(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और फर्ज़ (कर्तव्य) के मध्य हमारी व्यक्तिगत सोच पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा। )
आज संजय का इंटरव्यू था एक जानी मानी कंपनी में। एमबीए किया था उसने मार्केटिंग में। पूरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था, बल्कि उसने तो भविष्य के सपने भी बुनने शुरू कर दिये थे, उस कंपनी को लेकर। इसी कंपनी में उसका बड़ा भाई विशाल भी वाइस प्रेसीडेंट था जो कि अपनी ईमानदारी व वफादारी के लिए मशहूर था।संजय को पूरा विश्वास था कि उसके भाई का इतना ऊँचा ओहदा है कि उसका तो तुरंत सेलेक्शन हो ही जाएगा।
बड़े रोब के साथ कंपनी में चले जा रहा था।मैनेजर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू था 5 लोग आये हुए थे। तीन तो पहले ही रांउड में बाहर हो गए। संजय और एक दूसरा लड़का और बचे थे।संजय को पहले बुलाया गया,वह यह देख बड़ा खुश हुआ कि इस बार इन्टरव्यू लेने वालों में उसका भाई भी था। उसने यहाँ अपने भाई का अलग रूप देखा, उसके भाई ने तो सवालों की झड़ी लगा दी। वह सकपका गया। पर उसके बाहर आने के बाद भी उसको विश्वास था कि चयन तो उसी का होने वाला है। फिर दूसरे बंदे को अंदर बुलाया गया और उसको वहीं चयनित होने की सूचना दे दी गई। संजय निराश व गुस्से से भरा घर लौट आया यह सोच कर कि भाई को खूब खरीखोटी सुनायेगा।
जब शाम को भाई लौटा संजय भाई पर बरस पड़ा। विशाल छोटे भाई के गुस्से का बुरा न मान हँसते हुए उसे समझाने लगा, ” देख संजू मैं भाई होने से पहले एक इंसान व कंपनी का जिम्मेदार कर्मचारी पहले हूँ । इस नाते जो बंदा इस ओहदे के लायक था, मैनें उसे यह पद दे दिया। अगर भाई का फर्ज निभाना ही होगा तो मैं घर पर अब निभाऊंगा। देख मेरे भाई मेरी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ना छोड़,अब तू बड़ा हो गया है तेरे ऊपर और जिम्मेदारियां भी आने वाली हैं। तू समझने की कोशिश कर मेरे भाई। मैं तैरा भला नहीं चाहूंगा तो और कौन चाहेगा। “संजय काफी देर तक तो परेशान रहा फिर एहसास होने लगा कि उसका भाई सही ही तो बोल रहा है।अब उसे अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना चाहिए।
(श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी का e-abhivyakti में स्वागत है। कौन कहता है कि सेना और पोलिस में कार्यरत कर्मी संवेदनशील नहीं होते और साहित्य की रचना नहीं कर सकते? यह कविता इस सत्य को उजागर है। गंतंत्रता दिवस (दिनाक २६/०१/२०१८ ) को रचित श्री संतोष जी को एवं उनकी कलम को नमन।)
कोणी आले पोटासाठी कोणी आले प्रेमासाठी,
कोणी कुटुब जगविण्यासाठी तर कोणी देशभक्तीसाठी.
नऊ महीने पोटात वाढला, नऊ महीने मैदानात झिजला,
खडतर प्रशिक्षण पुर्ण करुनी तो झुजण्या पोलीस झाला.
जनसेवाची नशाच चढली आठवण कुटुबाची मनातच विरली.
कधीखुन कधीदरोडा तर कधी दगलीत दगड अंगावर आली.
भिती त्याच्या ना डोळ्यात ना मनात कर्तव्यतही ना दिसली.
करीता तपास त्याची लेखनी अन काया नाही कधी दमली.
चौकीलाच घर माने जनतेतच मायबापाचा शोध असे डोळी.
मुला बाळाची आठवण येता ना आश्रु ढाळी आनंदानी गिळी.
पत्नीच्या विरहात जरी त्याची जात असे रोजच रात्र काळी.
तरीही जोमाने कार्यास लागे रविच्या साक्षीने रोज सकाळी.
तो यंत्र आहे का देव कसला हा अजब मानव प्रश्न मज पडे
कीती प्रकारची कामे करती त्याचे मोजमाप नाही कोणाकडे.
करता तपास रात्रदिनी कोणी बंदोबस्तात सदैव असते व्यस्त.
कोणी नक्षल्याची झुजते त्याच्या कामाला कधीच नाही अस्त.
कोणी जखमी दगड फेकीत कोणी अतंकवाद्याच्या गोळ्यात,
कोणी भुसुरुगात गेले गाडुन कोणी नक्षल्याच्या चकमकीत,
तरीही त्याची माघार नसे कर्तव्यत दुःख लपवत अश्रु गिळत,
जनतेसाठी भावनांचे बलिदान देत आनंदाने होतो तो शहीद.
ज्यांच्या बलिदानावर कुटुब आपले सुरक्षित आम्ही जगतो.
त्याच्याच त्यागाच्या अश्रुवर आम्ही सणवार साजरे करतो.
आपण मात्र सुखात आपल्या ते बलिदान क्षणात विसरतो.
तो मात्र हा विचार नकरता विरहातही कार्यतत्परतेने करतो.
राज्या राखीव बल असो वा गडचिरोलीचा जहाबाज पोलीस.
मुबईचा असो वा रेल्वे, ग्रामीण, माझा महाराष्ट्रचा तो पोलीस.
प्रत्येकाचे आहे बलिदान मोठे, आम्हासाठी दुसरा पर्याय कुठे,
‘सदरक्षणाय खल निग्रहनाय’ हे ब्रीद त्याचे आचारातही वठे
क्षणा क्षणाला मी त्याचे हे बलीदान खाकीत स्वताही स्मरतो.
खाकीलाच शान मानतो जनतेसाठी, तिरंग्यासाठी जीव देतो.
माझा असे त्रिवार मुजरा धन्यावाद त्याचे व देवाचे मानतो.
या जन्मी मला तु केला पोलिस पुढिल जन्माची वाट पाहतो.
( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।31।।
मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार
क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।
भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।31।।
Further, having regard to thy own duty, thou shouldst not waver, for there is nothing higher for a Kshatriya than a righteous war. ।।31।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी के अतिसुन्दर एवं भावप्रवण मुक्तक – एक प्रयोग।)
(संभवतः विश्व में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं होगा जिसका पुस्तकों से परोक्ष या अपरोक्ष न रहा हो। सुश्री ज्योति हसबनीस जी e-abhivyakti के प्रारम्भिक साहित्यकारों में से एक हैं, जिनका साहित्यिक सहयोग अविस्मरणीय है। आपकी यह कविता हमें बचपन से हमारे पुस्तकों से निर्बाध सम्बन्धों का स्मरण कराती हैं।)
पुस्तकांशी नातं लहानपणीच जडलं
चांदोबा वेताळ कुमार ने घट्ट घट्ट केलं
पऱ्यांच्या राज्यात मुक्त संचार
तर कधी जादुच्या सतरंजीवर होऊन स्वार किर्र जंगल घातले पालथे तर ऐटीत चढलो डोंगरमाथे ,
कधी मैफल जमली हिमगौरी अन् सात बुटक्यांची
तर चाखली गंमत फास्टर फेणेच्या सायकल शर्यतीची
तिरसिंगरावाच्या कुस्तीत हरवून गेलो
तर मॅंड्रेकच्या संमोहनात हरखून गेलो
ब. मों. नी साकारलेल्या शिवशाहीने मोहून गेलो
तर ह. ना. आपटेंच्या सूर्यग्रहणाने दु:खी झालो
बोकिल द. मांच्या मिष्कीलीत खळाळून हसलो तर पुलंच्या हसवणूकीत पार विरघळलो
विंदा, बोरकर, शांताबाईंच्या कवितेचे सूरच आगळे होते
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।29।।
अचरज से कोई देखता,कहता सुनता कोई
किन्तु बडा आश्चर्य यह जान न पाया कोई।।29।।
भावार्थ : कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता।।29।।
One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet, having heard, none understands It at all. ।।29।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मेरे पास जितनी भी रचनाएँ आपसे साझा करने के लिए e-abhivyakti में आती हैं वास्तव में वे रचनाएँ साहित्य के सागर में किसी भी प्रकार से मोतियों से कम नहीं हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है कि मैं उन मोतियों को सूत्रधार की भांति एक माला में पिरोकर इस माध्यम से आप तक प्रेषित कर दूँ। प्रत्येक रचनाकार अपने पाठकों तक अपने हृदय के सारे उद्गार उन रचना रूपी मोतियों में सजा चमका कर मुझे प्रेषित कर देते हैं। फिर उन मोतियों से भी चुनिन्दा मोतियों को चुनकर प्रतिदिन आप तक पहुँचने का प्रयास बड़ा ही सुखद होता है। यह संवाद तो कदाचित उन मोतियों के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मुझे आप से जोड़ती है।
मेरा तो सदैव यह प्रयास रहता है कि प्रतिदिन आपको चुनिन्दा रचनाएँ प्रस्तुत करूँ। आपका रुचिकर स्नेह मुझे साहित्य में नित नवीन प्रयोगों को आपसे साझा करने हेतु प्रोत्साहित करता है। प्रत्येक दिन आपको कुछ नया दूँ बस यही लालसा मुझे एवं e-abhivyakti के माध्यम से संभवतः मेरे-आपके साहित्य तथा साहित्यिक जीवन जीने की लालसा को जीवित रखती है।
अब आज की रचनाएँ देखिये न। दैनिक स्तंभों में श्री मदभगवत गीता के एक श्लोक के अतिरिक्त श्री जगत सिंह बिष्ट जी का गंगाजी के तट एवं हिमालय श्रंखलाओं के मध्य प्रकृति के गोद में शांतचित्त बैठ कर “निर्वाण” जैसे विषयों पर रचित रचना आपके मस्तिष्क के आध्यात्मिक तारों को निश्चित ही झंकृत कर देंगी।
इसी क्रम में श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता “सावली” मुझे चमत्कृत करती है। मराठी शब्द “सावली” का अर्थ “छाया” होता है। उनकी प्रथम दो पंक्तियाँ “अपनी ही छाया में जब उलझ जाता हूँ कभी कभी, तो सूर्य भी मुझ पर हँसता है कभी कभी।“ यह रचना श्री अशोक जी के गंभीर एवं दार्शनिक मनोभावों को अभिव्यक्त करती है।
इस बार बतौर प्रयोग आपके समक्ष नारी की भावनाओं पर दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आप स्वयं रचनाओं की साहित्यिक तुलना किए बगैर निर्णय लें कि यदि नारी के मनोभावों को एक कवियित्रि डॉ भावना शुक्ल लिखती हैं और एक कवि श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश” लिखते हैं तो उनकी दृष्टि, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति कैसी होती है। मैं तो आपको मात्र दोनों कवियों की अंतिम दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा।
स्त्री है सबसे न्यारी
है वो हर सम्मान की अधिकारी।
डॉ भावना शुक्ल
पता नहीं पिंजरे में,
“मैं हूँ या मेरी भावनाएं ….?”
माधव राव माण्डोले “दिनेश”
इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता कि निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
कहते हैं कि –
स्त्री मन बड़ा कोमल होता है
उसकी आँखों में आँसुओं का स्रोत होता है।
किन्तु,
मैंने तो उसको अपनी पत्नी की विदाई में
मुंह फेरकर आँखें पोंछते हुए भी देखा है।
श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी कि प्रसिद्ध पुस्तक “सफर रिश्तों का” पर आत्मकथ्य एवं उनकी चर्चित कविता “मृत्युबोध” अवश्य आपको जीवन के शाश्वत सत्य “मृत्यु” के “बोध” से अवश्य रूबरू कराएगी।
इस संदर्भ में भी मुझे मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
आत्मकथ्य: सफर रिश्तों का – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर
(‘सफर रिश्तों का’ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी का एक अत्यंत भावनात्मक एवं मार्मिक कविताओं का संग्रह है। ये कवितायें न केवल मार्मिक हैं अपितु हमें आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में जीवन की सच्चाई से रूबरू भी कराती हैं। हमें सच्चाई के धरातल पर उतार कर स्वयं की भावनाओं के मूल्यांकन के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। इतनी अच्छी कविताओं के लिए श्री माथुर जी की कलम को नमन।)
आत्मकथ्य: आज के आधुनिक काल में भारतीय संस्कृति में तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में धुंधले पड़ते रिश्तों के मूल्य उनकी महत्वता और घटते मान सम्मान का विभिन्न कविताओं के माध्यम से बहुत भावुक एवं ममस्पर्शी वर्णन किया गया हैं. रिश्तों पर जो सटीक लेखन कविताओं के माध्यम से किया गया हैं वो दिल को छू लेने वाला हैं. “इंसानियत शर्मसार हो गयी “ में बूढ़े माँ बाप की व्यथा का भावुक वर्णन किया हैं. “मृत्यु बोध “ एक बहुत ही भावुक कविता हैं जिसमें मृत्यु होने के बाद सारे रिश्तेदारों का आपके प्रति कितना लगाव हैं बहुत ही दिल छू लेने वाला वर्णन किया हैं. माता पिता के साथ सिकुड़ते रिश्तों की व्यथा का ममस्पर्शी वर्णन करने का प्रयास किया हैं, सभी कविताऐं बहुत ही भावुक एवं मार्मिक हैं. आज रिश्तो की अहमियत कम होती जा रही हैं रिश्ते पीछे छूट रहे हैं.अन्य कविताए भी बहुत भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद हैं. पुस्तक हर उम्र के व्यक्तियों के पढ़ने एवं आत्म मनन करने योग्य हैं. यह पुस्तक सामाजिक मूल्यों, माँ बाप और बच्चों के बीच पुनःआत्मीय रिश्ते स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकती हैं.
Excerpts from Author’s Amazon Page : In “Safar Rishto ka,” the author through various poems has made a very touching and heart-rendering description of the decline in the relationship between parents and children in today’s Indian society. In “insaniyat sharmsaar ho gayi” has given an emotional description of the sadness of old parents. “Mrityu bodh” is a very emotional poem in which it is described that after the death how relatives are attached to your heart. Apart from these there are various precise poems on today’s social environment. The book covers for all ages people and must read by them. It is eye opener to the youth.This book can play a vital role in increase of social values and the rebuilt of intimate relationship between parents and children.