मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 18 – स्त्री पर्व ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  पुनः  स्त्री पर  एक कविता  “स्त्री पर्व ”.

सर्वप्रथम क्षमा चाहूँगा – कविता सामयिक होते हुए भी सामयिकता को अनुशासनात्मक स्वरूप न दे पाया। वैसे तो  समय पूर्व कविता मिलने के बावजूद इन पंक्तियों के लिखे जाते तक स्त्री पर्व सतत जारी है….  स्त्री पर्व का अंत असंभव है जहां इस पर्व के अंत की परिकल्पना करते हैं वही नव स्त्री पर्व का प्रारम्भ है। यह सत्य है कि हमारी कविता हमारे जीवन से संवेदनात्मक दृष्टि से जुड़ी हुई है, एक व्यक्तिगत फोटो एल्बम की तरह। जैसे एल्बम के चित्रों में समय के साथ झलकती परिपक्वता के साथ ही कविता परिपक्व होती प्रतीत होती है, वैसे ही हमारी भावनाएं, संघर्ष, संवेदनाएं, वेदनाएं, मानसिकता आदि का आईना होती जाती हैं हमारी कवितायें। फिर एक वह क्षण भी आता है जब लगता है कि संवेदनाएं शेष नहीं रहीं फिर उसी क्षण से अंकुरित होती है नई कविता एक नव स्त्री पर्व की तरह। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 18 ☆

 

☆ स्त्री पर्व ☆

 

आज कवितेच्या वह्या चाळताना  जाणवले ,

दिवसेंदिवस खूप बदलते आहे माझी कविता

जुन्या फोटोंचे अल्बम बघताना जसे दिसतात ,

रंग रुप ,व्यक्तिमत्वात होत गेलेले बदल

काळानुरूप …………

तसेच कवितेतही  उतरले आहेत पडसाद ,

त्या त्या काळातील भावनांचे, मानसिकतेचे ,

जाणिवांचे, संघर्षाचे !!

जुन्या वहीतल्या अश्रूंच्या कविता —

काळजातल्या कल्लोळाच्या, वेदनेच्या !!

त्या नंतरच्या बंडखोरीच्या ….मुक्ततेच्या ,

आणि परिणामाच्याही ……..

आजपर्यंतच्या प्रवासाच्या पाऊलखुणा —-

माझ्यातली मी —कुठून कुठवर आलेली …..

 

…..आजकाल पावसाने झोडपल्याच्या ,

उन्हाने करपविल्याच्या खुणाही, टिपत नाही लेखणी !!

 

जणू लढाई संपली आहे  !

 

ही असेल कदाचित …….युद्धानंतरची शांतता ……

 

की लढून मिळविलेल्या ,

 

——नव्या स्त्रीपर्वाची सुरुवात??

 

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ माकडं   ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

गांधी स्मृति

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  इस अवसर पर श्री अशोक जी की इस कविता के लिए हार्दिक आभार. ) 

माकडं  

बापुजी,

तुमच्या त्या तीन माकडांच्या वंशावळीने

शहरात अगदी उच्छाद मांडलाय.

आता त्यांची संख्या प्रचंड प्रमाणात वाढली आहे.

काही वाईट ऐकायला नको म्हणून

तुमचं माकड कानावर हात ठेवायचं

आता ही माकडं कानांवर हात नाही ठेवत

तर ती वाकमनची दोन निपल्स

कानांत घालून बसतात

आणि मग कुणाचं काहीच ऐकत नाहीत.

 

कुणाला काही वाईट बोलायचं नाही म्हणून

तुमचं माकड तोंडावर हात ठेवायचं

पण हल्ली मात्र ही माकडं

तोंडात गुटका किंवा तंबाखुचा बार भरून ठेवतात

रस्ताभर पिचकार्‍यांच्या रांगोळ्या काढत फिरतात

पिचकारी मारल्यावर जर कुणी काही बोललंच

तर त्यांचं तोंड कसं बंद करायचं

हे त्यांना चांगलंच ठावूक असतं.

 

आता हे तुमचं तिसरं घमेंडखोर माकड

भर चौकात लाल दिवा दिसत असताना

डोळ्यावर मगरुरीची पट्टी बांधून

स्वतःच्या किंवा दुसर्‍याच्या जिवाची चिंता न करता

भूर्रकण निघून जातंय.

 

तुमची ती माकडं कशी शांत

आणि एका ओळीत बसलेली असायची

आता मात्र ओळ आणि शिस्त पार बिघडू गेलेली.

बापुजी तुम्ही परत एकदा याल का माझ्या शहरात?

ती तुमची तीन माकडं घेऊन…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।29।।

 

योगी लखता,भेद बिन सबको एक समान

खुद को लख सब प्राणि में, जग को खुद सा जान।।29।।

 

भावार्थ :  सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।।29।।

 

With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings  in the Self; he sees the same everywhere.।।29।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – विजयादशमी पर्व विशेष – ☆ भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

विजयादशमी पर्व विशेष

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(विजयादशमी पर्व के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष आलेख “भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम.)

 

☆ भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम ☆

 

प्रेम दया करुणा के सिन्धु प्रभु श्री राम वाल्मीकि रामायण के आधार,भारतीय संस्कृति के पोषक ,अत्यंत गम्भीर, उच्चतम विचार एवं संयमित आचरण वाले राम के चरित्र को जानना समझना सहज नहीं है,लेकिन उनका सहृदयी स्वभाव,जन जन के हृदय में है। विपत्तिकाल में भी संयम और साहस की सीख श्री राम का चरित्र स्वयं में एक प्रमाण है ऋषि-मुनियों का मान,मात-पिता, गुरुओं का सम्मान, भाइयों के प्रति समर्पण, पशु-पक्षियों की सुध, जन-जन का चिन्तन ही उन्हें  राम बनाता है।

महर्षि वाल्मीकि की अनुपम निधि रामायण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथ राम के आदर्शों को आज भी बनाए हुए हैं महर्षि वाल्मीकि ने लगभग 24000 श्लोकों में आदि रामायण लिखी है जिसमें उन्होंने श्रीराम के चरित्र को आदर्श पुरुष के रूप में अंकित किया है प्रथम ग्रन्थ रामायण दूसरा अध्यात्म रामायण और तीसरा रामचरितमानस है। रामकथा के जीवन मूल्य आज भी सर्वथा प्रासंगिक हैं राम एक आदर्श पुत्र आदर्श पति एवं आदर्श राजा के रूप में हमारे मानस पटल पर अंकित हैं,और रामकथा के अन्य सभी पात्र किसी न किसी आदर्श को प्रस्तुत करते हैं।

पुरार्जितानि पापानि नाशमायन्ति यस्य वै। रामायणे महाप्रीति तस्य वै भवति धुव्रम्।।

रामायणस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे। तद्गृहे तीर्थ रूपं हि दुष्टानां पाप नाशनम्।।

 जिस घर में प्रतिदिन रामायण की कथा होती है वह तीर्थ रूप हो जाता है। वहां दुष्टों के पाप का नाश होता है। कितनी अनूठी महिमा है राम नाम की। राम नाम को जपने वाला साधक राम की भक्ति और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता है, निर्गुण  उपासकों के राम घट-घट वासी हैं।

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े वन माहिं।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनियां देखे नाहिं।।

संत कबीर कहते हैं।

निर्गुण राम जपहु रे भाई,

अविगत की गत लखी न जाई।।

घट-घट वासी राम की व्यापकता को स्वीकारते हुए संत कवि तुलसीदास जी कहते हैं –

सियाराम मय सब जग जानी।

करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।

रामचरित मानस जन जन के जीवन की अमूल्य निधि है। जीवन जीने की अद्भुत सीख दी गई है गोस्वामी जी कहते है कि जीवन मरुस्थल हैऔर रामचरित मानस ही इस मृगमय जीवन के लिए चिन्मय प्रकाश ज्योति है।

जिन्ह एहिं बार न मानस धोऐ।ते कायर कलिकाल बिगोए।

तृषित निरखि रवि कर भव बारी।फिरहहि मृग जिमि जीव दुखारी।।

संस्कृत भाषा में एवं अन्य भाषाओं में अनेको ग्रन्थं राम कथा पर लिखे गए लेकिन राम का स्वरूप स्वभाव सब ग्रन्थों में समान ही है भगवान शंकर स्वयं  राम नाम के उपासक हैं

रकारादीनि नामानि श्रृण्वतो मम पार्वति।

चेतःप्रसन्नतां याति रामनामाभिशंड़्कया।।

गोस्वामी तुलसीदास लिखते है कि घोर कलियुग मेंश्री राम नाम ही सनातनरूप से कल्याण का निवास है मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं आनंद के भण्डार श्री राम जिनका अनोखा रंग रूप सौन्दर्य जो भी देखता है ठगा सा रह जाता है। इतना ही नही उनका कल्याण करने का स्वभाव जन हित की भावना के सभी उपासक है…..”राम नाम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु”

प्रेम के उदधि से पूर्ण हृदय वाले राम काम क्रोध आदि विकारों पर विजय प्राप्त कर शान्त चित्त से, धर्य से, विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आप आप को संयमित रखते हैं। स्नेह दया प्रेम से सबके हृदय में स्थित रहकर,अपने हृदय मे समाहित कर दया की धारा निरन्तर निर्झरित होकर वहती रहती है यह अद्भुत शक्ति आह्लादित आनन्दित कर असीम सुख की अनुभूति प्रदान करती है दया एक दैवीय गुण है। इसका आचरण करके मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है, दयालु हृदय में परमात्मा का प्रकाश सदैव प्रस्फुटित होता है। दया का निधान दया का सागर ईश्वर स्वयं है।.समस्त धरातल के प्राणियों में दया उस परम शक्ति से ही प्राप्त होती है। लेकिन मनुष्य अज्ञानता के वशीभूत होकर दया को समाप्त कर राक्षस के समान आचरण करने लगता है।

महर्षि व्यास ने लिखा है ‘सर्वप्राणियों के प्रति दया का भाव रखना ही ईश्वर तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग बताया है।’

दया,कोमल स्पर्श का भाव है, कष्ट,पीड़ा से व्यथित व्यक्ति के मन को सुखकारी लेप सा सुकून देता है। दया,करुणा, रहम,संम्वेदना, सहानुभूति समानार्थी शब्दों का भाव एक ही है। यह मानवीय गुण हैं सभी में निहित है, लेकिन प्रभु श्री राम दया के, प्रेम के, अगाध भण्डार हैं  ,तुलसी कृत रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में जब गृध्रराज जटायु को जीवन और मृत्यु के मध्य संघर्ष करते देखा उनका मन दया से भर गया उन्होंने बड़ी आत्मीयता से अपने हाथों से जटायु के सिर का स्पर्श किया राम का सुखद स्नेह पाकर  जटायु ने पीड़ा से भरी अपनी आँखें खोल दी दया के सागर प्रभु श्री राम को देखकर उसकी सारी पीड़ा स्वतः दूर हो गई। जटायु ने अपने वचन और सीता मैंया की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिये कृतज्ञता सम्मान और स्नेह की भावना से ओतप्रोत प्रभु श्री राम ने गृध्रराज जटायु को पितृतुल्य सम्मान देते हुए बिधि बिधान से दाह संस्कार करते हैं गोदावरी की पवित्र धारा में जलांजलि समर्पित करते हैं। श्री राम का अपने भक्तों सेवकों पर सदैव अनुपम स्नेह रहा। राम का स्नेह ,राम की कृपा अनन्त साधना, और वर्षों की तपस्या से भी सुलभ नहीं हो पाती है।लेकिन छल से रहित निर्मल मन वाले जन के हृदय में सदैव प्रभु बसते हैं एक स्मरण मात्र से दौड़े चले आते हैं

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।

प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥

सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥

कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं प्रेम में अत्यंत मग्न हो गईं, मुख से कोई भी वचन नहीं निकले।पैर पखारकर सुंदर आसनों पर बैठाया और मीठे मीठे स्वादिष्ट कन्द, मूल फल लाकर दिए। राम ने अत्यंत प्रेमभाव से बार-बार प्रशंसा करके उन फलों को बड़े आनंद और स्नेह से खाया। पौराणिक संकेतों में लिखा है कि शबरी शबर नामक म्लेच्छ जातिबिशेष के लोग दक्षिणापथवासिनः शाप के कारण मलेच्छ बन गए थे उनका समाज अलग स्थान था लेकिन राम दया और करुणा के अनन्त भण्डार हैं शबरी की सेवा समर्पण भक्तिभाव से राममय हो गई और राम ने शबरी को ऋषि मुनियों को प्राप्त होने वाला स्थान दिया।  प्रभु की सेवा में समर्पित, नौका यापन में कर्मरत निर्मल मन वाला केवट राम की अनमोल भक्ति पाकर राममय हो गया।

राम पर गढ़ा साहित्य और राम दोनों ही भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। राम का आचरण,कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता हैं मानवीय मूल्यों का संवर्धन करता हैं ।भारतीय संस्कृति में सत्य अहिंसा धैर्य क्षमा अनासक्ति इंद्रियनिग्रह सुचिता निष्कपटता त्याग उदारता दया करुणा आदि तत्वों समाहित है। इन सब का समाहार रामकथा में बड़ी सहजता से सर्वत्र दिखाई देता है राम कथा का गुणगान वाल्मीक रामायण में,तुलसीकृत रामचरितमानस में, संस्कृत के विभिन्न ग्रंथों में ,भवभूति के उत्तररामचरित में ,मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत में ,शशिधर पटेरिया के बुंदेली रामायण गीत काव्य में , विभिन्न भाषाओं के अनेकानेक ग्रंथों में राम के चरित्र का गुणगान पढ़ने को मिलता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के उच्च मानवीय आदर्शों का अनुकरण कर ही भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है इसको सुरक्षित रखना ही हम सब का कर्तव्य हो।आने वाली पीढ़ी विलासिता की चकाचौंध में कहीं अपने राम के आदर्शों को न विसरा दे।आज मानव विकारों के आधीन हैं, काम क्रोध,लोभ मोह,मद,मात्सर्य का दास है समाज दिशाहीन है,दिग्भ्रमित है अपने अन्दर के रावण को पोषित कर बाहर रावण ढ़ूढ़ रहा है।  राम ने अपने विकारों पर सदैव नियंत्रित कर स्वामित्व जमाया।

इस विकट परिस्थिती में राम के आदर्श ही पीढ़ी को संस्कारित करने में समर्थ होगें।

 

डॉ ज्योत्स्ना सिंह राजावत

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

सी 111 गोविन्दपुरी ग्वालियर, मध्यप्रदेश

९४२५३३९११६,

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆ खासियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खासियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆

 

☆ खासियत

उसकी रंगत ऐसी हो

कि उसे देखते ही

आँखें बेजुबाँ हो जाएँ

और उसे निहारती ही रहें…

 

उसकी ताज़गी ऐसी हो

जैसे गुलनार

अभी-अभी खिला हो

और कायनात को महका रहा हो…

 

उसकी खुश्बू ऐसी हो

कि अपने आप लोग

उसके पीछे खिंचे चले आयें

जैसे कोई परवाना

शमा को देखकर आ जाता है…

 

उसका ज़ायका ऐसा हो

कि गले को यूँ सुकूं मिले

कि उसकी कोई ख्वाहिश

बाकी न रह जाए…

 

चाय,

महज़ चाय नहीं होती

वो तो साथियों को बाँधने वाली

एक अनमोल कड़ी है,

और वो

ख़ास तो होनी ही चाहिए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 8 ☆ उपन्यास  – एकता और शक्ति  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 8 ☆ 

☆ पुस्तक – उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास) 

 

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)

लेखक –  अमरेन्द्र नारायण

प्रकाशक –   राधाकृष्ण प्रकाशन ,राजकरल प्रकाशन समूह , 7/31 अंसारी रोड दरयागंज, नई दिल्ली

www.radhakrishnaprakashan.com, E-mail: [email protected]

 

☆ पुस्तक  – उपन्यास  – एकता और शक्ति – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

☆ उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)☆

 

एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है. इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है. श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे.  पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है.

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं. ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है. ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है. यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है ।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है.

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है . आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है. वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं. एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है. साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है.

अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं. उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया.

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स  का उर्दू अनुवाद खुशबू सरहदों के पास नाम से प्रकाशित हो चुका है. भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है. महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है. उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं. श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.

श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये . यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता . पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है .

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी ☆

*प्रश्न:* चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।

*उत्तर:* साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केन्द्रित करना होता है। केन्द्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।

…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – विजयादशमी विशेष – ☆ विजयादशमी – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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“विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

रावण के लिए यह आखिरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़े भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानरों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनोंलोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुंचाने के लिए उनका उपयोग नहीं करेंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आप लोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋती मृत्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति,  रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक  नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाता है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ काली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।

रावण ने उत्तर  दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु की नहीं”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध  लड़ें  कि  आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 18 – जीवन साथी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “जीवन साथी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि –  पति पत्नी अपने परिवार के दो पहियों की भाँति होते हैं ।  यदि वे  मात्र आपने परिवार ही नहीं अपितु एक दूसरे के परिवार का भी ध्यान रखें तो जीवन कितना सुखद हो सकता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 18 ☆

 

☆  जीवन साथी ☆

 

जीवनसाथी कहते ही मन प्रसन्न हो जाता है।  दोनों परिवार वाले और पति पत्नी का साथ सुखमय होता है। ऐसे ही ममता और विनोद की जोड़ी बहुत ही सुंदर जोड़ी। ममता अपने गांव से पढ़ी लिखी थी और विनोद एक इंजीनियर।

ममता के घर खेती बाड़ी का काम होता था। भाई भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। सभी खेती किसानी में लगे थे परंतु सभी खुशहाल थे। ममता के पिताजी यदा-कदा ममता के यहां शहर आना-जाना करते थे। ममता को अपने ससुराल में सभी के साथ घुल मिल कर रहता देख पिताजी खुश हो जाते थे। बात उन दिनों की है जब स्मार्टफोन का प्रचलन शुरू हुआ था।

गांव में भी किसी किसी के पास फोन हुआ करता था परंतु ममता के मायके में फोन अभी तक नहीं आया था। कुछ दिनों बाद ममता के भाइयों ने स्मार्ट फोन ले लिया परंतु पिताजी को नहीं देते थे। उनका भी मन होता था फोन के लिए। एक दिन शहर आए थे ममता के घर बड़े ही उदास मन से बेटी से बात कह रहे थे कि उनका भी मन फोन लेने को होता है परंतु अभी पैसे नहीं हो पा रहे हैं दूसरे कमरे से विनोद चुपचाप पिताजी और ममता की बात सुन रहे थे।  अपने समय पर वह ऑफिस निकल गए। ममता पिता जी की बातों से दुखी थी। दिन भर अनमने ढंग से काम कर रही थी।

शाम होते ही विनोद ऑफिस से घर आए। चाय बनाकर ममता ले आई पिताजी साथ में बैठे थे। विनोद ने बैग से पैकेट निकाल पिताजी को देते हुए कहा-  पिताजी आपके लिए। ममता आश्चर्य से देखती रह गई उनके हाथ में स्मार्टफोन का डिब्बा था। ममता की आंखों से आंसू निकल आए। पिताजी भी कुछ ना बोल सके खुशी से विनोद को गले लगा लिया।

ममता दूसरे कमरे में चली गई विनोद ने जाकर कंधे पर हाथ रख कर कहा कि क्या तुम्हारे पिताजी के लिए मैं इतना भी नहीं कर सकता। तुम दिन भर मेरे घर परिवार की देख भाल करती हो आखिर वह भी हमारे पिताजी हैं।

इतना समझने वाला जीवन साथी पाकर ममता बहुत खुश है। ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करती रही सुखमय जीवन के लिए और विनोद जैसा जीवन साथी पाने के लिए।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 – ☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 ☆

 

☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ 

 

काव्यदिंडीच्या निमित्ताने कवयित्री पद्मा गोळेंच्या अनेक कवितांची सौंदर्ययात्रा झाली. ‘ चाफ्याच्या झाडा’शी साधलेला सुरेल तरल संवाद मनाला भिडला, अफाट आकाशाला डोळ्यांत सामावून घेत गगनभेदी निळया स्वप्नांचा वेध घेणारी ‘आकाशवेडी’ची झेप डोळे दीपवून गेली, शब्दाच्या सामर्थ्याची प्रचीति ‘मौना’ तून आली ‘बकुळीची फुलं’ गंधभारल्या आठवणी पालवून गेलीत, तर ‘स्वप्न, रात्र, निद्रा’ गोड समर्पणभाव मनात जागवून गेली. पद्मा गोळेंच्या हळुवार स्त्री मनाची स्पंदनं टिपतांनाच माझं लक्ष वेधून घेतलं  लोभस रूपड्यातल्या ‘ माझ्या पाठच्या बहिणी’ ने. मोठ्या बहिणीच्या अंतरीच्या जिव्हाळ्यात आरपार भिजलेली, हळुवार भावनांच्या साजाने नटलेली ही पाठची बहिण!

 

*माझ्या पाठच्या बहिणी*

 

माझ्या पाठच्या बहिणी

तुझ्या संगती सोबती

आठवणी पालवती

शैशवाच्या

 

तुझ्या संगती सोबती

मज माहेर भेटले

आणि मनात दाटले

काहीतरी

 

गडे आलीस पाहुणी

ग्रीष्मी झुळुक वाऱ्याची

आसावल्या मानसाची

तृप्ती झाली

 

बाळपणीची ममता

आंबा पाडाचा मधुर

अजुनही जिव्हेवर

रूची त्याची

 

तुझे माझे घरकुल

उभे अजून माहेरी

जणू पऱ्यांची नगरी

शोभिवंत

 

आज भिन्न तुझे गांव

भिन्न तुझे माझे नांव

परि ह्रदयीचा भाव

तोच राही

 

तुझे दाट मऊ केस

विंचरले माझे हाती

सुवासिक त्यांची स्मृति

अजूनही

 

तुझ्या संगती सोबती

भांडलेही कितीकदा

वाढे भांडून ममता

पटे अाज

 

चार दिवस बोललो

आठवणी उजळीत

चिंचा आवळे चाखीत

शैशवीचे

 

चार दिवस हिंडलो

वेष सारखा करूनी

पुन्हा कुणीही बहिणी

ओळखाव्या

 

चार दिस विसरलो

तू, मी, माता नि गृहिणी

विनोदाने हूडपणी

बोलतांना

 

तुझी माझी गं ममता

वेळ गोड पहाटेची

मना तजेला द्यायची

निरंतर

 

घरी निघाली पाहुणी

टाळते मी तुझी दृष्टी

वाटे अवेळीच वृष्टी

होईल की…..

 

पाठीला पाठ लावून आलेल्या, बरोबरीने लहानाच्या मोठ्या होणाऱ्या बहिणींचे भावबंध म्हणजे सुबक वीणीची, आकर्षक रंगसंगतीची मऊ सूत शालच नव्हे काय ? अविरत मायेची शिंपण करत, फुलवणारं, जोपासणारं दोघींचं लडिवाळ माहेरही एक आणि रुणझुणत्या संवादाच्या गळामिठीला, कुरकुरत्या वादाच्या कट्टी बट्टीला साक्षी असलेलं अंगणही एकच !

शैशव, किशोरावस्थेचा टप्पा बरोबरीने पार करतांना तारूण्यात पदार्पण होतं, माहेरचा उंबरा ओलांडतांना जडशीळ झालेली पावलं, सासरच्या उंबऱ्यावरचं माप ओलांडायला अधीर होतात, सासरी हळूहळू स्थिरावतात, रमतात. कधी तरी सय येते थोरल्या बहिणीची  धाकलीला आणि पावलं वळतात तिच्या घरट्याच्या दिशेला. भेटीला आलेल्या धाकट्या बहिणीबरोबर, पुन: बालपणीचे सुखद स्मृतींचे शंखशिंपले वेचतांना, संपन्न माहेराची  चांदणझूल पांघरतांना, शैशवीच्या आंबटगोड आठवणींचा आस्वाद घेतांना, थोरलीच्या आयुष्यातला तोच तो पणा, मनाला आलेली मरगळ कुठल्या कुठे पळून जाते. जणू धाकलीचं तिच्या घरी येणं म्हणजे..जणू ऐन ग्रीष्मातली  शीतल  वाऱ्याची झुळुकच…आसावल्या मनाला शांतवणारी..सुखविणारी !

आज दोघींची ओळख नावगावासकट  जरी बदलली असली तरी दोघींच्या मनीचा ओढाळ ममत्वभाव अगदी तस्साच आहे..अगदी मधुर पाडासारखा ! कर्तेपणाची, मोठेपणाची झूल उतरवत, मनात दडलेल्या मुलाला हाकारत, एकमेकींच्या संगती खळखळून हंसतांना, बालपणीचं झुळझुळतं वारं पुन्हा एकदा अंगावर घेतांना वास्तवाचा विसर दोघींना पडतो ! लहानपणीच्या रूसव्या फुगव्यांनी जणू एकमेकींना अधिकच जवळ आणलंय याची खूणगाठ अंतरी पक्की होते, बहिणीचे दाट मऊ केस विंचरल्याच्या सुवासिक स्मृतींभोवती मन भिरभिरतं. पुन: एकदा बालपण जागवत सारखा वेष करत बहिणी बहिणी म्हणून  मिरवण्याचा मोह होतो. आपलं घट्ट नातं आपण दिमाखात मिरवावं, जगानेदेखील कौतुकाने बघावं असा मोह ह्या मायेच्या बहिणी बहिणींना नाही झाला तरच नवल !

काळ वेळ आणि वास्तवाचं भान करून देणारा निरोपाचा अटळ क्षण शेवटी येऊन ठेपतो. मन अधिकच हळवं होतं. पुन: कधी भेट…?

..अशी ओठावरच्या शब्दांची जागा घेणारी  व्याकूळ नजर..नजरानजर होताच बांध फुटेल की काय अशी अवस्था..!

बहिणी बहिणींचं प्रेमाचं नातं खुलवतांना विविध उपमांतून किती  सुरेख रंग भरलेत कवयित्रीने ! बालपणीच्या निरागस लळ्याला, पाडाला आलेल्या मधुर  आंब्याची उपमा देणं,  तिच्या येण्याला ग्रीष्मात अवचित आलेली सुखावणारी शीतल वाऱ्याची झुळुक मानणं, त्यांचा आपसातला जिव्हाळा म्हणजे मनाला टवटवी देणारी पहाटवेळ मानणं ! अशा समर्पक उपमांनी ह्या नात्याचे रंग अधिकच गहिरे होतात आणि नजरेत भरतात.

जरी काळ बदलला, संदर्भ बदलले तरी बहिणी बहिणींचा आपसातला अनेक पदरी जिव्हाळा खरंच फारच लोभस असतो. आणि त्याच्या छटा आपल्या विलोभनीय रूपाने मनाला भुरळ घालतातच, अगदी पद्मा गोळेंनी शब्दरूपाने साकारलेल्या ‘माझ्या पाठच्या बहिणी’ सारख्याच !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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