आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

 

अर्जुन उवाचः

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

 

अर्जुन ने पूछा-

इच्छा विपरीत मनुज क्यों पाप आचरण करता है ?

लगता है कोई करा रहा है,वृत्ति ये कैसे धरता है।।36।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ।।36।।

 

But impelled by what does man commit sin, though against his wishes, O Varshneya (Krishna), constrained, as it were, by force? ।।36।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ☆ मेरे पिता….. ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  पितृ दिवस पर  स्व। पिताजी की स्मृति में रचित कविता मेरे पिता”।) )

 

☆ मेरे पिता….. ☆

 

सजग साधक

रत, सुबह से शाम तक

दो घड़ी मिलता नहीं

आराम तक

हम सभी की दाल-रोटी

की जुगत में

जो हमारी राह के कांटे

खुशी से बीनता है,

वो मनस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

सूर्य को सिर पर धरे

गर्मी सहे जो

और जाड़ों में

बिना स्वेटर रहे जो

मौसमों के कोप से

हमको बचाते

बारिशों में असुरक्षित

हर समय जो भींगता है,

वो तपस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

स्वप्न जो सब के

उन्हें साकार करने

और संशय, भय

सभी के दूर हरने

संकटों से जूझता जो

धीर और गंभीर

पुलकित, हृदय में

नहीं खिन्नता है,

वो यशस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

जो कभी कहता नहीं

दुख-दर्द अपना

घर संवरता जाए

है बस एक सपना

पर्व,व्रत, उत्सव

मनाएं साथ सब

जिसकी सबेरे – सांझ

भगवन्नाम में तल्लीनता है,

वो महर्षि कौन?

वो मेरे पिता है।

 

मौन आशीषें

सदा देते रहे जो

नाव घर की

हर समय खेते रहे जो

डांटते, पुचकारते, उपदेश देते

सदा दाता भाव

मंगलमय,विनम्र प्रवीणता है,

वो  दधीचि कौन?

वो मेरे पिता हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ?? पापा ??☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पितृ दिवस पर विशेष 

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

 

(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  *”पितृदिवस”* पर पिताजी का अपनी कविता द्वारा पुण्य स्मरण।)

 

?? पापा ??

 

खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है।

मेरे नन्हें हाथ थामकर,
तुमने चलना सिखलाया
जीवन पथ पर आगे बढ़ने,
सदा नेक पथ दिखलाया
बचपन में दी सीख आज तक,
भूले नहीं भुलाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

रोज सबेरे दफ्तर जाकर,
शाम ढले वापस आते
धूम मचाते पूरे घर में,
नया कभी जब कुछ लाते
इन बातों की स्वप्न श्रृंखला,
बचपन में लौटाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

मुझे पढ़ाने की इच्छा को,
तुमने लक्ष्य बनाया था
घर बाहर सुविधाएँ देकर,
अध्ययन पूर्ण कराया था
बात सदा आगे बढ़ने की,
नित उत्साह जगाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

जब भी मुझको मिली सफलता,
शाबाशी उपहार मिली
कभी निराशा हाथ लगी तो,
संबल की पतवार मिली
सहनशीलता अपनाने की,
बात तुम्हारी भाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

शादी बच्चे घर होने पर,
हृदय आपका हर्षाया
मेरी उलझन को सुलझाने,
सदा तुम्हें तत्पर पाया
तुमसे जानी साख, निडरता,
साहस मेरा बढ़ाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

हुआ अगर मैं निकट तुम्हारे,
जब तब गले लगा लेते
हाथों के स्पर्श तुम्हारे,
तन मन नेह जगा देते
सब हैं फिर भी ‘कमी तुम्हारी’,
मन उदास कर जाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

© डॉ विजय तिवारी  “किसलय”जबलपुर

 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #1 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(हम श्री संजय भारद्वाज जी के हृदय से आभारी हैं  जिन्होने  e-abhivyakti के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमित छाप छोड़ जाते हैं।

 

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

 

अब हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाचशीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की प्रथम कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

संक्षिप्त परिचय

अध्यक्ष – हिंदी आंदोलन परिवार

सदस्य – हिंदी अध्ययन मंडल, (बोर्ड ऑफ स्टडीज), पुणे विश्वविद्यालय।

संपादक – हम लोग

पूर्व सदस्य – महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

ट्रस्टी – जाणीव वृद्धाश्रम, फुलगाँव, पुणे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 1 ☆

 

बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं, यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेस कैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे 



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #4 – मज़ाक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 4 ☆

 

☆ मज़ाक ☆

 

दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।

मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।

मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो।  दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे।  चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे।  मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते।  प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।

उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते।  कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।

यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी।  सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।

एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया।  उदास मन से दीपक जी लौट आये।  बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।

शाम हो गयी थी।  अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी।  निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा।  सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था।  उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।

दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’

वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’

दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’

वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’

दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’

चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब।  नगर निगम ने गिरा दी।  चार बार बनी, चार बार गिरी।  अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’

दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी।  बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’

वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया।  वह मुँह बाये ‘वाह साहब’,  ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।

संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले।  चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो।  बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो।  ये दो रुपये रख लो।  सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’

चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )



मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #8 – नातं .…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  आठवीं कड़ी नातं… । जीवन में रिश्ते और रिश्तों पर आधारित दिवसों को मनाना रिश्तों को पुनर्जीवित करने जैसा है।  श्री आरूशी जी का यह आलेख मानवीय रिश्तों के अतिरिक्त ईश्वर  एवं  प्रकृति के रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #8  ? 

 

☆ नातं…   ☆

 

जे नातं माझ्या चेहऱ्यावर हसू आणतं, ते हृदयस्थ आहे !

पाडवा असला की नवऱ्याला ओवळायचं… आज भाऊबीज म्हणजे भावाला ओवाळायचं… मातृदिन, पितृ दिन, मैत्री दिन अशा वेगवेगळ्या दिवसाचं औचित्य साधून आपल्या आयुष्यातील वेगवेगळ्या नात्याचं स्मरण करतो… हे असे दिवस साजरे केलं ना की मला खूप आनंद मिळतो… हा उत्सव खूप काही देऊन जातो… एक तर ही नाती rejuvenate होतात असं मला नेहमी वाटतं आणि त्या नात्यातील खोली कळते, वीण अजून घट्ट होते…

काही नाती खूप वेगळी असतात… कुठल्याही व्याख्येत बसत नाहीत… किंवा त्यांना कुठलंही नाव देता येत नाहीत… मग अशी नाती खरंच टिकतात का? तर हो टिकतात… नक्कीच… फक्त ह्यात कधी दिखावा नसतो, कारण त्याची गरज नसते… ही अंतरबाह्य दैवी असतात… आजही काही जणांचा आधार फक्त त्यांच्या स्मरणाने देखील बळ देतो…

ही नाती फक्त दोन व्यक्तींमध्येच असतात असं नाही… येतंय ना लक्षात मी काय सांगायचा प्रयत्न करतीये ते ! म्हणजे कसं आहे माहित्ये का?

समुद्र किनारी गेले की तो समुद्र, त्या लाटा आणि तो सूर्य माझं आयुष्य परिपूर्ण करतात ही भावना खूप सुखावह वाटते… संध्याकाळी देवापाशी दिवा लावला की त्या तेजाबरोबर मिळणारा लख्ख आधार, जणू त्या नात्याचं अस्तित्व प्रकाशमान करतो…. किंवा रात्रीची शाल पांघरून जेव्हा आकाशातील चांदण्या प्रसन्नतेची उधळण करतात, तेव्हा आकाशाशी असलेलं मायेची पाखरण करणारं हे नातं वात्सल्यपूर्ण वाटतं…

ह्या नात्याला नाव द्यायची कधी गरज पडलीच नाही… आणि तसा कधी प्रयत्नही केला नाही… ह्यातच त्या नात्याचं यश दडलेलं आहे, हो ना!

 

© आरुशी दाते, पुणे 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Happiness and Well-Being ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ Happiness and Well-Being

 

Each one of us seeks happiness.

Happiness and well-being is not a thing. The modern science of happiness and well-being describes it as a ‘construct’.

For example, ‘weather’ is a construct. Ask any meteorologist, and he will tell you: weather is not a thing, it is a construct – a construct of temperature, humidity, barometric pressure, wind speed and a host of other factors.

The elements of well-being include positive emotion, engagement or flow, positive relationships, meaning and accomplishment.

A couple of additional features from out of self-esteem, optimism, resilience, vitality and self-determination are required to really flourish.

This means you have to dig a bit deeper to understand fully what is happiness and well-being. It’s not as simplistic as saying: happiness is within us.

Happiness does not come to you on its own. You have to act in order to achieve it.

The good news is that we can learn to enhance our levels of happiness and well-being.

Please stay tuned as we unfold more and more on the subject.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।35।।

 

अपना कर्म गुण रहित हो तो भी अपना हितकारी है

औरों का तो धर्म भयंकर , निज में मरण सुखारी है।।35।।

 

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।।35।।

 

Better is  one’s  own  duty,  though  devoid  of  merit,  than  the  duty  of  another  well discharged. Better is death in one’s own duty; the duty of another is fraught with fear. ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता -☆ एहसास ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(साठवें दशक के उत्तरार्ध एवं पूर्व जन्मी मेरे समवयस्क पीढ़ी को समर्पित।)

 

☆  एहसास   ☆

 

जब कभी गुजरता हूँ तेरी गली से तो क्यूँ ये एहसास होता है

जरूर तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।

 

बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के

जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको।

 

बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा

उस पर वो झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।

 

कितना डर था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का

अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको।

 

वो छुप छुप कर मिलना वो चोरी छुपे भाग कर फिल्में देखना

जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।

 

सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों के हर लफ्ज के मायने होते थे

आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज तक छू नहीं पाते मुझको।

 

वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे

यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा न मिले मुझको।

 

दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था कभी किताबों में

उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।

 

अब ना किताबघर रहे ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको।

 

अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको।

 

© हेमन्त  बावनकर




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ दृष्टिकोण ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है पति द्वारा  रूपवान एवं विद्वान किन्तु दृष्टिबाधित पत्नी के साथ भावुकता में हुए  प्रेमविवाह के परिणाम पर आधारित  कहानी “दृष्टिकोण”।) 

☆ दृष्टिकोण ☆

निकल!” सुमित अपनी दृष्टिबाधित पत्नी दिव्या को धक्के मारता हुआ घर के द्वार तक ले आया।

“मैं कहीं नहीं जाऊंगी, ये तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी घर है!” दिव्या नेपति से किसी तरह स्वयं को छुड़ाते हुए कहा।

“ये घर तेरा कैसे हुआ, जरा मैं भी तो सुनूँ? क्या तेरे बाप ने दहेज में दिया था, तुझे तो खाली हाथ मेरे गले डाल दिया था तेरे बाप ने, मैं अब और नहीं सह सकता तुझे, जहाँ तेरा मन करे जा, पर मेरा पीछा छोड़,” सुमित ने पुनः दिव्या की बाजू पकड़ कर दरवाजे की ओर धकेलते हुए कहा।

“पर मेरा कुसूर क्या है, तुम मुझ से इतनी नफ़रत क्यों करते हो?”  दिव्या ने सुमित से दृढ़ स्वर में पूछा।

“कुसूर? तुम्हारा अंधी होना क्या कम कुसूर है? मैं आखिर तुझे कब तक ढोता रहूँ?” सुमित ने गरजते हुए कहा।

“क्या तुम्हें मेरी ये प्रकाशहीन आँखें उस दिन नहीं दिखाई दी थीं, जब रात-दिन मेरे तथा मेरे माता-पिता की मिन्नतें करते नहीं थकते थे? तब तो तुम मेरी खूबसूरती के गीत गाया करते थे।  कहाँ गयीं वे बातें जब कहते थे, “आँखें नहीं हैं तो क्या हुआ, पढ़ी-लिखी तो हो, दिल तो तुम्हारा सुन्दर है, निश्पाप है? फिर अब मुझ में अचानक क्या परिवर्तन आ गया?” दिव्या ने पूछा।

“उसी एक भूल की तो सजा भुगत रहा हूँ अभी तक!” सुमित ने दिव्या का हाथ छोड़ते हुए कहा और कुछ सोचता हुआ अंदर चला गया।

दरअसल, दिव्या और सुमित दोनों कॉलेज में एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे।  दिव्या न केवल पढ़ाई में सर्वश्रेष्ठ थी, बल्कि बला की खूबसूरत थी।  सभी की सहायता करना उसका स्वभाव था। जो विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित रहते अथवा जिन्हें कुछ समझ नहीं आता, वे दिव्या के पास आते और दिव्या भी उन्हें संतुष्ट करके ही भेजती।  सभी सहपाठी उसका बड़ा आदर करते थे।

सुमित भी दिव्या से कभी-कभी कुछ पूछने आ जाया करता था।  धीरे-धीरे उसका मिलना दिव्या से बढ़ने लगा।  लेकिन यह मिलना अब पहले वाला नहीं रहा था।  वास्तव में दिव्या उसे अब अच्छी लगने लगी थी।  अब आलम यह हो गया कि किसी-न-किसी बहाने, सुमित सदैव दिव्या के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता।  एक-दो बार दिव्या ने उसे कह भी दिया, “सुमित, यदि तुम इधर-उधर घूमते ही रहोगे तो पढ़ाई कब करोगे? यही समय है पढ़ लोगे तो जीवन भर सुख पाओगे!”

“बात यह है दिव्या, मैं चाह कर भी तुम से दूर नहीं रह पाता। दरअसल, मैं तुम से प्यार करने लगा हूँ।” सुमित ने दिव्या के सामने अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा।

“सुमित मुझे इस प्रकार का भद्दा मज़ाक कतई पसंद नहीं है! ऐसा प्यार भावावेश की कमजोर बैसाखियों पर टिका होता है, जो जरा-सी तेज हवा के साथ उड़ जाता है और हल्की-सी तेज धूप में कुम्हला जाता है।  ईश्वर के लिए मुझ से इस तरह का मज़ाक फिर कभी मत करना!” कह कर उसने अपने हेंड-बैग से फोल्डिंग स्टिक निकाली और कक्षा की ओर बढ़ गयी।

सुमित हदप्रद-सा बैठा दिव्या को जाते हुए देखता रहा।  जब दिव्या उसकी आँखों से ओझल हो गयी तो वह गहरी सोच में डूब गया।  बहुत देर तक सोचते रहने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब वह दिव्या के बिना जी नहीं सकेगा।  दिव्या ही अब उसकी जिन्दगी है।  क्या हुआ अगर उसकी आँखों में रोशनी नहीं है, उसके अलावा तो उसमें सब कुछ है।  सुन्दर है, सुशील है, विदूषी है, एक आँखें न होने से क्या इतने गुण कम हो जाते हैं?  नहीं, अब कुछ भी क्यों न करना पड़े, मैं अब उसके बिना नहीं रह सकता।

अगले दिन पुनः उसने दिव्या का हाथ पकड़ कर अपने घनिष्ठ मित्रों के सामने प्यार में सैकड़ों कसमें खाईं और जीवन भर साथ निभाने का वादा किया।  उसके मित्रों ने भी उसे समझाया, मगर उसपर तो प्यार का भूत सवार था, किसी के समझाने का उस पर असर न हुआ।  एक मित्र ने उसे परामर्श दिया कि वह पहले अपने माता-पिता से पूछ कर देखे कि क्या वे एक दृष्टिबाधित लड़की को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं? कहीं ऐसा न हो कि बेचारी दिव्या का जीवन नष्ट हो जाए।  अन्य मित्रों ने भी उसके इस विचार का समर्थन किया।

संध्या काल जब वह अपने घर गया तो उसने अपनी माँ से इस विषय में बात की, जिसने

अपना फरमान सुना दिया कि यदि तुम अपनी मर्ज़ी से विवाह कर रहे हो तो अपना बोरिया

-बिस्तर बाँध कर इसी समय घर से निकल जाओ।  उसी बीच उसके पिता भी घर पहुँच गये।

माँ-बेटे के बीच होती बहस को विराम देने के उद्देश्य से पूछा,  “भाई ऐसा क्या हो गया, जो माँ-बेटे के बीच आज ठनी हुई है? क्या कोई हमें भी कुछ बताएगा?”

तुम्हारा लाड़ला ही बताएगा, मुझ से क्या पूछते हो?  तुनक कर उनकी पत्नी ने उत्तर दिया।

“हाँ, सुमित चलो तुम्हीं बताओ कि मामला क्या है? उन्होंने पुत्र की ओर घूमते हुए पूछा।

पिता का प्रश्न सुनते ही सुमित ने आँखें झुका लीं और चुपचाप वहाँ से उठ गया।  उसके जाने के पश्चात् रामदेव जी ने पत्नी के नजदीक पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रख कर बड़े प्यार से पूछा, “क्या बात है, आज मूड कैसे बिगड़ा हुआ है हमारी सरकार का?”

“पत्नी ने उनका हाथ झटकते हुए मुँह फेर कर कहा, “अपने लाड़ले से ही पूछिये, आज-कल वह कॉलेज में पढ़ने नहीं, बल्कि इश्क लड़ाने जाता है। किसी अंधी लड़की से प्यार करने लगा है और कहता है, उसी से विवाह करेगा। जिसके जी में जो आए करे, मैं तो घर में केवल रोटियाँ बनाने के लिए हूँ।”

पत्नी की बात सुन कर रामदेव भी गम्भीर हो गये। प्यार तो उन्होंने भी किया था, पर बद्किसमती से अपनी प्रेमिका को पत्नी नहीं बना सके थे। वे अपने अतीत में डूब गये। नहीं, जो उनके साथ हुआ है, वे अपने पुत्र के साथ ऐसा अन्याय कदापि नहीं होने देंगे, वे उसके साथ हैं, अपने ही हृदय में उन्होंने एक निश्चय कर लिया। उसके पश्चात वे अपने पुत्र के पास गये और उसके पास बैठ कर सारी बातें सुनीं। उसके बाद उन्होंने कहा, “देखो सुमित तुम विवाह अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मेरी सलाह है कि अपने निर्णय पर एक बार पुनः विचार करो, क्योंकि वह लड़की जैसा तुम बता रहे हो, सामान्य नहीं है, दिव्यांग है। कहीं ऐसा न हो कि तुम विवाह के मामले में जल्दबाजी कर रहे हो। मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि बाद में किसी तरह की समस्या पैदा हो।

“मैं कई बार सोच चका हूँ, मैं उसका जीवन भर साथ निभाऊंगा। मैं उसे अपनी आँखों से दुनिया दिखाऊंगा।” सुमित ने पिता को भरोसा दिलाते हुए कहा।

“तो ठीक है, मेरी ओर से कोई रोक नहीं है, तुम शौक से विवाह करो, मेरा समर्थन है”।

रामदेव जी ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए अपनी स्वीकृति दे दी।

खुशी से जैसे सुमित पागल ही हो गया था। उस रात उसे नींद नहीं आई और प्रातः होते ही कॉलेज के लिए निकल गया। अभी कोई भी नहीं आया था। वह गेट के पास ही अपने मित्रों का इंतजार करने लगा। जैसे ही वे आए, दौड़ कर वह उनके गले लग गया और अपनी खुशी उनके साथ साँझा की। उसके बाद वे दिव्या से मिले। दिव्या ने कहा, “देखो सुमित, अभी तुम्हें मैं बहुत सुन्दर लग रही हूँ। इसका कारण तुम जानते हो? इसका कारण है तुम्हारा मेरी सुन्दर काया के प्रति क्षणिक आकर्षण। जिस दिन ये आकर्षण समाप्त हो जाएगा, मेरे लिए तुम्हारे दिल में न प्यार बचेगा और न ही सहानुभूति। अतः मैं तुम्हारे भावावेश में लिए इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ। तुम इस विषय पर दोबारा ठंडे दिमाग से विचार करो। तुम मेरी जिस खूबसूरती पर मर-मिटे हो, एक दिन इसका तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं होगा। उस समय पछताने से अच्छा है कि तुम मेरा ही नहीं, अपितु अपना भी भला-बुरा समझ लो।”

प्रेरणा ने दिव्या की इस बात का समर्थन किया। उसकी देखा-देखी और मित्र भीउसे अपने निर्णय पर पुनः विचार की सलाह देने लगे।

सुमित ने अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुए अपना फैसला पुनः दोहराते हुए कहा कि चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाए, पर उसका निर्णय यही रहेगा। उसके पश्चात् सभी मित्रों ने दिव्या को समझाते हुए सलाह दी, “देखो दिव्या, तुम्हें इतना प्यार करने वाला पति मिल रहा है तो इस अवसर को तुम्हें जाने नहीं देना चाहिये। ऐसे सुखद अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते।”

दिव्या ने उनकी बात सुनकर पुनः कहना प्रारम्भ किया, “तो ठीक है, यदि तुम्हारे पिता जी विवाह के लिए तैयार हैं तो उन्हें मेरे घर भेजिये ताकि आगे बात बढ़ सके।”

सुमित ने वैसा ही किया। रामदेव जी दिव्या के पिता जी से मिले और उन्हें विवाह के लिए तैयार कर लिया। लेकिन सुमित की माँ किसी तरह भी राजी न हुई। हालाँकि विवाह भी हो गया और दिव्या सुमित के घर आ गयी, मगर माँ का क्रोध न शांत होना था, न हुआ। सुमित को माँ की नाराजगी के कारण अपने दूसरे मकान में जाना पड़ा। घर चलाने के लिए सुमित ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और एक निजी कम्पनी में क्लर्क की नौकरी कर ली और दिव्या ने कॉलेज जारी रखा। आखिर उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे बी.एड में आसानी से प्रवेश मिल गया। बी.एड समाप्त होते ही उसे अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी।

दूसरी ओर शनैः-शनैः सुमित के सिर से प्यार का भूत उतरने लगा। वह बात-बात पर दिव्या के साथ उलझने लगता। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाती कि सुमित कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता।  उसकी माँ सदैव उसके कानों में विष उड़ेलती रहती।  वह सदैव एक ही राग अलापती, “सुमित, तू ने मेरे अरमानों में आग लगा दी। गाज़ियाबाद वाले अब भी मेरे पीछे पड़े हैं।  बेटा, यदि  तू एक बार मुझे अपनी स्विकृति दे दे, फिर देख, तेरी जिंदगी मैं कैसे बदल देती हूँ।  लड़की अभी एम.फिल में पढ़ रही है और उसके पिताजी एक फ्लैट और कार देने को तैयार हैं। मुझे सोच कर बता दे ताकि मैं आगे बात कर सकूँ”। उसी दिन से सुमित के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह दिव्या पर छोटी-सी बात पर भी झल्ला जाता और उसे खरी-खोटी सुनाने लगता। बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि दिव्या से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। अब सुमित को माँ के अलावा और किसी की बात भाती ही नहीं थी। वह उसी के बताए रास्ते पर पालतू कुत्ते के समान दौड़ रहा था।

अगले दिन नित्य की भाँति दिव्या उठते ही अपने दैनिक कार्यों में जुट गयी। उसने अपने तथा सुमित के लिए नाश्ता तैयार किया, तदोपरांत वह विद्यालय के लिए तैयार होने लगी।  तैयार हो कर उसने सुमित का नाश्ता लगा दिया और उसे आवाज़ दी।  सुमित भी नाश्ते की मेज पर गुमसुम आ बैठा।  दिव्या ने चाय बना कर प्याला सुमित के सामने रख दिया और स्वयं भी नाश्ता करने लगी।  सुमित चाय पीकर उठ गया, नाश्ते को उसने हाथ भी न लगाया।  जब दिव्या ने नाश्ता समाप्त कर के बर्तन उठाए तो सुमित का नाश्ता ज्यों का त्यों पाया।  उसने सुमित को आवाज दी और नाश्ता न करने का कारण पूछा।  वह बोली, “सुमित तुम नाराज़ तो मुझ से हो, नाश्ते ने क्या बिगाड़ा है?  प्लीज़ खा लो!”

“नहीं, मुझे भूख नहीं है,” सुमित ने कहा।

उसके बाद दिव्या ने भी अधिक जिद न की।  बर्तन किचन में रखकर वह अपने कमरे में आई और पर्स उठा कर विद्यालय के लिए रवाना होते हुए कहा, “मैं जा रही हूँ, दरवाजा बंद कर लो!”

लेकिन सुमित ने उत्तर में कुछ न कहा और दरवाजा बंद करने आ गया।  बाहर निकल कर दिव्या ने रिक्शा लिया और विद्यालय पहुँच गयी।

दिन भर वह अपने और सुमित के विषय में ही सोचती रही।  जब उसकी छुट्टी हुई तो उसने घर के लिए रिक्शा ले लिया और घर के दरवाजे पर जा उतरी।  दरवाजे पर ताला लटका था, अतः उसने अपने पर्स से चाबी निकाली और ताला खोलने लगी।  परन्तु ये क्या! सुमित घर का ताला बदल  गया था।  उसने मोबाइल निकाला और सुमित को कॉल कर दिया।  सुमित ने फोन उठाया तो दिव्या ने दूसरा ताला लगाने का कारण पूछा।  उसने कहा, “अब से मेरा और तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, तुम जहाँ चाहे रहो, इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बंद हो गये हैं। वैसे तुम्हें कल तक तलाक का नोटिस भी मिल जाएगा और मुझे आज के बाद कभी फोन नहीं करना, समझी!”

फोन कट गया था, मगर मोबाइल अब भी उसके कान से लगा था।  उसे अपने कानों पर जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि सुमित इतना भी नीचे गिर सकता है।  एक बार तो वह घबराई, परन्तु उसने दूसरे ही पल स्वयं को सम्भाल लिया और अपने मन में जैसे कोई कठोर निश्चय कर के वह पुनः उसी रिक्शे पर बैठ गयी।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली