हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जी के मुख्य  सरोकार ☆ डॉ.  मुक्ता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

डॉ.  मुक्ता

(सम्माननीय डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ. मुक्ता जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने  अपना अमूल्य समय निकालकर ई-अभिव्यक्ति के इस विशेष अंक के लिए  “गांधी जी के मुख्य  सरोकार”  विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये। )

 

गांधी जी के मुख्य सरोकार

 

गांधी जी आधुनिक भारत के वे अकेले नेता हैं, जो किसी एक वर्ग, एक विषय, एक लक्ष्य को लेकर नहीं  चले। वे जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के हृदय पर राज्य करते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान और समीक्षक रामविलास शर्मा का तो यहां तक कहना है कि ‘ विश्व इतिहास में किसी एक व्यक्ति का इतना व्यापक प्रभाव कहीं भी, कभी भी नहीं देखा गया। वे भारतीय जन-जन की आशाओं,आकांक्षाओं को समझते थे। वे उन्हें अपनी और उनकी सांझी भाषा में व्यक्त करते थे। उनकी लोकप्रियता का यह एक महत्वपूर्ण उपादान था। उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया, उसमें उनका लेशमात्र भी स्वार्थ या लाभ नहीं था। उनके प्रति जनता की अपार श्रद्धा तथा विश्वास का यह एक मुख्य कारण था।

ज्ञान, शिक्षा, कला, साहित्य, समाज-सुधार और देश को पराधीनता के बंधन से मुक्त करवाने के यह सभी आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न वर्गों और विविध विधाओं में आरंभ हुए। इन आंदोलनों ने असंख्य छोटे-बड़े स्तर के आंदोलनकारियों को जन्म दिया। राजा राममोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, भारतेंदु आदि अनेक महान् व्यक्तियों के नेतृत्व में जाति व समाज के यह आंदोलन आगे बढ़े। इस आरंभिक अभ्युदय की अगली कड़ी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम आता है… मोहनदास करमचंद गांधी का, जिसने भारत की समग्रता को समझा और वे मुक्ति, विकास व कल्याण में प्रवृत्त हुए।

गांधी जी के चिंतन व निर्माण पर विश्व की विभिन्न विभूतियों का प्रभाव पड़ा। दूसरे शब्दों में वे उनसे अत्यंत प्रभावित थे। गांधीजी के सत्याग्रह की अवधारणा पर टॉलस्टॉय का प्रभाव था। उनका सर्वोदय आंदोलन रस्किन तथा ग्राम सभा या ग्राम पंचायत आंदोलन हेनरी मेनस से प्रभावित था। परंतु योग व वेदान्त, जो विशुद्ध भारतीय धरोहर थी,उसने वैचारिक व व्यावहारिक स्तर पर गांधी जी को प्रभावित किया और उन्होंने इसे केवल अपने जीवन में ही आत्मसात् नहीं किया, बल्कि समस्त मानव जाति को उसे अपनाने की शिक्षा भी दी। चलिए! इसी संदर्भ में उनके चंद मुख्य सरोकारों पर चर्चा कर लेते हैं।

साम्राज्यवाद : गांधीजी के सम्मुख साम्राज्यवाद मुख्य चुनौती थी और यह उनके संघर्ष का मुख्य सरोकार था, जिसका उन्होंने सर्वाधिक विरोध किया। देश की राजनीतिक व आर्थिक स्वतंत्रता के निमित्त उन्होंने साम्राज्यवाद को मुख्य बाधा स्वीकारा और जीवन में स्वदेशी अपनाने का संदेश दिया। इसके माध्यम से हमारा देश, विदेशी अर्थतंत्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। यह एक ऐसी मुहिम थी, जिसे अपना कर हम विदेशी शोषण से मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।

गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में मज़दूरों के बीच रहने, काम करने, उन्हें संगठित करने व लंबे समय तक उस संघर्ष को संचालित करने का अनुभव था। उन्होंने भारत के गाँव-गाँव में जाकर छोटे किसानों व खेतिहर मज़दूरों से अपना भावनात्मक संबंध ही नहीं बनाया, उनके मनोमस्तिष्क को आंदोलित भी किया। इस प्रकार  वे उन्हें लंबे, कठिन संघर्ष के लिए प्रेरित कर सके और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई।

जातीय व सांप्रदायिक समस्या: गांधी जी सांप्रदायिकता को मुख्य राष्ट्रीय अभिशाप स्वीकारते थे। हिंदू-मुस्लिम भेद व वैमनस्य उन्हें मंज़ूर नहीं था। वे इस तथ्य से अवगत थे कि जातीय परिपेक्ष्य में पंजाबी हिंदू व पंजाबी मुसलमानों की भाषा, साहित्य व संस्कृति सांझी थी, समान थी। भारत के हर प्रदेश व क्षेत्र के हिंदु व मुसलमानों के बारे में भी उनकी यही विचारधारा रही है। उनके विचार से मज़हब का भेद होने और पूरी मज़हबी स्वतंत्रता के होने पर, झगड़े का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। वे दोनों को समान रूप से भारतीय स्वीकारते थे।

गांधी जी हिंदी व उर्दू को एक ही भाषा के दो रूप स्वीकारते थे क्योंकि इसमें भेद केवल लिपि व थोड़ी- बहुत शब्दावली का रहा है। गांधी जी समस्या के बारे में सजग व सचेत थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने पर बल दिया। वास्तव में यह हिंदी की स्वीकार्यता का आग्रह था,जिसमें सामान्य व्यवहार की भाषा के रूप में क्लिष्ट संस्कृत व क्लिष्ट फारसी से मुक्त सामान्य भारतीय की घर-बाज़ार की भाषा (स्ट्रीट लैंग्वेज) की स्वीकृत का प्रयास था। इसके पीछे उनका मूल लक्ष्य था… राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़ता व सांप्रदायिकता के  विष का निराकरण, ताकि देश में सौहार्द बना रह सके। आइए! इसी संदर्भ में हम उनकी भाषा नीति पर चर्चा कर लेते हैं।

भाषा नीति: गांधी जी की भाषा संबंधी आस्था ही उनकी भाषा नीति थी। गांधी जी जीवन के हर क्षेत्र में विभिन्न जाति-संप्रदाय, धर्म-मज़हब, विविध भाषा-भाषी लोगों में सामंजस्य स्थापित करनाचाहते थे। सो! उन्होंने विविध भाषा-भाषी लोगोंके बीच जाकर, उनकी भाषाओं को सम्मान दिया ताकि उनकी जातीय अस्मिता सुरक्षित रह सके। गांधी जी के मतानुसार ‘जातीय भाषा के माध्यम से उनकी संपूर्ण प्रतिभा, क्षमता व गौरव की  परिणति होती है, क्योंकि मानव अपनी मातृभाषा में सुंदर, सशक्त व सारगर्भित भावाभिव्यक्ति कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा, प्रशासन व साहित्य लेखन पर बल दिया क्योंकि भाषा वह निर्मल नदी नीर है, जो अपनी राह में आने वाली बाधाओं से उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं होने देता। ऐसे स्वस्थ वातावरण में ही भाषाएं पूर्ण रूप से विकसित हो पाती हैं।

राष्ट्रीय संदर्भ में गांधी जी संपूर्ण भारत के लिए हिंदी को अंतर-जातीय, अंतर-क्षेत्रीय, अंतर-प्रादेशिक संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारते थे।वे क्षेत्रीय व जातीय अलगाव के विरोधी थे…उनकी अस्मिता- अस्तित्व को महत्ता प्रदान करते थे। वे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए जातीय अस्मिता के पक्षधर थे। वे भारतीय इतिहास व परंपरा के निमित्त हिंदी भाषा के राष्ट्रीय वर्चस्व को रेखांकित करते थे। गांधी जी के दृष्टिकोण को यदि मान्यता प्रदान की जाती, तो सत्तर वर्ष गुज़र जाने के पश्चात् भी हिंदी राजभाषा के रूप में ठोकरें न खा रही होती…वह राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान पा चुकी होती। देश में एक भाषा का प्रचलन होने से भारतीयता की पहचान बनती। परन्तु हिंदी को आज भी राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी,जबकि तुर्की में वहां की भाषा को मातृभाषा को अपनाने का आदेश जारी करते हुए कहा कि ‘जिन्हें तुर्की भाषा को अपनाने में आपत्ति है, वे चौबीस घंटे में देश छोड़कर जा सकते हैं।’ इस प्रकार तुर्की भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो गया। परंतु हमारा देश आज तक ऐसा फरमॉन जारी करने का साहस नहीं जुटा पाया। जिस देश की मातृभाषा नहीं होती, वहां राष्ट्रीय एकता की दुहाई देना मात्र ढकोसला है। मां व मातृभाषा सदैव एक ही होती है…इससे सबका मंगल होता है। यदि गांधीजी की राष्ट्रभाषा नीति को लागू कर दिया जाता तो जातीय व क्षेत्रीय भाषाएं भी स्वाभाविक रूप से विकसित हो पातीं और दक्षिण भारतीय भाषाएं इसकी राह में रोड़ा न अटकातीं।

सामाजिक सुधार: गांधी जी सामाजिक कुरीतियों का निराकरण करना चाहते थे ताकि सांप्रदायिक सद्भाव बना रह सके, जिसमें प्रमुख था… छुआछूत का निराकरण। छुआछूत भारतीय समाज का कोढ़ है, जिसका विरोध उन्होंने अपने आश्रम व जीवन में दलितों के प्रति सम्मान, समानता व भाईचारे की भावना को दर्शा कर किया। हरिजन की परिकल्पना, शूद्रों के प्रति सामाजिक न्याय की अलख जगाकर, उन्हें समान धरातल पर स्थापित करना, जाति-पाति के नाम पर शोषण के निराकरण के अंतर्गत गांधी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इससे देश में राष्ट्रीय चेतना अभूतपूर्व रूप से जाग्रत हुई और सामाजिक सद्भावना ने ह्रदय की कटुता को सौहार्द में परिवर्तित कर दिया, जिससे देश में व्याप्त अशांति व उथल- पुथल को विराम की प्राप्ति हुई।

गांधी जी रोगी व निर्बल की सेवा को पूजा रूप में स्वीकारते थे…विशेष रूप से कुष्ठ रोगियों को अवांछित व परित्यक्त न मानकर ,उनकी सेवा को मानवता की सेवा स्वीकारते थे।

गांधी जी राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ आदर्शवादी, धर्म-परायण, मूल्यों में आस्था रखने वाले, व्यावहारिक व बौद्धिक क्षमता की प्रतिमूर्ति थे। वे शोषण, समानता व अस्पृश्यता की समस्या को अर्थतंत्र से जोड़ कर देखते थे। वे जानते थे कि पूंजीवादी व्यवस्था किसान को मज़दूर बनने पर तो विवश तो कर सकती है, परंतु रोज़गार नहीं प्रदान कर सकती। इसलिए उन्होंने किसानों को बेरोज़गार मज़दूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए लघु उद्योग स्थापित करने तथा स्वदेशी अपनाने का सार्थक सुझाव दिया। वास्तव में यह उनमें आत्म- सम्मान जगाने का उपक्रम था, जो आत्मनिर्भरता का उपादान था। वे संगठन की परिभाषा से भली-भांति परिचित थे…जिसके लिए आवश्यकता थी, अपने भीतर की शक्तियों को पहचानने की। वैसे भी वे इस तथ्य से भी परिचित थे कि ज्ञान-विज्ञान द्वारा देश रूढ़ियों व अंधविश्वासों से मुक्त हो पाएगा। सो! वे स्त्री शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे तथा स्त्री-पुरुष में समानता का भाव चाहते थे, क्योंकि एक पक्ष के कमज़ोर होने पर समाज कभी भी उन्नत नहीं हो सकता।

गांधी जी भारतीय एकता के प्रबल साधक व सांप्रदायिक शक्तियों के विरोधी थे। अलगाववादी मुस्लिम नेतृत्व की कट्टरता व अड़ियलपन के कारण वे देश-विभाजन को रोक नहीं पाए। वहीं उनके राजनैतिक उत्तराधिकारिओं की स्वार्थपरता व नकारात्मकता भी इसके लिए उत्तरदायी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गांधी जी ने कांग्रेस के सर्वव्यापी आंदोलन को भंग करने और विभिन्न  विचारधाराओं के आधार पर,विभिन्न दलों के गठन का प्रस्ताव रखा, जिस पर अमल नहीं करने से, देश की यह दुर्गति-दुर्दशा हुई।

जहां तक भाषा का संबंध है, गांधी जी सरकारी कामकाज अंग्रेजी में बंद कर, हिंदी व प्रादेशिक भाषाओं के प्रति आग्रहशील थै। इसके साथ ही वे अछूत व सवर्ण के भेद को समाप्त कर, जातिगत विखण्डन को समाप्त करना चाहते थे, परंतु यह भी संभव नहीं हो पाया।

गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन स्वालंबन का पक्षधर था… शोषण मुक्ति, अहिंसा, अध्यात्मिक नैतिक सोच व देश की शक्तियों की मुक्ति का समायोजन था। परंतु पाश्चात्य प्रभाव के कारण पराश्रिता बढ़ गई। गांधी जी की इच्छा थी कि धनी, जाग़ीरदार, पूंजीपति स्वयं को स्वामी नहीं, न्यासी (ट्रस्टी ) मानें तथा जनहित में प्रबंधक व दैवीय दूत (एजेंट) के रूप में निष्ठा से कार्य करें। इसी कड़ी में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के सफल न होने का कारण भी निष्ठा का अभाव था। इन विफलताओं का मुख्य कारण उनके शिष्यों-उत्तराधिकारियों की नासमझी, नैतिक दुर्बलता, स्वार्थपरता व नकारात्मक सोच थी, जिस पर गांधी जी नियंत्रण नहीं रख पाये।

गांधी जी मानवता, नैतिकता, सामाजिक- प्रतिबद्धता, व राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना से संपन्न महान विभूति थे, जो जीवन पर्यंत जनहित में कार्यरत रहे…यही उन्हें विश्व में अद्भुत, विलक्षण व्यक्तित्व प्रदान करता है। गांधी जी के सरोकार, उनका संघर्ष व मानवतावाद हमें सामाजिक दायित्वों का स्मरण कराते हैं… हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में गांधी जी की प्रतिमा का लगाया जाना, उनके संघर्ष व सकारात्मक सोच के प्रति नतमस्तक होना है। यदि देश उनके सरोकारों को हृदय से स्वीकारता तो ऐसा होता…उनके सपनों का भारत। गांधी जी के ही शब्दों में ‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि भारत उनका देश है… जिसके निर्माण में उनकी आवाज़ का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें उच्च व निम्न वर्गों का भेदभाव नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों में मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार प्राप्त होंगे, जो पुरुषों को होंगे। शेष सारी दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा। यह है …मेरे सपनों का भारत।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ सपने में बापू ☆ डॉ कुन्दन सिंह परिहार

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(पूर्व प्राचार्य एवं वरिष्ठ  साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं  तथा समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं  / आकाशवाणी में आपकी रचनाएँ प्रकाशित / प्रसारित होती रहती हैं.  हम डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने  इस अवसर पर विशेष व्यंग्य  “सपने में बापू” प्रेषित किया.)
व्यंग्य – सपने में बापू  

उस रात सपने में बापू दिखे। बहुत कमज़ोर और परेशान। लाठी टेकते, कदम कदम पर रुकते। देख कर ताज्जुब और दुख हुआ। पहले भी दो चार बार दिखे थे। तब खूब स्वस्थ और प्रसन्न दिखते थे। आशीर्वाद की मुद्रा में हथेली उठी रहती थी।

थके-थके से बैठ गये। मैंने हाल-चाल पूछा तो करुण स्वर में बोले, ‘भाई, मैं यह कहने आया हूँ कि तुम लोग तो फेसबुक-वेसबुक इस्तेमाल करते हो। मेरी एक अपील डाल दो। मैं अब राष्ट्र पिता और बापू नामों से मुक्ति चाहता हूँ। मैं बहुत परेशान और दुखी हूँ। जीवित रहते तो मुझ पर एक ही बार गोली चली थी, अब तो रोज़ मेरी आत्मा को छेदा जा रहा है। कभी मेरी मूर्ति की नाक तोड़ी जा रही है, कभी चश्मा तोड़ा जा रहा है, कभी सिर ही तोड़ दिया जाता है। देश के लोगों से किसने कहा था कि मेरी मूर्तियाँ लगवायें? मूर्तियाँ लगवाकर मेरी दुर्गति की जा रही है।’

बापू कमज़ोरी के कारण थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘दरअसल इस देश की हालत उन गुरू जी जैसी हो गयी है जिन्होंने अपनी दो टाँगों की सेवा का जिम्मा अलग अलग दो शिष्यों को दिया था। शिष्यों में आपस में झगड़ा हो गया और उन्होंने बदला लेने के लिए एक दूसरे के हिस्से की टाँग पर लाठी बरसाना शुरू कर दिया। नतीजतन गुरू जी की दोनों टाँगें टूट गयीं। इसी तरह इस देश में लोग एक दूसरे के हिस्से की मूर्ति तोड़ रहे हैं। एक दिन इस देश में देवताओं की मूर्ति के सिवा कोई मूर्ति नहीं बचेगी।’

बापू फिर थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘अब इस देश को आज़ादी मिले सत्तर साल हो गये हैं। यह देश अब सयाना हो गया है। लोग भी सयाने, ज्ञानी हो गये हैं। अब इस देश को किसी पथप्रदर्शक या प्रेरणा-पुरुषों की ज़रूरत नहीं है। अब सब मूर्तियों को उठाकर संग्रहालयों में रख देना चाहिए। यहाँ मूर्तियाँ टूटती हैं तो सारी दुनिया देखती है और हम पर हँसती है। अपने हाथों अपनी फजीहत कराने से क्या फ़ायदा?’

बापू दुख में सिर झुकाकर आगे बोले, ‘अब लोग टीवी पर खुलकर बोलते हैं कि वे मुझे राष्ट्र पिता नहीं मानते। मुझ पर दोष लगाते हैं कि मैंने देश को बँटने दिया। मुझ पर गोली चलाने वालों की मूर्तियाँ और मन्दिर बन रहे हैं। मेरे चित्रों वाले नोटों का इस्तेमाल रिश्वत के लेनदेन में और काला धन बनाने में धड़ल्ले से हो रहा है। मेरी समाधि पर दुनिया भर का पाखंड हो रहा है। मेरी मूर्तियों के नीचे रोज़ धरने और मनमानी नारेबाज़ी हो रही है। इसलिए अब मुझे मुक्ति मिल जाये तो हल्का हो जाऊँगा।’

मैं भारी मन से उनकी बात सुनता रहा। वे फिर बोले, ‘यह मेरी अपील ज़रूर डाल देना। मुझे और दुखी मत करना। मुझे तुम पर भरोसा है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

डॉ सुरेश कान्त

 

(हम प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ सुरेश कान्त जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने इस अवसर पर अपने अमूल्य समय में से हमारे लिए यह व्यंग्य रचना प्रेषित की. आप  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. वर्तमान में हिन्द पाकेट बुक्स में सम्पादक हैं। आप भारतीय स्टेट बैंक के राजभाषा विभाग मुंबई में  उप महाप्रबंधक पद पर थे।  महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी  ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। आपकी कई  पुस्तकें प्रकाशित।)

☆ व्यंग्य – घोड़ा, न कि… ☆

 

शहर के बीचोबीच चौक पर महात्मा गांधी की मूर्ति लगी थी।

एक दिन देर रात एक राजनीतिक बिचौलिया, जिसकी मुख्यमंत्री तक पहुँच थी, उधर से गुजर रहा था कि अचानक वह ठिठककर रुक गया।

उसे लगा, मानो मूर्ति ने उससे कुछ कहा हो।

नजदीक जाकर उसने महात्मा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, और कि क्या वह उनके लिए कुछ कर सकता है?

महात्मा ने उत्तर दिया, “बेटा, मैं इस तरह खड़े-खड़े थक गया हूँ। तुम लोगों ने सुभाष, शिवाजी वगैरह को घोड़े दिए हैं…मुझे भी क्यों कुछ बैठने के लिए नहीं दे देते?…क्या तुम मुझे भी एक घोड़ा उपलब्ध नहीं करा सकते?”

बिचौलिए को दया आई और उसने कुछ करने का वादा किया।

अगले दिन वह मुख्यमंत्री को ‘शिकायत करने वाले’ महात्मा का चमत्कार दिखाने के लिए वहाँ लेकर आया।

मूर्ति के सामने खड़ा होकर वह बोला, “बापू, देखो मैं किसे लेकर आया हूँ! ये आपकी समस्या दूर कर सकते हैं।”

महात्मा ने मुख्यमंत्री को देखा और फिर नाराज होकर बिचौलिये से बोले, “मैंने तुमसे घोड़ा लाने के लिए कहा था, न कि…!”

 

© डॉ सुरेश कान्त

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

 

☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆

 

मैं बीच चौराहे पर बैठा था। मेरे साथ गांधी जी भी चौराहे पर थे। जहां गांधी, वहां देश। देश भी चौराहे पर था। इसे आप देश का गांधी चौराहा भी कह सकते हैं। मैं जिंदा था और किसी उजबक- सा आती -जाती भीड़ को देख रहा था। गांधी जी मूर्तिवान थे और भीड़ में से कुछ उजबक उन्हें देख रहे थे। और देश..! सत्तर वर्षीय देश को जो करना चाहिए वही कर रहा था। या कह सकते हैं जो करवाया जा रहा वह कर रहा था। सत्तर की उम्र होती ही ऐसी है।

मैं देश की आजादी के डेढ़ वर्ष बाद पैदा हुआ हूँ, और गांधी जी को पैदा हुए डेढ़ सौ वर्ष होने वाले हैं। अभी दो अक्टूबर दूर था इसलिये चौराहे पर साफ -सफाई कम थी और सजावट, विरोधी पार्टी-सी, खिसियाई हुई थी। मूर्ति पर बाढ़ का असर नहीं पड़ा था अतः धुलनी शेष थी।

देखा एक मार्ग से पांडेय जी आ रहे हैं। शेयर बाजार के सैंसेक्स-सी तेजी में थे।चेहरा आर्थिक मंदी में मिली राहत -सा प्रसन्न था।  मुझे देख मेरे पास आए, हाउडी किया और बोले–सब बढ़िया हो गया।’’

मैंने पाकिस्तानी स्वर में पूछा- क्या बढ़िया हो गया?’’

पांडेय जी आर्टीकल 370 के हटने की प्रसन्नता वाले स्वर में चहके-गांधी जी पर सेमिनार का बड़ा बजट अप्रूव हो गया।  बड़े-बड़े लोगों को बुलाऊंगा  और बड़े हॉल में गांधी जी पर बड़ा सेमिनार करवाऊंगा। बड़े लोग हवाई जहाज से आऐंगे, बढ़िया होटल में ठहरेंगे।  जल्दी में हूँ फिर मिलता हूँ… देखता हूं… तुझे भी शायद बुलाऊँ  … विराट आयेजन होगा ।’’ पांडेय जी ने मेरी ओर चुनावी आश्वासन-सा टुकड़ा फेंका। मुझे आज तक माता के विराट जगरातों के निमंत्रण मिले थे,… गांधी पर विराट आयोजन…

पांडेय जी सेमिनार प्रस्ताव के मार्ग से आए थे और विराट आयोजन की ओर चल दिए। मैं वहीं का वहीं चौराहे पर था। तभी देखा राधेलाल जी बगल में गांधी के विचारों की किताबों के बंडल से लदे आ रहे हैं। बोझ से इतने दबे थे कि ढेंचू भी नहीं बोल पा रहे थे। मैंने पूछा -अरे ! पूरी लाइब्रेरी लिए कहाँ जा रहे हैं?’’

गांधीवादी तोता बोला -कम्पीटिशनवा की तैयारी कर रहे हैं,न। गांधी पर बहुत कुछ पूछा जाने वाला है। बहुत कुछ रटना है। टाईमों नहीं है। कुछ जुगाड़ जमा सकते हो तो बोलो, रुक जाते हैं। हमका किसी तरह पास करवा दो …’’

मैंने कहा – आप तो जानते हैं राधेलाल जी कि मैं…’’

– हम खूब जानते हैं आपको मास्टर जी! आप तो गांधी के सिद्धांत ही पढ़ा सकते हो… बकरी की मेंमने हो… चलते हैं।’’

तोता जी चले गए और देशसेवा मार्ग से सेवक जी आ गए। सेवक जी शाम को स्कॉचमय होते हैं, इस समय खादीमय हो रहे थे, । दो अक्टूबर को हाथ भी नहीं लगाते। सब सेवक उन जैसे नहीं हैं। कुछ ने तो गांधी जी के आदर्श पर चलते पूरी तरह अपनी शराब बंदी कर ली है पर सत्ता का नशा नहीं त्यागा जाता। गांधी जी ने बहुत मार्ग बताए हैं, चलने के लिए। सब पर चलना कोई जरूरी है? अब गांधी जी ने कहा कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी भंग कर दी जाए… अब पार्टी भंग हो जाएगी तो हमारी देशसेवा का क्या होगा? प्रजातंत्र बर्बाद नहीं हो जाएगा!

दो मिनट मौन जैसा, सादगीपूर्ण  गांधी होना बहुत है। एक सौ पचासवें पर भी हो लेंगें। हर देशसेक अपनी पसंद के गांधी की महक से स्वयं को महका रहा है। गांधी जी का सत्य एक था पर गांधीवादियों के सत्य अनेक हैं। गांधीवादी अनेक हैं पर अनुयायी इक्का- दुक्का हैं। गांधी वोट-भिक्षा का साधन बन रहे हैं।

ब्लैक कैट से घिरे सेवक जी ने मुझ गरीब की ओर हाथ हिलाया और मुस्कराए जैसे बरसों से जानते हों। इससे पहले कि मैं उनके अभिवादन का उत्तर देता वे तेज कदम एक सौ पचास वाले राजमार्ग की ओर चल दिए।

चौराहे के चौथे मार्ग पर कुछ कुछ वीरानगी थी। उत्सुकतावश मैं उठा और उधर चल दिया। वहां जर्जर पड़ा आश्रम-सा मिला। जर्जर से आश्रम में जर्जर मनुष्य-से दिख रहे थे। वे न तो गांधीवादी थे और न गांधी के अनुयायी। इन अज्ञानियों को गांधी का ज्ञान भी न था, डेढ़ सौ वर्षीय उत्सव का ज्ञान कैसे होता! पर वे जी गांधी-सा जीवन रहे थे। वे अपना पखाना खुद साफ कर रहे थे। वे केवल लंगोटी जैसा कुछ पहने थे। वहां इक्का दुक्का बकरी भी मिमिया रही थी। वे आजादी से पहले के गांधी को, बिना जाने, जी रहे थे और आजाद हिंदुस्तान के  वोटर थे।

 

©  प्रेम जनमेजय

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ राजघाट का मूल्य ☆ श्री संजीव निगम

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री संजीव निगम

(सुप्रसिद्ध एवं चर्चित रचनाकार श्री संजीव निगम जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित. आप  हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के निदेशक हैं.  हिंदी के चर्चित रचनाकार. कविता, कहानी,व्यंग्य लेख , नाटक आदि विधाओं में सक्रिय रूप  से  लेखन कर रहे हैं. हाल में  व्यंग्य लेखन के लिए  महाराष्ट्र राज्य  हिंदी साहित्य अकादमी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार प्राप्त। कुछ टीवी धारावाहिकों का लेखन भी किया है. इसके अतिरिक्त 18  कॉर्पोरेटफिल्मों का लेखन भी। गीतों का एक एल्बम प्रेम रस नाम से जारी हुआ है.आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से 16 नाटकों का प्रसारण. एक फीचर फिल्म का लेखन भी.)

 

☆ व्यंग्य –राजघाट का मूल्य

 

बापू की समाधि पर एक मिनट मौन की मुद्रा में खड़े बाबू राम बिल्डर – सह- पार्टी पदाधिकारी ने अपनी झुकी गर्दन से टेढ़ी निगाहें चारों तरफ फेरीं और उनके कलेजे पर बोफोर्स दग गयी। करोड़ों रुपये की ज़मीन फ़ोकट में हथियाये क्या आराम से लेटे हैं बापूजी। यूँ जब तक जिए शरीर पर लंगोटी लपेटे देश की दरिद्रता का विज्ञापन बने रहे और मरने के बाद बड़े से कीमती पत्थर के नीचे लेट कर इतनी बेशकीमती ज़मीन पर पैर पसार लिए।

दिल्ली के बीचों बीच पड़ी इस भूमि का मूल्य आँकते आँकते बाबू राम जी के मुँह में मिनरल वाटर भर आया। ‘अगर ये ज़मीन हत्थे आ जाये तो क्या कहने? एक विशाल कमर्शियल सेंटर खड़ा हो जाए, स्विस बैंक में नए खाते खुल जाएँ और अरबों रुपये के करोड़ों डॉलर बन जाएँ।’

‘ पर यह सब इतना आसान कहाँ? ‘ बाबू राम जी का मौन समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुँह ऊपर उठा कर खद्दर के कुर्ते से अपनी आँखों में उतर आयीं निराशा की बूंदों को पोंछा। उनकी इस मुद्रा पर कैमरे किलके और समाचार पत्रों में छपने के लिए एक बेहतरीन फोटो तैयार हो गया, शीर्षक ” बापू की स्मृति को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि”.

आज़ादी के तुरंत बाद बाबू राम जी के स्वर्गीय पिताश्री ने नेहरू जी की अगुवाई में देश के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया था एक छोटी सी गैरकानूनी रिहायशी कॉलोनी बनाकर। उस  बस्ती के निर्माण के साथ ही उनकी जो विकास यात्रा आरम्भ हुई वह संकरी गली के एक कमरे से चलकर किराए के बंगले के चौराहे से घूमती हुई एक बड़ी किलेनुमा कोठी में जाकर समाप्त हुई।  अपनी भवन निर्माण संस्था की एक शाखा का स्वर्ग में उद्घाटन करने से पूर्व उन्होंने बाबू राम जी समेत पूरे परिवार को इस कर्मभूमि में पूरी ताकत के साथ झोंक दिया था।

उनके स्वर्गीय होने पर बाबू राम जी ने मोर्चा सम्भाला था।

बाबू राम जी ने अपने सेनापतित्व में अपने उद्योग को राजनीति  से बड़ी बारीकी से जोड़ते  हुए अपने विकास प्रवाह को अखंड सौभाग्य का गौरव प्रदान किया था।  उद्योग व राजनीति के इस गठबंधन ने बड़े बड़े विरोधी बिल्डरों के सिर घोटालों की तरह से फोड़ दिए और बाबू राम जी उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ते रहे।  इसी क्रम में वे हर बार सत्ता में आई पार्टी के प्रमुख व्यक्ति बने रहे और साथ साथ अन्य पार्टियों को भी समान भाव से उपकृत करते रहे।  इसलिए उनके द्वारा प्रस्तुत भवन निर्माण के प्रस्ताव हमेशा सर्व सम्मति से पास होते रहे।

इन्हीं सफलताओं की पृष्ठभूमि में बाबू राम जी की पीड़ा अधिक हो गयी। सिर पर रखी गाँधी टोपी उतार कर उससे पसीना पोंछा और टोपी वापस सिर पर रखने की बजाय जेब में डाल ली। जब गाँधी जी मरने के बाद भी इतना दुःख पहुँचा रहे  हैं तो उनके नाम वाली टोपी का बोझ ढोने का क्या मतलब है ?

एक बार उनके मन में आया भी कि  यह अनुपम योजना पास खड़े शहरी आवास मंत्री के कान में फूंक दें पर फिर यह सोच कर चुप रह गए कि आज़ादी के पचास साल और पाँच चुनाव लड़ने के बाद भी गाँधी के नाम की धुन बजाते रहने वाला यह राजनैतिक बैंडवाला अभी ज़ोर ज़ोर से ‘ पूज्य बापूजी, पूज्य बापूजी ‘ का ढोल पीटने लगेगा और सबके सामने अपने आपको चड्ढी बनियान की गहराई तक गाँधीवादी साबित करने लगेगा।  इस तरह यहाँ तो सबके सामने बेइज़्ज़त कर देगा, बाद में भले ही रात को घर आकर पैर छू लेगा तथा इतने अच्छे प्रस्ताव के लिए कुछ न कर पाने के गम में काजू के साथ दारु निगलेगा।

समाधि पर भजन चल रहे थे।  देश  के जागरूक नागरिक दरियों पर बैठे ऊँघ रहे थे पर बाबू राम जी थे कि अफ़सोस भरी आँखें फाड़े चारों तरफ बिछी इस शस्य श्यामला भूमि को निहार रहे थे।  काश यह ज़मीन उनके हाथ आ जाए तो कितना भव्य ‘ गाँधी कमर्शियल  सेंटर’ तैयार हो जाए जिसके बेसमेंट में गाँधी जी की समाधि रखी जाए।  इसी बहाने कमर्शियल सेंटर तक विदेशी पर्यटक भी  खूब आएँगे।

निकट भविष्य में तो उन्हें अपनी यह योजना सफल होती नज़र नहीं आ रही है। इसलिए राजघाट से घर वापिस लौटते समय उन्होंने सोचा कि यह योजना गोपनीय रूप से अपने बच्चों -पोतों के लिए विरासत में छोड़ जाएँगे। यदि कभी रूस से साम्यवाद की तरह से इस देश से गाँधीवाद सिमटा तो उनकी यह परिवार कल्याण योजना अवश्य सफल होगी और उनके बच्चे पोते उनकी स्मृति में सोने के पिंड दान करेंगे।

 

© संजीव निगम

मोबाईल : 09821285194
ईमेल.: [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे ☆ श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

 

(श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी पूर्व प्राचार्या एवं प्रसिद्ध  साहित्यकार हैं .  आप प्रलेसं सचिव मंडला सदस्य  हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. अपना अमूल्य समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार. )

व्यंग्य – गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे

 

2 अक्टूवर 2019को हम महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन मना रहे हैं । हेप्पी बर्थ डे गांधी जी । बहुत बहुत बधाई आपको । क्या कहा -आपने भला मरने के बाद कोई ज़िंदा रहता है! हां, पर गांधी ज़िंदा है । वे अमर हैं । अभी आपने देखा नहीं वे अमरीका के ह्यूस्टन में हाऊडी मोदी कार्यक्रम में प्रकट हो गये । जहां भी जाते गांधी जी तन के खड़े हो जाते । भयातुर हो वे जल्दी जल्दी माला पहिनाते और परे हट जाते । भला सच के सामने झूठ आंख कैसे टिका सकता है ।

बहरहाल हम सब जानते हैं उन्हें एक हिंदुत्ववादी नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा में जाते हुए गोलियों से भून दिया था । उनका देहान्त हो गया । वे धरा पर प्राप्त अपना पूरा जीवन नही जी पाए । हमारे यहां कहा जाता है कि जो हत्या या आत्महत्या से मरता है उसकी आत्मा भटकती रहती है । सचमुच गांधी की आत्मा भटक रही है ।लगता है उनका तर्पण तब तक नहीं होगा जब तक गांधी अपने देश को खुशहाल नहीं देख लेते !

इधर देश के हालात देखकर तो यह कयास लगाया जा सकता है कि वे लंबी अवधि तक टस से मस होने वाले नहीं हैं । सत्य  अहिंसा का पुजारी सत्य देख रहा है। नैतिकताओं का कहीं ओर-छोर नहीं । आदर्श तो उपहास की विषयवस्तु बन गया है । भाई-चारा की धज्जियां उड़ रहीं हैं। वैष्णव जन पराई पीर बढ़ाने में रत है । संवेदनाएं उड़न छू हो गई हैं । वर्ग भेद के क्या कहने! सफाई अभियान का नज़ारा तो इतना भयातुर कर गया कि दो दलित बच्चों पर कहर बरपा गया । जहां तक शांति का सवाल है चहुंओर दहशतज़दा शांति है, बड़ी संख्या में  सियार और कुत्तों की आवाजें सुनाई दे रही है । कई बाबा जैसे महात्मा जेल में सुकून से हैं । बलात्कार के अपराधी बेल पर हैं और बलात्कार पीड़िता जेल में हैं । मीडिया बिकाऊ है । अभिव्यक्ति पर पहरा है। लेखक पत्रकारों की कलम की ताकत को चट करने उतारू है । नन्हीं बच्चियों से लेकर वृद्ध महिला भी हवस का सामान है । बेरोजगारी  चरम पर है ।  मंहगाई और अमीर बनने की कामना ने इंसानी रिश्तों को तार तार कर रखा है । आपके रामराज्य की चूलें हिला दी गई हैं । कितना बदल गया हिंदुस्तान !अब न्यू इंडिया बन रहा है । तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना स्वरुप बदल रही हैं ।

हरि अनन्त हरि कथा अनंता । ये शिकायत है कि हमारे हर कार्य में आप बाधक हैं । कैसे करें देश का भला । अब आप सोचिए आपसे राष्ट्र पिता का दर्जा भी छिनने की पूरी तैयारी है आपको जनता ने ख़िताब बख्शा और…. । साम-दाम दंड-भेद की नीति को सब  बख़ूबी जानते हैं । कैसे आपका सपना यहां पूरा होगा ?

होगा ज़रूर होगा । आकाश वाणी हुई । मैं समझ गई गांधी कहीं नहीं जाने वाले। उनका इस्तकबाल करें । बेशक विचार कभी नहीं मरते और जनगर्जन जब होता है तो बड़े-बड़े सूरज अस्त हो जाते हैं । गांधी ज़िंदा है और सर्वदा रहेंगे । जन्मदिन मुबारक बापू ।

 

© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

मंडला

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.   आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.)

 

☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆

 

शिकायत का अर्थ क्या है? किसी के अनुचित या नियम विरुद्ध व्यवहार के फलस्वरूप मन में होनेवाला असंतोष, उक्त असंतोष को दूर करने के लिए संबंधित अथवा आधिकारिक व्यक्ति से किया जानेवाला निवेदन, किसी के अनुचित काम का किसी के सम्मुख किया जानेवाला कथन, दंडित करवाने के उद्देश्य से किसी की किसी दूसरे से कही जानेवाली सही या गलत बात आदि को हम शिकायत के रूप में वर्गीकृत कर सकते है।

आज से सौ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक जन शिकायत ने हमारे देश की दिशा व दशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित की। इस जन शिकायत को सुनने उसे स्वीकार करने, जाँच किए जाने का निर्णय लेने व जाँच प्रतिवेदन प्रस्तुत करने आदि का यदि समुचित अध्यन किया जाये तो हम शिकायत निराकरण के वास्तविक उद्देश्य को बखूबी प्राप्त कर सकते हैं। यह शिकायत चंपारण (बिहार) के किसानों के द्वारा महात्मा गांधी से की गई थी। चम्पारन गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा हुआ है। चंपारण जिले में नीलवरों (निलहे गोरे) अंग्रेज प्राय: एकसौ बरसों से नील की खेती करवा रहे थे। प्राय: सारे चंपारण जिले भर में जहाँ कहीं नील की अच्छी खेती होती वहाँ अंग्रेजों ने नील के कारखाने खोल लिए, खेती की ज़मीनों पर कब्जा कर लिया था। चंपारण जिले के बहुत सेaर्कों का उपयोग कर निलहे गोरों ने इस प्रथा को कानूनी स्वरूप दे दिया था। प्रति बीघा पाँच कट्ठे या तीन कट्ठे क्षेत्र में किसानों को नील बोना ही पड़ता था। इसे  पाँच कठिया या तीन कठिया प्रथा कहा जाता था। जो किसान नील की खेती करने से इंकार कर देते उन पर बहुत अत्याचार किए जाते। उनके घर व खेत लूट लिए जाते। खेत में जानवरों को चरने के लिए छोड़ दिया जाता। झूठे मुक़दमे में फसा दिया जाता। जुर्माना लगाया जाता। मार पीट की जाती।

जब गांधीजी दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में शामिल हुये तब वहाँ चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनसे मिले व वहाँ का हाल उन्हे सुनाया।  अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में गांधीजी लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस  में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई । सभी ने गांधीजी से आग्रह किया कि निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ वे एक प्रस्ताव कांग्रेस में प्रस्तुत करें। गांधीजी ने यह कहते हुये इससे इंकार कर दिया कि वे जब तक वहाँ की स्थिति देखकर और जाँच कर स्वयं को संतुष्ट नहीं कर लेते कोई  प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं करेंगे। उन्होने  किसानों को शीघ्र ही चंपारण आने का आश्वासन दिया। गांधीजी अपनी आत्म कथा में लिखते हैं “ कहाँ जाना है, क्या करना है, और क्या देखना है, इसकी मुझे जानकारी न थी। कलकत्ते में भूपेनबाबू के यहाँ मेरे पहुँचने के पहले उन्होने वहाँ डेरा डाल दिया था। इस अपढ़, अनगढ़ परंतु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया था।“ गांधीजी कलकत्ता से राजकुमार शुक्ला के साथ अप्रैल 1917 में चंपारण के लिए रवाना हुये। गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण में निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों व शोषण की शिकायत की जाँच में अपनाई गई प्रक्रिया आज भी प्रासंगिक है। उनके द्वारा चंपारण में की गई जाँच कार्यवाही निम्नानुसार चली।

 

  • राजकुमार शुक्ला के साथ गांधीजी पटना में डाक्टर राजेंद्र प्रसाद के घर उनकी अनुपस्थिति में पहुँचे एवं राजेंद्र प्रसाद जी के नौकर ने उन्हे एक देहाती मुवक्किल समझ कर बड़ा रूखा व्यवहार किया, कोई आदर सत्कार नहीं किया। लेकिन इसे गांधीजी ने अन्यथा नहीं लिया और न ही राजेंद्र प्रसाद जी से बाद में मिलने पर कोई शिकवा शिकायत की।
  • पटना से गांधीजी मुजपफरपुर होते हुये चंपारण जिले के मुख्यालय मोतीहारी 15 अप्रैल 1917 को  पहुँचे। गांधीजी स्थानीय भाषा व बोली से अपरिचित थे। किसानों की बात ठीक ठीक समझी जा सके अत: उन्होने सहयोग के लिए आचार्य कृपलानी को अपने साथ ले लिया व ब्रजकिशोर बाबू एवं डाक्टर राजेंद्र प्रसाद आदि को बुलावा भेज दिया।
  • चंपारण जिले के मुख्यालय में शुरू में गांधीजी एक वकील के घर में ठहरे। बादमें उन्होने एक बड़ा आहाता किराये पर लिया ताकि पीढ़ित किसान निर्भय होकर उनसे मिल सकें।
  • गांधीजी चंपारण के किसानों की हालत व निलहे गोरों के विरुद्ध उनकी शिकायतों में कितनी सच्चाई है इसकी जाँच करना चाहते थे। किन्तु किसानों से संपर्क करने के पहले उन्होने यह आवश्यक समझा कि वे निलहे गोरों व जिले में पदस्थ अग्रेज़ सरकार के उच्च अधिकारी (कमिश्नर) से मिल ले। इस हेतु उन्होने निलहे गोरों की संस्था प्लांटर्स असोशिएशन व कमिश्नर दोनों को पत्र लिखा। यद्द्पि इन दोनों से उन्हे कोई विशेष सहयोग प्राप्त नहीं हुआ और उसकी जगह धमकियाँ मिली।
  • गांधीजी मोतीहारी के पास स्थित एक गाँव जा रहे थे जहाँ एक किसान का घर निलहे गोरे द्वारा लूट लिया गया था,  किंतु रास्ते में ही उन्हे कलेक्टर का आदेश मिला की वे जिला छोड़कर चले जाएँ। गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया।
  • गांधीजी के चंपारण पहुँचने के बाद शिकायतकर्ता किसानों के दिल से डर ख़त्म हो गया। जो शोषित किसान अदालत जाने से भीं डरते थे वे गांधीजी के पास बहुत बड़ी संख्या में आकर निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे शोषण, अत्याचारों व जुल्मों के बारे में बताने लगे। गांधीजी में उन्हे अपना उद्धारक दिखाई दिया।
  • इस प्रकार चंपारण में जाँच कार्यवाही शुरू हो गई। 20-25 हज़ार किसानों के बयान दर्ज़ किए गए। बयानों से पता चला की जो जुल्म पूर्व में सुने गए थे हालात उससे भी बदतर थे।
  • किसानों के बयान दर्ज करने का कार्य स्थानीय वकील करते थे। गांधीजी ने बयान दर्ज करने वाले वकीलों से कह रखा था कि बयान स्वीकार करने के पूर्व उसकी सत्यता को सुनिश्चित करने हेतु किसानों से आवश्यक प्रश्न जिरह आदि  अवश्य करे ताकि कोई गलत बयानी न कर सके। जिसकी बात मूल में ही बेबुनियाद मालूम हो उसके बयान न लिखे जाएँ।
  • बयान दर्ज करते समय यदि कोई विशेष सूचना मिलती तो उसे तत्काल ही गांधीजी के ध्यान में लाया जाता अन्यथा लिखित बयान समय समय पर गांधीजी को दे दिये जाते और वे उसका बड़ी बारीकी से अध्ययन करते।
  • अनेक बार गांधीजी अपने सहयोगियों व किसानों को साथ लेकर पीढ़ित किसान के गाँव जाकर वस्तुस्थिति की प्रत्यक्ष जाँच भी करते।
  • गांधीजी के नेतृत्व में चल रही इस जाँच कार्यवाही में अंग्रेजी सरकार के अधिकारी, कर्मचारी व खुफिया पुलिस अप्रत्यक्ष रूप से अड़ंगा डालने की कोशिश करते। गांधीजी ने इसे कभी भी अन्यथा नही लिया और न ही उनका कोई विरोध किया अथवा उन्हे कार्य स्थल से दूर चले आने को कहा।
  • एक बार एक निलहे गोरे ने गांधीजी को प्रभावित करने के लिए अपने गाँव बुलाया व 3-4 किसानों से अपनी प्रसंशा करवाई। गांधीजी इससे कतई प्रभावित नही हुये उल्टे उन्होने अन्य उपस्थित किसानों से ही वास्तविकता की जानकारी ले निलहे गोरे व वहाँ उपस्थित अग्रेज़ सरकार के अधिकारी का मुख बंद कर दिया।
  • जाँच कार्यवाही के दौरान जहाँ गांधीजी का व्यवहार शिकायतकर्ता किसानो के साथ सहानुभूतिपूर्ण था, वहीं उनके संबंध निलहे गोरों के साथ मित्रतापूर्ण थे। वे अक्सर उनका आतिथ्य स्वीकार करते थे और उनका पक्ष भी सुनते थे।
  • प्रारंभ में गांधीजी चंपारण की स्थिति जानने के लिए वहाँ एक या दो दिन ही रुकना चाहते थे किन्तु विषय की व्यापकता व गंभीरता को देखते हुये वे काफी लंबे समय तक मोतीहारी में ठहरे व जाँच की कार्यवाही पूरी की। गांधीजी का मोतीहारी प्रवास अप्रैल 1917 से सितंबर 1917 तक रहा।
  • इस जाँच का परिणाम यह हुआ कि सरकार ने एक कमीशन बनाया जिसमे किसानों के अलावा जमींदारों, मालगुजारो, निलहे गोरों के प्रतिनिधि भी शामिल किए गए। गांधीजी भी इसके सदस्य बनाए गए। कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने किसानों के पक्ष में अनेक फैसले लिए जिनसे निलहे गोरे भी सहमत हुये।

गांधीजी ने चंपारण जिले के गांवो के अपने दौरो से किसानों की इस दुर्दशा का कारण जानने का भी प्रयास किया। उन्होने पाया कि किसानों में गरीबी का एक कारण शिक्षा, स्वच्छता व स्वास्थ के प्रति जागरूकता की कमी है। इन कमियों के निराकरण हेतु उन्होने विशेष प्रयास कर प्रारंभ में छह गांवो में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया।  प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा वितरण और सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ाने का काम किया जाने लगा।

इस पूरी जाँच का नतीजा हुआ कि तीन/ पाँच कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ति मिली। इस संबंध में आवश्यक कानून बनाने हेतु  अंग्रेज सरकार पर दबाब पड़ा। निलहे गोरों का रौब ख़त्म हुआ। किसानों में हिम्मत आई। वे अब और जुल्म सहने के लिए तैयार नही थे। जब जुल्म बंद हो गया तो शोषण भी ख़त्म हो गया तो नील का कारोबार  मुनाफे का व्यवसाय नहीं रह गया और निलहे गोरे धीरे धीरे कुछ ही सालों में अपनी चल अचल संपत्ति ,जमीन जायदाद, कोठियाँ आदि बेच चंपारण छोड़ कर चले गए। देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे अनेक लगनशील नेता मिले। बिहार में शैक्षणिक, सामाजिक व राजनैतिक उत्तकर्ष की नई बयार बहने लगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ अहिंसा का दूत ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  की 150 वे गाँधी जयंती पर यह विशेष कविता. )

☆ कविता – अहिंसा का दूत ☆

 

अहिंसा का दूत एक

चला लकुटिया टेक

सर्वोदय की मांग लेकर

ज्ञान का भाल लेकर

चरखा चला कातता सूत

खादी का संदेश लेकर

साबरमती का साधु संत

करने चला शत्रु का अंत

चला बदलने देश को

भारत के परिवेश को

 

आजादी का परवाना

सत्याग्रह का साथ लेकर

असहयोग आंदोलन को

महिला शिक्षा नीति को

घर घर पहुंचाने को

अहिंसा नीति के बल पर

स्वावलंबन की ज्योति से

राम राज्य की तर्ज पर

जीवन का उत्सर्ग कर

देश को आजाद कर गया।

 

अस्पृश्यता को दूर कर

आत्मानुशासन के बल

सत्य की तलवार लेकर

नैतिकता की ढाल पर

अड़ा रहा मार्ग पर

अहिंसा के द्वार पर

देश प्रेम के बल पर

आदर्श बन युवाओं का

हर प्रहार सह गया

वीर गति पा गया।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। प्रस्तुत है उनका  महात्मा गांधी जी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय संस्मरण  “पकुआ के घर गाँधी जी !” )

☆ संस्मरण – पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ 

 

महात्मा गांधी और कबीर दोनों ही अस्पृश्यता – निवारण के पैगम्बर थे। दोनों ने छुआछूत का विरोध किया था, ऊंच – नीच, छोटा – बड़ा तथा गरीब – अमीर में अन्तर नहीं मानते थे। पकुआ नारायणगंज में रहता था मस्त ढपली बजाता, भले नीची जाति का था पर अंदर से सबका प्यारा था। उसने सपने भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन उसकी घास-फूस की झोपड़ी में महात्मा गांधी आयेंगे।

जब हमारी शाखा प्रबंधक के रूप में नारायणगंज (जिला- मंडला) में पदस्थापना हुई तो अचानक हमें याद आया कि बहुत पहले मैने कहीं किसी किताब में पढ़ा था कि वर्ष 1933-1934 में महात्मा गाँधी नारायणगंज की हरिजन बस्ती में पकुआ के घर आये थे, वहां से उन्होंने छुआछुत की बीमारी दूर करने का प्रयोग किया था, ये बात नारायणगंज पहुचने के बाद लगातार याद आती रही और लगता रहा की वह स्थान देखने मिल जाता जहाँ पर महात्मा गाँधी ने पकुआ के हाथ से पानी पिया था और हरिजन बस्ती में छुआछूत पर भाषण दिया था।

जबलपुर के स्वतंत्रता सेनानी ब्यौहार राजेंद्र सिंह की नारायणगंज में मालगुजारी थी वहां बियाबान जंगल के बीच में उनकी पुराने ज़माने की कोठी थी । जब महात्मा गांधी 1933-1934 में जबलपुर आये थे तो ब्यौहार राजेंद्र सिंह के अनुरोध पर गांधी जी नारायणगंज गाँव एवं जंगल देखने के लिए तैयार हुए। ब्यौहार राजेंद्र सिंह 6 दिसम्बर 1933 को नारायणगंज गांधी जी को लेकर आये थे। पुराने जमाने की कोठी में आराम करने के बाद गांधी जी हरिजन बस्ती में पकुआ हथाले के घर जाकर बैठे और  पकुआ के हाथों से स्थानीय सवर्णों और उच्च जाति के लोगों को पानी पिला कर छुआछुत की प्रथा को समाप्त करने का प्रयोग किया था ।

मैने स्टेट बैंक नारायणगंज में 2005 में शाखा प्रबंधक के रूप में कार्यभार लिया तो गांधी जी याद आये और याद आया उनका नारायणगंज प्रवास। तब से हम व्याकुल रहते कि कहाँ है वह जगह जहाँ गांधी जी बैठे थे ? परन्तु नई पीढी के लोग यह मानने को राजी ही नहीं थे कि महात्मा गांधी नारायणगंज आये थे । जिससे भी हम पूछ-ताछ करते सभी को ये बातें झूठी लगती, नयी पीढी के लोग मजाक बनाते कि बैंक में इस बार ऐसा मैनेजर आया है जो नारायणगंज में महात्मा गांधी और कोई पकुआ को खोज रहा है । बस्ती में तरह-तरह के लोगों से पूछते-पूछते हम हैरान हो गए थे, किसी को पता नहीं था न कोई बताने को राजी था । नारायणगंज जबलपुर-रायपुर रोड पर स्थित है।  वहां का रसगुल्ला बड़ा फेमस हुआ करता था मिट्टी की हंडी में यात्री ले जाते थे। रसगुल्ला वाली होटल बड़ी पुरानी थी तो उसके मालिक से पूछा कि 1933-34 में महात्मा गांधी नारायणगंज आये थे कुछ आइडिया है तब उसने बताया कि हमारे सयाने भी ऐसा कहते थे। किताब में पढ़ी बात पर थोड़ा सा भरोसा बढ़ा। फिर कई बार गांधी जी सपने में आते और पूछते, क्या हुआ पकड़ में आये गांधी कि नहीं।

एक दिन शाखा में बहुत भीड़ थी। हॉल खाचा खच भरा हुआ था, एक फटेहाल ९५ साल की बुढ़िया जिसकी कमर पूरी तरह से झुकी हुई थी मजबूर होकर मेरे केबिन की तरफ निरीह नजरों से देख रही थी, नजरें मिलते ही हमने तुरंत उसे केबिन में बुलाकर बैठाया, पानी पिलाया चाय पिलाई वह गद-गद सी हो गई, उसकी आँखों में गजब तरह की खुशी और संतोष के भाव दिखे, उसकी ४००/ की पेंशन भी वहीँ दे दी गई, फिर अचानक  गांधी जी और पकुआ याद आ गए, हमने तुरंत उस बुढ़िया से पकुआ के नाम का जिक्र किया तो वह घबरा सी गई उसके चेहरे में विस्मय और आश्चर्य की अजीब छाया देखने को मिली, जब हमने पूछा कि इस गाँव में कोई पकुआ नाम का आदमी को जानती हो? तो हमारे इस प्रश्न से वह अचकचा सी गई और सहम गई कि क्या पकुआ के नाम पर बैंक में कोई पुराना क़र्ज़ तो नहीं निकल आया है तो उसने थोड़ी अनभिज्ञता दिखाई परन्तु वह अपने चेहरे के भावों को छुपा नहीं पाई, धोखे से उसने कह ही दिया कि वे तो सीधे-साधे आदमी थे उनके नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता ! मैं उछल गया था ऐसा लगा जैसे अपनी खोज के लक्ष्य तक पहुच गया, मैने तुरंत फेमस रसगुल्ला बुलवाया और उसे चाय पानी से खुश किया।

गरीब हरिजन परिवार की 95 साल की बुढ़िया के संकोच और संतोष ने हमें घायल कर दिया था हमने कहा कि पकुआ के नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता, हम सिर्फ यह जानना चाहते है कि इस गाँव में कोई पकुआ नाम का आदमी रहता था जिसके घर में ७५ साल पहले महात्मा गांधी आये थे, हम यह सुनकर आवक रह गए जब उसने बताया कि पकुआ उसके ससुर (father’s in law ) होते है, उसने बताया कि उस ज़माने में जब पकुआ की ढपली बजती थी तो हर आदमी के रोंगटे खड़े हो जाते थे,पकुआ हरिजन जरूर था पर उसे गाँव के सभी लोग प्यार करते थे। गाँव में उसकी इज्जत होती थी, बस ये बात जरूर थी कि छुआछूत का इतना ज्यादा प्रचलन था कि जहाँ से पकुआ ढपली बजाते हुए निकल जाता था वहां का रास्ता बाद में पानी से धोया जाता था, उस ज़माने में हरिजनों को गाँव के कुएं से पानी भरने की इजाजत नहीं होती थी, जब मैने उस से पूछा कि ७५ साल पहले आपके घर कोई गांधी जी आये थे क्या? तब उसने सर ढंकते हुए एवं बाल खुजाते हुए याद किया और कहा हाँ कोई महात्माजी तो जरूर आये थे पर वो महात्मा गांधी थे कि नहीं ये नहीं मालूम !

मैने पूछा कि क्या पहिन रखा था उन्होंने उस समय ? तब उसने बताया कि हाथ में लाठी लिए और सफेद धोती पहिने थे गोल गोल चश्मा लगाये थे। उस समय उस महात्मा ने गाँव में गजब तमाशा किया था कि पकुआ के हाथ से सभी सवर्णों को पानी पिलवा दिया था, सबने बिना मन के पानी पिया था और कुछ को तो उल्टी भी हो गई थी बाद में हम ही ने सफाई की थी….. मैं दंग रह गया था मुझे ऐसा लगा मैने बहुत बड़ी जंग जीत ली है, साल भर से गली- गली गाँव भर में सभी लोगों से पूछता फिरता था तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे।  आज मैने उस किताब में लिखी बातों को सही होते पाया, मैने उस दादी से सभी तरह की जानकारी ले डाली उसने बताया था कि ७५ साल से हमारा परिवार भुखमरी का जीवन जी रहा है हम सताए हुए लोग है आप को ये क्या हो गया जो हमारी इतनी आव-भगत कर रहे है आज तक किसी ने भी हमारी इतनी परवाह नहीं की न ही किसी ने हमे मदद की। कल  की रोटी का जुगाड़ हो पता है या नहीं ऐसी असंभव भरी जिन्दगी जीने के हम आदी हो गए है, लड़के बच्चे पैसे के आभाव में पढ़ नहीं पाए थोड़ी बहुत मजदूरी कर के गुजरा चलता रहा है एक होनहार नातिन जरूर है जो होशियार है।  अभी एक राज्य स्तर की खेल प्रतियोगिता में पैसे के आभाव में भाग नहीं ले सकी, राजधानी खेलने जाना था।

अचानक मुझे याद आया कि हमारे चेयरमेन साहेब  ने होनहार गरीब बच्चियों को गोद लेकर उनके हुनर को खोज कर उनके होसले बुलंद करने की एक योजना “Girl Adoption Scheme” निकली है मैने तुरंत अपने स्टाफ को उस दादी के घर भेज कर उसकी नातिन नेहा ह्थाले को बुलाया, और तुरंत नियंत्रक से दूरभाष पर बात कर के नेहा को इस योजना में शामिल कर लिया।  उनके चेहरों में आयी खुशी को देख कर मुझे पहली बार महसूस हुआ कि वास्तव में खुशी का चेहरा कैसा होता है? मुझे गांधी जी और पकुआ लगातार याद आ रहे थे। और फिर ऐसे पकड़ में आये गांधी जी………..।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ बापू ☆ श्री सुजित कदम

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की  प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं । इस अवसर पर श्री कदम जी की इस कविता के लिए हार्दिक आभार. ) 

बापू

 

तुमच्या स्वप्नातला देश बापू

खूप खूप लांब राहिलाय.

तुमच्या स्वप्नातला भारत  आता

*खळ्ळ खट्याक* झालाय.

तुमची  अहिंसेची तत्व आता

कुणी सुद्धा पाळत नाय.

तुम्ही सुद्धा बापू

असं राजकारण करायला हवं होतं

स्वतःपुरते स्वातंत्र्य ठेवून

बाकीच्यांना गुलाम म्हणूनच

राहू द्यायला हवं होतं.

बापू,  तुमची किंमत हल्ली

आता पैशामध्येच होते.

मोठा छोटा गांधी म्हणून

ओळख तुमची होते.

तुमची अशी  अवहेलना

खरच आता पहावत न्हाय.

काय सांगू बापू

तुमच्या नावाचे कागदी घोडे हल्ली

लाॅकरमध्येही मावत नाय.

तुमच्या फोटोच्या

भ्रष्टाचाराच्या इथे नको इतक्या पावत्या  आहेत

तरीही त्याच्या सभ्यतेचे पेपरमध्ये

भले मोठे थाट  आहेत.

बापू,  शेतातला शेतकरी  आता

फासावरती दिसू लागलाय

उपोषणाने कित्येकांचा

रोजचा बळी जाऊ लागलाय.

बापू तुमच्या स्वप्नातला देश

खूप खूप बदललाय.

माणसा माणसातला जातीयवाद

आता नको इतका पेटलाय.

आणखी बरच काही बापू

तुमच्याशी बोलायचं राहून गेलं

*मोहनदास करमचंद गांधी*

इतकच नाव काळजात राहून गेलं. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

मो.7276282626

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