हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – कविता – ☆ आशीष ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

शिक्षक दिवस विशेष

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  की कविता आशीष. )

 

☆ आशीष ☆

 

आकाश गरज रहा है

बरस रहा है

रूद्र हो रहा है

साथ ही प्रशस्त कर रहा है जीवन

एक शिक्षक की तरह ….

 

धरा,जन ,वृक्ष ,नदी सभी

संग्रहित कर रहे है

इस बौछार को

हो नतमस्तक

एक शिष्य की तरह …..

 

आकाश

धो रहा है मैल को

जो परत दर परत

जमती जा रही थी

अस्तित्व पर शिष्य के

कभी सहलाकर

कभी झकझोड़कर

ताकि ,

निर्मल तन पा शिष्य

विकसित हो सके

उसका चैतन्य भी छा सके

इस सम्पूर्ण  ब्रह्मांड  में

और शिष्य भी सृजक बने

इस नवयुग के निर्माण में

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – ☆ श्री गणेश चतुर्थी विशेष ☆ चिंतामणी चारोळी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(प्रस्तुत है श्री गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी द्वारा रचित  चिंतामणी चारोळी .)

 

☆ चिंतामणी चारोळी☆

 

गौरीपुत्रा विनायका

तूच बुद्धीची देवता

तूच हेरंब गणेशा

तूच ऐश्र्वर्य प्रदाता !!६!!

 

सिध्दी विनायका राजा

आशीर्वादे एकदंता

बुद्धी लाभते सर्वांना

अशी आहे हो वदंता !!७!!

 

तूच सत् चिदानंदा

तूही गुणत्रयातीता

तूहीच आनंदमया

तुम्ही वाङमय असता!!८!!

 

तूही ब्रह्मचि असता

ज्ञान आहात तुम्हीच

तुम्हीच हो ब्रह्मानंदा

आनंदकंदा तुम्हीच !!९!!

 

सर्व सर्वांचे ऐकावे

म्हणूनी कान सुपाचे

सोंड वाकुडी करुनी

खाता मोदक तुपाचे !!१०!!

 

तुज म्हणे लंबोदर

बरे वाईट पोटात

सर्वांचे सामाऊनिया

घेतसे तू उदरात !!११!!

 

तूच असे विघ्नहर्ता

तूच असे सुखकर्ता

लोक तुज ओळखती

तूच असे दु:खहर्ता!!१२!!

 

तुझी असे स्थूलतनु

तूच गजेंद्र वदन

तूच शैलसुतासुत

तूच असे गजानन !!१३!!

 

तूच चिन्मय अससी

तुज आवडे जास्वंद

तूच भक्तांना देतसे

सुंदर शुभाशीर्वाद !!१४!!

 

श्री गणेशाला नमन

वेदातील तत्वज्ञान

तूच आहेस रे ब्रह्म

तूच करिसी रक्षण !!१५!!

 

तू आहेस शब्दमय

सत्यमय ब्रह्ममय

सार अद्वैत जगाचे

तूचि तू विज्ञानमय !!१६!!

 

तू सर्व आकाशमयी

तूच वायू जल भूमी

योगी ध्यायती तुजसी

सर्व विद्यांचा तू स्वामी!!१७!!

 

तूचि उत्साहवर्धक

एकदन्त चार हात

रंग लाल मोठे पोट

पाश अंकुश हातात !!१८!!

 

व्रातपती गणपती

लंबोदर प्रजापती

शिवसूत विघ्ननाशी

तू असे वरदमूर्ती !!१९!!

 

अथर्वशीर्षाचे फळ

जो करितो अध्ययन

धर्म मोक्ष अर्थकाम

त्यास न बाधेल विघ्न !!२०!!

 

अभिषेक करणारा

वक्ता उत्तम होईल

चतुर्थीचा उपवास

विद्यावान तो होईल !!२१!!

 

असे आहे सांगितले

त्याच अथर्व ऋषींनी

करा दुर्वांनी हवन

होई तोचि बुद्धिमानी !!२२!!

 

करा दुर्वांनी हवन

होई कुबेर श्रीमंत

देई हजार मोदक

फळ मिळेल इच्छित !!२३!!

 

तूप समिधा हवन

त्याला मिळेल सर्वही

जो जाणतो रहस्य हे

तो होईल सर्वज्ञही !!२४!!

 

भाळावर तो शेंदूर

दिसतो शोभायमान

तूच की रे स्थूलतनु

तूच गजेंद्र आनन !!२५!!

 

!!ॐ!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक:२-९-१९

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 6 – Pandu’s curse ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Pandu’s curse”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 6

 

☆ Pandu’s curse☆

 

King Pandu, out to hunt

Unable to bear child frustrated

Heard some din in the surrounding

An arrow in his bow mounted

 

Rishi Kindama and his charming wife

Transformed into an antelope and a doe

Invoking magical powers

Were in the open, making love

 

Pandu’s arrow, struck the antelope

Upon the antelope, death hovered

Pandu watched helplessly the repercussions

While the afflicted Rishi cursed

 

Pandu was banned from touching a woman

Having hindered brutally a couple in mating

He was to die then and there

If he ever engaged in love-making

 

A man who cannot father a child

To be a king is deemed unfit

Left Hastinapur for good and forever

To lead the life of a hermit!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – काल….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ काल….! ☆

 

जिन्हें तुम नोट कहते थे
एकाएक कागज़ हो गए,
अलबत्ता मुझे फ़र्क नहीं पड़ा
मेरे लिए तो हमेशा ही कागज़ थे,
हर कागज़ की अपनी दुनिया है
हर कागज़ की अपनी वज़ह है,
तुम उनके बिना जी नहीं सकते
मैं उनके बिना लिख नहीं सकता,

सुनो मित्र!
लिखा हुआ ही टिकता है
अल्पकाल, दीर्घकाल
या कभी-कभी
काल की सीमा के परे भी,
पर बिका हुआ और टिका हुआ
का मेल नहीं होता,
न दीर्घकाल, न अल्पकाल
और काल के परे तो अकल्पनीय!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “धन्नो, बसंती और बसंत”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ 

 

 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆

 

बसंत बहुत फेमस है  पुराने समय से, बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है । बसंत हर साल आता है, जस्ट आफ्टर विंटर. उधर कामदेव पुष्पो के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना हो जाता है।  बगीचो में फूल खिल जाते हैं। हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है। भौंरे गुनगुनाने लगते हैं। रंगबिरंगी तितलियां फूलो पर मंडराने लगती है। जंगल में मंगल होने लगता है। लोग बीबी बच्चो मित्रो सहित पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।  बसंती के मन में उमंग जाग उठती है। उमंग तो धन्नो के मन में भी जागती ही होगी पर वह बेचारी हिनहिनाने के सिवाय और कुछ नया कर नही पाती।

कवि और साहित्यकार होने का भ्रम पाले हुये बुद्धिजीवियो में यह उमंग कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती पाई जाती है। वे बसंत को लेकर बड़े सेंसेटिव होते हैं। अपने अपने गुटों में सरस्वती पूजन के बहाने कवि गोष्ठी से लेकर साहित्यिक विमर्श के छोटे बड़े आयोजन कर डालते हैं। डायरी में बंद अपनी  पुरानी कविताओ  को समसामयिक रूपको से सजा कर बसंत के आगमन से १५ दिनो पहले ही उसे महसूस करते हुये परिमार्जित कर डालते हैं और छपने भेज देते हैं। यदि रचना छप गई तब तो इनका बसंत सही तरीके से आ जाता है वरना संपादक पर गुटबाजी के षडयंत्र का आरोप लगाकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा देना मजबूरी होती है। चित्रकार बसंत पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी के आयोजन करते हैं। कला और बसंत का नाता बड़ा गहरा  है।

बरसात होगी तो छाता निकाला ही जायेगा, ठंड पड़ेगी तो स्वेटर पहनना ही पड़ेगा, चुनाव का मौसम आयेगा, तो नेता वोट मांगने आयेंगे ही, परीक्षा का मौसम आयेगा, तो बिहार में नकल करवाने के ठेके होगें ही। दरअसल मौसम का हम पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। सारे फिल्मी गीत गवाह हैं कि बसंत के मौसम से दिल  वेलेंटाइन डे टाइप का हो ही जाता है। बजरंग दल वालो को भी हमारे युवाओ को संस्कार सिखाने के अवसर और पिंक ब्रिगेड को नारी स्वात्रंय के झंडे गाड़ने के स्टेटमेंट देने के मौके मिल जाते हैं। बड़े बुजुर्गो को जमाने को कोसने और दक्षिणपंथी लेखको को नैतिक लेखन के विषय मिल जाते हैं।

मेरा दार्शनिक चिंतन धन्नो को प्रकृति के मूक प्राणियो का प्रतिनिधि मानता है, बसंती आज की युवा नारी को रिप्रजेंट करती है, जो सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहती है। आखिर इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं। बसंत प्रकृति पुरुष है। वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है, बसंती के नारी सुलभ परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन को उसकी कमजोरी माना जाता है। बसंती के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज जमाना दे रहा है, उसके जबाब में नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती बसंती ने दे दिया है, हमारी बसंती जानती है कि उसे बसंत और धन्नो के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆ परीक्षा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “परीक्षा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆

 

☆ परीक्षा ☆

 

मैंने परीक्षाकक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”

मैडम ने “थैंक्स” कहा और बाहर चली गई और मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहें बरबस छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे. यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी.

छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे. मुझसे से रहा नहीं गया. एक छात्र से पूछ लिया,  “ये गलत उत्तर किस ने बताए हैं?”

सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने!”

“ये सभी उत्तर गलत हैं”  मैं जोर से चिल्लाया, “सभी अपने उत्तर काट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखो. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 14 – वासरू……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। ऋण के बोझ तले दबे किसान को आत्महत्या करने से रोकने के लिए इससे बेहतर हृदयस्पर्शी कविता नहीं हो सकती ।  काश कोई उस किसान को उसके पुत्र/पुत्री की मनोव्यथा से अवगत करा सके।  प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “वासरू…! ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #14☆ 

 

☆ वासरू…! ☆ 

 

कसं सांगू

आजकाल शाळेत जायची सुद्धा

भिती वाटायला लागलीय…

जेव्हा पासून

माझ्या मित्राच्या बानं

कर्जापाई आत्महत्या केलीय ना

तेव्हापासून तर . . .

जरा जास्तच…,

शाळा सुटल्यावर कधी एकदा घरी येऊन

बापाला पाहतेय असं होत..

अन् बापाच्या कुशीत शिरल्यावर

काळजीचं भूत एकाएकी गायब होतं….

खरंच सांगतो बा मला

काहीच नको देऊ…

आणि आम्हाला सोडून बा . . .

तू कुठंच नको जाऊ….

दोन दिवस झाले बा. . . मी

कासरा दप्तरात घेऊन फिरतोय….

अन् तुझ्यासाठी जीव माझा

आतून हुंदके देऊन रडतोय…

बा.. तू समोर असलास ना

की भूक सुध्दा लागत नाही

अन् तुझ्या काळजीने

रात्र रात्र झोप सुध्दा

लागत नाही…..

काही झालं तरी बा…

आत्महत्ये सारखा विचार तू

डोक्यामध्ये सुध्दा आणू नको…

आणि तुझं हे वासरू

तुझ्यासाठी झुरतय इतकं

विसरू नको. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।।23।।

 

जिनको सहना सहज है काम,क्रोध,संवेग

सुखी वही संसार में योगी सहित विवेक।।23।।

 

भावार्थ :  जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।।23।।

 

He who is able, while still here in this world to withstand, before the liberation from the body, the impulse born of desire and anger-he is a Yogi, he is a happy man. ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बचपना – सेल्फमेड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ बचपना – सेल्फमेड  ☆

 

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – कविता / Poetry – ☆ विजय अवतरित सज्जनता ☆ – कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ के सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

 

आज हम डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी के सम्मान में कैप्टन प्रवीण जी के मित्र श्री सुमीत आनंद जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी कविता “The gentleman down the street” का हिन्दी भावानुवाद “विजय अवतरित सज्जनता…” प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संक्षिप्त परिचय: 

डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी का जन्म 4 अगस्त, 1924 को हुआ था। आप  हिन्दी के समकालीन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप जर्मनी के फ्रैंकफुर्त शहर  में स्थित जॉन वौल्‍फ़गॉग गोएटे विश्‍वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्‍त प्राध्‍यापक हैं। 

श्री सुमीत आनंद जी के ही शब्दों में

4 अगस्त 2019 को फ्रैंकफोर्ट (जर्मनी) में आदरणीय डॉ इन्दु इंदु प्रकाश पाण्डेय जी के 95 वें जन्मोत्सव पर उनके स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए मैंने  “The gentleman down the street” शीर्षक से पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की प्रच्छन्न विशेषताओं को उजागर करते हुए एक कविता लिखी थी. मेरे अनन्य मित्र और हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू के मर्मज्ञ विद्वान् कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने मेरे अनुरोध करने पर इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है.

प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने हिंदी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है.

मुझे विश्वास है कि पाण्डेय जी के असंख्य हिंदी पाठक, प्रशंसक, इष्ट-मित्र और विद्यार्थी इसे पढ़कर एक बार फिर से उनके लिए शुभकामनाएँ अर्पित करेंगे.

      – सुमीत आनंद

 

☆ विजय अवतरित सज्जनता… ☆

 

बस जैसे ही मैंने सोचा

कि अब शिष्टता मर चुकी है

वाक्पटुता भी मृतप्राय है

मौलिक भद्रता मरणासन्न है

तभी जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका आगमन हुआ…

 

आपका अपनी

जीवन की अनूठी कहानियों का,

अपने दीर्घ अनुभवों के

खज़ाने का द्वार मेरे लिए खोलना

और मुझे सिखाना

जीवन के छोटे-बड़े आनंद

का नित्य लुत्फ उठाना…

 

आपका

एक ज्योतिपुंज होना

प्रेमभाव से परिपूरित होना

और हम सभी को

इन्हीं ईश्वरीय भावों से ओतप्रोत करना…

जीवन को सम्पूर्णता से प्रेम करना

फिर भी हमेशा निर्लिप्त भाव में रहना

 

एक श्वेत कपोत की भांति अल्हड़, मस्त और पवित्र…

प्रत्येक दिन एक अपरिमित

उन्मुक्तता के साथ जीना

जीवन के तूफानों का

एक मुस्कान के साथ

एक फ़क़ीराना अंदाज़ में,

शांत व साहसी भाव से

निरंतर सामना करना…

 

जबसे जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका प्रादुर्भाव हुआ…

हर गुज़रता पल

हर गुज़रता वर्ष

ये अहसास दिलाता रहा कि

आपका शाश्वत सामीप्य

हमे प्रेम-विभोर कर रहा है…

निरंतर आशीष दे रहा है…

 

हिंदी अनुवादः प्रवीण रघुवंशी 

 

The  Original  poem – ☆  The gentleman down the street ☆

 

Just when I thought

Chivalry is dead

Eloquence is dead

The basic goodness, is dead

Along came you

The gentleman down the street.

Opening your chest of treasure

Of all the life´s stories

Of all your experiences

And teaching me

To rejoice life´s little pleasures.

Carrying so much light and love

And infecting all with the same

Loving life to the fullest

Yet be so detached

Carefree and pure as a dove.

Living each day with a careless abandon

Braving through life´s storms

With a smile

With an audacity

alongside your brave but calm compassion.

With each passing year

Realising that you are there

To love us to bless us

You remain ever so dear

The gentleman down my street

 

 – Sumeet Aanand

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