हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ बिन पानी सब सून ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

☆ बिन पानी सब सून ☆ 

(श्री संजय भारद्वाज जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।   जल से संबन्धित शायद ही ऐसा कोई तथ्य शेष हो जिसकी व्याख्या  श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा इस लेख में न की गई हो। e-abhivyakti आपसे भविष्य में ऐसी और भी रचनाओं की अपेक्षा करता है।)

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही  सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है।  कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है।  यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है।  पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष  सारा जल  अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।’

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है।  वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु  के साथ माँ या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज  पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी  प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों में होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह  का विराट दर्शन था।  कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने  की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं।  बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहाँ से दूर का न देख पाने की बीमारी-‘मायोपिआ’ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि  सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।

पर्यावरणविद  मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।  प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि  से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि  सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को माँ कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है।  गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियाँ अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर  नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गाँवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे  हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै। ऐसेे प्रयासों को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत्‌ में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है।  पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा!  महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू)  खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी।

इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता कहती है-

 

आदमी की आँख का

जब मर जाता है पानी,

खतरे का निशान

चढ़ जाता है पानी।

आदमी की आँख में

जब भर आता है पानी,

खतरे के निशान से

उतर जाता है पानी।

 

बेहतर होगा कि हम समय रहते आसन्न खतरे से चेत जाएँ।

 

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

मोबाइल 9890122603

[email protected]

 




मराठी साहित्य – कथा/लघुकथा – ☆ वेळ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

☆ वेळ ☆

(सौ. सुजाता काळे जी की कथा ‘वेळ’ इस भौतिकवादी एवं स्वार्थी संसार की झलक प्रस्तुत करती है। इस मार्मिक एवं भावुक कथा के एक-एक शब्द , एक-एक पंक्तियाँ एवं एक-एक पात्र हमें आज के मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास का एहसास दिलाते हैं ।यह जीवन की सच्चाई है। मैं इस भावनात्मक सच्चाई को कथास्वरूप में रचने के लिए सौ. सुजाता काळे जी की लेखनी को नमन करता हूँ।)

 

त्या दिवशी पहाटेच माईंना धाप लागली. त्यांना श्वास घेण्यास त्रास झाला. एवढया पहाटे दवाखाने बंद ….   काय करावे? मॉर्निंग वॉकला निघालेल्या स्नेही डॉक्टरांनी तपासले. दवाखाना उघाडल्यावर ताबडतोब एडमिट करायवयास सांगितले. माईंच्या सुनेने रेवतीने कसं बसं बळजबरीने  त्यांना चहा बिस्किटे खायला घातली. ते शेवटचे होते असं त्यावेळी तिच्या कल्पनेतही नसणारं…..

सकाळी  दवाखाना उघडल्याबरोबर माईंना दवाखान्यात नेल. डॉक्टरांनी त्यांना एडमिट करून घेतलं. लगबगीनं तपासलं. सगळया तपासण्या झाल्या आणि डॉक्टरांनी माईंची शेवटची स्टेज आहे असं घोषित केलं. रेवतीने डॉक्टरांशीच वाद घातला. काहीही बडबडु नका म्हणाली……  नाडी तपासली तर ठोके खूप कमी.  बी.पी. कमी….. 80–52. ….. तो नंतर कमी कमीच होत गेला….. आधीच त्यांना लो बी.पी.  चा त्रास. डॉक्टर म्हणाले की किडनी फेल आहे. रक्त चढवावं लागेल. प्लाज्मा पण दयावा लागेल. धावाधाव सुरू झाली होती….. नाईलाज ….. त्यांना श्वास घ्यायला त्रास होत होता म्हणुन वेंटिलेटर लावले. कोण जाणे त्यावेळी रेवतीला वेंटिलेटर जणु देवचं भासला. तिच्या मते वेंटिलेटर वर ठेवलं म्हणजे माई नक्कीच वाचणारं. आशा सोडली नव्हती…..

गेल्या दोन – तीन  वर्षांत माईंच्या पोटात पाणी होत  होते.  त्यांच्या मुलीने व डॉक्टर जावयाने मोठया दवाखान्यात नेवून खूप वेळा उपचार केले.  पण वय साथ देत नव्हते. त्यात आप्पा गेल्यापासून त्या शरीराबरोवर मनानेही खचल्या होत्या. गेली बारा पंधरा वर्षे त्यांनी सोरायसिस सारखं असाध्य दुखण सोसलं होतं। त्यात संधीवाताचा त्रास . हालता चालता नीट येत नव्हते. आयुष्यभराच्या काबाड कष्टाचा आवाज आता चलता चालता हाडांतून येत होता. तितक्यात डॉक्टरांनी “नातेवाईकांना बोलावून घ्या” असे सांगितले. माईंच्या धाकटा लेकानं ‘हाय’खाल्ली. त्याला रडु आवरेना. काय कराव सुचेना पण कळवावं तर लागणार होतं. माईंच्या मुलीला कळवलं. तर मुलगी व जावई लगेचच निघाले. खरचं मुलीची माया जगवेगळी असते.  दोन अडीच तासात दोघेही हजर. माई नेहमी म्हणायच्या की डॉक्टर  भुंग्यासारखी गाडी चालवतात…..

डॉक्टरांनी येऊन रिपोर्ट पाहीले. त्यांना कळुन चुकले  की आता माई काही वाचणार नाहीत.

पण माईंचा जीव कुठेतरी दुसरीकदेच अदकला होता. त्यांच्या दादामधे, “दादा” त्यांचा मोठा मुलगा. तो वयाच्या तेराव्या वर्षी शिक्षणासाठी घराबाहेर गावाबाहेर पडला. तो पुन्हा कधीच घरचा झालाच  नाही. खरं तर शिक्षणासाठी गेलेली मुले क्वचितच खेडयात माघारी येतात किंवा बहुधा पाहुणा म्हणुनच घरी येतात. माईंचा मुलगाही गेला तो परगावचाच झाला. त्याचे शिक्षण, नोकरी, लग्न, मुले सगळं काही शहरातच झालं. माई पूर्वी कधी कधी वर्षा दोन वर्षातून त्याच्याकडे जायच्या. नंतर नंतर तेही बंद झालं. शहरी संस्कृती बरोबर गावची संस्कृतीचं पटत नाही हे त्यांना कळुन चुकले होते. माईंचे यजमान आप्पा त्यांच्या भावा बहीणीच्या जबाबदारीचे आझे पेलता पेलताच गेले. त्यामुळे स्वतःच्या संसाराकडे व मुलांकडे त्यांचे दुर्लक्ष झाले. आणि माईंच्या मनात कायमचा खेद राहिला की त्यांच्या मुलगा त्यांच्यापासून कायमचा दूर गेला.  त्या नहेमी त्यांच्या मैत्रिणींबरोबर बोलत असत की एकदा माझ्या तावडीत येऊ दे गं….  मला त्याच्याशी मन भरून गप्पा मारायच्या आहेत. जो गेला तो गेलाच.  एकदा माझ्या तावडीत सापडू दे. नेहमी आला की लगेच निघुन जातो. राहातचं नाही.  असे म्हणत म्हणत चाळीस वर्षे निघून गेली. आणि माईंना  त्यांच्या मनातले काही बोलता आलेच नाही. त्या आयुष्यभर झुरतच राहील्या . नंतर नंतर त्रागा करू लागल्या की “आता मला त्यांचे तोंड देखील पहायचे नाही. माझ्यासाठी त्याच्याकडे वेळ नाही. त्याला म्हणावं की मी मेल्यानंतरही येऊ नकोस. मला अग्नी पण देऊ नकोस. एक दोनदा तर दादांना फोन वर बोलतनाही अश्याच रागावल्या.

माणसाचं काय असतं ….. हे कधी कधी कळतचं नाही. जे हाती नसतचं त्याचा हव्यास असतो.

बरे असो …..अश्या माईंच्या ‘साहेब झालेल्या मोठया मुलाला रेवतीने फोन केला व म्हणाली ¸ “ दादा माईंची तब्येत खूप गंभीर आहे. त्यांना दवाखान्यात अ‍ॅडमिट केलं आहे. डॉक्टरांनी नातेवाईंकांना बोलवून घ्यायला सांगितले आहे. पण….. दांदानी नेहमीसारखी यावेळीही येण्यासाठी अनिच्छा दाखवली. “मला वेळ नाही. खूप अर्जंट कामे करायची बाकी आहेत. उदया आले तर नाही का चालणार?” रेवती म्हणाली की दादा डॉक्टरांनी लास्ट स्टेज सांगितली आहे. मी माझे सांगायचे काम केले. तुम्ही काय ते ठरवा. असे म्हणत रेवतीने फोन ठेवला. मी विचार केला की सोश्यल मीडियाने माणसांना जोडल आहे की तोडल आहे. पूर्वी लग्न पत्रिका महिना महिना आधी लोकं पाठवत असतं. नातेवाईक कार्यक्रमास हजर होत. पण मृत्यु पावलेल्यांच्या बातमीचे पत्र सर्व विधि उरकले तरीही मिळत नसे. पण आता तर तस नाही…..

तर काय….. माईंच्या दादांना कळवण्याचे कर्तव्य रेवतीने केले. आता ‘वेळ’दादांची होती कर्तव्य पार पाडण्याची. त्यादिवशी संध्याकाळ होत आली तरी माईंची तब्येत काही स्थिर होत नव्हती.  रेवती व विभाताई दिवसभर माईंजवळचं होत्या. दिवसभरात माईनी अनेकवेळा दादाबद्दल विचारलं. सकाळी बोलत होत्या तोपर्यंत बोलल्या नंतर इशा–याने विचारू लागल्या. त्या दोघी काय बोलणार.  त्यांच्याकडे त्यांच्या प्रश्नाचे उत्तर नव्हते. त्यांना या क्षणीही त्यांच्या दादाशी बोलायचे होते. मनातलं साठवलेलं सगळं बोलायचं होत. राग, प्रेम ब झुरणारा झरा वाहु दयायचा होता.  पण हळुहळु त्यांची स्थिती खालावून गेली. शरीरातील एक एक अंग काम करेनासा झाला. संध्याकाळी ब्लड प्रेशर अगदी लो झाला. आता त्यानां खाणाखुणा पण करता येत नव्हत्या. वाचेने साथ सोडली होती…. त्राण नहता….. तोंडावर लावलेले वेंटीलेटर काढ म्हणुन त्यांनी रेवतीला वारंवार सांगितले. पण तिच्या हातात काही नव्हते. त्यांना रक्ताच्या बाटल्या व प्लाज्मा देऊन काही उपयोग झाला नव्हता. देवाची प्रार्थना करण्याशिवाय दूसरा पर्याय नव्हता.

आणि……….संध्याकाळी माईंचा दादा आला.  आल्या आल्या माईंची चौकशी केली व आय सी यू मधे भेटायला गेला. माईंना हाक मारली. आम्ही सगळे खुष होतो की माईंना आनंद होईल. पण….. हे काय  माईंनी चक्क मानच फिरवली. दादांचा चेहराही पाहीला नाही. आम्हा सगळयांना आश्चर्य वाटले की हीच ती माई आहे का? जी आयुष्यभर दादाशी पोटभर बोलायचं म्हणत होती. आज काय झालयं? दादांनी तीन चार वेळा हाक मारली. पण माईंनी फिरवलेली मान पुन्हा वळवली नाही. आज काय झालयं माईला?

कारण वेगळचं होतं….. त्यावेळी माईंकडे वेळ होता पण दादाकडे नव्हता. आज माई मरणाच्या दारात आहे आणि दादा दवाखान्याच्या दारात….. आज दादाकडे वेळ आहे पण माईंकडे नाही. मी समजू शकले की माईंना वाटले असेल की अंतिम क्षणी भेटायला आला आहे जेव्हा बोलणचं अशक्य होतं. आता त्या बोलण्याच्या स्थितित नव्हत्या.

पहाटे पहाटे माई गेल्या….. त्यांचे अंत्यसंस्कार झाले. अग्नि देताना वर्षांवर्षींचा दादाचा उमाळा दाटून आला….. दादाने हबंरडा फोडला….. माई….. माई तू माझ्याकडे एक वेळ पाहीलं नाहीस….. एक वेळ…..फक्त एक वेळ …..पण त्यांना कुठे माहित होतं की माईंची ती ‘वेळ….. आता टळून गेली होती…..!!!

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।46।।

 

जो संभव है कुयें से वह ही दे तालाब

त्यों वेदों में जो सुलभ ब्रम्हज्ञान में आप।।46।।

 

भावार्थ :  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।।46।।

 

To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much use as is areservoir of water in a place where there is a flood.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Happiness and Well-Being ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Happiness and Well-Being

Lesson 1
What is happiness?
 
Happiness is the experience of joy, contentment, or positive well-being, combined with a sense that one’s life is good, meaningful, and worthwhile.
Five Elements of Well-Being
  1. Positive Emotions
  2. Engagement
  3. Relationships
  4. Meaning
  5. Accomplishmen
Each of these five elements will be discussed in our next lesson.
Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




ई-अभिव्यक्ति: संवाद-22 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22         

साहित्यकार की किसी भी रचना रचने के पीछे अवश्य ही उसका अपना कोई ना कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तो तथ्य अवश्य रहता होगा जो साहित्यकार को नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित करता होगा जिसकी परिणति उस रचना को कलमबद्ध कर आप तक पहुंचाने की प्रक्रिया का अंश होता है । जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध न कर दे कितना छटपटाता होगा इसकी कल्पना कतिपय पाठक की परिकल्पना से परे है।

विगत दो तीन दिनों के अंतराल में सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं  “Tearful adieu” एवं “Fear of Future” और आज डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है” ने काफी उद्वेलित किया।

मुझे अनायास ही लगा कि गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की परिकल्पना क्या इतनी सहज एवं आसान है? क्या स्त्री कवियित्रि  उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है। एक पाठक के रूप में यह मेरी भी परिकल्पना से परे है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित मेरी एक कविता आपसे साझा करना चाहता हूँ। अब यह आप ही तय करें।

 

स्वागत!

जब से आहट दी है तुमने,

मुझमे यह एहसास जगाया है।

मानो किसी दूसरी दुनिया से

कोई शांति दूत सा आया है।

जब गर्भ में हलचल देकर

अपना एहसास दिलाते हो।

ऐसा लगता है जैसे मुझको

तुम अन्तर्मन से बुलाते हो।

सारी रात तुम्हारे भविष्य के

हम सपने रोज सँजोते हैं।

मैं सुनाती हूँ प्यारी लोरी

पिता कहानी रोज सुनाते हैं।

यह मेरा सौभाग्य है जो तुम

मेरी ही कोख में आए हो।

दादा-दादी कहते नहीं थकते

तुम पिछली पीढ़ी के साये हो।

स्वप्न देखकर पिछली पीढ़ी ने

हमको आज यहाँ पहुंचाया है।

अब आसमान छूना है तुमको

यही स्वप्न हमें दिखलाया है।

ना जाने तुम अपने संसार में

कैसे यह एकांत बिताते हो ?

क्या खाते हो? क्या पीते हो?

कुछ भी तो नहीं बताते हो?

तन आकुल है, मन आकुल है

तुम्हारी एक झलक पाने को।

बाहें आकुल हैं, हृदय आकुल है

अपने हृदय से तुम्हें लगाने को।

शरद, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु से

प्रकृति ने ही तुमको बचाया है।

शांत सुरम्य बर्फ की चादर ने

स्वागत में आँचल फैलाया है।

सह सकती हूँ कैसी भी पीड़ा

तुम्हें इस संसार में लाने को।

नौ माह लगते हैं नौ युग से

तुम्हें इस संसार में लाने को।

सभी धार्मिक स्थलों के दर पर

हमने अपना माथा टिकाया है।

सांसारिक शक्तियों ने तुम्हारा

अस्तित्व मुझमें मिलाया है ।

यह जीवन अत्यंत कठिन है

यह कैसे तुमको समझाउंगी?

मैंने भी मन में यह ठानी है

तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी।

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर 

16 अप्रैल 2019




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆

(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

 

 

तैरती थी जिसमें कई महीने,

वो गर्भ का एक सागर था।

सृष्टि पाली जिसमें बड़े करीने,

ममता का सुरक्षित सागर था।।

 

उसकी बंद पलकों में अंधेरा था,

आज खुली पलकों में सवेरा है।

गर्भ एक घुप सागर घनेरा था,

अब ये एक अनुपम बसेरा है।

 

उनींदी आंखों से मुझे निहारती,

शायद मैं कौन प्राणी हूँ सोचती।

मैं कहॉ आ गई हूं ये विचारती,

अनगिनत सपने मन में पोषती।।

 

अष्टमी में सद्यः जन्मी आई मेरे सामने,

थी मुझे जिसकी उत्कट प्रतीक्षा।

लेकर आई वो अनगिनत मायने,

पूर्ण करने हम सबकी उर इच्छा।।

 

बेटियों के रूप में मैं ही तो जन्मा हूँ,

बेटियों के रूप में मैं ही तो जी रहा हूं।

अब नातिन में मैं अष्टमी में पुनः जन्मा हूँ,

शिवानी बन मैं फिर जी रहा हूं।।

 

सृष्टि का वो स्वयं एक रूप है,

वो शिवानी का तो ही प्रतिरूप है।

पर नारी हेतु समाज कितना कुरूप है,

यद्यपि वो नव दुर्गा का ही स्वरूप है।।

 

बेटियां सरस्वती लक्ष्मी दुर्गा ही बने,

चूड़ियाँ पहन वो घर में ही न बंद रहें।

धरती आकाश सागर उड़ने हेतु ही बने,

पंख पसारें उड़ें खुश्बू बन महकती रहें।।

 

लक्ष्मी हैं सरस्वती हैं रति भी वही हैं,

मर्दन करें दरिंदों का और चहकती रहें,

वक्त आने पर नवदुर्गा का स्वरूप वही हैँ।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ डॉ बाबासाहेब आंबेडकर व माता रमाई यांच्यातील नाते ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆डॉ बाबासाहेब आंबेडकर व माता रमाई यांच्यातील नाते☆

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा  राष्ट्र निर्माता डॉ बाबासाहेब आंबेडकर  जी के १२८ वीं जंयती पर “काव्य विचार मंच  द्वारा राज्यस्तरीय लेख प्रतियोगिता हेतु रचित शोधपूर्ण लेख  जिसमें  डॉ  आंबेडकर जी  एवं रमाई जी के सम्बन्धों का उल्लेख मिलता है।)  )

उजेडाच्या झाडाखाली, रमा मातेची  पाखर.

शब्दा शब्दांतून झरे, तिच्या स्नेहाचा पाझर.. . !

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर  एक  उजेडाच झाड. रमाबा ई आंबेडकर या नावाची पखरण वैवाहिक जीवनात होताच हे  उजेडाच झाड आपल्या कार्य कर्तृत्वाचा परीघ वाढवीत गेलं. रमा वलंगकर हे रमाबाईचे माहेरचे नाव. भायखळ्याच्या भाजी मार्केट मध्ये इ. स. 1906 मध्ये रमाबाई आणि भीमराव आंबेडकर विवाह बद्ध झाले. चौदाव्या वर्षी बाबासाहेबांचे दोनाचे चार हात झाले.  अवघ्या नऊ वर्षाची रमाई बाबासाहेबांची सहचारिणी झाली  आणि त्यांचे वैवाहिक जीवन सुरू झाले.

गतीमान  आयुष्याची, नितीमान वाटचाल

भवसागरी झेलली,  सुख दुःखे दरसाल. . .!

      अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितीत हा विवाह सोहळा संपन्न झाला. माहेरची परीस्थिती जेमतेम होती.  कुठलाही डामडौल नाही दिखावा नाही.  अत्यंत साधेपणाने हा विवाह संपन्न झाला  आणि रमाबाईच आयुष्य गतीमान झालं. दाभोळच्या बंदरात वडील मासेमारी करायचे.  तीन बहिणी  आणि लहान भाऊ  असा परिवार  असताना  घरच्या जबाबदाऱ्या लहानग्या रमा ला स्वीकाराव्या लागल्या.  फुलत्या वयात आई, वडिलांच्या निधनाचे दुःख पचवून या  उजेडाच्या झाडाखाली विसावली.

वैवाहिक जीवन सुरू झाले पण  कष्टमय जीवन पाठराखण करीत होते.  सासू,  सासरे यांचे  अल्पशा आजाराने निधन झाले त्यावेळी रमाई ने बाबासाहेबांना वयाने लहान असूनही खूप मोठा  आधार दिला.  मायेचं छत हरवलेली रमा प्रतिकूल परिस्थितीचा प्रत्येक वार पावसाची सर झेलावी इतक्या सहजतेने झेलत होती.

जेव्हा रमा वयात आली तेव्हापासून हे मृत्यू सत्र ती अनुभवीत होती. ‘पोटच्या मुलाचे निधन’ हा ही धक्का रमाबाई ने कणखर पणे पचवला.

मरण म्हणजे काय कळत नव्हते त्या अजाण वयात रमाईच्या आई वडिलांचा मृत्यू झाला. इ.स. १९१३ साली बाबासाहेबांचे वडील रामजी सुभेदार यांचे निधन झाले. इ.स. १९१४ ते १९१७ साली बाबासाहेब अमेरिकेला असताना मुलगा रमेशचा याचे अकाली निधन झाले. १९१७  सालच्या  ऑगस्ट मध्येच बाबासाहेबांची सावत्र आई  जिजाबाई यांचे निधन झाले. याच दरम्यान  मुलगी इंदू, रमाईचा दिर,   आनंदराव व आनंदरावांचा मुलगा गंगाधरचा यांचे निधन झाले . हे मृत्यू सत्र एकोणीशे सव्हीस पर्यंत चालूच राहिले  इ.स. १९२१  मुलगा बाळ गंगाधर, व इ.स. १९२६ मध्ये राजरत्‍नचा मृत्यू अविस्मरणीय दुःख या काळात पचवावे लागले.  भीमराव  आणि रमाई दोघांनी परस्परांना धीर देत,स्वतःला सावरत या परिस्थितीतून मार्ग काढला.  रडत बसण्यापेक्षा पडेल ते काम करून संसार सावरण्याची रमाई ची जिद्द महत्वाची ठरली.

संसारात प्रतिकूल परिस्थिती पाठ सोडत नव्हती. प्रसंगी शेणी,गोव-या थापून त्या बाजारात विकून संसार सावरला. भल्या पहाटे उठून रस्त्यावर पडलेले शेण  उचलून  आणायचे काम सोपे नव्हते पण मोठ्या जिद्दीने रमाई कष्ट करीत राहिले. तिने केलेले हे कष्ट भीमस्वप्न साकार करण्यासाठी प्रत्येक वेळी उपयोगी पडले.

इ.स. १९२३ साली बाबासाहेब लंडनला गेले होते, त्यावेळी  अतिशय बिकट परिस्थिती आलेली. कुटुंबाची  खूपच वाताहत होत होती.  दुष्काळाच्या आगीत सारे कुटुंब  होरपळत होते भीमरावांच्या समकालीन निष्ठावान  कार्यकर्त्यांना रमाईचे हाल पहावले नाहीत. त्यांनी काही आर्थिक मदत रमाई ला देऊ केली.  . तिने त्यांच्या भावनांचा आदर केला पण ते पैसे स्विकारले नाहीत. स्वाभिमानी  डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकरांची ती स्वाभिमानी पत्‍नी जिद्दीने दुःखांशी अडचणींशी गरिबीशी झगडत होती. मृत्युसत्र दुःख, त्याग, समजूतदारपणा, कारुण्य, उदंड मानवता व प्रेरणास्थान म्हणजे रमाई भीमराव आंबेडकर.

अनेक नातलगांचे मृत्यू पहाताना रमाई खचत गेली. पण हार न मानता भीमस्वप्न पूर्ण करण्यासाठी  आणि  बाबा साहेबांच्या शिक्षणात व्यत्यय येऊ नये म्हणून  काही दुःखे  स्वतः पचवीत गेली.त्यांना तातडीने  कळविले नाही. परदेशा गेलेल्या  बाबासाहेबांना  रमाईने  कधी आपल्या दु:खाची झळ पोहचू दिली नाही. ज्ञानसाधना करताना  कुठलाही  अडथळा नको म्हणून काही परिवाराचे हालअपेष्टा, संसार खस्ता रमाई ने स्वतः सहन केल्या.

डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर  शिक्षणासाठी परदेशी  असताना . रमाई एकट्याने संसाराचा डोलारा सांभाळत होती.. घर चालवण्यासाठी तिने शेणी, गोवर्‍या विकल्या .. सरपणासाठी वणवण फिरत,  पोयबावाडीतून दादर माहीम पर्यंत ती जायची. त्या वेळी  बॅरिस्टराची पत्‍नी शेण वेचते या बातमीने बाबासाहेबांना कमी पणा येईल . म्हणून पहाटे सूर्योदयापूर्वी व रात्री ८.०० नंतर, रमाई वरळीला जाऊन गोवर्‍या थापायची काम करायची.   मुलांसाठी उपास तापास करत रमाई भीमरावाच्या भीमस्वप्नांना आकार देत गेली.

अस्पृश्यतेच्या अग्निदिव्यातून तावून सुलाखून  निघालेले बाबासाहेब जेव्हा  समाजाला अस्पृश्यतेच्या रोगातून मुक्त करण्यासाठी व त्यासाठी निष्णात डॉक्टर होण्यासाठी अपार कष्ट घेऊ लागले,तेव्हा ही रमाई अर्धपोटी उपाशी राहून बाबासाहेबांना भक्कम साथ देत गेली. तिच्या सहयोगाने बाबासाहेब  अठरा  अठरा  तास अभ्‍यास करु लागले, पण रमाई ने त्या ज्ञानसाधनेत कधी व्यत्यय येऊ दिला नाही.  रमाईने आपल्‍या निष्ठेने, त्यागाने आणि कष्टाने ,स्वतःच्या संसाराचा गाडा हाकलून बाबासाहेबांना ध्येय गाठण्यासाठी मदत तर केलीच पण पत्नीची सारी कर्तव्ये चोख पार पाडली.

संकटांचा  केला नाश, ध्येय पूर्तीचाच ध्यास

कधी ऋतू विरहाचा, कधी सौभाग्याचा श्वास. . !

नाही धडूत नेसाया,तरी हार ना मानली.

भरजरी फेट्यातून, परिस्थिती हाताळली. . !

      डॉ. बाबासाहेब परदेशातून शिक्षण घेऊन मायदेशी मुंबईत परतले तेव्हा  त्यांच्या स्वागताला सर्व  समाज बांधव मोठ्या प्रमाणावर  मुंबई बंदरात आले होते.  रमाईला नेसण्यासाठी चांगली साडी देखील  नव्हती.  अशावेळेस बोभाटा न करता रमाई ने मोठ्या शिताफिने हा प्रश्न सोडवला. छत्रपती शाहू महाराजांनी बाबासाहेबांच्या सत्कारप्रसंगी दिलेला भरजरी फेटा त्याची साडी  नेसून बाबासाहेबांच्या स्वागतासाठी रमाई सामोरी गेली.

डॉक्टर बाबासाहेब रमाई ला रामू म्हणून हाक मारायचे. ते बोटीतून उतरताच त्यांच्या जयजयकाराने संपूर्ण  बंदर दुमदुमून गेले. अनेकजण त्‍यांना शुभेच्छा देत  होते, हस्तांदोलन करीत होते. पण रमाई मात्र  या सा-यातून लांब कोपऱ्यात उभी होती. डॉ. बाबासाहेबांची नजर त्यांच्या रामूवर गेली. ते  त्या गर्गेदीतून वाट काढीत  रमाई जवळ गेलेत्यांनी विचारले,” रामू तू लांब का उभी राहीलीस? ” तेव्हा रमाई म्‍हणाली,” तुम्हाला भेटण्यासाठी  समाज बांधव आतूर झालेले  असताना मी तुमचा इथे वेळ घेणे योग्य नाही. मी तर तुमची पत्नीच आहे. आपण  एकमेकांना  कधीही भेटू शकते” हे पारिवारीक नात रमाई ने जीवापाड जपले.

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या अध्ययनात व्यत्यय येऊ नये म्हणून रमाई  प्रवेशद्वारावर तासनतास बसून राहायची. बाबासाहेबांना कोणी भेटायला आल्यावर , प्रत्येकाशी तितक्याच अदबीने वागत, “साहेब पुस्तकाच्या कोंडाळ्यात,  वाचनात , महत्वाच्या कामात आहेत, नंतर सवडीने  भेटा.” असे सांगे. अशी पाठवण करताना रमाई प्रत्येकाचे त् नाव, गाव, कामाचे स्वरूप, पुन्हा कधी येणार आहात, हे सारे एका नोंदवहीत त्या व्यक्तीला नोंद करून ठेवण्यास  सांगत.

मानव्याची उषःप्रभा, असणारी, तमाम भीमलेकरांची  संजीवनी रमाई संस्काराचे ज्ञानपीठ, मनोमनी रूजवीत गेली.  संसार करताना आलेले अडीनडीचे दिवस,  शिताफीने दूर केले. अनेक छोट्या मोठ्या गृहोपयोगी वस्तूची सचोटीने विक्री करून पै पे जोडत परीस्थिती सावरणारी रमाई बाबासाहेवांच्या जोडीने समाज कार्यात सहभागी झाली.दागदागिन्यांचा सोस नसलेली रमाई दुसर्‍याला  आनंद देण्यासाठी जगली.

रमाईंनी अठ्ठावीस वर्षे बाबासाहेब आंबेडकर यांना साथ दिली रमाईचे शरिर अतोनात केलेल्या कष्टाने पोखरुन गेल होते.दरम्यान रमाईचा आजार बळावला होता. इ.स. १९३५ च्या जानेवारी महिन्यापासून रमाईचा आजार वाढतच गेला. मे १९३५ला तर आजार खूपच विकोपाला गेला त्यावेळी  बाबासाहेबांनी सर्व नामांकित डॉक्टरांना पाचारण केले. पण कुठल्याच औषधोपचारारला रमाईचे शरीर साथ देईना. या काळात  बाबासाहेब आजारी रमाईच्या जवळ बसून राहू लागले. आजारी रमाई त्यांच्याकडे एकटक बघत असत. बोलण्याचा प्रयत्‍न करीत असत; पण अंगात त्राण नसल्यामुळे ती बोलू शकत नव्हत्या. आपल्या रामूला  बाबासाहेब स्वतः  औषध देत असत आणि कॉफी किंवा मोसंबीचा रस स्वत:च्या हाताने पाजण्याचा प्रयत्‍न करीत असत. बाबासाहेबांच्या आग्रहामुळे रमाई थोडी कॉफी किंवा मोसंबीचा रस पीत असे. पण काही केल्या रमाईचा  आजार  बरा झाला नाही. आणि बाबासाहेबांवर दुःखाचा फार मोठा आघात झाला . २७ मे १९३५ रोजी सकाळी ९ वाजता रमाईची प्राण ज्योत मावळली. सर्व परिसर आकांतात बुडाला. कोट्यवधी रंजल्या गांजल्याची रमाई माता त्यांची रामू बाबासाहेबांना सोडून गेली.

बाबासाहेब आंबेडकरांचे रमाबाईंवर निस्सीम प्रेम होते. तिचे कष्ट पाहून त्यांचे मन तुटायचे. त्यांनी आपल्या रामूला पाठवलेल्या पत्रात बाबासाहेबांनी या भावना शब्दांकित केल्या आहेत. . ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ हा आपला ग्रंथ बाबासाहेबांनी आपल्या ‘प्रिय रामू’ला अर्पण केला तेव्हा अर्पणपत्रिकेत बाबासाहेबांनी लिहिले  की, ‘‘तिच्या हृदयाचा चांगूलपणा, मनाची कुलीनता आणि शीलाच्या पावित्र्यासह तिचे शालीन मनोधैर्य नि माझ्याबरोबर दु:ख सोसण्याची तिची तयारी अशा दिवसांत तिने मला दाखविली- जेव्हा मी नशिबाने लादलेला मित्रविरहित काळ चिंतेसह कंठीत होतो. या बिकट परिस्थितीत साथ देणाऱ्या रामूच्या आठवणींत कोरलेले हे प्रतीक…’’ आपल्या पत्नीबद्दलच्या,रमाई बद्दलच्या या  भावना बाबासाहेबांच्या या अर्पणपत्रिकेतून व्यक्त झाल्या. आणि रमाई भीमराव यांच नात समाज बांधवांच्या काळजात घर करून राहिल.

मान द्यावा,  मान घ्यावा, ही रमाईची शिकवण आजही भीम लेकरांच्या मनी, एक एक साठवण.. म्हणून शिलकीत आहे  पोलादी पुरूष झालेली रमाई जीवनाच्या वादळात  कधी डगमगली नाही. भीमरावाच्या कार्याला, तीन दशकांची साथ देणारी  रमाई, अनाथांची  नाथ…  झाली. अशी, माता, पत्नी, गुणी कन्या जगती आदर्श ठरली.  ‘रमा ची रमाई झाली’ तिला समाजाने, मान दिला.  तिचे स्वागत सहर्ष… सर्व ठिकाणी केले गेले. तिच्या कर्तृत्वात,  संस्काराची मोतीमाळ हीती. तिच्या कार्याची  प्रेरणा,  सदा सर्वकाळ… मना मनात तेवत राहिल.

घटनेचे शिल्पकार डाॅक्टर बाबासाहेब आंबेडकर हे नाव जेव्हा जेव्हा घेतल जाईल तेव्हा तेव्हा ही माता रमाई आसवांची शाई बनून जगताला सांगत राहिल.

“असे होते भीमराव,  आणि  अशी होते मी”

 

© विजय यशवंत सातपुते

100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी, सहकार नगर नंबर 2, दशभुजा गणपती रोड, पुणे. 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (45) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌।।45।।

 

त्रिगुण विषय से युक्त है वेद तू त्रिगुणातीत

हो,अर्जुन निद्र्वन्द औ मन से भावातीत।।45।।

 

भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो।।45।।

 

The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes, O Arjuna! Free  yourself  from  the  pairs  of  opposites  and  ever  remain  in  the  quality  of  Sattwa (goodness), freed from the thought of acquisition and preservation, and be established in the Self. ।।45।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ आइये सीखें – हास्य योग कैसे करें? ☆ Shri Jagat Singh Bisht

 

 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

How to do Laughter Yoga ? Tutorial in Hindi….. 

Video Link >>>>>>>>

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




ई-अभिव्यक्ति: संवाद-21 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–21        

आपसे संवाद करना और आपकी प्रतिक्रियाएँ जानना फिर उन पर अमल करना मुझे इस क्षेत्र में कुछ करने हेतु सकारात्मक ऊर्जा देता है।

सम्मानित लेखक मित्रों की रचनाएँ अधिक से अधिक पाठकों द्वारा पढ़ी और सराही जाती है तो लगता है कि लेखक मित्र का लेखन सफल हो गया है और मेरा प्रयोग/ प्रयास सार्थक हो रहा है।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में लेखक/पाठक मित्रों का योगदान सराहनीय है। आज प्रातः इन पंक्तियों के लिखे जाने तक  जब e-abhivyakti के डेशबोर्ड पर दृष्टि डाली तो हृदय प्रफुल्लित हो उठा। लेखक पाठक मित्रों द्वारा पोर्टल पर विजिटर्स की बढ़ती हुई संख्या (12,600+) का बढ़ता हुआ ग्राफ कुछ और नया प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहित करता है।

आज के दौर में जब स्तरीय पत्रिकाएँ बाजार से गुम होती जा रहीं हैं ऐसे में डिजिटल मंच पर ई-अभिव्यक्ति जैसे प्रयोग आशा की किरण हैं।

कुछ लेखक मित्रों ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि उनकी रचनाएँ कितने पाठकों द्वारा पढ़ी गई?

यदि आप इसे तुलनात्मक दृष्टि से न लें और स्वस्थ प्रतियोगिता की दृष्टि से लें तो मैं गत एक माह में पाठकों द्वारा दस सर्वाधिक पढ़ी गई रचनाएँ एवं उनका लिंक आपसे शेयर करना चाहूँगा। इन्हें आप सांकेतिक रूप से ले सकते हैं क्योंकि इनमें वे संख्याएं सम्मिलित हैं जो पाठकों द्वारा शॉर्ट लिंक का उपयोग करते हुए पढ़ी गईं हैं। इनमें वे संख्याएँ  सम्मिलित नहीं हैं जो पाठकों द्वारा सीधे पोर्टल पर जाकर पढ़ी गईं हैं। अतः वास्तविक पाठकों की संख्या इससे अधिक हो सकती है। 

  • APRIL 4 मराठी कविता – ☆ असीम बलिदान ‘पोलीस’ ☆ – श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर – 263 पाठक – ly/2CWKVcW
  • APRIL 11 हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ – 242 पाठक – ly/2GdvHlD
  • APRIL 6 – मराठी आलेख – ? आनंदाचं फुलपाखरू ?- श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे – 150 पाठक – ly/2G2Evuy
  • APRIL 3 – हिन्दी कविता ☆ दोहे ☆ – सुश्री शारदा मित्तल – 116 पाठक -ly/2WCzTRi
  • MAR 18 – मराठी आलेख – * विषवल्ली.. . ! * – डॉ. रवींद्र वेदपाठक – 77 पाठक – ly/2TGFglD
  • APRIL 5 – हिन्दी कविता – ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव – 68 पाठक – bit.ly/2UiieBV
  • MAR 26 – रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव – 66 पाठक -ly/2HHXQU8
  • APRIL 4 – हिन्दी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता – 59 पाठक -ly/2OMbTZv
  • APRIL 3 – मराठी कविता – ☆ अळवाचं पाणी ☆ – श्रीमति सुजाता काले – 59 पाठक – ly/2OG4VFm
  • APRIL 12 – हिन्दी कविता ☆ मुक्ता जी के मुक्तक ☆ –डा. मुक्ता – 57 पाठक -ly/2KxhX9F

आज पत्रिकाएं खरीद कर और साझा कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। पुस्तकालय बंद होने की कगार पर हैं। ऐसे में यदि मित्र लेखक / पाठक विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, व्हाट्सएप्प या फेसबुक पर लिंक शेयर कर अधिकतम लेखकों /पाठकों तक रचनाओं को उपलब्ध कराने में सफल होते हैं तो निश्चित ही यह प्रयोग सफल होगा।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर