अविष्कार हे आपलेच जीवन रंग  असतात. जीवना तू असा रे कसा, याचा शोध घेतला की  आपोआपच या प्रेमरंगाच्या रंगान आपण निथळू लागतो. विविध ऋतूंप्रमाणे हे जीवन स्तर प्रत्येकाच्या आयुष्यात असतात. . फक्त ते अनुभवता  आले पाहिजेत. अडीच अक्षरात सामावलेलं हे प्रेम,  वळल तर सूत, नाही तर भूत. . या  म्हणीचा प्रत्यय देते. प्रेमाचा रंगीत  अविष्कार कुणाला मानव करतो. . तर कुणाला दानव. . . हे प्रेम रंग किती द्यायचे, किती घ्यायचे. . .  अन् कसे किती उधळायचे,  इतकेच फक्त कळले पाहिजे.

स्वतःचे मी पण हिरावून नेणारे हे प्रेम रंग  जात्यातच असतात मनोहारी. . . ! आईचे काळीज म्हणजे प्रेमरंगाचा वात्सल्य भाव.  आठवणींचा पसा पसरून संस्काराचा वसा वेचत माणूस घडविण्याचं कार्य हा प्रेमरंग करतो. बापाचं काळीज म्हणजे फणसाचा गरा. त्याची आठळी म्हणजे  अमृताचा कोष. . पण ती  आठळी सदैव बाजूला पडते. त्याच्या नजरेचा धाक वाटतो पण त्या धाकात त्याच्या लेकराचा घट घडत  असतो. बाप लेकाचे प्रेम हे सुई दोरा  सारखे. . फक्त जोडणीचा होरा चुकायला नको.

बहिण भावंडे यांच रेशमी कुंपण,  प्रेमाच्या गुंफणीत माया ममतेचं अलवार नातं निर्माण करत. ही गुफण मग सुटता सुटत नाही.  आज्जी, आजोबा काका, काकू, मामा, मामी, हे आधाराचे हात बनून जीवनात येतात.  अनेक संकटांवर लिलया मात केली जाते. ती याच हातांकरवी. सारे आप्तेष्ट, मित्र परिवार यांच्या प्रेमरंगाच्या अंतराला जाणवणारा दंगा हा वर्णनातीत आहे. . . तो ज्यान त्यान अनुभवण्यात जास्त रंगत आहे.

गुरू शिष्य नाते स्नेहभावाचे. पैलू विना हिर्‍याला चमक नाही तसे ज्ञानार्जन माणसाला ज्ञानी करते. सारे जग प्रेमाच्या रंगात रंगत जाताना  आपले अंतरंग फुलून येते. जाणिवा नेणिवा,  साद, प्रतिसाद, राग, लोभ, मोह, द्वेष, मत्सर, सारे षड्विकार प्रेमरंगाला आपापल्या जाळ्यात ओढू पहातात. हे जीवनरंग अनुभवताना  काळजाची भाषा  उमजायला हवी.

या दुनियेत वावरताना  माणूस माणसाशी विविध प्रकारचे नातेसंबंध निर्माण करतो. ही स्नेहमैत्री ह्रदयापासून  ह्रदयापर्यत प्रवास करते यातूनच प्रेमाची देवाण घेवाण होते.  माणुसकीचा स्पर्श  आणि समाधानी हर्ष ज्या नात्यातून जाणवतो तिथे प्रेम साकारते.  आपले अस्तित्व टिकवून ठेवते.  स्वतः घडते आणि  इतरांना घडवते.विविध भावना  आणि  जाणिवा नेणिवा यातून व्यक्त होणारे हे प्रेम स्वभाव दोषांवर मात करून  आपले  अस्तित्व टिकवून ठेवण्याची शिकवण देते.कौतुक, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन  आणि  आभार यातून हे प्रेम वृद्धिंगत होत रहाते.

प्रेमरंगात रंगताना त्यात होणारी देव घेव प्रेमाचं यशापयश ठरवते. फक्त प्रेमात व्यवहार नसावा. रोख ठोक हिशोब नसावा. . . शेवटच्या श्वासापर्यत स्वतःवर आणि प्रिय व्यक्तीवर  विश्वास ठेवला की हे सारे प्रेमरंग अनुभवता येतात. हा जीवन रस,  हे जीवन सौख्य  अखेर पर्यंत  आपल्या सोबत  असत. त्याचा  अविरत प्रवास सुरू  असतो. . . .  अंतरातून  अंतराकडे . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।31।।

 

सब में स्थित मानते मुझे जो भी तदरूप

कही भी हों योगी वे नित मुझमें आत्म स्वरूप।।31।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।31।।

 

He who, being established in unity, worships Me who dwells in all beings,-that Yogi  abides in Me, whatever may be his mode of living.।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆ अम्माँ को पागल बनाया किसने? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक लघुकथा “अम्माँ को पागल बनाया किसने?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆

 

☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ?  ☆ 

 

“भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा – अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।”

“मतलब” – मैंने पूछा

“जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढूँढकर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब पागलपन नहीं दिखाई देता? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाई, पहले से ही पागल हैं।”

“भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेगीं पागल ही रहेंगी।अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।” ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।

“भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया जब वह तुम्हारे किसी काम की नहीं रह गई, बोझ बन गई तुम पर | पागल ना होती तो मोह के बंधन काटकर तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया होता। तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया। कुछ ही समय में उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था।  इसके बाद भी ‘मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? जब जीना दूभर हो गया तुम्हारे घर में तब मुझसे एक दिन बोली – ‘बेटी! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह। मैं तो गल्ती कर बैठी, तुम ध्यान रखना।”

“भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 10 – The blindfolding of Gandhari ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “The blindfolding of Gandhari”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 10

 

☆ The blindfolding of Gandhari   ☆

 

O lord! I blindfold myself!

That my husband was blind I knew not

Never had I thought of such a union

But together, the destiny has brought

 

O lord! I blindfold myself!

As I learn of my future and fate

What is ordained, cannot be modified

I shall suffer, as does my mate!

 

O lord! I blindfold myself!

Know not what speaks is protest or disgust

My exploitation, I shall not permit!

O lord! Let me disable myself first!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

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