आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।

 

जो करते है श्रेष्ठ लोग छोटे भी वैसा करते हैं

सदा बडों के किये हुये को जग में सब अनुसरते है।।21।।

 

भावार्थ :  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु ‘लोक’ शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)।।21।।

 

Whatsoever a  great  man  does,  that  other  men  also  do;  whatever  he  sets  up  as  the standard, that the world follows. ।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – हिन्दी आलेख – ☆अर्धनारीश्वर व उर्वशी मिथक ☆ – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

 

(श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं।

आपकी नई पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष की कहानी ’ जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसका  एक प्रमुख अंश।)

☆ स्त्री-पुरुष की कहानी ☆

☆ अर्धनारीश्वर व उर्वशी मिथक

भारतीय चिंतन परम्परा में शिव में समाहित शक्ति और शक्ति मे निहित शिव याने अर्धनारीश्वर का मिथक और इंद्र की सभा की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी का मिथक नारी की सामाजिक स्थिति के प्रतिनिधि विचार रहे हैं।

अर्धनारीश्वर में नारी शक्ति है जो शिव को ग्रहण करके उनका पुरुषार्थ पा रही है साथ ही शिव के पुरुषार्थ को शक्ति दे रही है। उर्वशी मिथक में वह देवताओं की भोग्या है, समस्त संसार की सुखदायक इंद्रियों की प्रतिनिधी। पहले मिथक के अनुसार वह शक्ति के रूप में शिव को समर्पित व पूजनीय है। शिव और शक्ति याने पुरुष और प्रकृति के प्रतिनिधि अवतरण। दूसरे मिथक के अनुसार उर्वशी का रूपक उन्मुक्त भोग्या का है। ये दोनों मिथक अभी तक वैसे ही अर्थ के साथ हमारे सामाजिक मनोविज्ञान में क्रमशः आराध्य और आनन्द के रूप में मौजूद हैं। नवरात्रि में शक्ति पूजा पहले मिथक से जन्मा संस्कार है और विवाह के पश्चात सुहागरात इंद्रियों के आनंद याने उर्वशी का उत्सव है। लेकिन पिछले पचास सालों में स्थिति तेज़ी से बदली है। साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा और विष्णु प्रभाकर ने शक्ति, अर्धनारीश्वर  और उर्वशी मिथक के माध्यम से आधुनिक भारतीय नारी की यात्रा पर बहुत लिखा है। उनकी मिलीजुली विवेचना में नारी की हज़ारों साल की यात्रा का वर्णन है। आगे बढ़ने के पहले उस पर एक नज़र डालना ज़रूरी है।

दिनकर जी ने उर्वशी के तृतीय अंक में पृष्ठ 48 पर उल्लेख किया है कि “स्त्री-पुरुष की परस्पर-आश्रयता का प्रतीक है, ‘अर्धनारीश्वर’। आज की स्त्री मनु स्मृति से अलग अपने युग की स्मृति खुद रचने का अधिकार चाहती है। निरभ्र आकाश की निर्विकल्प सुषमा में, न तो पुरुष में केवल पुरुष, न नारी में केवल नारी है; दोनों देह-बुद्धि से परे किसी एक ही मूलसत्ता के प्रतिमान हैं, जो नर अथवा नारी मात्र नहीं हैं।”

कई मंचों पर अक्सर सुनने को मिलता है कि

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।

स्त्री को अबला, दीन, कमजोर, फेयर-सेक्स, वीक-जेंडर आदि अनेकानेक विशेषणों से अलंकृत किया जाता हैं या स्त्री को देवी, माँ का गरिमामय स्थान देकर उसे मूल्यों के बंधनों में जकड़ दिया गया है। वहीं कुछ लोग ‘ऐसा कुछ नहीं है, कहकर स्त्री-प्रश्न को सिरे से नकारने वाले भी मिलते हैं। इन अतिवादी विचारों के बीच समझना यह है कि भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्री अबला या कमजोर नहीं है, महादेवी वर्मा कहती हैं कि:-

“’नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकसित होकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं है। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना बादल में छुपी विद्युत और जलराशि में है, एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझाई जा सकती. दूसरी से शान्ति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों व्यक्तित्व अपनी उपस्थिति से समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भरते हैं जिससे विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंजस्य स्थापित होकर जीवन को पूर्णता प्राप्त होती है।”

भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी या प्रतिबल नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। ‘उर्वशी’ में दिनकर यही कहते हैं कि “’नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में संतोष पाता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग नहीं रहने देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी उनके भीतर किसी ऐसी तृष्णा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है। नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है जब शरीर की धारा उछालते-उछालते नारी उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, तब वे दैहिक चेतना से परे प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर वे निस्पंद हो जाते हैं। पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।” यहीं मनोविज्ञान की महत्ता है। आगे जाकर हम पहले मन को समझेंगे फिर मनोविज्ञान का सूत्र हल करेंगे।

स्त्री-पुरुष के इस मूलभूत युग्म के लिए हमारे पास एक बहुत सुंदर प्रतीक है ‘अर्द्धनारीश्वर’। दिनकर की मान्यता है कि “अर्द्धनारीश्वर केवल इस बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं, तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी द्योतक है कि यदि पुरुष में नारीत्व अर्थात संवेदना नहीं है, वह अधूरा है। जिस नारी में पुरुषत्व अर्थात अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस नहीं है, वह भी अपूर्ण है.” अभिप्राय यह है कि भले ही हम पुरुष हों या स्त्री, दरअसल हम संवेदना के स्तर पर स्त्री और पुरुष का युग्म ही होते हैं, इस युग्मता में ही हमारे अस्तित्व की पूर्णता है।

यहाँ एक और बात ध्यान खींचती है. यह नहीं कहा जाता कि शिव के बिना शक्ति अधूरी है, बल्कि यह कहा जाता है कि शक्ति के बिना शिव अपूर्ण है अर्थात कहीं न कहीं हमारी परंपरा स्त्री को पूर्ण मानती है और पूर्ण करने वाली भी, इस परंपरा में स्त्री ‘पर-निर्भर अबला’ नहीं थी। भारतीय परंपरा के अनुसार वह पुरुष के मनोरंजन की वस्तु भी नहीं है। स्त्री भी पुरुष के समान पूर्ण है, उसकी रचना किसी आदिपुरुष के मनोरंजन के लिए नहीं की गई बल्कि वह भी पुरुष के साथ ही अस्तित्व में आई और सृष्टि के लिए उतनी ही अहम है जितना पुरुष। इसीलिए अर्धनारीश्वर का मिथक हमारी संस्कृति का सबसे मनोरम मिथक है।

इस मिथक का अत्यंत सटीक और सामयिक प्रयोग विष्णु प्रभाकर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में किया है और यह दर्शाया है कि स्त्री-पुरुष संबंधी विसंगतियों का निदान है ‘अर्द्धनारीश्वर’। विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि “नारी की स्वतंत्र सत्ता का नारी की सैक्स-इमेज से कोई संबंध नहीं है. उसका अर्थ है समान अधिकार, समान दायित्व, एक स्वस्थ समाज के निर्माण के दोनों समान रूप से भागीदार हैं। अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक इस कल्पना का साकार रूप है, एक-दूसरे में विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए। आगे वे यह भी कहते हैं कि नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं.”

नारी मुक्ति का अर्थ औरत की उच्छंखलता नहीं है, नारी मुक्ति का मतलब भोग हेतु योनि मुक्ति भी नहीं है जैसा कि कुछ विकृत दिमाग़ अर्थ लगाने लगे हैं कि जब पुरुष को कोई बंधन नहीं है तो नारी क्यों अक्षत योनि  (virginity) या सतीत्व ओढ़ कर जिए। यह आवश्यक है कि नैतिकता के मापदण्ड पुरुष नारी दोनों पर एकसे लागू हों, यदि ऐसा न हुआ तो अनैतिकता की प्रतिस्पर्धा में चारित्रिक अराजकता से पूरा समाज मनोरोगी हो जाएगा। पुरुष नारी की समानता का अर्धनारीश्वर से उत्तम उदाहरण नहीं हो सकता है। इसी तारतम्य में शिव पुराण में वर्णित अर्धनारीश्वर स्त्रोत से समझने की कोशिश करते हैं।

शक्ति के बिना शिव ‘शव’ हैं, शिव और शक्ति एक-दूसरे से उसी प्रकार अभिन्न हैं, जिस प्रकार सूर्य और उसका प्रकाश, अग्नि और उसका ताप तथा दूध और उसकी पौष्टिकता। शिव में ‘इ’ कार ही शक्ति हैं । ‘शिव’ से ‘इ’ कार निकल जाने पर ‘शव’ ही रह जाता है। शास्त्रों के अनुसार बिना शक्ति की सहायता के शिव का साक्षात्कार नहीं होता। अर्धनारीनटेश्वर स्तुति की आराधना करने से शिव-शक्ति की संयुक्त कृपा प्राप्त होती हैं या नहीं परंतु हमारे पूर्वजों ने इस रिश्ते के बारे मे क्या सोचा था यह ज़रूर पता चलता है। शिव महापुराण में उल्लेख आता हैं कि-

‘शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी ।’

अर्थात्– समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं। स्मृति में अर्धनारीश्वर अवधारणा का आधार  अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र है।

1- चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।

धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं। भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

2. कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायैचितारज:पुंजविचर्चिताय ।

कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है। पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

3. चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायैपादाब्जराजत्फणीनूपुराय।

हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

भावार्थ – भगवती पार्वती के हाथों में कंकण और पैरों में नूपुरों की ध्वनि हो रही है तथा भगवान शंकर के हाथों और पैरों में सर्पों के फुफकार की ध्वनि हो रही है।  पार्वतीजी की भुजाओं में बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं और भगवान शंकर की भुजाओं में सर्प सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

4- विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय

समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

भावार्थ – पार्वतीजी के नेत्र प्रफुल्लित नीले कमल के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर के नेत्र विकसित कमल के समान हैं । पार्वतीजी के दो सुन्दर नेत्र हैं और भगवान शंकर के (सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि) तीन नेत्र हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

5- मन्दारमालाकलितालकायैकपालमालांकितकन्धराय

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के केशपाशों में मन्दार-पुष्पों की माला सुशोभित है और भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला सुशोभित हो रही है । पार्वतीजी के वस्त्र अति दिव्य हैं और भगवान शंकर दिगम्बर रूप में सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

6- अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय

निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के केश जल से भरे काले मेघ के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर की जटा विद्युत्प्रभा के समान कुछ लालिमा लिए हुए चमकती दीखती है । पार्वतीजी परम स्वतन्त्र हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई नहीं है और भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

7- प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायैसमस्तसंहारकताण्डवाय

जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – भगवती पार्वती लास्य नृत्य करती हैं और उससे जगत की रचना होती है और भगवान शंकर का नृत्य सृष्टिप्रपंच का संहारक है । पार्वतीजी संसार की माता और भगवान शंकर संसार के एकमात्र पिता हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

8. प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायैस्फुरन्महापन्नगभूषणाय ।

शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी प्रदीप्त रत्नों के उज्जवल कुण्डल धारण किए हुई हैं और भगवान शंकर फूत्कार करते हुए महान सर्पों का आभूषण धारण किए हैं । भगवती पार्वतीजी भगवान शंकर की और भगवान शंकर भगवती पार्वती की शक्ति से समन्वित हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

शिव व शक्ति अविभाज्य वर्णित हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरों के सामान हैं। लहर है जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का क्या अर्थ? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध।

शिव पुराण में वर्णित अर्धनारीश्वर अवधारणा को ऋषियों-मुनियों ने पुरुष नारी समानता का आधार बनाया था। इसी अवधारणा पर विष्णु प्रभाकर ने महान उपन्यास लिखा था। अंततः विष्णु प्रभाकर अर्धनारीश्वर को एक और अर्थ देते है. वह यह कि भारत में स्त्री न्याय चाहती है, पुरुष से मुक्ति नहीं। आज उसमें यह कहने का साहस आ गया है कि “बलात्कार से सतीत्व नष्ट होता हो तो हो, पर नारीत्व नष्ट नहीं होता, और नारी के लिए नारीत्व सर्वोपरि है.” स्त्री-गरिमा या स्त्री-मुक्ति का यह अर्थ कदापि नहीं कि स्त्री अपनी कोमल भावनाओं को छोड़ दे। स्त्री, स्त्री भी रहे, अपनी संवेदनाओं और सुकोमलता को बरकरार रखे और साथ ही मनुष्य भी बने। उसे शिकार न होना पड़े। वह अपमानित महसूस न करे. आज वह कह रही है, “मैं जो हूँ, वही रहूँगी जो शंकर के अर्द्धनारीश्वर के रूप में कल्पित की गई है या इंद्र की अप्सराओं की तरह निर्द्वंद रहूँगी।” दोनों छोर छोड़कर उसे तर्क-भावना से एक नई तैयारी से नया समाज रचना होगा। जिसे  भारतीयता बचाते हुए आधुनिक बना जा सकता है। न कोई स्वामी और ना ही कोई दास, अर्धनारीश्वर से शुरू हुई शब्दयात्रा दो परम स्वतंत्र पौरुषेय-स्त्री एवं स्त्रैण-पुरुष के रूप में साकार होगी। अर्धनारीश्वर की मूल अवधारणा में भौतिक तत्वों से शिव व पार्वती की विवेचना है। आधुनिक काल में जबकि दैहिक बल से आगे बुद्धि बल और अब भाव बल आदमी के जीवन में प्रधान भूमिका निर्वाह की  स्थिति में है तब इस अवधारणा को भाव बल पर आधारित होना ही होगा। नारी स्वभाविक रूप से भावुक होती है और नर तार्किक, नारी समानता के अर्थ में परखा जाए तो नारी कम भावुक होती हुई अधिक तर्किक कठोरता की ओर उन्मुख होगी तब थोड़ी कठोर होगी तो उसका पौरुषेय-स्त्रैण स्वरुप निखर कर आएगा,जैसे इंदिरा गांधी या मार्गरेट थैचर हो गईं थीं। इसी प्रकार पुरुष कम तार्किक व कठोर होता हुआ अधिक भावुक होगा तब वह स्त्रैण-पुरुष का स्वरुप ग्रहण करता है जैसे लाल बहादुर शास्त्री या केनेडी।

© सुरेश पटवा, भोपाल 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। 

आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी “बटुवा” जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। किन्तु, मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि युवा साहित्यकार आशीष का हृदय समय से पहले बड़ा हो गया है या समय ने उसे बड़ा कर दिया है।? बेहद सार्थक रचना। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆

 

बटुवा 

स्कूल में एक दोस्त के पास देखा तो मैं भी जिद्द करने लगा

पापा ने दिला दिया, पूरे 9 रूपये का आया था ‘बटुआ’

मैं बहुत खुश था की अपनी गुल्लक में से निकालकर दो, एक रुपये और एक दो रुपये का नोट अपने नए बटुए में रखूँगा

उस बटुए में पीछे की तरफ दो जेबे थी

एक छोटे नोटों के लिए और दूसरी उसके पीछे वाली बड़े नोटों के लिए

उन जेबो में रखे छोटे नोटो के पीछे रखे बड़े नोट ऐसे लगते थे जैसे कि छोटेऔर बड़े छज्जे पर एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होकर कॉलोनी से जाती हुई कोई बारात देख रहे हो ।

कुछ नोटो का लगभग पूरा भाग जेब में अंदर छुपा होता था और एक कोना ही दिखता था जैसे बच्चे पंजो पे उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहे हो ।

उन जेबो के आगे एक तरफ एक के पीछे एक, दो जेबे थी जिनमे से एक में पारदर्शी पन्नी लगी थी ।

उसमे मैने कृष्ण भगवान का माखन खाते हुए एक फोटो लगा दिया था ।

उसके पीछे की जेब में मैंने मोरपाखनी की एक पत्ती तोड़कर रख ली थी क्योकि स्कूल मैं कई बच्चे कहते थे की उससे विद्या आती है ।

दूसरी तरफ की जेब में एक बटन भी लगा था, उस जेब में मैंने गिलट के कुछ सिक्के अपनी गुल्लक में से निकालकर रख लिए थे। एक दो रुपये का सिक्का था बाकि कुछ एक रूपये और अट्ठनियाँ थी शायद एक चवन्नी भी थी पर वो चवन्नी बार बार उस जेब के फ्लैप में से जो बीच से उस बटन से बंद था बार बार निकल जाती थी ।

तो फिर मैने उस चवन्नी को गुल्लक में ही वापस डाल दिया था ।

एक दिन तो जैसे बटुवे की दावत ही हो गयी जब घर पर आयी बुआ जाते जाते टैक्टर वाला पाँच रुपये का नोट मुझे दे गयी ।

एक बार सत्यनारायण की कथा में भगवान जी को चढ़ाने के लिए गिलट का सिक्का नहीं था। तो मैने मम्मी को अपने बटुवे की आगे वाली जेब से निकल कर एक रूपये का सिक्का दिया । ये वही सिक्का था जो जमशेद भाई की दुकान पर जूस पीने के बाद उन्होंने बचे पैसो के रूप में दिया था ।

मैं हैरान था कि जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाने के बाद भी भगवान जी नाराज़ नहीं हुए ।  शयद आज जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाता तो वो नाराज़ हो जाते और कहते ‘बेवकूफ़ मुझे किसी पंडित जी का दिया हुआ सिक्का ही चढ़ा’ वैसे अब तो जमशेद भाई और मैं दोनों ही hi tech हो गए है मोबाइल से ही एक दूसरे को पैसे दे देते है ।

लेकिन मुझे ऐसा लगा की उस दिन जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का चढ़ाने के बाद भगवान जी और भी ज्यादा खुश हो गए है ।

अब salary (वेतन) आती है और सीधे bank account में transfer होती है ।

बटुवा तो अब भी है मेरे पास बहुत ज्यादा महंगा और luxurious है ।

पर उसमे अब छोटे छोटे नोट नहीं रखता, एक दो बड़े बड़े नोट होते है और ढेर सारे plastic के card

ऐसा लगता है की इतने समय मे भी बटुवे का उन plastic के  कार्डो (cards) के साथ रिश्ता नहीं बन पाया है ।

एक दिन मैने बटुवे से पूछ ही लिया की इतना समय हो गया है अभी तक cards से तुम्हारी दोस्ती नहीं हुई?

तो वो नम आँखो से बोला, ” जब मेरे अंदर नोट रखे जाते थे तो वो मेरा बड़ा आदर करते थे। मुझे तकलीफ ना हो इसलिए अपने आप को ही इधर उधर से मोड़ लिया करते थे । पर ये card तो हमेशा अकड़े ही रहते है और मुझे ही झुक कर अपने आप को इधर उधर से तोड़ मोड़ कर इन्हे अपनाना पड़ता है”

अब मेरे बटुवे में चैन है जिससे कि कोई सिक्का बटुवे से बहार ना गिर पाये

पर मेरे पास अब चवन्नी नहीं है ………….

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे मातृ भूमि ! ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ हे मातृ भूमि! ☆ 

 

है क्यों घमासान?

तेरे आँचल में,

सभी तेरे लाल हैं,

फिर क्यों है,

कोई हरा, कोई नीला, कोई भगवे रूप में,

कभी,  सभी….,

तेरे लिए लड़ते थे, अब,

सभी आपस में लड़ते हैं,

बदनाम तेरे आँचल को करते हैं,

तेरे पुत्र नहीं,

कुछ पराये से लगते हैं,

पैदा कर कुछ ऐसा भूचाल,

हो जायें सारे आडम्बरी बेहाल,

दुनिया सारी अचंभित हो जाये,

पड़ोसी भी थर्रा जाये,

वीरों का खून भी,

अब खौलता है,

सफेदपोश भी,

बे-तुका सा बोलता है,

हे मातृ भूमि,

क्युं अब कोई…… महात्मा जैसा,

क्युं अब कोई……. अम्बेडकर जैसा,

क्युं अब कोई…….. टैगौर जैसा,

क्युं अब कोई………. पटेल जैसा,

जन्म नही लेता,

तेरी कोख से,

हे मातृ भूमि,

कर दे कुछ ऐसा,

सभी में हो,

देश भक्ति भाव,

एक जैसा……वंदे मातरम…..!

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ व्रुत्त आनंदकंद ☆ – सुश्री विजया देव

सुश्री विजया देव

☆ व्रुत्त आनंदकंद ☆ – 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री विजया देव जी  की एक  भावप्रवण व्रुत्तबध्द  मराठी कविता।)

 

माझ्या घरी उन्हाने मुक्काम ठोकलेला

शोधून राहिलो मी

माझ्याच सावलीला

बेभान धावलो मी

वेडात वागलो मी

त्या आरशात जेव्हा

मी पाहिले स्वताला

 

ऊगाच मीळते कां

ती सांत्वना कुणाची

रक्तात पाय न्हाले

कुरवाळले दुखाला

नाकारले सदा मी

ते प्रेम दांभि कांचे

समजावले कितीदा

माझ्याच या मनाला

देहावरी भरोसा

कां ठेव लाच तेव्हा

आत्म्यास कांविसरलो

दुरावलो सुखाला

झोळीत आज माझ्या

ओतून चंद्रतारे

ये साजणी तु आता

घेवून दीपमाला

 

©  विजया देव, पुणे 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga at Nestle Nutrition Quality College ☆ Shri Jagat Singh Bisht & Smt Radhika Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,

 Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ Laughter Yoga at Nestle Nutrition Quality College

We conducted a session of Laughter Yoga followed by Laughter Meditation and Guided Relaxation at the Nestle Nutrition Quality College 2013, Samalkha, India. It included delegates from the Nestle head-quarters at Vevey, Switzerland, Sweden and zone Asia-Oceania-Africa countries including China, Singapore, Indonesia, Pakistan, Bangladesh, Sri Lanka and India.

The participants felt deeply relaxed and cheerful after the session. One of them expressed, “There is a lot of stress in professional life. We laugh very rarely. Laughter Yoga is an amazing way to play and energize. It can do wonders at the workplace.” Another participant shared, “I thought I am not going to laugh as I do not laugh often. After initial clapping and chanting, my inhibitions had gone away and I started laughing freely. I don’t remember when I laughed like this last time.”

Last year, we were invited by Nestle India Limited to conduct Laughter Yoga at their Safety-Health-Environment workshop for zone Asia-Oceania-Africa at Marriott Resort, Goa. A few months ago, Jagat conducted three sessions of Laughter Yoga for the staff of Nestle factory at Samalkha, India. Nestle’s continuous engagement with Laughter Yoga is an indication of the deep value and utility discovered by the corporate world in Laughter Yoga.

Radhika Bisht and Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।20।।

 

जनक आदि ने कर्मो से ही सिद्धि सफलता पाई है

जनहितकारी शुभ कर्मो ने सच में ख्याति दिलाई है।।20।।

 

भावार्थ :  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।।20।।

 

Janaka and others attained perfection verily by action only; even with a view to the protection of the masses thou shouldst perform action. ।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #1 ☆ अनचीन्हे रास्ते ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ.  मुक्ता जी  के  हृदय से आभारी हैं , जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनों से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अनचीन्हे रास्ते”। डॉ मुक्ता जी के बारे में कुछ  लिखना ,मेरी लेखनी की  क्षमता से परे है।  )  

डॉ. मुक्ता जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

  • राजकीय महिला महाविद्यालय गुरुग्राम की संस्थापक और पूर्व प्राचार्य
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी” द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी “की पहली महिला निदेशक
  • “हरियाणा ग्रंथ अकादमी” की संस्थापक निदेशक
  • पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी द्वारा ¨हिन्दी  साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार” से सम्मानित ।  डा. मुक्ता जी इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हरियाणा की पहली महिला हैं।
  • साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपकी 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता संग्रह, कहानी, लघु कथा, निबंध और आलोचना पर लिखी गई आपकी पुस्तकों पर कई छात्रों ने शोध कार्य किए हैं। कई छात्रों ने आपकी रचनाओं पर शोध के लिए एम फिल और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं।
  • कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित
  • सेवानिवृत्ति के बाद भी आपका लेखन कार्य जारी है और कई पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं।

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #1 ☆

☆ अनचीन्हे रास्ते ☆

मैं जीना चाहती हूं

अनचीन्हे रास्तों पर चल

मील का पत्थर बनना चाहती हूं

क्योंकि लीक पर चलना

मेरी फ़ितरत नहीं

मुझे पहुंचना है,उस मुक़ाम पर

जो अभी तक अनदेखा है

अनजाना है

जहां तक पहुंचने का साहस

नहीं जुटा पाया कोई

 

मैं वह नदी हूं

जो राह में आने वाले

अवरोधकों को तोड़

सबको एक साथ लिए चलती

विषम परिस्थितियों में जीना

संघर्ष की राह पर चलना

पर्वतों से टकराना

सागर की लहरों से

अठखेलियां करना

आगामी आपदाओं की

परवाह न करते हुए

तटस्थ भाव से बढ़ते जाना

 

‘एकला चलो रे’

मेरे जीवन का मूल-मंत्र

आत्मविश्वास मेरी धरोहर

सृष्टि-नियंता में आस्था

मेरे जीवन का सबब

उसी का आश्रय लिए

उसी का हाथ थामे

निरंतर आगे बढ़ी हूँ

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 




हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ कोहरे में सुबह ☆ श्री ब्रजेश कानूनगो – (समीक्षक – श्री दीपक गिरकर)

काव्य संग्रह  – कोहरे में सुबह – श्री ब्रजेश कानूनगो  

 

☆ उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला समकालीन रचनाओं का एक अनूठा काव्य संग्रह है “कोहरे में सुबह” ☆

 

“कोहरे में सुबह” चर्चित वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री ब्रजेश कानूनगो की कविता यात्रा का चौथा पड़ाव हैं। इसके पूर्व इनके “धूल और धुएं के परदे में” (1999), “इस गणराज्य में” (2014), “चिड़िया का सितार” (2017) काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। “कोहरे में सुबह” एक ऐसा कविता संग्रह है जो कई मुद्दों और विषयों पर प्रकाश डालता है। श्री ब्रजेश कानूनगो ने अपने कविता संग्रह “कोहरे में सुबह” में अपने जीवन के कई अनुभवों को समेटने की कोशिश की है। “कोहरे में सुबह” उलझन भरे कोहरे में उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला एक अनूठा काव्य संग्रह है। ब्रजेशजी ज़मीन से जुड़े हुए एक वरिष्ठ कवि है। इस संग्रह में प्रकृति, प्रेम, गाँव और ग्रामीण जीवन की स्थितियों को अभिव्यक्त करती कविताएं हैं। यह समकालीन कविताओं का एक सशक्त दस्तावेज़ है। इस संग्रह की हर रचना पाठकों और साहित्यकारों को प्रभावित करती है। इस संकलन में 70 छोटी-बड़ी कविताएं संकलित हैं।

इस संग्रह की शीर्षक कविता कोहरे में सुबह में कवि कहते है “सुबह का रैपर हटेगा / तो दिखाई देगी तश्तरी में छपी तस्वीर”। वे एक ऐसा दृश्य रचते है जिसमें पाठक कल्पनाओं के लोक में खो जाता है। आजकल रिश्ते जीवंतता खोते जा रहे हैं। इंतजार करती माँ, घर की छत पर बिस्तर, क्षमा करें इत्यादि भावपूर्ण कविताएं रिश्तों की अहमियत पर प्रकाश डालती हैं। उसका आना  कविता  की  पंक्तियाँ “रात को आई है सुबह की तरह / लगता है गई ही नहीं थी कभी यहां से” बेटी के घर आने पर उनके द्वारा लिखी गई कविता बेटी के प्रति एक पिता के लगाव को महसूस कराती है।

एक टुकड़ा गाँव एवं छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविताएं कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक टुकड़ा गाँव  कविता की पंक्तियाँ “पढ़ता हूं अख़बार में जब विकास की कोई नई घोषणा एक गाँव मेरे भीतर मिटने लगता है छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे नामक कविता पाठकों को अंदर तक झकझोर देती हैं। ग्रामीण परिवेश इन कविताओं में बोलता-बतियाता सुना जा सकता हैं। महानगरों में आजकल चारो ओर सीमेंट के जंगल ही जंगल दिखाई देते है और बिल्डरों द्वारा जो विशाल अट्टालिकाएं बनाई जा रही है उनमें जो मजदूर काम कर रहे है वे गाँवों से ही इन महानगरों में आए हैं। इन मजदूरों ने खाली पड़े हुए ज़मीन के टुकड़ों पर छोटी-छोटी टापरी बना ली हैं और अपने परिवार के साथ मस्ती में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह देखकर कवि को अपने गाँव की और अपने बचपन की बातें याद आ जाती हैं। इस कविता संग्रह की कुछ कविताएं कवि के गाँव के साथ लगाव को उजागर करती हैं। कवि ने इन कविताओं के माध्यम से सही प्रश्न उठाया है कि जिसे हम आज विकास का नाम दे रहे है क्या इससे गाँवों में आर्थिक समृद्धि होगी? आज विकास के नाम पर आपसी रिश्तों के बीच खोखले विकास की दीवार खड़ी हो गई है। इन कविताओं में ब्रजेशजी की बैचेनी और व्यथा महसूस की जा सकती है।

आभासी दुनिया में, तुम लिखो कवि, चीख आदि कविताओं में ब्रजेशजी कला और साहित्य के प्रति व्यथित दिखते है। धर्म के नाम पर हिदुस्तान में इंसानों के बीच जो नफ़रत की दीवार खड़ी की जा रही है उस पर भी छोंक रचना में “ये कौन-सा छोंक लगाया है / कि धुँआ-धुँआ सा हो गया है चारों तरफ” कवि की चिंता अभिव्यक्त होती है। जहाँ पर्यटक की तरह कविता में कवि अपने घर को ही तीर्थ स्थान मानता है, छुट्टियों में अपने घर पर ही तरोताजा होने के लिए आता है और अपने माता-पिता के घर को ही चार धाम समझता हैं क्योंकि उसे घर में ही शांति मिलती है। पतंगबाज़ी कविता में उल्लास-उमंग के साथ-साथ हार-जीत का दर्शन है। संग्रह की कविता चीख एवं गारमेंट शो रूम में व्यंग्य है क्योंकि कवि एक व्यंग्यकार भी है। कवि के तीन व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। गारमेंट शो रूम में कविता में उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध पर गहरा कटाक्ष है। इस कविता में कवि कहते है जगमगाते जंगल में कटे सरों के भूत / अपनी टांगों की तलाश में हेन्गरों पर अनगिनत लटके थे” भरा हुआ इस संग्रह की एक ऐसी विशिष्ठ रचना है जो पाठकों को मानवीय संवेदनाओं के विविध रंगों से रूबरू करवाती है पुस्तक मेले में दिख गए गौरीनाथ के पास बैठे विष्णु नागर / साथ आने को कहा तो स्टाल से उतर कर तुरंत चले आए मेरे साथ” प्रेम एवं रिश्तों में जीवंतता को अभिव्यक्त करती यह कविता पाठकों को प्रेम, रिश्ते और मानवीय संवेदनाओं से अभिभूत कर देती है। वैसे इस संग्रह की सभी कविताएं मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं। डायरी, देहरी की ठोकर और चकमक कविताओं में कवि के मन के भीतर चल रही उठा पटक महसूस की जा सकती है।

ब्रजेशजी की लेखनी का कमाल है कि उनकी रचनाओं में वस्तु, दृश्य, संदेश, शालीनता और मर्यादा सभी मौजूद है एवं उनके कहने का अंदाज भी निराला है क्योंकि वे एक व्यंग्यकार भी है। ब्रजेश जी की कविताओं में गहरी सोच, वैचारिक सूझ एवं उनकी अपनी शालीनता प्रतिबिंबित होती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कविता ब्रजेश जी की आत्मा में रची-बसी है। कवि की रचनाओं में आदि से अंत तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है। संग्रह की रचनाएं ह्रदय में गहरे चिन्ह छोड़ जाती है। कवि की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। संग्रह की सभी कविताएं कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से नए प्रतिमान गढ़ती है।

कोहरे में सुबह बोधि प्रकाशन का उत्कृष्ट प्रकाशन है। 120 पृष्ठ का यह कविता संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह काव्य संग्रह सिर्फ़ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। यह काव्य संग्रह भारतीय कविता के परिदृश्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हुआ है।

पुस्तक  : कोहरे में सुबह

लेखक   : ब्रजेश कानूनगो

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006

मूल्य   : 120 रूपए

पेज    : 120

 

दीपक गिरकर, समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

 




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ समाजपारावर एक विसावा…. !#1 – पुष्प पहिले …. ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।  कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए कविराज विजय जी ने यह साप्ताहिक स्तम्भ “समाजपारावर एक विसावा…. !” शीर्षक से लिखने के लिए  हमारेआग्रह को स्वीकार किया, इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प पहिले ….”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समाजपारावर एक विसावा #-1 ☆

 ☆ पुष्प पहिले .. .  ☆

समाज पारावर माणूस माणसाला भेटतो. माणसाचे अंतरंग  उलगडून  एक समाज स्पंदन वेचण्याचा अनोखा प्रयत्न या स्तंभलेखनातून  करणार आहे संवादी माध्यमातून सोशल नेटवर्किंग साईट वरुन वैचारिक देवाणघेवाण होत आहे.

*अक्षरलेणी* या कवितासंग्रहाच्या  दोन यशस्वी  आवृत

माणूस माणसाला घडवतो,  बिघडवतो आणि सोबत घेऊन  अनेक विकासकामे करू शकतो. प्रत्येक व्यक्तीचे विचार वेगवेगळे असतात. विचार पटले की संवाद घडतो. संवादातून नियोजन आखणी केली जाते.  कार्य कौटुंबिक  असो, सांस्कृतिक  असो,  साहित्यिक  असो परस्परांशी साधलेला संवाद महत्वाचा ठरतो.

हा संवाद व्यक्तीशी संस्कारीत जडण घडण त्याला जीवन प्रवासात नवनवीन वाटा उपलब्ध करून देतो. समाज प्रियतेच किंवा समाजाभिमुख रहाण्याच वरदान माणसाला जन्मजात लाभले आहे.

समाज समाज म्हणजे नेमके काय?  समाज म्हणजे कोणतीही जात नव्हे,  कोणताही पंथ नव्हे. व्यक्ती स जन्म देणारे त्याचे आई वडील हा पहिला समाज.

बालपणात संपर्कात  आलेले समवयस्क सवंगडी,  शाळू सोबती हा दुसरा समाज,  जीवनाच्या कुठल्याही टप्प्यावर ज्ञानदान करणारे गुरूजन हा तिसरा समाज,  बालपण, तारूण्य, वृद्धावस्था यात सुखदुःखात सामिल होणारा चौथा समाज,  आणि  आपल्या कार्यकर्तृत्वाच्या प्रभावाने प्रेरित होऊन त्याचे बरे वाईट परिणाम भोगणारा  पाचवा समाज माणसाला सतत जाणीव करून देतो. तो माणूस  असल्याची.

माणसाचं माणूसपण त्याच्या आचारविचारात, दैनंदिन लेखन कला व्यासंगात,त्याच्या कार्य कर्तृत्वात आणि माणसाने माणसावर ठेवलेल्या विश्वासात अवलंबून असते. हा विश्वास माणसाला धरून रहातो तेव्हा तो माणूस समाजप्रिय होतो. समाज प्रिय माणसे जीवनात यशस्वी झाली की आपोआप समाजाभिमुख होतात. हा समाज तेव्हा माणसाला नवा विचार देतो. विचारांची दिशा त्याला कार्यप्रवण ठेवते. त्याच्या या जीवनप्रवात कुठे तरी आपले माणूस सोबत  असावेसे वाटते.

ही सोबत, हा विसावा  शब्दातून, अक्षरातून, विचारातून, मार्गदर्शनातून  ,प्रोत्साहनातून मनाला जेव्हा मिळते ना तेव्हा ही  अनुभवांची  शिदोरी माणसाला वैचारिक मेजवानी देते. एक निर्भेळ आनंद देते.  हे वैचारिक  खाद्य माणसाला आयुष्यभर पुरते.  त्याचा जीवनप्रवास समृद्ध  करते.  हा विसावा ही वैचारिक बैठक वेगवेगळ्या जीवनानुभुतीतून माणसाला विसावा देते. जगायचे कसे? याचे उत्तर देखील या पारावर सहजगत्या उपलब्ध होते.

माणूस जेव्हा माणसाच्या संपर्कात येतो ना  तेव्हा तो  ख-या अर्थाने विकसित होतो. त्याचे हे विकसन त्याला जगाची सफर घडवून  आणते.  कुठल्याही परिस्थितीत खंबीरपणे जगायला शिकवते. मान, पान, पद, पैसा ,  प्रतिष्ठा मिळवून देण्याचा राजमार्ग याच समाजपाराला वळसा घालून जातो.  इथे जगणे आणि जीवन यातला  सुक्ष्म फरक कळतो आणि माणसाचं जीवन प्रवाही बनते. हा जीवनप्रवाह या शब्द पालवीत जेव्हा विसावला तेव्हा नाविन्यपूर्ण  आणि वैविध्यविपूर्ण  आशय ,विषयांची लेखमाला  आकारास  आली हा विसावा रंजनातून सृजनाकडे वळतो तेव्हा हाच माणूस  माणसाला विचारांचे दान देतो. मानाचे पान देतो. हे  आठवणींचे पान समाज पारावर  रेंगाळते आणि

माणूस माणसाशी जोडला जातो.  हे  एकत्रीकरण,  हे  समाज सक्षमीकरण,  अभिव्यक्ती परीवाराशी या लेखमालेतून संलग्न झाले  आणि  विविध विषयांवरील लेख रसिक सेवेत दाखल  झाले. विविध विषयांवर लेख या लेखमालेतून देणार आहे. हे लेख केवळ  शब्द बंबाळ आलेख नव्हे तर हा  आहे. समाजपार. ह्रदयाचा परीघ. वास्तवाचा  आरसा  आणि शब्दांचे  आलय. . .

तुमच्या  आमच्या  अभिव्यक्ती साठी.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

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