हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ युग पुरुष परसाई ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

✍ परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – युग पुरुष परसाई  ✍

 

तब परसाई जी उस जमाने में मेट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुए, उस जमाने में प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ी बात होती थी। अभावग्रस्त पिता झुमक्क लाल कोयले की दलाली करते थे, जंगल विभाग के एक डी एफ ओ से थोड़ा सा परिचय था, सो झुमक्क लाल अपने बेटे हरिशंकर को डीएफओ से मिलाने ले गए। हरिशंकर परसाई की पर्सनालिटी शुरू से प्रभावित करने वाली रही, अच्छी नाक -नक्श, गोरे और ऊपर से मेट्रिक में प्रथम श्रेणी…… सो उन परिचित डीएफओ ने परसाई को ‘केसला’ के जंगल में वन विभाग की छोटी सी नौकरी दे दी।

परसाई ‘केसला’ के जंगल में गए तो उनके अंडर में दो कर्मचारी मिले  दोनों शुद्ध मुसलमान। जब ये बात परसाई के रिश्तेदारों को पता चली तो रिश्तेदारों को चिंता हुई कि परसाई तो शुद्ध ब्राम्हण और दोनों कर्मचारी मुसलमान,   जंगल में बेचारे अकेले कैसे रहेंगे।  कुछ ने कुछ कहा….. कुछ ने अलग तरह की बात कही तो कुछ डरे डरे संकेत की भाषा में बोले। कुछ दिन बाद चिंताग्रस्त रिश्तेदारों को परसाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं तो क्या हुआ…. वे अच्छे मानव तो हैं, रही बात मांसाहारी की…. तो वे दोनों शुद्ध शाकाहारी हैं जब वे दोनों शाकाहारी हैं तो मैं मांसाहारी कैसे बनूंगा ?

परसाई को जंगल में रहते हुए आगे न पढ़ पाने की पीड़ा परेशान किए हुए थी सो एक दिन उन परचित डीएफओ से मिलकर अनुनय विनय किया कि उनका ट्रांसफर पास के कोई छोटे शहर तरफ कर दिया जाय ताकि आगे की पढ़ाई भी कर सकें। डीएफओ ने एक न सुनी कहा – ‘जंगल की नौकरी जंगल में ही हो सकती है और कहीं नहीं’…… परसाई निराश हुए और आगे पढ़ने के चक्कर में उन्होंने जंगल की नौकरी को ‘ जै राम जी  ‘कह दी।

आगे की पढ़ाई के लिए वे खण्डवा आ गए, उन्हें खण्डवा के एक स्कूल में नौकरी मिल गई, प्रतिभाशाली होने के नाते कुछ दिन बाद उनका जबलपुर के नार्मल स्कूल में ट्रेनिंग हेतु सिलेक्शन हो गया, इस तरह नार्मल स्कूल की ट्रेनिंग हेतु वे जबलपुर आ गए। नार्मल स्कूल ट्रेनिंग में टाॅप करने पर उनकी पोस्टिंग स्थानीय माडल हाईस्कूल में हो गई, तब परसाई ने मालवीय चौक की श्याम टाकीज के पास एक छोटा सा कमरा किराए में लिया जो बरसात में टपका मारता था, साथ में भाई भी रहने आ गए।

कुछ दिन बाद परसाई जी ने अपनी पहली रचना “पहला पुल” लिखी। सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखी इस रचना ने परसाई की सरकारी नौकरी खा ली।  परसाई जी गरीबी के साथ भूखे पेट उसी कमरे में रहे आये, उनकी लिखी छुट-पुट रचनाएँ छपतीं तो कभी एक आना तो कभी दो आना मिल जाते, परसाई और उनके भाई भूखे पेट सो जाते, कभी-कभी चना-फूटा चबाकर संतोष कर लेते। कुछ दिनों बाद साहित्यिक मित्रों के प्रयास से उन्हें डी एन जैन स्कूल में नौकरी मिली। उस समय स्कूल वाले  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत करवाते और  ‘चालीस रूपये’ देते। परसाई ने विरोध किया, उनका कहना था कि  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत होते हैं तो  ‘साठ रूपये ‘ ही मिलने चाहिए, सो उन्होंने एक  ‘टीचर यूनियन ‘ बना ली, ये मध्यप्रदेश प्रदेश की पहली  टीचर्स यूनियन थी। उन्हें फिर नौकरी से निकाल दिया गया। उनके दोस्तों ने समझाया कि परसाई यदि नौकरी करना है तो लिखने के काम को छोड़ना पड़ेगा.. क्योंकि लिखने के काम के साथ पेट भूखा रहेगा तो पेट के साथ काहे को अन्याय कर रहे हो, भूखे पेट कब तक लिखते रहोगे पर परसाई ने संघर्ष करते हुए लिखने का रास्ता पकड़ लिया।

विधवा बहन और उसके चार बच्चों के साथ  जबलपुर के नेपियर टाऊन के पास एक किराए का मकान लेकर रहने लगे……अभावों में रहते हुए आज तक परसाई के अपने नाम पर उनका अपना घर नहीं बना, न कभी बैंक बेलेंस रहा। गरीबी के साथ अक्खड़ और फक्कड़ जीवन जीते रहे और लगातार लिखते रहे…… संघर्ष करते रहे…….. कोई टांग तोड़ गया…… कोई दिल तोड़ गया…… कोई गाली-गलौज करके आगे बढ़ गया पर वे लिखते रहे……… लगातार लिखते रहे। लिखने से उनके पास धीरे-धीरे थोड़ा पैसा आने लगा, बहन और उसके बच्चों की मदद करते रहे और लगातार लिखते रहे……. फिर एक दिन दस अगस्त उन्नीस सौ पन्चानबे में चुपचाप शरीर छोड़कर इस धरती से न जाने कहाँ चले गए…….. ।

परसाई जी कभी-कभी कहते थे कि मेरे पास जब पैसा नहीं था तब मैं ज्यादा सुखी था। लिखने से थोड़ा बहुत पैसा आने पर सुखों में कमी सी आ गई। पैसा आने से हर कोई मुझसे पैसा ऐंठने के चक्कर में रहता। मैं था संवेदनशील…. मुझे दुख होता कि इतना पैसा मेरे पास नहीं आता था कि मैं उनकी वैसी मदद कर पाता जैसा वे चाहते थे।

अपने बारे में स्वयं परसाई जी ने लिखा है कि “कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलांचे मारता, टहलता मिलूंगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूंगा तो हम सारा दिन  हँसते और दाँत निकालते ही गुजार देंगे”   पर नितान्त गम्भीर, छै फुटे और रोबीले परसाई से मिलने पर यह भ्रम टूट जाता था। उनके रोबीले व्यक्तित्व को लेकर किसी ने परसाई जी से कहा था कि आपने साहित्य में आकर एक पुलिस अफसर की पर्सनेल्टी का नुकसान किया है आपको तो कहीं थानेदार होना था। तब परसाई जी ने कहा था – “यहां भी मैं थानेदारी कर रहा हूं” व्यंग्य लेखन शरीफ किस्म का लाठी ही तो है। जनता में विजेता का आत्मविश्वास पैदा करने के लिए उन्होंने व्यंग्य का सहारा लिया, वे व्यंग्य को गहरा, ट्रेजिक और करुणामय मानते थे यही वजह है कि उनकी रचनाओं में आवेश या क्रोध करुणा के सहारे उभरता है।

प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक परसाई जी हैं। वे छठवें दशक से अभी तक सबसे बड़े जन-लेखक माने जाते हैं, परसाई ने जन जन के बीच सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की समझ और तमीज पैदा की । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परसाई जी ने व्यंग्य के माध्यम से जितना विशाल लोक शिक्षण किया है वह हमारे समकालीन रचना जगत में आश्चर्यजनक घटना है, परसाई के जीवन की पाठशाला में उनके अनुभव की विविधता और वैज्ञानिक सोच ने इस लोक शिक्षण में बड़ा काम किया है, अपनी कलम से दुनिया को बदलने के संघर्ष में वे जीवनपर्यंत लगे रहे। उन्होंने व्यंग्य को नई दिशा दी उसमें ताजगी के साथ और लीक से हटकर लेखन किया जिससे पाठक बड़ी व्यग्रता से उनकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हुआ हर जगह पाया गया। गांव का मामूली किसान हो चाहे गांव के स्कूल से लौटता हुआ विद्यार्थी हो चाहे फैक्ट्री या मिल से लौटता हुआ मजदूर हो या युनिवर्सिटी की क्लास में परसाई की रचना पर चलती बहस हो सब जगह परसाई जी की रचनाओं ने जीवन मूल्यों के प्रति सचेत किया, समाज – राजनीति में भिदे हुए पाखंड को उद्घाटित किया। इसलिए हम कह सकते हैं कि परसाई, प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाने वालों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखते हैं। आज उनका जन्मदिन है उन्हें शत शत नमन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई का गाँव ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – परसाई का गाँव ✍

 

देश की पहली विशेषीकृत माईक्रो फाईनेंस शाखा भोपाल में पदस्थापना के दौरान एक बार इटारसी क्षेत्र दौरे में जाना हुआ।  जमानी गांव से गुजरते हुए परसाई जी याद आ गए।  हरिशंकर परसाई इसी गांव में पैदा हुए थे।  जमानी गांव में फैले अजीबोगरीब सूनेपन और अल्हड़ सी पगडंडी में हमने किसी ऐसे व्यकित की तलाश की जो परसाई जी का पैतृक घर दिखा सके। रास्ते में एक दो को पकड़ा पर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। हारकर हाईस्कूल तरफ गए। पहले तो हाईस्कूल वाले गाड़ी देखकर डर गए।  क्योंकि कई मास्साब स्कूल से गायब थे। जैसे तैसे एक मास्साब ने हिम्मत दिखाई।  बोले – “परसाई जी यहाँ पैदा जरूर हुए थे पर गर्दिश के दिनों में वे यहाँ  रह नहीं पाए।”  हांलाकि  नयी पीढ़ी कुछ बता नहीं पाती क्यूंकि पढ़ने की आदत नहीं है।  फेसबुकिया माहौल में चेट करते एक लड़के से जब हरिशंकर परसाई जी के पुराने मकान के बारे में पूछा तो उसने पूछा – “कौन परसाई ?”

फिर भी बेचारे स्कूल के उन मास्साब ने मदद की।  पैदल गाँव की तरफ जाते हुए मास्साब ने बताया कि उनका पुराना घर तो पूरी तरह से गिर चुका है ,घर के खपरे और ईंटें लोग पहले ही चुरा ले गए । अब टूटे घर के ठीहे में लोग लघुशंका करते रहते हैं ,……..”

हमने मास्साब से कहा चलो फिर भी वो जगह देख लेते हैं और चल पड़े उस ओर ……. कच्ची पगडंडी के बाजू में मास्साब ने ईशारा किया ,….नींंव के कुछ पत्थर शेष दिखे । दुर्गंध कचरा के सिवा कुछ न था।  चालीस बाई साठ के एरिया में हमने अंदाज लगाया कि शायद इस जगह  पर परसाई सशरीर धरती पर उतरे रहे होंगे धरती छूकर पता नहीं आम बच्चों की तरह ” कहाँ कहाँ कहाँ “की आवाज से अपनी उपस्थिति बतायी या चुपचाप गोबर लिपी धरती पर उतर गए रहे होंगे ………. आह और वाह के अनमनेपन के बीच उस प्लाट की एक परिक्रमा पूरी हुई जब तक उस पार खड़े सज्जन की लघुशंका करने की व्यग्रता को देखते हुए हम मास्साब के साथ स्कूल तरफ मुड़ गए ………”

 

(जस का तस लिखने में दुख हुआ दर्द हुआ पर आंखिन देखी पर विश्वास करना पड़ा। क्षमायाचना सहित )

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने परसाई   स्मृति पर अपना विशेष आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा कर हमें प्रोत्साहित किया।)

 

✍ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई  ✍

 

पिछली अर्धशती में हास्य और व्यंग एक नयी साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित हुआ है. हास्य और व्यंग में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग के कटाक्ष हमें तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग, उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.

प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, पर उनका यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता तो केवल उसकी ढाल है.

बात उन दिनो की है जब मैं किशोरावस्था में था, शायद हाई स्कूल के प्रारंभिक दिनो में. हम मण्डला में रहते थे.घर पर कई सारे अखबार और पत्रिकायें खरीदी जाती थी. साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, नंदन आदि पढ़ना मेरा शौक बन चुका था. नवीन दुनिया अखबार के संपादकीय पृष्ठ का एक कालम सुनो भाई साधो और नवभारत टाइम्स का स्तंभ प्रतिदिन मैं रोज बड़े चाव से पढ़ता था. पहला परसाई जी का और दूसरा शरद जी का कालम था यह बात मुझे बहुत बाद में ध्यान में आई. छात्र जीवन में जब मैं इस तरह का साहित्य पढ़ रहा था और इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर का नाट्यरूपांतरण देख रहा था शायद तभी मेरे भीतर अवचेतन में एक व्यंगकार का भ्रूण आकार ले रहा था. बाद में संभवतः इसी प्रेरणा से मैने डा देवेन्द्र वर्मा जो मण्डला में पदस्थ एक अच्छे व्यंगकार थे व वहां संयुक्त कलेक्टर भी रहे, की व्यंग संग्रह  का नाम “जीप पर सवार सुख” रखा जो स्कूल के दिनो में पढ़ी शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से अभिप्रेरित रहा होगा. मण्डला से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र मेकलवाणी में मैने ” दूरंदेशी चश्मा ”  नाम से एक व्यंग कालम भी कई अंको में निरंतर लिखा. फिर मेरी किताबें रामभरोसे, कौआ कान ले गया तथा मेरे प्रिय व्यंग लेख पुस्तकें छपीं, तथा पुरस्कृत हुईं.

हरिशंकर परसाई और शरद जोशी दो सुस्थापित लगभग समानान्तर व्यंगकार हुये. दोनो ही मूलतः मध्यप्रदेश के थे. जहां जबलपुर को परसाई जी ने अपनी कर्मभूमि बनाया वही शरद जी मुम्बई चले गये. उनके समय तक साहित्य में व्यंग को विधा के रूप में स्वीकार करने का संघर्ष था. व्यंग्य संवेदनशील एवं सत्यनिष्ठ मन द्वारा विसंगतियों पर की गई प्रतिक्रिया है,  एक ऐसी प्रतिक्रिया जिसमें ऊपर से कटुता और हास्य की झलक मिलती है, पर उसके मूल में करुणा और मित्रता का भाव  होता है।  व्यंग्य यथार्थ के अनुभव से ही पैदा होता है, यदि  कल्पनाशीलता से जबरदस्ती व्यंग्य पैदा करने की कोशिश की जावे तो  रचना खुद ही हास्यास्पद हो जाती है.इशारे से गलती करने वाले को उसकी गलती का अहसास दिलाकर  सच को सच कहने का साहस ही व्यंगकार की ताकत है. व्यंगकार बोलता है तो लोग कहते हैं “बहुत बोलता है “, पर यदि उसके बोलने पर चिंतन करें तो हम समझ सकते हैं कि वह तो हमारे ही दीर्घकालिक हित के लिये बोल रहा था.

हरिशंकर परसाई (२२ अगस्त, १९२४ – १० अगस्त, १९९५) का जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरीशुरू की.  खंडवा में ६ महीने अध्यापन का कार्य किया. दो वर्ष (१९४१-४३) जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण की उपाधि ली, 1942 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापन भी किया . तब के समय में अभिव्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का वह स्तर नही रहा होगा शायद तभी १९५२ में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी। १९५३ से १९५७ तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की .१९५७ में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत उन्होने की, तत्कालीन परिस्थितियों में साहित्य को जीवकोपार्जन के लिये चुनना एक दुस्साहसिक कदम ही था. जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली, नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’, नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी-उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध-लेखन के बावजूद वे मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुये. उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की  कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया. परसाई जी जबलपुर व रायपुर से प्रकाशित अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले पहल हल्के, इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाई जी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया, दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया मेरे जैसे लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे.

सरकारे और साहित्य अकादमीयां उनके नाम पर पुरस्कार स्थापित किये हुये हैं पर स्वयं अपने जीवन काल में उन्होने संघर्ष किया जीवन यापन के लिये भी और वैचारिक स्तर पर भी. उन पर प्रहार हुये, विकलांग श्रद्धा का दौर तो इसी से जन्मी कृति है.उन पर अनेकानेक शोधार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयो में डाक्टरेट कर रहे हैं. आज भी परसाई जी की कृतियो के नाट्य रूपांतरण मंचित हो रहे हैं, उन पर चित्रांकन, पोस्टर प्रदर्शनियां, लगाई जाती हैं,  और इस तरह साहित्य जगत उन्हें जीवंत बनाये हुये है. वे अपने साहित्य के जरिये और व्यंग को साहित्य में विधा के रूप मे स्वीकार करवाने के लिये सदा जाने जाते रहेंगे.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 11 ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “अनुरागी ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 13 ☆ ईज़ाद ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 13 ☆

 

☆ ईज़ाद ☆

 

वर्षों से गरीबी का दंश झेल रहे

माता-पिता ने विवश होकर कहा

हम नहीं कर पा रहे रोटी का जुगाड़

न ही करवा पा रहे हैं

तुम्हारी बहन का इलाज

 

बालक दौड़ा-दौड़ा

डाक्टर के पास गया

और उनसे किया सवाल

‘ क्या तुमने की है ऐसी दवा ईज़ाद

जो भूख पर पा सके नियंत्रण ‘

 

डॉक्टर साहब का माथा चकराया

आखिर उस मासूम बच्चे के ज़ेहन में

सहसा यह प्रश्न क्यों आया

 

वह बालक बेबाक़ बोला

‘तुमने चांद पर विजय पा ली

मंगल ग्रह पर सृष्टि रचना के स्वप्न संजोते हो

पूरी दुनिया पर आसीन होने का दम भरते हो’

 

ज़रा! हमारी ओर देखो…सोचो

कितने दिन हम जी पाएंगे पेट पकड़

भूख से बिलबिलाते

पेट की क्षुधा को शांत करने को प्रयासरत

शायद हम करेंगे लूटपाट,डकैती

व देंगे हत्या को अंजाम

और पहुंच जाएंगे सीखचों के पीछे

जहां सुविधा से स्वत:प्राप्त होगी

रोटी,कपड़ा और सिर छिपाने को छत

 

साहब! संविधान में संशोधन कराओ

सबको समानता का ह़क दिलवाओ

ताकि भूख से तड़प कर

कर्ज़ के नीचे दबकर

किसी को न करनी पड़े आत्महत्या

और देने पड़ें प्राण।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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मराठी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प तेरावे # 13 ☆ नात्यात येणारा दुरावा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प तेरावे  # 13 ☆

 

☆ नात्यात येणारा दुरावा ☆

 

आजकाल नाते संबध  ही मानवी भावना राहिली नसून तो एक व्यवहार झाला आहे  असे खेदाने म्हणावेसे वाटते.  .  नाते  विश्वास, स्वभाव दोष,  आकलन  क्षमता  आणि अनुभव यावर सर्वस्वी अवलंबून असते.  नाते ही नैतिक जबाबदारी आहे हे जोपर्यंत मनात रूजत  नाही तोपर्यंत  हे नाते मनापासून निभावले जाऊ शकत नाही. .

मी कसा श्रेष्ठ आणि  विद्वान  हे  सिद्ध करण्यात प्रत्येक जण  इतरांच्या भावनांशी खेळतो आहे.  या स्पर्धेचे युगात पैशाच्या जोरावर नातेसंबंध हवे तसे जोपासले जात आहेत.   भ्रष्टाचार, लाच  या गोष्टी ठराविक समाजात शिष्टाचार बनत चालल्या आहेत. दुरावा होण्याची आणखी  कारणे आहेत  ती म्हणजे संशय आणी  षडरिपू .  रक्ताचे नाते समाज काय म्हणेल या भावनेतून  किंवा क्षुल्लक  स्वार्थ साधण्यासाठी निभावले जाते.  संशयाने मनभेद आणि मतभेद होतात.  मन  एकदा का दुखावले गेले की  आपलेपणा जाऊन परकेपणा निर्माण होतो.

नाते पैशात मोजायचे की शब्दात हे ज्याला समजले तो कुठलेही नाते  छान सांभाळू शकतो.  नातेवाईक  आपल्याला काय देतात , आपण त्यांना काय दिले यापेक्षा मी  आप्तांना काय देऊ शकत नाही ते देण्यासाठी जर निस्वार्थीपणे प्रयत्न केला तर नाते आदर्श निर्माण करू शकते. समाज पारावरून हा  विषय चर्चेला घेताना समाज नाते दृढ करणारी माणसे  आता  अभावानेच आढळतात. हे सत्य डावलून चालणार नाही.

नात्यात हेतू नसावा,  बंधुता  आणि मानवता साधण्यासाठी   आपण स्नेहाच्या दोन शब्दांनी  बांधलेला सेतू नात्यात कधीही नष्ट नाही होणारे स्नेहबंध प्रस्थापित करते.  ही सर्व नाती  टिकून राहण्यासाठी आपण सर्वांशी मिळून मिसळून रहाणे जमले की  नात्यांची नाळ  जुळलीच समजा .

रक्ताची पण नाती मांडव शोभेपुरती हवा तीतका पैसा खर्च करतात.  शब्दाची शस्त्रे नात्याला दूर करतात पण मानसिक भावबंध  माणसाला कायम निराशेच्या  अंधकारातून उजेडाचा मार्ग दाखवतात.माणसाला  क्षणैक  मोहाचे  आकर्षण नातेसंबंधात दरी निर्माण करीत आहे.

नाते भावनेशी,  मनाशी जितकी जवळीक साधते तितके पैलू या पा-याला ,  नातेसंबंधाना सहवासात  आपोआप पडतात. ते कसे जपायचे  याचे कौशल्य  अनुभवाने  अंगवळणी पडते.  सा-या जाणिवा नेणिवा या नात्याला  घडवितात  अन बिघडवतात देखील.  आपण मधल्या मधे  आपल्यातला माणूस जीवंत ठेवला की झालं.

नाते,  विश्वास, माणूसकी ,  आणि स्वभाव दोष विसरून दुसर्‍याला माफ करण्याची क्षमाशीलता

या गोष्टीवर सर्वस्वी  अवलंबून असते.  नात्याला भावनांचे  असलेले रेशमी स्नेहबंध जोपासायला शिकलो की आपोआपच नात्यातला दुरावा कमी होतो.  मुळातच नाते ही संकल्पना माणूस जोडण्यासाठी उपयोगात आणता येते हे जोपर्यंत आपण  मनापासून स्वीकारत नाही तोपर्यंत ते नाते आपण समर्थपणे निभावून नेऊ शकत नाही. माणूस दूर राहूनही  नातेसंबंध  उत्तम जोपासू शकतो.  माणसा माणसात मतभेद  असावेत पण मनभेद होणार नाहीत याची काळजी घेतली की नात्यात कधीही दुरावा येणार नाही.


✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – परसाई स्मृति अंक – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

 

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।।17।।

 

परम तत्व में आत्मा रमती जिनकी आप

पुनर्जन्म लेते नहीं ऐसे वे निष्पाप।।17।।

 

भावार्थ :  जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं।।17।।

 

Their intellect absorbed in That, their self being That; established in That, with That as their supreme goal, they go whence there is no return, their sins dispelled by knowledge. ।।17।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सोचो जरा….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?✍ संजय दृष्टि  – सोचो ज़रा..! ✍?

 

सोचने लगा

तो यों ही सोचा,

चाहे तो जला देना

मेरे साथ

मेरा पसंदीदा

कुर्ता-पायजामा,

जीन्स, हाफ कुर्ता,

मेरा चश्मा और..

पसंदीदा की

इससे लम्बी फेहरिस्त

नहीं है मेरी..,

खैर! जो-जो तुम चाहो

कर देना आग के हवाले

पर सुनो,

हाथ मत लगाना

मेरे प्रसूत शब्दों को..,

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

आखिर क्यों मानोगे

तुम मेरी बात..,

चलो, जला भी दिये मेरे शब्द

सोचो, कागज़ ही जलेगा न!

तुम्हारे ज़ेहन में तो

चाहे-अनचाहे

बसे ही रहेंगे मेरे शब्द,

भला उनको कैसे जलाओगे?

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

मान लो कर दिया जाये

तुम्हारा ब्रेन वॉश,

जैसा आतंकियों का

किया जाता है,

फिर तुम्हारे ज़ेहन में

नहीं बसेंगे मेरे शब्द,

पर सुनो, तब भी

नष्ट नहीं होंगे मेरे शब्द..!

 

चलो तुम्हारी झुंझलाहट

सुलझा दूँ

इस पहेली का

हल समझा दूँ,

अब मैंने जो सोचा

तो यह सोचा,

जो मैंने लिखा

वह पहला नहीं था

और आखिरी भी नहीं होगा..!

 

मुझसे पहले

हज़ारों, लाखों ने

यही सोचा, लिखा होगा,

मेरे बाद भी

हज़ारों, लाखों

यही सोचेंगे, यही लिखेंगे!

 

सो मेरे मित्रो!

सो मेरे शत्रुओ!

मिट जाता है शरीर

मिट जाते हैं कपड़े,

जूते, चश्मा, परफ्यूम

बेंत आदि-आदि..,

पर अमरपट्टा लिए

बैठे रहते हैं शब्द

जच्चा वॉर्ड से श्मशान तक,

अतीत हो जाते हैं व्यक्ति

व्यतीत नहीं होते विचार,

विश्वास न हो तो

सोच कर देखो बार!

 

तुम सोचोगे तो

तुम भी यही लिखोगे,

सोचने लगा तो

यों ही सोचा,

फिर आगे सोचा तो

वही सोचा

जो तुमने था सोचा,

जो उसने था सोचा,

जो वे सोचेंगे,

सोचो, ज़रा सोचो

सोचो तो सही ज़रा..!

 

आज और सदा अपनी नश्वरता और अपने अमर्त्य होने का भान रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 11 – करे कोई भरे कोई ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  लघुकथा  “करे कोई भरे कोई। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 11 ☆

 

☆ करे कोई भरे कोई ☆  

 

यार रमेश, ये अंकल आँटी को क्या हो गया है, आजकल दोनों बच्चों – पिंकी व रिंकू को हम लोगों से दूर-दूर क्यों रखने लगे हैं?

हाँ  शुभम् मैं भी तो इसी बात से हैरान हूँ। मैंने जब रामदीन दद्दा से पूछा तो वे अपना ही रोना ले बैठे, बोले- कुछ दिनों से बहू बेटे, दोनों बच्चों को उनके कमरे में आने से रोकने लगे हैं।

बता रहे थे वे- आजकल सब दूर यही सब चल रहा है।

उनके एक बुजुर्ग मित्र देवीदीन को तो उनके डॉक्टर बेटे बहू ने मुँह पर ही बोल दिया कि, वे बच्चों से दूरी बना कर रखें। उनके कारण पूछने पर उन लोगों ने स्वास्थ्य का हवाला दिया कि, बड़ी उम्र में शरीर में कई अज्ञात रोगाणु छिपे रहते हैं, इसलिए……

यार रमेश क्या सटीक कारण खोजा है, डॉक्टर बहू बेटे ने अपने ही पिता को बच्चों से दूर रखने का।

वैसे शुभम्- असली कारण मुझे कुछ और ही लग रहा है जो अब कुछ कुछ समझ में भी आ रहा है।

दरअसल आये दिन अखबारों और टी.वी. चैनलों पर बाल यौन उत्पीड़न की कुत्सित घटनाओं को देख सुन कर सभी माँ-बाप अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर काफी भयभीत व आशंकित हैं। शायद इसी भय के चलते सब के साथ उनके अपने भी संदेह के घेरे में आने लगे हैं।

रमेश, यह तो सही है कि  ऐसे हालात में सतर्कता और सावधानी रखना जरूरी हो गया है, पर ऐसे में जो साफ़ सुथरे निश्छल मन के स्नेही स्वजन हैं उनके दिलों पर क्या गुजरेगी।

गुजरना तो है शुभम्- गुजर भी रही है, तभी तो हम इस पर चर्चा कर रहे हैं। क्या करें समाज का ताना बाना ही ऐसा है, सुनी है ना वे सारी कहावतें – कि “एक पापी पूरी नाव को डूबा देता है”,

“दूध का जला छांछ भी फूँक कर पीता है”  या “करे कोई भरे कोई”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 2 – मिट जाएगा …. ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “मिट जाएगा…. ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 2 ☆

 

☆ मिट जाएगा….

 

खुशियों के चंद लमहों के लिए,

आस्था-परंपरा को पैरों तले रौंदने वाले,

मृग-मरीचिका के पीछे क्यों कर भागे,

खुद अस्तित्व भूल औरों को जहर पिलाने वाले,

मिट जाएगा क्षण भर में तू,

खुदगर्ज बन औरों की राह मिटाने वाले.

 

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते,

रोएगा वह फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते,

फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी,

ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले,

मिट जाएगा…….

 

संसार मोह, भरम का भंडार है यहाँ,

ईमान, सच्चाई, करम से छुटकारा भी कहाँ,

इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी,

द्वेष, दंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले,

मिट जाएगा…….

 

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो

स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो,

उनको भला भूल पाया है संसार कभी,

खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले,

मिट जाएगा…….

 

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा,

जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा,

सत्कर्म नहीं झुके हैं जमाने के आगे कभी,

फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले,

मिट जाएगा………

 

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा,

मत सोच खुद का पर काज हित बीज बोए जा,

फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी,

समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले,

मिट जाएगा……..

-०-

१९ अगस्त २०१९

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