हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #14 – आइये पर्यावरण बचाएं ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

यह आलेख आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी ने पर्यावरण दिवस की दस्तक पर लिखा था किन्तु, यह आलेख उस पल तक सार्थक एवं सामायिक दर्ज होना चाहिए जब तक हम पर्यावरण को बचाने में सफल नहीं हो जाते.  अब तो यह आलेख प्रासंगिक भी है. अभी हाल ही में 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुश्री ग्रेटा थनबर्ग जी  ने  संयुक्त राष्ट्र के उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन के दौरान अपने भाषण से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व के बड़े नेताओं को झकझोर दिया.यदि अभी भी हम सचेत नहीं हुए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

 – हेमन्त बावनकर 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 14☆

 

☆ आइए पर्यावरण बचाएं ☆

 

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 17 – लघुकथा – दयालु लोग ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. अक्सर  समय एवं परिवेश बच्चों की विचारधारा को भी परिपक्व बना देता है. आज प्रस्तुत है  उनकी एक ऐसी ही लघुकथा  “दयालु लोग” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 17 ☆

 

☆ लघुकथा – दयालु लोग ☆

मिसेज़ लाल के घर महीना भर पहले नयी बाई लगी है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन के लिए। बाई अच्छी है लेकिन दुबली-पतली, बीमार सी है। इसलिए कभी खुद आती है, कभी अपनी बारह-चौदह साल की बेटी गिन्नी को भेज देती है।

मिसेज़ लाल काम के मामले में काफी सख्त हैं, हर काम को बारीकी से देखती हैं। बड़ी सफाई-पसन्द हैं। लेकिन काम खत्म होने के बाद बाइयों के प्रति उदार हो जाती हैं। चाय पिला देती हैं और घर-परिवार के बारे में फुरसत से गप भी लगा लेती हैं।

बाई के काम पर लगने के कुछ दिन बाद ही मिसेज़ लाल की आठ साल की बेटी का जन्मदिन आया। जन्मदिन का आयोजन हुआ। मिसेज़ लाल बाई से बोलीं, ‘शाम को गिन्नी को भेज देना। वो भी डॉली के बर्थडे में शामिल हो लेगी।’

शाम को जन्मदिन मनाया गया, सब बच्चे आये, लेकिन गिन्नी नहीं आयी। दूसरे दिन मिसेज़ लाल ने बाई से शिकायत की, ‘कल गिन्नी नहीं आयी?’

बाई संकोच में हँसकर बोली, ‘हाँ, नहीं आ पायी।’

लेकिन मिसेज़ लाल के मन में नाराज़ी थी कि उनकी उदारता के बावजूद गिन्नी नहीं आयी थी। बोलीं, ‘वजह क्या थी? क्यों नहीं आयी?’

बाई सिर झुकाकर बोली, ‘कुछ नहीं, पगली है।’

मिसेज़ लाल अड़ गयीं, बोलीं, ‘आखिर कुछ वजह तो होगी। क्या कहती थी?’

बाई ज़मीन पर नज़रें टिकाकर बोली, ‘अरे क्या बतायें! कहती थी कि वहाँ जाएंगे तो कुछ न कुछ काम करना पड़ेगा। इसीलिए नहीं आयी।’

मिसेज़ लाल, कमर पर हाथ धरे, बाई का मुँह देखती रह गयीं।

परिहार

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #21 – ☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  मित्रता स्वयं की स्वयं सेसुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

 साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #21

 

☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…☆

 

मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…

हम्म, पचायला थोडं जड आहे पण अतिशय आवश्यक… ही मैत्री साधायचा प्रयत्न चालू आहे…

गेल्या काही महिन्यात घडलेल्या घडामोडी ह्या मैत्रीला कारणीभूत आहेत… नक्कीच…

वेळ प्रसंगी कुटुंबीय, ऑफिस कलीग, अनेक मित्र मैत्रिणी सपोर्ट करायला असतात… पण आडात नसेल तर पोहऱ्यात कुठून येणार…

असो…

आपण हल्ली खूप busy असतो, नाही का?? आधी शिक्षण, नोकरी, मग छोकरी, मग पोटची छोकरी, आई वडील, मित्र मैत्रिणी, घर दार, प्रत्येक ठिकाणी we want to prove ourselves and want to be at par with everybody else… at any cost …!

सगळं दुसऱ्यांसाठी, ह्या जगासाठी करत राहायचं, पण मग स्वतःसाठी कधी करणार… ?

वेळ कुठे आहे !

तुम्ही म्हणाल दुसऱ्यांसाठी म्हणजे नवरा बायको मुलं, आई वडील ह्यांच्यासाठीच तर करतोय, त्यात काय अयोग्य आहे… करायलाच पाहिजे… पण ह्या सगळ्या प्रोसेसमध्ये, मी माझ्यासाठी काही करतोय का??? का फक्त घरातील इतर मंडळी खुश झाली की मी खुश होणार आहे??? Is my happiness dependent on them??? ते नसतील तर मला आनंदी होता येणार नाही का ??? मग मी useless, hopeless होते का ???

स्पर्धा असणारच, ती असावीच त्याशिवाय आपण अंगभूत गुणांना ओळखुच शकणार नाही… असेल माझा हरी तर देईल खाटल्यावरी, असा विचारही घातकच… अन्न, वस्त्र, निवारा ह्यासाठी हात पाय हलवले पाहीजेतच… आज काल आम्ही एवढे busy आहोत की काय अन्न खातो, कधी खातो, ह्याचा हिशोब नाही… वस्त्र मात्र एकदम stylish परिधान करतो… बाहेरून सगळं चकाचक… पण निवारा… त्यासाठी रक्ताचं पाणी करतो आणि ते करत असताना ह्या निवाऱ्यात थांबायला वेळच नसतो… त्यामुळे आपण कोणत्या स्पर्धेत उतरायचं आहे, त्यासाठी कुठली जब्बाबदरी घ्यावी लागेल, काय तयारी करावी लागेल, ह्याचा अभ्यास आपण करतो का??? त्याचे pros n cons बघतो का ??? ह्यातून जे हाती लागणार आहे तेच उलतीमते आहे का??? कधी स्वतःचा स्वतःशी असा संवाद केलाय, झालाय … ही मैत्री कधी अनुभवली आहे का???

काल youtube वर एक व्हिडिओ पाहत होते… त्यात असा उल्लेख आहे की,

Your life is just a thought away…

बाबो, केवढा गहन अर्थ दडला आहे ह्या वाक्यात… लगेच तो विडिओ स्टॉप केला आणि विचार करू लागले… किती योग्य आणि खरं वाक्य आहे… आपल्या मनातील विचार सगळं ठरवत असतात…

उदाहरणार्थ…

आपण रस्त्यावरून जात आहोत, समोर एक व्यक्ती तिला आवडलेला ड्रेस घालून दुकानापाशी उभी आहे… आणि गम्मत म्हणजे आपल्याला नेमका तोच माणूस दिसतो आणि त्याचा ड्रेस अजिबात आवडत नाही… झालं… आपले विचार चक्र सुरू होते…

इ हा काय ड्रेस घातलाय, काय पण रंग आहे, त्याला अजिबात सूट होत नाहीत, त्याला एवढपण कळत नाही का, बरं त्याला नाही कळलं तर त्याच्या बायकोला कळत नाही का??? एक नाही, हजारो प्रश्न म्हणजेच विचार आपण काही ही कारण नसताना तयार करतो… ह्याचा त्या व्यक्तीवर काहीच फरक पडत नाही… आपण आपल्या अपेक्षांचं ओझं त्याच्यावर टाकायचा प्रयत्न करतो, पण मन अस्वस्थ कोणाचे होते???

ह्यापुढे जाऊन आपण ही गोष्ट आपल्या मित्र मैत्रिणींना पण अगदी हिरीहीरीने सांगतो… तुम्ही कितीही नाही म्हटलं तरी आपल्याला हे करत असताना एक प्रकारचा आनंद मिळतो …कारण तो माणूस किती तुच्छ आहे हे आपण prove केलेलं असतं… आणि आपली अपेक्षा तो माणूस पूर्ण करू शकत नाही ह्याची खंत झाकायची असते… पण पुन्हा तीच अस्वस्थता… म्हणजे पुन्हा स्ट्रेस…

अजून एक उदाहरण घेऊ या…

आपण एखादा चित्रपट पाहून आलो, खूप आवडला असेल तर त्याची वाहह वा करतो, त्यातील गाणी, अभिनय, फोटोग्राफी, ह्याचा विचार करू लागतो… मित्र मैत्रिणींना सांगतो… एक प्रकारचा आनंद मिलतो… कारण त्या चित्रपटाविषयी आपल्या अपेक्षा पूर्ण झालेल्या असतात… पुन्हा स्ट्रेस…. पौसिटीव्ही स्ट्रेस…

म्हणूनच मला पटलं, my life is just a reminder thought away… स्वतःची स्वतःशी असलेली मैत्री…

आजू बाजूला घडणाऱ्या गोष्टी आपल्याला प्रभावित करत असतात… आणि त्यात आपण वाहून जातो… कुठवर वाहून जायचं, it’s just a thought away… त्या क्षणी येणारा विचार तुम्हाला त्या प्रवाहातुन वाचवू शकतो नाही तर तुमचा जीवही घेऊ शकतो…

विचार चक्र चालू राहणं हे नैसर्गिक आहे… पण कुठला विचार कधी करावा, का करावा, किती करावा… हा लूप आपणच तयार करतो, तो योग्य वेळी योग्य ठिकाणी तोडता आला पाहिजे.. ह्याचा अभ्यास करणं गरजेचं आहे… त्यासाठी स्वतःची स्वतःशी मैत्री होणं आवश्यक आहे… सोप्प नाहीये, त्यासाठी खूप awareness लागतो… पण केलं तर नक्की जमेल, ह्याची खात्री आहे… पण ही मैत्री खरंच चिरकाल राहील…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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जीवन-यात्रा- सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की  वरिष्ठ एवं प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी  भारतीय जी साहित्य ही नहीं  अपितु समाज सेवा में भी लीन हैं. हमें गर्व है कि आप ई-अभिव्यक्ति  की एक सम्माननीय लेखिका हैं.   इस साक्षात्कार  के माध्यम से आपने अपने जीवन  की  महत्वपूर्ण  साहित्यिक उपलब्धियां  एवं साहित्यिक तथा सामाजिक जीवन पर विस्तृत चर्चा की है. आपकी जीवन यात्रा निश्चित ही नवोदितों के लिए प्रेरणास्पद है. सुश्री  निशा नंदिनी  जी  का इस साक्षात्कार के लिए आभार. )

 

☆ जीवन यात्रा – सुश्री निशा नंदिनी भारतीय ☆

 

१. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं शिक्षण ?

जी, मेरा जन्म रामपुर उत्तर प्रदेश में 1962 में हुआ। मेरे पिता रामपुर शुगर मिल में चीफ इंजीनियर थे। विद्या मंदिर गर्ल्स इंटर कॉलेज द्वारा इलाहाबाद बोर्ड से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद रुहेलखंड विश्व विद्यालय बरेली से बी.ए प्रथम श्रेणी में तथा  एम.ए हिन्दी में प्रथम श्रेणी में पास किया। 21 वर्ष की आयु में (बी. एड) के प्रारंभ में ही सन 1984 में ग्वालियर मध्य प्रदेश में विवाह हो गया। लगभग दो वर्ष ग्वालियर के “के.आर जी कॉलेज” में अध्यापन कार्य किया।

चूंकि पति असम के तिनसुकिया शहर में व्यवसाय करते थे, तो नौकरी छोड़कर हम तिनसुकिया आ गए। तिनसुकिया में हमने विभिन्न स्कूल व कॉलेज में लगभग 30 वर्ष अध्यापन किया।

तिनसुकिया में रहते हुए ही समाज शास्त्र व दर्शनशास्त्र में एम. ए. भी किया।  2018 में लेखन की व्यस्तता के चलते विवेकानंद केंद्र विद्यालय से स्वेच्छिक रिटायरमेंट ले लिया। वर्तमान में असम हाइट्स स्कूल में सलाहकार व काउंसलर हैं। हमारे तीन बच्चे हैं। एक बेटा और जुड़ाव बेटियां – रोचक, रुमिता और रुहिता। वर्तमान में तीनों अमेरिका, जर्मनी और बैंकॉक में कार्य कर रहे हैं।

 

२. लेखन में आगमन एवं प्रारंभिक लेखन की प्रेरणा ?

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। कक्षा तीसरी-चौथी से ही पुस्तकों की कविताओं को याद करके विद्यालय में उनकी प्रस्तुति  करना बहुत अच्छा लगता था। जबकि अर्थ समझ में नहीं आता था। इस तरह कविता से लगाव बचपन से ही था। कुछ शब्दों के साथ तुकबंदी और खिलवाड़ चलता रहता था,पर हमने पहली कविता कक्षा दस में घर के आंगन में चारपाई पर बैठ कर लिखी थी। जिसमें प्रकृति चित्रण किया था।

“था चांदनी रात का प्रथम पहर

मैं बैठा था अपने प्रांगण में।”

और इस तरह फिर कविताओं का सिलसिला चल पड़ा। स्कूल की पत्रिका में, अखबार आदि में। हमारे कॉलेज में आशु कविता प्रतियोगिता होती थी उसमें हमारी रचना हमेशा प्रथम  आती थी।

और हाँ, किसने सबसे ज्यादा प्रोत्साहित किया। इसमें अलग-अलग आयु में अलग अलग लोग थे। बचपन में पिता से बहुत प्रोत्साहन मिला। स्कूल कॉलेज में शिक्षकों से और विवाह उपरांत मेरे पति मेरी रचनाओं की आलोचना करते थे। इस तरह लेखन का सिलसिला चल पड़ा।

 

३. पुस्तक प्रकाशन एवं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन 

जी,अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। लगभग 31 पत्रिकाओं में और 13 समाचार पत्रों में लेख, कविता, जीवनी, निबंध आदि छप चुके हैं।

 

४. साहित्य की विधाएँ जिनमें आप अपनी कलम चला रही हैं:

जी, अब तक कविता, कहानी, निबंध, संस्मरण, लेख, जीवनी, बाल उपन्यास आदि पर लेखनी चलाई है और सतत् चल रही है।

 

५. अपने नाम के साथ ‘भारतीय’ उपनाम कब से और क्यों  ?

जी, यह प्रश्न बहुत लोग करते हैं।

मैंने अपने नाम के साथ भारतीय यही कोई पाँचसाल पहले लगाना शुरू किया है। इसका मुख्य कारण तो यह है कि मैं भारत की रहने वाली हूँ इसलिए मैं भारतीय हूँ। हम सबकी एक ही जाति होना चाहिए और वह जाति है ‘भारतीय’। मुझे अपने आपको भारतीय कहने पर बहुत गर्व होता है इसलिए मैंने अपने नाम साथ  भारतीय लगाना प्रारंभ किया। मेरी अधिकतर रचनाएं समाज व देश को समर्पित है।

 

६. पाठ्य पुस्तकों में आपकी किन रचनाओं को स्थान मिला ?

जी हाँ, मेरी पुस्तक “शिशु गीत”असम के पाँच स्कूलों में चल रही है और मेरी एक कविता जिसका शीर्षक है “प्रयत्न” अमरावती विश्व विद्यालय के (बी. कॉम) प्रथम वर्ष में तीन वर्षों से पढ़ाई जा रही है। पुस्तक का नाम “गुँजन” है।

 

७. क्या आपकी कोई पुस्तक अनुवादित होकर भी प्रकाशित हुई है ?

जी हाँ, मेरे बाल उपन्यास “जादूगरनी हलकारा” का असमिया भाषा में अनुवाद हुआ है और दो पुस्तकों पर अनुवाद का कार्य चल रहा है।

 

८.  साहित्य सेवा के लिए आपको अब तक कितने सम्मान मिल चुके हैं ?

जी, हमने गिने नहीं हैं लेकिन हाँ, साहित्य के क्षेत्र में देश-विदेश में अब तक लगभग लगभग पच्चीस सम्मान मिल चुके हैं।

 

९. आप किन-किन संस्थाओं से जुड़ी हुई है ?

जी, मैं  “इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल न्यास”, “शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास”, विवेकानंद केंद्र कन्या कुमारी से , एकल विद्यालय, मारवाणी सम्मेलन समिति, लॉयंस क्लब, हार्ट केयर सोसायटी, महिला आयोग तथा अहिंसा यात्रा आदि संगठनों से जुड़ी हूँ।

 

१०. एक लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशन का महत्व  

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। एक लेखक को पहचान उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही मिलती है। पाठक पुस्तक पढ़ने के बाद ही लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व से रूबरू होता है क्योंकि लेखक का लेखन उसके व्यक्तित्व का आइना होता है। पुस्तकों के माध्यम से लेखक युग युग तक रोशनी फैलाता रहता है।

आज भी जब हम पचास-साठ साल पुराने लेखकों को पढ़ते हैं, तो लेखक का व्यक्तित्व हमारे समाने सजीव हो उठता है। हम उनकी पुस्तकों से लाभांवित होते हैं। वे सब अपनी  पुस्तकों के माध्यम से अमर हैं। इसलिए पुस्तकों को प्रकाशित करवाना अति आवश्यक है।

 

११.  यदि आपको मौंका मिले तो आप साहित्यिक क्षेत्र में क्या बदलाव लाना चाहेंगी ?

जी, जहाँ तक साहित्य में बदलाव की बात है तो “जिसमें हित नहीं, वो साहित्य ही नहीं”। पर आज साहित्य मंच की वस्तु बन कर रह गया है। गुप्त जी तो बहुत पहले ही लिख गए हैं।

केवल मनोरंजन न कवि का

कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

साहित्य कोई हंसी मजाक की वस्तु नहीं है, कोई खिलवाड़ नहीं है। साहित्य समाज का यथार्थ होने के साथ-साथ सुधार भी है।

साहित्यकार के कंधों पर समाज निर्माण की जिम्मेदारी होती है।

हम जैसा परोसेंगे, समाज वैसा ही लेगा इसलिए साहित्यकार को बहुत सोच समझकर अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए।

 

१२. महिला के किस रूप को आप सर्वश्रेष्ठ मानती हैं और क्यों?

जी, यह प्रश्न तो बिल्कुल इसी तरह का है कि भगवान के किस रूप को आप श्रेष्ठ मानते हैं। महिला हर रूप में श्रेष्ठ है। छोटी सी कन्या के रूप में वह आशीर्वाद देती है। बहन के रूप में भाई की रक्षा के लिए तैयार रहती है। बेटी के रूप में पूरे परिवार की रक्षा करती है। पत्नी के रूप पूरे परिवार में खुशियों के दीप जलाती है और एक माँ के रूप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। अब आप ही निश्चित कर लीजिए कि महिला का कौन सा रूप सर्व श्रेष्ठ है?

 

१३. आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी ?

जी, मेरी सफलता का श्रेय मेरे परिवार के साथ-साथ मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेरी कर्मठता को जाता है।

 

१४. नए लेखकों को क्या सुझाव देंगी आप ?

नए लेखकों से मैं यही कहना चाहती हूँ कि इस प्रक्रिया से सतत् जुड़े रहें। लेखन एक तपस्या है। खूब लिखें,अच्छा लिखें और कभी भी इससे संतुष्ट न हो। अच्छे लेखन की भूख कभी भी तृप्त न हो। अपने लेखन से परिवार, समाज, देश व विश्व का कल्याण करें।

 

संपर्क :

निशा नंदिनी भारतीय
पति श्री एल.पी गुप्ता
आर.के.विला, बाँसबाड़ी, हिजीगुड़ी, गली- ज्ञानपीठ स्कूल
तिनसुकिया – 786192 असम
मोबाइल- 9435533394, 9954367780
ई-मेल आईडी : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता / गीत ☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

 

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  नवरात्रि पर्व पर  माँ दुर्गा देवी  जी को  समर्पित गीत  – तुम्हीं को गीत अर्पित है.)

 

☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है  

 

तुम्हीं को गीत अर्पित है, तुम्हीं को प्रीति अर्पित है,

करूँ वंदन नमन तुमको, तुम्हें श्रद्धा समर्पित है।

 

सुशोभित नौ स्वरूपों में, शरद वासंत में आए,

सजे हर गेह तेरा दर, दिलों में भी सुसज्जित है।

 

हरे दुख-दर्द, पीड़ा तू, सदा मंगल करे माता,

तेरे ही  प्यार की महिमा, पुराणों में सुवर्णित है।

 

करे संहार दुष्टों का, मनुजता का करे पालन,

अपरिमित शक्ति से माँ की, विनिर्मित सृष्टि पोषित है।

 

करूँ सब कुछ समर्पित मैं, करो स्वीकार पूजा को,

शरण में लो जगत जननी, मुझे तो मोक्ष इच्छित है।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से ☆ जगह भर जाती है ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना जगह भर जाती है .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से

 

☆ जगह भर जाती है  ☆

 

मुठ्ठी में रेत उठाओ

चुल्लू पानी का बनाओ

समुद्र से नदी बनाओ

उल्टा चाहे क्रम चलाओ

रीती जगह नही रहती

जगह भर जाती है ….

 

आँखों से आँसू बहे

पत्ते चाहे जितने झरे

आँखों में फिर पानी

पेड़ों में हरियाली

जगह भर जाती है ….

 

गर्म हवा ऊपर उठी

ठंड़ी हवा दौड़ पड़ी

निर्वात की वजह नही

रूखी हो या नमी

जगह भर जाती है ….

 

एक शख्स जगता रहा

इधर -उधर दौड़ता रहा

देह छुटी आत्मा मुक्त

उसकी निशानी ना चिन्ह कहीं

कुछ ही समय की बात है

यादें , यादों के साथ है

रिक्त जगह नहीँ रहती

जगह भर जाती है …….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता/गीत ☆ पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की नवरात्रि पर विशेष कविता/गीत – पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।)

 

☆ पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे ☆

 

नव रातें की जोत जगी है घर-घर बोए जवारे,

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

प्रथम पूज्य शैलपुत्री श्वेत वर्ण है धारे,

मधुर कलश हाथ लिए हैं सबकी ओर निहारे ।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली-गली उजियारे।

 

द्वितीय देवी ब्रह्मचारिणी सबकी विपदा हारे,

ब्रह्म सनातन धीरज धरनी धर्म ध्वजा फहराए।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

तृतीय देखो चंद्रघंटा मस्तक चंद्र विराजे,

शिव दूती बनी भवानी दुर्गा रूप सवारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

चतुर्थ माता कुष्मांडे हैं साग नाम धराए,

जग की रक्षा करने को फिर बलि बलि भोग लगाएं।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

पंचम देवी स्कंध माता श्याम कार्तिकेय की धाये,

दानव दल को मार भगाए माता का नाम उजारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

षष्ठी कात्यानी भवानी शक्ति रूप निखारे,

जब जब विपदा जग में पड़ी सब को पार उतारें।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

सप्तम देखो कालरात्रि बन दुष्टन को दे संहारे,

लंबी लंबी जीव्हा निकाल  रक्त बीज को मारे।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

अष्टम महागौरी का रूप मनोहर सुंदर रूप संवारे,

पूरन सबकी करें आराधना दुर्गा यही कहाए।

 

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

नवम सिद्धिदात्री हैं भरे भंडार हमारे,

आराधन कर नवदुर्गा का मन वांछित फल पाए।

 

नव रातें की जोत जगी है घर-घर बोए जवारे,

पग पग धीरे चली भवानी गली गली उजियारे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।।19।।

 

योगी का मन अचंचल रहता स्थिर शांत

वायु सुरक्षित दीप की लौ ज्यों अचल प्रशांत।।19।।

 

भावार्थ :  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।।19।।

 

As a lamp placed in a windless spot does not flicker-to such is compared to the Yogi of controlled mind, practicing Yoga in the Self (or absorbed in the Yoga of the Self). ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्वथनांक- ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्वथनांक- ☆

 

परिस्थितियाँ जितना तपाती गईं

उतना बढ़ता गया क्वथनांक मेरा,

अब आग के इतिहास में दर्ज़ है

मेरे प्रह्लाद होने का किस्सा!

(क्वथनांक– जिस तापमान पर पदार्थ उबलता है, बॉइलिंग पॉइंट।)

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रामायण में रहने की विशाल योजना* ☆ – श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  की व्यंग्य रचना रामायण में रहने की विशाल योजना.  समझ में नहीं आता कि इसे सामयिक कहूं या प्रासंगिक. चलिए यह निर्णय भी आप पर ही छोड़ देते हैं. )  

 

☆ व्यंग्य – रामायण में रहने की विशाल योजना*☆ 

 

उनको देखकर बड़ी ही शत्रु टाइप फीलिंग आती। बड़े बड़े शत्रु भी हडबडा जाएं जब लाउड आवाजों को कोई खामोश कर दे। सुनते ही भगदड़ मच जाती कि कहीं ये बंदा शॉटगन से हल्ले का शिकार न कर दे। लेकिन धीरे धीरे समझ आता गया कि ये केवल घन के शत्रु हैं। इसलिए तब से अपन का डर, खलीफा हो गया। हमारे जैसे तो इतने निट्ठल्ले कि एक शत्रु बनाने की हैसियत न रखते।

दुनिया में ऐसे कई उदाहरण मिलते, जिनका गले मिलना भी शत्रुता की मिसाल हैं। भरत मिलाप वो भी शत्रु के साथ…। वाह! यही तो सुंदरता है इस कलयुग की…। ऐसे मेल मिलापों में अक्सर एकाध राम भी पैदा हो जाते। बस भगवान बनने की ताकत न रखते।

उन्हें रामायण इतना आकर्षित करती कि वे रामायण में ही रहते, सोते, खाते। अपना कतरा कतरा रामायण को ही न्यौछावर कर देते। इतना कि रामायण के भीतर और बाहर रामायण के ही किरदार पाए जाते। लेकिन पाने और होने में वही फर्क है जो अरुण गोविल और श्रीराम में…।

किरदारों का क्या… कल के दिन राम के किरदार से निकलकर धृतराष्ट्र या दुर्योधन में घुस जायें। लेकिन हकीकत में तो वही रहेंगे, जो हैं…। सत्य को तो ग्रह भी नहीं झुठला पाए। किसी के पास एक चांद, तो किसी के पास दस-बारह।

भले भगवान के दोनों जुडवां पुत्रों का नाम लव कुश था। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा कि शत्रुघ्न अपने पुत्रों का वही नाम नहीं रख सकता। उन्होंने भी रखा। घर में सारे किरदार तैयार थे। असल रामायण में लवकुश की कोई बहन न थी। सो उन्हें कुछ अलग रखना पड़ा। सुनहरी आंखों वाली या झील सी आंखों वाली टाइप। नाम रखने में क्या कटुता…। विश्व की अलग अलग भाषाओं में नाम रखना आजकल का फैशन है।

लेकिन वे रामायण में रहते इसलिए वैदिक नामों से प्रेरित थे। नाम कोई भी रख सकते थे। उस पर जीएसटी का कोई प्रावधान नहीं। सोचा होगा, लव कुश ही रख लो। उन्हें थोड़े अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ना है।

चाहें भी तो संभव नहीं। समय के साथ साथ काफी कुछ असंभव भी होने लगा है। न तो गाय और कुत्ते को रोटी खिला सकते, न सांप को दूध…। सब हमारी धरोहर हैं। उन्हें बचाना हमारा परम कर्तव्य है। इसलिए प्रतिबंधित है। कहो, कल के दिन हमारी सांसों पर ही कोई प्रतिबंध लगा दे कि भई कुछ ज्यादै ऑक्सीजन छोड़ते हो…।

असंभावना के बीच ही सम्भव भवित होता है। अभी वाचन प्रतिबंधित नहीं हुआ है। हम कुछ भी बांच सकते, गल-अनर्गल सब कुछ। फिर भी हम बांचते ही नहीं।

उन्होंने भी पुस्तक की जगह एक ठो व्यक्तिगत दूरभाषित यंत्र पकडवा दिया अपने बच्चों को। और वे, आज्ञाकारी बच्चों से लगे अपनी हस्त उत्पादित स्वचित्र खेंचने में। इस खेंचा खेंची में वे भूल गए कि दुनिया में स्व-ज्ञान की कितनी आवश्यकता है।

पर्दे पर अपने ही चित्र की वाहवाही करने से उन्हें फुर्सत न मिलती। फिर कहां का ज्ञान जुटाते। अज्ञानी सोच ही नहीं पाता कि सौंदर्य ज्ञान नहीं देता किंतु ज्ञान सौंदर्य अवश्य देता है। लेकिन ये सोच भी तो ज्ञान से ही आती है।

पर्दे की विद्रुपता यही है कि वो असली दर्शन नहीं करा पाता। सब कुछ ढंका छुपा…।

वो ठाठ बाट से अपने रामायण का गुणगान करते हुए वहाँ बैठती हैं। लेकिन जब उनसे पूछा जाता कि संजीवनी किसके लिए लायी गई, तब वे ठिठक जातीं। वे सोचतीं कि शायद राम या फिर भरत या हो सकता है लक्ष्मण को जरूरत पड़ी हो। लेकिन वे श्योर नहीं हो पातीं। क्योंकि उनके घर के लक्ष्मण को कभी संजीवनी की जरूरत नहीं पड़ी। या यों कहें कि हनुमंत उनके घर नहीं। उनकी माता, माथा फोडने के सिवाय कुछ नहीं कर पायी। अपने अंश को नहीं समझा पायी कि रामायण में रहने और रामायण को हृदय में बसाने में वही अंतर है जो धरती पर बसने और आकाश में उडने का है।

 

©समीक्षा तैलंग, पुणे

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