श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभार।)
परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – युग पुरुष परसाई
तब परसाई जी उस जमाने में मेट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुए, उस जमाने में प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ी बात होती थी। अभावग्रस्त पिता झुमक्क लाल कोयले की दलाली करते थे, जंगल विभाग के एक डी एफ ओ से थोड़ा सा परिचय था, सो झुमक्क लाल अपने बेटे हरिशंकर को डीएफओ से मिलाने ले गए। हरिशंकर परसाई की पर्सनालिटी शुरू से प्रभावित करने वाली रही, अच्छी नाक -नक्श, गोरे और ऊपर से मेट्रिक में प्रथम श्रेणी…… सो उन परिचित डीएफओ ने परसाई को ‘केसला’ के जंगल में वन विभाग की छोटी सी नौकरी दे दी।
परसाई ‘केसला’ के जंगल में गए तो उनके अंडर में दो कर्मचारी मिले दोनों शुद्ध मुसलमान। जब ये बात परसाई के रिश्तेदारों को पता चली तो रिश्तेदारों को चिंता हुई कि परसाई तो शुद्ध ब्राम्हण और दोनों कर्मचारी मुसलमान, जंगल में बेचारे अकेले कैसे रहेंगे। कुछ ने कुछ कहा….. कुछ ने अलग तरह की बात कही तो कुछ डरे डरे संकेत की भाषा में बोले। कुछ दिन बाद चिंताग्रस्त रिश्तेदारों को परसाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं तो क्या हुआ…. वे अच्छे मानव तो हैं, रही बात मांसाहारी की…. तो वे दोनों शुद्ध शाकाहारी हैं जब वे दोनों शाकाहारी हैं तो मैं मांसाहारी कैसे बनूंगा ?
परसाई को जंगल में रहते हुए आगे न पढ़ पाने की पीड़ा परेशान किए हुए थी सो एक दिन उन परचित डीएफओ से मिलकर अनुनय विनय किया कि उनका ट्रांसफर पास के कोई छोटे शहर तरफ कर दिया जाय ताकि आगे की पढ़ाई भी कर सकें। डीएफओ ने एक न सुनी कहा – ‘जंगल की नौकरी जंगल में ही हो सकती है और कहीं नहीं’…… परसाई निराश हुए और आगे पढ़ने के चक्कर में उन्होंने जंगल की नौकरी को ‘ जै राम जी ‘कह दी।
आगे की पढ़ाई के लिए वे खण्डवा आ गए, उन्हें खण्डवा के एक स्कूल में नौकरी मिल गई, प्रतिभाशाली होने के नाते कुछ दिन बाद उनका जबलपुर के नार्मल स्कूल में ट्रेनिंग हेतु सिलेक्शन हो गया, इस तरह नार्मल स्कूल की ट्रेनिंग हेतु वे जबलपुर आ गए। नार्मल स्कूल ट्रेनिंग में टाॅप करने पर उनकी पोस्टिंग स्थानीय माडल हाईस्कूल में हो गई, तब परसाई ने मालवीय चौक की श्याम टाकीज के पास एक छोटा सा कमरा किराए में लिया जो बरसात में टपका मारता था, साथ में भाई भी रहने आ गए।
कुछ दिन बाद परसाई जी ने अपनी पहली रचना “पहला पुल” लिखी। सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखी इस रचना ने परसाई की सरकारी नौकरी खा ली। परसाई जी गरीबी के साथ भूखे पेट उसी कमरे में रहे आये, उनकी लिखी छुट-पुट रचनाएँ छपतीं तो कभी एक आना तो कभी दो आना मिल जाते, परसाई और उनके भाई भूखे पेट सो जाते, कभी-कभी चना-फूटा चबाकर संतोष कर लेते। कुछ दिनों बाद साहित्यिक मित्रों के प्रयास से उन्हें डी एन जैन स्कूल में नौकरी मिली। उस समय स्कूल वाले ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत करवाते और ‘चालीस रूपये’ देते। परसाई ने विरोध किया, उनका कहना था कि ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत होते हैं तो ‘साठ रूपये ‘ ही मिलने चाहिए, सो उन्होंने एक ‘टीचर यूनियन ‘ बना ली, ये मध्यप्रदेश प्रदेश की पहली टीचर्स यूनियन थी। उन्हें फिर नौकरी से निकाल दिया गया। उनके दोस्तों ने समझाया कि परसाई यदि नौकरी करना है तो लिखने के काम को छोड़ना पड़ेगा.. क्योंकि लिखने के काम के साथ पेट भूखा रहेगा तो पेट के साथ काहे को अन्याय कर रहे हो, भूखे पेट कब तक लिखते रहोगे पर परसाई ने संघर्ष करते हुए लिखने का रास्ता पकड़ लिया।
विधवा बहन और उसके चार बच्चों के साथ जबलपुर के नेपियर टाऊन के पास एक किराए का मकान लेकर रहने लगे……अभावों में रहते हुए आज तक परसाई के अपने नाम पर उनका अपना घर नहीं बना, न कभी बैंक बेलेंस रहा। गरीबी के साथ अक्खड़ और फक्कड़ जीवन जीते रहे और लगातार लिखते रहे…… संघर्ष करते रहे…….. कोई टांग तोड़ गया…… कोई दिल तोड़ गया…… कोई गाली-गलौज करके आगे बढ़ गया पर वे लिखते रहे……… लगातार लिखते रहे। लिखने से उनके पास धीरे-धीरे थोड़ा पैसा आने लगा, बहन और उसके बच्चों की मदद करते रहे और लगातार लिखते रहे……. फिर एक दिन दस अगस्त उन्नीस सौ पन्चानबे में चुपचाप शरीर छोड़कर इस धरती से न जाने कहाँ चले गए…….. ।
परसाई जी कभी-कभी कहते थे कि मेरे पास जब पैसा नहीं था तब मैं ज्यादा सुखी था। लिखने से थोड़ा बहुत पैसा आने पर सुखों में कमी सी आ गई। पैसा आने से हर कोई मुझसे पैसा ऐंठने के चक्कर में रहता। मैं था संवेदनशील…. मुझे दुख होता कि इतना पैसा मेरे पास नहीं आता था कि मैं उनकी वैसी मदद कर पाता जैसा वे चाहते थे।
अपने बारे में स्वयं परसाई जी ने लिखा है कि “कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलांचे मारता, टहलता मिलूंगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूंगा तो हम सारा दिन हँसते और दाँत निकालते ही गुजार देंगे” पर नितान्त गम्भीर, छै फुटे और रोबीले परसाई से मिलने पर यह भ्रम टूट जाता था। उनके रोबीले व्यक्तित्व को लेकर किसी ने परसाई जी से कहा था कि आपने साहित्य में आकर एक पुलिस अफसर की पर्सनेल्टी का नुकसान किया है आपको तो कहीं थानेदार होना था। तब परसाई जी ने कहा था – “यहां भी मैं थानेदारी कर रहा हूं” व्यंग्य लेखन शरीफ किस्म का लाठी ही तो है। जनता में विजेता का आत्मविश्वास पैदा करने के लिए उन्होंने व्यंग्य का सहारा लिया, वे व्यंग्य को गहरा, ट्रेजिक और करुणामय मानते थे यही वजह है कि उनकी रचनाओं में आवेश या क्रोध करुणा के सहारे उभरता है।
प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक परसाई जी हैं। वे छठवें दशक से अभी तक सबसे बड़े जन-लेखक माने जाते हैं, परसाई ने जन जन के बीच सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की समझ और तमीज पैदा की । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परसाई जी ने व्यंग्य के माध्यम से जितना विशाल लोक शिक्षण किया है वह हमारे समकालीन रचना जगत में आश्चर्यजनक घटना है, परसाई के जीवन की पाठशाला में उनके अनुभव की विविधता और वैज्ञानिक सोच ने इस लोक शिक्षण में बड़ा काम किया है, अपनी कलम से दुनिया को बदलने के संघर्ष में वे जीवनपर्यंत लगे रहे। उन्होंने व्यंग्य को नई दिशा दी उसमें ताजगी के साथ और लीक से हटकर लेखन किया जिससे पाठक बड़ी व्यग्रता से उनकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हुआ हर जगह पाया गया। गांव का मामूली किसान हो चाहे गांव के स्कूल से लौटता हुआ विद्यार्थी हो चाहे फैक्ट्री या मिल से लौटता हुआ मजदूर हो या युनिवर्सिटी की क्लास में परसाई की रचना पर चलती बहस हो सब जगह परसाई जी की रचनाओं ने जीवन मूल्यों के प्रति सचेत किया, समाज – राजनीति में भिदे हुए पाखंड को उद्घाटित किया। इसलिए हम कह सकते हैं कि परसाई, प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाने वालों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखते हैं। आज उनका जन्मदिन है उन्हें शत शत नमन।
© जय प्रकाश पाण्डेय