हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 15 – आ गए विज्ञापनों के दिन ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर  सामयिक रचना  आ गए विज्ञापनों के दिन। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 15 ☆

 

आ गए विज्ञापनों के दिन ☆  

 

आ गए, विज्ञापनों के दिन

पल्लवित-पुष्पित जड़ों से

दम्भ में, फूले तनों के दिन।

 

पुष्प-पल्लव,हवा का रुख देख कांपे

टहनियां  सहमी हुई, भयभीत भांपे

देख  तेवर हो गई,  गुमसुम जड़ें भी

आसरे को  दूर से, खग – वृन्द झांके

मौसमों के साथ अनुबंधित समय भी

हर घड़ी को, बांचने में लीन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

आवरण – मुखपृष्ठ  पन्ने भर  रहें  हैं

खुद प्रशस्ति गान, खुद के कर रहे हैं

डरे हैं खुद से, अ, विश्वसनीय हो कर

व्यर्थ ही प्रतिपक्ष  में, डर भर रहे  हैं,

एक, दूजे के परस्पर, कुंडली-ग्रह

दोष-गुण ज्योतिष, रहे हैं गिन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

खबर के  संवाहकों का, पर्व आया

चले चारण-गान, मोहक चित्र माया

विविध गांधी-तश्वीरों की, कतरनों में

बिक गए सब, झूठ का बीड़ा उठाया,

मनमुताबिक, दाम पाने को खड़े हैं

राह तकते, व्यग्र हो पल-छिन

आ गए विज्ञापनों के दिन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – पराकाष्ठा  ☆

 

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का अपना आप

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्त्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन

कविता से मिलन

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 17 –ती ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा.  ऐसा इसलिए  क्योंकि एक पुरुष साहित्यकार स्त्री की भावनाओं को कविताओं के इस स्वरुप में रचित कर सकेगा क्या? इसका उत्तर आप  विचारिये.  एक पंक्ति अद्भुत है – “स्त्री कांच का पात्र (बर्तन)  है एक बार चटक गया फिर संभाले नहीं संभलता.”  साथ ही यह भी  कि  “कोई आएगा स्वप्नों का राजकुमार और ले जायेगा स्वनों के संसार किन्तु उसे देख-परख लेना” – ऐसा क्यों नहीं कहती है सबकी माँ ?”  ह्रदय को स्पर्श कर गया.

यदि एक पुरुष  कवि या पिता की भावनाओं की बात करेंगे तो मैं अपनी  एक कविता  का एक संक्षिप्त अंश जो मैंने अपनी  पुत्रवधु एवं  पुत्री के लिए लिखी थी उद्धृत करना चाहूँगा –

एक बेटी के आने के साथ ही / तुम्हारे विदा करने का अहसास / गहराता गया। / और / हम निकल पड़े / ढूँढने/अपने सपनों का राजकुमार/ तुम्हारे सपनों का राजकुमार / एक/वैवाहिक वेबसाइट के /विज्ञापन के / पिता की तरह / हाथ में / पगड़ी लिये / और/ कल्पना करते / हमारे / सपनों के राजकुमार की / ढूंढते जोड़ते / वर वधू का जोड़ा। / कहते हैं कि – / जोड़े ऊपर से बनकर आते हैं। / फिर भी / प्रयास तो करना ही पड़ता है न।

यह पूरी लम्बी कविता फिर कभी प्रकाशित करूँगा किन्तु, मैं अपने पहले कथन पर स्थिर हूँ –  “एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा”. जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 17 ☆

 

☆ -ती ☆

 

आई म्हणाली, तू वयात आलीस,

 

“आता हुन्दडू नकोसं गावभर,

 

“बाई ची अब्रू काचेचं भांडं, एकदा तडा गेला की सांधता येत नाही ”

कदाचित  तिच्या  आईनं ही तिला हे  सांगितलं  असावं

 

परंपरागत  हे काचेचं भांडं

जपण्याची शिकवण !

 

“तुला भेटेल कुणी राजकुमार

नेईल स्वप्नांच्या  राज्यात—

करेल उदंड  प्रेम तनामनावर —

पण  गाफिल राहू नकोस,

नीट पारखून घे तुझा  सहचर”

 

अशी शिकवण का देत नाही  कुठलीच  आई?

 

काचेला तडा न जाऊ देण्याच्या

अट्टाहासाने,

निसटून  जातात सगळे च

सुंदर क्षण  आयुष्यातले !

 

उरतो फक्त  व्यवहार-

बोहल्यावर चढविल्याचा,

पोरीचे हात पिवळे करून

आई बाप सोडतही असतील सुटकेचा  श्वास !

 

एका परकीय  प्रान्तात येऊन

तनामनानं तिथं स्थिरावण्याचं

अग्निदिव्य तर तिलाच करावं लागतं ना ?

 

आणि  नाहीच जुळले  सूर, तरीही

संसार गाणं गावंच लागतं ना ?

 

ही शिकवण की संस्कार ?

स्वतःची जपणूक, परक्या हाती स्वतःला सोपवण्याची–

नाच गं घुमा च्या तालावर  नाचण्याची??

 

आणि लागलाच एखाद्या  क्षणी

परिपूर्ण  स्त्री  असल्याचा शोध,

तर —-

 

मारून टाकायचे स्वतःतल्या

त्या भावुक  स्री ला ?

की बनू  द्यायचं तिला अॅना कॅरेनिना ??

 

एकूण  काय मरण अटळ —–

आतल्या  काय अन बाहेरच्या  काय ?

“ती” चं च फक्त तिचंच!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ लोकतन्त्र का महाभारत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

 

आप निश्चित ही चौंक गए होंगे कि यह व्यंग्य तो आप पढ़ चुके हैं फिर पुनरावृत्ति क्यों?

आज यह व्यंग्य प्रासंगिक भी है  एवं सामयिक भी है.

प्रासंगिक इसलिए क्योंकि आज ही  आदरणीय गृह मंत्री जी ने जिस बहु उद्देश्यीय कार्ड (एक कार्ड जिसमें आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस और बैंक खातों जैसी जानकारी समाहित हो)  की चर्चा की है, उस प्रकार के कार्ड की कल्पना मैंने अपने जिस व्यंग्य के माध्यम से गत वर्ष 4 नवम्बर 2018  को किया था  वह सामयिक हो गई है. 

इसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं :-

 

कृपया यहाँ क्लिक करें – >>>>>>>>>>  व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – गीत (जल संरक्षण पर) ☆ यही सृष्टि का है करतार ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

(डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  साहित्य प्रेम के कारण केंद्र सरकार की सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अधिकारी। सेवानिवृत्त होकर पूरी तरह से साहित्य सेवा एवं  समाज सेवा में लीन।  आपकी चार पुस्तकें प्रकाशित एवं कई रचनाएँ विभिन्न संकलनों में प्रकाशित. आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद एवं आगरा से विभिन्न साहित्यिक विधाओं का प्रसारण.  कई सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध. कई  राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत /अलंकृत.  आपकी  उत्कृष्ट रचनाओं का ई-अभिव्यक्ति में सदैव स्वागत है. आज प्रस्तुत है एक गीत – जल संरक्षण पर ” यही सृष्टि का है करतार”.)

 

☆ यही सृष्टि का है करतार

एक गीत  -जल संरक्षण पर

 

जल से है जन्मी यह पृथ्वी

जल जन-जीवन का आधार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

महासिन्धु को देतीं उबाल

जब सूरज की किरणें तपती

तब जलधर की अमृत वृष्टि से

धरती माँ की चूनर सजती

अम्बर भी बन जाता दानी

प्रकृति-नटी करती श्रृंगार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

पथ उत्पादन का प्रशस्त कर

कण कण हरियाली भर गाते

दहके जड़-चेतन के अन्तस

जल पी पीकर ख़ुश हो जाते

जल-विहीन धरती का आँचल

कब किसका है पाया प्यार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

व्यर्थ कहीं भी इसे बहाना

भूल हुई भारी है अब तक

विश्व-युद्ध के द्वार खड़ा जग

जल हेतु देता है दस्तक

अगर न चेते इतने पर भी

होगा निश्चय नर-संहार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

कीमत अमृतमय पानी की,

कब जानोगे बोलो आज,

भरे बांध हों, पोखर, झरने,

नदिया की बच जाए लाज।

नारायण रूपी ये जल ही,

देता श्री का है संसार।

बिना जल न जी सकता कोई,

यही सृष्टि का है करतार।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 6 – काँटे बन चुभ गए ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “काँटे बन चुभ गए”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 6☆

 

☆ काँटे बन चुभ गए

 

 

जिंदगी के रंगीन सफर में,

सबको अपना मान गए,

फूल बनके पास आए कईं,

काँटे बन चुभ गए.

 

जब तक मिलती हमसे सेवा,

कभी न खफ़ा हो गए,

देखकर अपना हाथ खाली,

पल में दफ़ा हो गए,

मिठास भरें हम जीवन में,

पल में जहर घोल गए,

फूल बनके…

 

बेटा-भाई-दोस्त कहकर,

दिल में इतने घुल गए,

स्वार्थ का पर्दा जब खुला,

दिल में ही छेद कर गए,

जिनको हमने सब कुछ माना,

झूठा विश्वास भर गए,

फूल बनके…

 

मीठी बातें, मीठी मुस्कानें,

वाह, वाह, हमारी कर गए,

मुँह मुस्कान, दिल में जलन,

मुखौटे यार चढ़ा गए,

वक्त भँवर में जब भी झुलसे,

कौन हो तुम? हमको ही पूछ गए,

फूल बनके…

 

अपना पथ, अपनी मंजिल,

इस सच्चाई को हम जान गए,

बाकि सब स्वार्थ के संगी,

दुनिया के रंगरेज जान गए,

अपनी मंजिल बने अपनी दुनिया,

अब खुद को आजमाना सीख गए.

 

फूल बनके पास आए कईं,

काँटे बन चुभ गए.

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।।15।।

 

जो मन को निर्बाध रख,करता मेरा ध्यान

पाना सुख औ” शांति का उसे बहुत आसान।।15।।

 

भावार्थ :  वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है।।15।।

 

Thus, always keeping the mind balanced, the Yogi, with the mind controlled, attains to the peace abiding in Me, which culminates in liberation. ।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9 ☆ इश्क ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “इश्क”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9

☆ इश्क 

 

जाते हुए मुसाफ़िर के

सीने से लगकर

लाख गुज़ारिश की जाए,

हज़ारों मन्नतें माँगी जाएँ,

इश्क़ की दुहाई दी जाए,

पर उसे अगर जाना होता है

तो वो ठहरता नहीं है…

 

बाद अजब है यह इश्क़ भी,

जब बोलना चाहिए

वो लबों पर ऊँगली लगाकर

ख़ामोश हो जाता है,

और जाने वाले को

रोकता भी नहीं!

 

शायद वो भी जाने के बाद

जान ही जाएगा

इकरार का एहसास,

पर तब तक

बहुत देर हो चुकी होगी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – यह पल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – यह पल ☆

 

सामान्य निरीक्षण है कि हम में से अधिकांश की मोबाइल गैलरी एक बड़ा भंडारघर है। पोस्ट पर पोस्ट, ढेर सारी पोस्ट मनुष्य इकट्ठा करता रहता है, डिलीट नहीं करता। फिर एक दिन सिस्टम एकाएक सब कुछ डिलीट कर देता है।

गड्डियाँ बाँधे निरर्थक संचित धन हो या थप्पियाँ लगाकर संजोये रखे सपने, चलायमान न हों तो सब व्यर्थ है। जीवन न बीता कल है, जीवन न आता कल है। जीवन बस इस पल है।

पल, पल रहा है, इसके साथ पलो।  पल चल रहा है, इसके साथ चलो। पल तो रुकने से रहा, नहीं चले तो तुम रुके रह जाओगे।

जो रुका रह गया, वह जड़ हो गया। चलायमान का ठहर जाना, चेतन का जड़ हो जाना, जीवन की इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 6 ☆ आसमान से आया फरिश्ता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  आसमान से आया फरिश्ता। 

हाराष्ट्र राज्य का हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार  से पुरस्कृत इस पुस्तक की चर्चा , मात्र पुस्तक चर्चा ही नहीं अपितु हमारे समाज को एक सकारात्मक शिक्षा भी देती है और हमें धर्म , जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर विचार करने हेतु विवश करती है. कालजयी गीतों के महान गायक मोहम्मद रफ़ी जी , संगीतकार नौशाद जी  एवं  गीतकार शकील बदायूंनी जी  को नमन और सार्थक पुस्तक चर्चा के लिए श्री विवेक रंजन जी को हार्दिक बधाई.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 6 ☆ 

 

पुस्तक – आसमान से आया फरिश्ता

 

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – आसमान से आया फरिश्ता

लेखक –  धीरेंद्र जैन

प्रकाशक – ई ७ पब्लिकेशन मुम्बई

मूल्य –  299 रु

 

☆ पुस्तक  – आसमान से आया फरिश्ता – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

☆ आसमान से आया फरिश्ता ☆

 

धीरेंद्र जैन सिने पत्रकारिता  के रूप में जाना पहचाना नाम है. उन्हें “मोहम्मद रफी.. एक फरिश्ता था वो ” किताब के लिये महाराष्ट्र राज्य का हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है. रफी साहब के प्रति उनकी दीवानगी ही है कि वे उन पर ४ किताबें लिख चुके हैं. आसमान से आया फरिश्ता एक सचित्र संस्मरणात्मक पुस्तक है जो रफी साहब के कई अनछुये पहलू उजागर करती है.

दरअसल अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज,  इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं.  इस गीत के गायक मो रफी हैं. रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.

भजन  “मन तड़पत हरि दर्शन को आज” भारत की गंगाजमुनी तहजीब का जीवंत उदाहरण बन गया है जहां गीत संगीत आवाज सब कुछ उन महान कलाकारो की देन है जो स्वयं हिन्दू नही हैं. सच तो यह है कि कलाकार धर्म की संकीर्ण सीमाओ से बहुत  ऊपर होता है, पर जाने क्यों देश फिर उन्ही संकीर्ण, कुंठाओ के पीछे चल पड़ता है, ऐसी पुस्तके इस कट्टरता पर शायद कुछ काबू कर सकें. 

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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