हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रकृति (1-2) ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

?? संजय दृष्टि  – प्रकृति (1-2) ??

 

 

प्रकृति-1

 

प्रकृति ने चितेरे थे चित्र चहुँ ओर

मनुष्य ने कुछ चित्र मिटाये

अपने बसेरे बसाये,

 

प्रकृति बनाती रही चित्र निरंतर,

मनुष्य ने गेरू-चूने से

वही चित्र दीवारों पर लगाये,

 

प्रकृति ने येन केन प्रकारेण

जारी रखा चित्र बनाना

मनुष्य ने पशुचर्म, नख, दंत सजाये,

 

निर्वासन भोगती रही

सिमटती रही, मिटती रही,

विसंगतियों में यथासंभव

चित्र बनाती रही प्रकृति,

 

प्रकृति को उकेरनेवाला

प्रकृति के खात्मे पर तुला

मनुष्य की कृति में

अब नहीं बची प्रकृति,

 

मनुष्य अब खींचने लगा है

मनुष्य के चित्र..,

मैं आशंकित हूँ,

बेहद आशंकित हूँ..!

 

प्रकृति-2

 

चित्र बनाने के लिए उसने

उतरवा दिये उसके परिधान,

फटी आँखे लिए वह बुदबुदाया-

अनन्य सौंदर्य! अद्भुत कृति!

वीभत्स परिभाषाएँ सुनकर

शर्म से गड़ गई प्रकृति..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 – “गरीबासन” तथा  “कोशिश ” ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  दसवीं कड़ी में उनकी दो लघु कवितायें  “गरीबासन” तथा  “कोशिश ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 ☆

 

☆ गरीबासन ☆ 

 

धूप है कि चिलचिलाती

भूख है फिर कुलबुलाती

जीवन भर की चाकरी

पर पटती नहीं उधारी

सुख चैन छिना कैसी तरक्की

मंहगे गुड़चने में फसी बेबसी

 

☆ कोशिश ☆ 

 

साजिशें वो रचते है

दुनिया में

जिन्हें कोई

जंग जीतनी हो…….

हमारी कोशिश तो

दिल जीतने की होती है…

ताकि रिश्ता

कायम रहे

जब तक जिंदगी हो ..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #13 – कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  तेरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 13 ☆

 

☆ कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला☆

 

जीवन अमूल्य है! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है. किस तरह जिया जावे कि एक सुखद,शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड सकें ? यह सतत अन्वेषण का रोचक विषय रहा है.अनेकानेक आध्यात्मिक गुरु यही आर्ट आफ लिविग सिखाने में लगे हुये हैं. आज हमारे परिवेश में यत्र तत्र हमें कम्प्यूटर दिखता है. यद्यपि कम्प्यूटर का विकास हमने ही किया है किन्तु लाजिकल गणना में कम्प्यूटर हमसे बहुत आगे निकल चुका है. समय के साथ बने रहने के लिये बुजुर्ग लोग भी आज कम्प्यूटर सीखत दिखते हैं. मनुष्य में एक अच्छा गुण है कि हम सीखने के लिये पशु पक्षियों तक से प्रेरणा लेने में नहीं हिचकते विद्यार्थियों के लिये काक चेष्टा, श्वान निद्रा, व बको ध्यानी बनने के प्रेरक श्लोक हमारे पुरातन ग्रंथों में हैं. समय से तादात्म्य स्थापित किया जावे तो हम अब कम्प्यूटर से भी जीवन जीने की कला सीख सकते हैं. हमारा मन,शरीर, दिमाग भी तो ईश्वरीय सुपर कम्प्यूटर से जुडा हुआ एक पर्सनल कम्प्यूटर जैसा संस्करण ही तो है. शरीर को हार्डवेयर व आत्मा को  सिस्टम साफ्टवेयर एवं मन को एप्लीकेशन साफ्टवेयर की संज्ञा दी जा सकती है. उस परम शक्ति के सम्मुख इंसानी लघुता की तुलना की जावे तो हम सुपर कम्प्यूटर के सामने एक बिट से अधिक भला क्या हैं ? अपना जीवन लक्ष्य पा सकें तो शायद एक बाइट बन सकें.आज की व्यस्त जिंदगी ने हमें आत्म केंद्रित बना रखा है पर इसके विपरीत “इंटरनेट” वसुधैव कुटुम्बकम् के शाश्वत भाव की अविरल भारतीय आध्यात्मिक धारा का ही वर्तमान स्वरूप है. यह पारदर्शिता का श्रेष्ठतम उदाहरण है.

स्व को समाज में समाहित कर पारस्परिक हित हेतु सदैव तत्पर रखने का परिचायक है. जिस तरह हम कम्प्यूटर का उपयोग प्रारंभ करते समय रिफ्रेश का बटन दबाते हैं, जीवन के दैननंदिनी व्यवहार में भी हमें एक नव स्फूर्ति के साथ ही प्रत्येक  कार्य करने की शैली बनाना चाहिये.

कम्प्यूटर हमारी किसी कमांड की अनसुनी नहीं करता किंतु हम पत्नी, बच्चों, अपने अधिकारी की कितनी ही बातें टाल जाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष, खिन्नता,कटुता पैदा होती है व हम अशांति को न्योता देते हैं.

क्या हमें कम्प्यूटर से प्रत्येक को समुचित रिस्पांस देना नहीं सीखना चाहिये ? समय समय पर हम अपने पी.सी. की डिस्क क्लीन करना व्यर्थ की फाइलें व आइकन डिलीट करना नहीं भूलते, उसे डिफ्रिगमेंट भी करते हैं.  यदि हम रोजमर्रा के जीवन में भी यह साधारण सी बात अपना लें और अपने मानस पटल से व्यर्थ की घटनायें हटाते रहें तो हम सदैव सबके प्रति सदाशयी व्यवहार कर पायेंगे, इसका प्रतिबिम्ब हमारे चेहरे के कोमल भावों के रूप में परिलक्षित होगा,जैसे हमारे पी.सी. का मनोहर वालपेपर. कम्प्यूटर पर ढ़ेर सारी फाइलें खोल दें तो वे परस्पर उलझ जाती हैं, इसी तरह हमें जीवन में भी रिशतो की घालमेल नहीं करना चाहिये, घर की समस्यायें घर में एवं कार्यालय की उलझने कार्यालय में ही निपटाने की आदत डालकर देखिये, आपकी लोकप्रियता में निश्चित ही वृद्धि होगी. हाँ एक बात है जिसे हमें जीवन में कभी नहीं अपनाना चाहिये, वह है किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट. कापी,कट पेस्ट जैसी  सुविधायें कम्प्यूटर की अपनी विशेषतायें हैं. जीवन में ये शार्ट कट भले ही  त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-12 – अभंग – महापूर ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। सम्पूर्ण देश में बाढ़ की प्राकृतिक विपदा और इस विपदा के मध्य सैनिकों और मदद के बढ़ते हाथ साथ ही उत्सवों की सौगात  इसके बीच मानवीय जिजीविषा।  आज प्रस्तुत है  “अभंग – महापूर । )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 12 ? 

 

? अभंग – महापूर  ?

 

तुझी कोप दृष्टी।झाली अतिवृष्टी। जलमय सृष्टी

महापूर।

 

सोडुनिया माया। धरिलासे राग। प्रेमाला तू जाग ।

नदीमाय।

 

जीव वित्त हानी। झाली वाताहात।  जीवनाचा घात।

आकस्मित।

 

कोसळली घरे। पडली खिंडारे। उध्वस्त भांडारे।

क्षणार्धात।

 

अतोनात प्राणी। बांधल्या दावणी। मुकल्या जीवनी।

प्रलयात।

 

आस्मानी संकट। घटिका बिकट। धावले निकट।

सैन्य दल।

 

मदतीचा हात। देती प्रवाहात। संकटास मात।

दीनबंधू।

 

रक्षाबंधनाचे। मानकरी खरे। सैन्यदल सारे।

बहिणींचे।

 

जाऊ दे वाहून। जाती धर्म पंथ। भेदाभेद संथ।

सर्वकाळ।

 

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (14) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।14।।

 

कर्तापन न कर्म को सृजते है भगवान

न ही फल के संयोग का ही करते निर्माण।।14।।

 

भावार्थ :  परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है।।14।।

 

Neither agency nor actions does the Lord create for the world, nor union with the fruits of actions; it is Nature that acts. ।।14।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों?? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का विचारोत्तेजक आलेख  “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों ?”।)

 

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यह तो सर्वविदित है कि सृष्टि निर्माण के लिए नियंता ने आदम और हव्वा की कल्पना की तथा दोनों को इसका उत्तरदायित्व सौंपा। हव्वा को उसने प्रजनन क्षमता प्रदान की तथा दैवीय गुणों से संपन्न किया। शायद!इसलिये ही मां बच्चे की प्रथम गुरु कहलायी।  जन्म के पश्चात् उसका अधिक समय मां के सान्निध्य में गुज़रा। सो! मां के संस्कारों का प्रभाव उस पर सर्वाधिक पड़ा। वैसे तो पिता की अवधारणा के बिना बच्चे के जन्म की कल्पना निर्रथक थी। पिता पर परिवार के पालन-पोषण तथा सुरक्षा का दायित्व  था। इसलिए सांस्कृतिक परिवेश उसे विरासत में मिला, जो सदैव पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ रहा।

प्राचीन काल से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ पितृ सत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आये। वैसे कानून- निर्माता तो सदैव पुरुष ही रहे हैं। सो! स्त्री व पुरुष के लिए सदैव अलग-अलग कानून बनाये गये। सभी कर्त्तव्य नारी के दामन में डाल दिए गए और अधिकार पुरुष को प्राप्त हुए। औरत को चूल्हे-चौंके में झोंक दिया गया और घर की चारदीवारी ने उसके लिए लक्ष्मण रेखा का कार्य किया। जन्म के पश्चात् वह पिता के साए में अजनबी बनकर रही तथा उसे हर पल यह अहसास दिलाया गया कि ‘यह घर तेरा नहीं है। तू यहां के लिए पराई है, अजनबी है। तुझे तो पति के घर-आंगन की शोभा बनना है। सो! वहां जाने के पश्चात् तुम्हें उस घर की चौखट को नहीं लांघना है। हर विकट परिस्थिति का सामना अकेले ही करना है। तुम्हारे लिये यह समझ लेना आवश्यक है कि जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से कभी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें यहां अकेले लौट कर कभी नहीं आना है’।

वह मासूम लड़की पिता के घर में इसी अहसास से जीती है कि वह घर उसका नहीं है। सो! वहां उस पर अनेक अंकुश लगाए जाते हैं। पहले दिन से ही बेटी- बेटे का फ़र्क उसे समझ आ जाता है। माता-पिता का व्यवहार दोनों से अलग-अलग किस्म का होता है।

बचपन से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में भी भेदभाव किया जाता है, पढ़ाई जारी रखने के लिए भी उनकी सोच व मापदंड अलग-अलग होते हैं। उसे आरंभ से ही घर के कामों में झोंक दिया जाता है कि उसे तो ससुराल जाकर नया घर संभालना है। उसके लिए सारे कायदे-कानून भाई से अलग होते हैं। उसके रोम-रोम में परिवार की इज़्ज़त व मान-मर्यादा इस क़दर घर कर जाती है… रच-बस जाती है, जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। अनेक बार उसका हृदय चीत्कार कर उठता है, परन्तु पिता व भाई के क्रूर व्यवहार को स्मरण कर वह सहम जाती है। उस के मन में विचारों के बवंडर उठते हैं कि नारी अस्मिता ही प्रश्नों के दायरे में क्यों?

क्या बेटे द्वारा दुष्कर्म के हादसों से परिवार की मान- मर्यादा पर आंच नहीं आती…उनकी भावनाएं आहत नहीं होती? जब उसे हर प्रकार की स्वतंत्रता प्रदत्त है, तो वह उससे वंचित क्यों? हर कसूर के लिए वह ही दोषी क्यों? ऐसे अनगिनत प्रश्न उसके  मन को सालते हैं तथा उसके गले की फांस बन जाते हैं। परन्तु वह लाख प्रयत्न करने पर भी उनका विरोध कहां कर पाती है।

हां! नए घर की सुंदर कल्पना कर, रंगीन स्वप्न संजोए वह मासूम ससुराल में कदम रखती है। परन्तु वहां भी, उस माहौल में वह अकेली पड़ जाती है। उसकी नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरे की मानिंद उस नादान की हर गतिविधि पर लगी रहती हैं। पहले दिन से ही शुरू हो जाती है— उसकी अग्नि-परीक्षा। ससुराल के लोग उसे प्रताड़ित करने का एक भी स्वर्णिम अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। वह कठपुतली की भांति उनके आदेशों की अनुपालना करती है…अपनी आकांक्षाओं का गला घोंट नत- मस्तक रहती है। परन्तु फिर भी वह कभी कम दहेज लाने के कारण, तो कभी परिवार को वंशज न दे पाने के कारण, केवल तिरस्कृत ही नहीं होती..उसके लिए  तैयार होता है, मिट्टी के तेल का डिब्बा,गैस का खुला स्टोव व दियासलाई, तंदूर की दहकती अग्नि, छत या नदी की फिसलन,बिजली  की नंगी तारों का करंट। सो! उसे सहन करनी पड़ती हैं,जीवन भर अमानवीय  यातनाएं, जिसे नियति स्वीकार उसे ढोना पड़ता है। वह जीवन भर इसी उहापोह में पल-पल जीती,पल- पल मरती है, परन्तु कभी उफ़् नहीं करती। प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी बेटी के साथ क्यों घटित नहीं होते? इसका मुख्य कारण है, माता-पिता का अपनी पुत्रवधु में बेटी का अक्स न देखना। वास्तव  में वे भूल जाते हैं कि उनकी बेटी को भी  किसी के घर-आंगन की शोभा बनना है।

इस तथ्य से तो आप भली-भांति परिचित होंगे कि औरत को उपभोक्तावादी युग में, बढ़ते बाज़ारवाद के कारण वस्तु-मात्र समझा जाता है। जब तक उसकी उपयोगिता रहती है, उसे सहेज कर रखा जाता है, सिर आंखों पर बैठाकर, सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। परन्तु उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।

हां! पति परमेश्वर है, जो कभी गलती कर ही नहीं सकता। उसका हर वचन, हर कर्म सत्य व अनु- करणीय समझा जाता है। वह अपनी पत्नी के रहते किसी दूसरी औरत से संबंध स्थापित कर, उसे अपने घर में स्थान दे सकता है और अपनी पत्नी को घर  से बेदखल करने में सक्षम है।आश्चर्य होता है यह देखकर, कि पत्नी की अर्थी उठने से पहले ही पति के लिए नये रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं और वह श्मशान तक की यात्रा में भी पत्नी का साथ नहीं देता…उसे अग्नि देने की बात तो बहुत दूर की है। वह तो उसी पल नई नवेली जीवन-संगिनी के सपनों- कल्पनाओं में खो जाता है।

परन्तु यथा स्थिति में पति के देहांत के बाद औरत को जीवन भर वैधव्य की त्रासदी को झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं ससुराल वालों के दंश ‘यह मनहूस है, डायन है… हमारे बेटे को खा गई’ आदि झेलने पड़ते हैं । वे भूल जाते हैं कि उनका बेटा उसका पति भी था, जिसने उसे हमसफ़र बनाया था। वह उसका भाग्य-विधाता था, जो उसे बीच भंवर अकेला छोड़ चल दिया उन राहों पर, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

ज़रा! सोचिए, क्या उस निरीह पर विपत्तियों का पहाड़ नहीं टूटा होगा ? क्या उसे पति का अभाव नहीं खलता होगा ? वह अकेली अब जिंदगी के बोझ को कैसे ढोएगी? काश! वे उस मासूम की पीड़ा को अनुभव कर पाते और उसे परिवार का हिस्सा स्वीकार उसका मनोबल बढ़ाते, उसे आश्रय प्रदान करते और अहसास दिलाते कि वे हर असामान्य- विषम परिस्थिति में ढाल बनकर सदैव उसके साथ खड़े हैं। उसे अब किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

परन्तु होता उससे उलट है… परिवार के लोग उस पर बुरी नज़र डालना प्रारंभ कर देते हैं तथा उसे नरक में धकेल देते हैं। वह प्रतिदिन नये हादसे का शिकार बनती है। कई बार तो उनकी नज़रों में जायदाद हड़पने के लिए, उसे रास्ते से हटाना अवश्यंभावी हो जाता है। वे उस पर गलत इल्ज़ाम लगा, घर से बेघर कर अपनी शेखी बघारते नहीं थकते। फिर प्रारम्भ हो जाती है… उस पर ज़ुल्मों की बरसात।

यदि वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखवाने जाती है, तो वहां उसका शोषण किया जाता है। कानून के कटघरे में उसके चरित्र पर ऐसी छींटाकशी की जाती है कि वह न्याय पाने का विचार त्याग, वहां से भाग जाने में ही अपनी बेहतरी समझती है। यहां भी लाभ प्रतिपक्ष को ही मिलता है। उनके हौंसले और बुलंद हो जाते हैं तथा वह मासूम ज़ुल्मों को नियति स्वीकार अकेली निकल पड़ती है… ज़िन्दगी की उन राहों पर,बढ़ जाती है, जो उसके लिए अनजान हैं। प्रश्न उठता है, नारी ही कटघरे में क्यों? पुरुष पर कभी कोई आक्षेप आरोप-प्रत्यारोप क्यों नहीं? क्या वह सदैव दूध का धुला होता है? जब किसी मासूम की इज़्ज़त लुटती है तो लोग उसे अकारण दुत्कारते हैं, लांछित करते हैं, दोषारोपण करते हैं और उस दुष्कर्मी को शक़ की बिनाह पर छोड़ दिया जाता है। वह दुष्ट सिर उठाकर जीता है, परन्तु वह निर्दोष समाज में सिर झुकाकर अपना जीवन ढोती है और उसके माता-पिता आजीवन ज़लालत भरी ज़िन्दगी ढोने को विवश होते हैं।

क्या अस्मिता केवल औरत की होती है, शील-भंग भी उसी का होता है। हां!पुरुष की तो इज़्ज़त होती ही नहीं… शायद!इसीलिये उस पर तो कभी, किसी प्रकार की तनिक आंच भी नहीं आती। हां! यदि औरत इन यातनाओं-यंत्रणाओं को सहन करते-करते अपना दृष्टिकोण व जीने की राह बदल लेती है, तो वह कुलटा, कुलक्षिणी, कुलनाशिनी व पापिनी कहलाती है।

जब से नारी ने समानाधिकारों की मांग की है,महिला  सशक्तीकरण के नारों की गूंज तो चारों ओर सुनाई पड़ती है, परन्तु उसके सुरक्षा के दायरे में सेंध लग गई है। आज नारी न घर के बाहर सुरक्षित है, न ही घर के प्रांगण व पिता व पति के सुरक्षा-दायरे में,और  लोग उसकी ओर गिद्ध नज़रें लगाए बैठे हैं।

यह बतलाते हुए मस्तिष्क शर्म से झुक जाता है कि आज तो कन्या भ्रूण रूप में भी सुरक्षित नहीं है। उससे तो जन्म लेने का अधिकार भी छिन गया है..अन्य सम्बन्धों की सार्थकता की तो बात करना ही व्यर्थ है। पति-पत्नी के सात जन्मों का पुनीत संबंध आज कल  लिव-इन रिलेशन में परिवर्तित हो गया है।’ तू नहीं और सही’ व ‘खाओ-पियो, मौज उड़ाओ’ की संस्कृति का हम पर आधिपत्य हो गया है। संयुक्त परिवार ही नहीं, अब तो एकल परिवार भी निरंतर टूट रहे हैं। एक छत के नीचे पति-पत्नी अजनबी बनकर अपना जीवन बसर कर रहे हैं। सामाजिक सरोकार समाप्त हो रहे हैं। इसकी सबसे अधिक हानि हो रही है…हमारी नई पीढ़ी को, जो स्वयं को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव कर रही है। पिता की अवधारणा का कोई महत्व शेष रहा ही नहीं, पति-पत्नी जब तक मन चाहता है, साथ रहते हैं और असंतुष्ट होने की स्थिति में, जब मन में आता है, एक-दूसरे से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। पश्चिमी समाज विशेष रूप से अमेरिका में पितृविहीन परिवारों के आंकड़े इस प्रकार हैं…1960 में 80% से अधिक बच्चे माता-पिता के साथ, उनकी सुरक्षा में रहते थे। 1990 में यह आंकड़ा 58% और और अब यह 50% से भी नीचे पहुंच गया है। इनमें से 25% बच्चे अनब्याही माताओं के साथ रहते हैं और करोड़ों बच्चे मां और सौतेले पिता के साथ, जिससे उनकी माता ने संबंध-विच्छेद के पश्चात् पुनर्विवाह कर लिया है या उसके साथ बिना विवाह के लिव-इन में रह रही हैं।

आज हमारा देश पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट का  लिव-इन को मान्यता प्रदान करना, तलाक़ की प्रक्रिया को सुगम बनाना और विवाहेत्तर संबंधों को हरी झंडी दिखलाना, समाज के लिये घातक ही नहीं, उसे बढ़ावा देने के लिए काफी है। वैसे भी आजकल तो इसे मान्यता प्रदान कर दी गई है। विवाह के मायने बदल गए हैं और विवाह संस्था दिन-प्रतिदिन ध्वस्त होती जा रही है। इसमें दोष केवल पुरुष का नहीं, स्त्री का भी पूरा योगदान है। एक लंबे अंतराल के पश्चात् औरत गुलामी  की ज़ंजीरें तोड़कर बाहर निकली है… सो! की मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण होना तो स्वाभाविक है।

उसने भी जींस कल्चर को अपना लिया है और वह पुरुष की राहों को श्रेष्ठ मान उनका अनुकरण करना चाहती है। वह प्राचीन मान्यताओं को रूढ़ि स्वीकार, केंचुली सम त्याग देना श्रेयस्कर समझती है, भले ही इसमें उसका अहित ही क्यों ना हो। घर से बाहर निकल कर नौकरी करने से, जहां वह असुरक्षा के घेरे में आ गई है, वहीं उसे दायित्वों का दोहरा बोझ ढोना पड़ रहा है। घर-परिवार में उस से पूर्व अपेक्षा की जाती है। हर स्थिति में पुरुष अहं आड़े आ जाता है और वह उस पर व्यंग्यबाण चलाने  में एक भी अवसर नहीं चूकता। हरपल ज़लील करने  का हक़ तो उसे विरासत में मिला है, जिससे स्त्री के आत्मसम्मान पर चोट लगती है और उसे  मुखौटा धारण कर दोहरा जीवन  जीना पड़ता है। परन्तु कभी-कभी तो वह घर की चौखट लांघ स्वतंत्र जीवन जीने की राह पर निकल पड़ती है, जहां उसे कदम- कदम पर ऐसे वहशी दरिंदों का सामना करना पड़ता है, जो उसे आहत करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। प्रश्न उठता है आखिर कब तक उसे माटी की गुड़िया समझ, उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाएगा…आखिर कब तक?

आश्चर्य होता है यह देखकर कि पश्चिमी देशों में भारतीय संस्कृति को हृदय से स्वीकारा जा रहा है, मान्यता प्रदान की जा रही है, जिसका स्पष्ट उदाहरण है भगवत्-गीता को मैनेजमेंट कोर्स में लगाना… निष्काम कर्म की महत्ता को स्वीकारना तथा जीवन संबंधित प्रश्नों का समाधान गीता में तलाशना, उनके हृदय की उदारता व सकारात्मक सोच का परिणाम है। परन्तु हम भगवत् गीता को इस रूप में मान्यता प्रदान नहीं कर पाए…यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारी परिवार-व्यवस्था में गृहस्थ-जीवन को यज्ञ के रूप में स्वीकारा गया है। परिवार के बुज़ुर्गों को देवी-देवता सम स्वीकार उन्हें मान-सम्मान प्रदान करना, वट वृक्ष की छाया में संतोष व सुरक्षित अनुभव कर सुख- संतोष की सांस लेना… विदेशी लोगों को बहुत भाया है तथा उनकी आस्था घर-परिवार व संबंधों  में बढ़ी है। वे हमारे रीति-रिवाज़, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं। परन्तु हम उन द्वारा परोसी गयी ‘लिव इन’ और ‘ओल्ड होम’ की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं।

आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन करने का परिणाम घातक होता है। यदि नमक का प्रयोग अधिक किया जाए, तो वह शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है। तनाव के भयंकर परिणामों से कौन परिचित नहीं है…वह सभी जानलेवा रोगों का जनक  है। अहं इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है तथा संघर्ष का मूल है। यह सभी जानलेवा रोगों का जनक है। सो! हमें उससे कोसों दूरी बनाए रखनी चाहिए और सोच को सकारात्मक रखना चाहिए। काश! हर इंसान इस भावना, इस मंतव्य को समझ पाता, तो स्त्री अस्मिता का प्रश्न ही नहीं उठता। छोटे-बड़े मिल-जुलकर बुज़ुर्गों के साए में खुशी से रहते व स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते…एक-दूसरे के सुख-दु:ख सांझे करते भावनाओं को समझने का प्रयास करते हैंदं, हंसते-हंसाते, मस्ती में झूमते आनंद से उनका जीवन गुज़र जाता। मलय वायु के शीतल, मंद, सुगंधित वायु के झोंके मन को आंदोलित-आनंदित कर  उल्लासित कर, प्रसन्नता व प्रफुल्लता से आप्लावित करते।

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 13 – लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “एक पुरस्कार समारोह”।  ईमानदारी वास्तव में  नीयत से जुड़ी  है। समाज में व्याप्त ईमानदारी के स्तर को डॉ परिहार जी ने बेहद खूबसूरत अंदाज में प्रस्तुत किया है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 13 ☆

 

☆ लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह  ☆

कलेक्टरेट के चपरासी दुखीलाल को दस हजार रुपये से भरा बटुआ एक बेंच के पास पड़ा मिला। उसने उसे खोलकर देखा और सीधे जाकर उसे कलेक्टर साहब की टेबिल पर रखकर छाती तानकर सलाम ठोका। कलेक्टर साहब ने दुखीलाल की बड़ी तारीफ की।

दुखीलाल की ईमानदारी की खबर पूरे कलेक्टरेट में फैल गयी। जिस तरफ भी वह जाता, लोग शाबाशी देते। कुछ लोग उसकी तरफ इशारा करके दूसरों को बताते, ‘यही दुखी लाल है, दस हजार का पर्स लौटाने वाला।’ दुखी लाल का सीना एक दिन में तीन इंच बढ़ गया।

सिर्फ उसके साथी झगड़ू ने उसके आत्मगौरव के गुब्बारे में सुई टोंचने की कोशिश की। झगड़ू बोला, ‘वाह रे बुद्धूलाल! हाथ में आये दस हजार सटक जाने दिये। तुमसे नईं संभलते थे तो हमें दे देते, हम संभालकर रख लेते।’ दुखी लाल ने उसे डपटा, ‘चुप बेईमान!’ और झगड़ू ताली पीटकर हँसा, ‘जाओ जुधिष्ठिर, जाओ।’

उसी दिन नगर के प्रसिद्ध समाज सेवक चतुर लाल जी पर्स पर अपना दावा पेश करके, प्रमाण देकर रुपया ले गये। दूसरे दिन नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘फुरसत’ की ओर से दुखी लाल का अभिनंदन किया गया। चतुर लाल भी उसमें हाज़िर हुए।

समारोह में दुखी लाल की ईमानदारी की खूब प्रशंसा हुई। उसे माला पहनायी गयी और अभिनंदन-पत्र दिया गया। चतुर लाल भी बोले। उन्होंने कहा, ‘दुखी लाल के काम से साबित होता है कि हमारे देश में अभी भी ईमानदार और सही रास्ते पर चलने वाले लोग हैं। दुखी लाल का काम लाखों को ईमानदारी की प्रेरणा देगा। भाई दुखी लाल ने मुझे बड़े नुकसान से बचाया है, इसलिए मैं उन्हें एक हजार रुपये की राशि की तुच्छ सी भेंट देना चाहता हूँ। मेरा अनुरोध है कि वे इसे स्वीकार करें।’

उन्होंने राशि निकालने के लिए जेब में हाथ डाला कि इतने में दरवाज़े पर खाकी वर्दी दिखायी पड़ी और एकाएक चतुर लाल सब छोड़छाड़ कर अपनी धोती की लाँग संभालते हुए दूसरे दरवाज़े से भाग खड़े हुए। समारोह में अव्यवस्था फैल गयी।

दरवाज़े में से खुद पुलिस अधीक्षक हॉल में आये। उन्होंने कमरे में नज़र दौड़ायी और पूछा, ‘कहाँ गया वह समाज सेवक का बच्चा? बदमाश ने झूठा दावा पेश करके दूसरे का रुपया ले लिया।’

दुखीलाल मुँह फाड़े सब देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #10 – # No Abusing ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 10 ☆

 

☆ # No Abusing ☆

रात चढ़ रही है, पास के मकान में हमेशा की तरह घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। उनका स्कूल जानेवाला लड़का जन्म से यह सब देख, सुन रहा है। उसका कोई स्वर नहीं है। अनुमान लगाता हूँ कि वह घर के किसी कोने में सुन्न खड़ा होगा। छोटी नादान बिटिया जोर-जोर से रो रही है। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह सरलता से जटिलता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी।  अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें।

मित्रो, मैं आज से # No Abusing शुरू कर रहा हूँ। इसमें मेरा साथ दें, शामिल हों।

# No Abusing

(इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने का आप सबसे निवेदन है। इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर जन-आंदोलन बनाने का भी अनुरोध है। )
Read my thoughts on YourQuote app at: Sanjay Bhardwaj

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गंतव्य की ओर ☆ – सुश्री पल्लवी भारती

सुश्री पल्लवी भारती 

 

(प्रकृति अपने प्रत्येक रूप के रंगो- छंदों से केवल एक ही इशारा करती है, कि “आओ, अपने गंतव्य की ओर चलो”… इसी विषय पर आधारित है  सुश्री पल्लवी भारती जी की यह कविता- “गंतव्य की ओर”।) 

 

? गंतव्य की ओर ?

 

प्रात: रश्मि की किरण से,

और सांध्य के सघन से;

रक्त-वर्णित अंबुधि में,

अरूण के आश्रय-सुधि में;

सप्ताश्र्व-रथ पे आरूढ़,

सदैव से निश्चयी दृढ़।

दीप्त भाल विशाल ज्यों क्षितिज के उस छोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

खग- गणों के कलरवों में,

मौन हुए गीतों के स्वर में;

एक चिंतन भोज्य-कण,

और तिनकों का संरक्षण।

अस्थिर गगन और धूलिमय नभ;

ध्येय अपना पीछे हुआ कब?

शीघ्रतम दिन व्यतीत ज्यों अब हुआ है भोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

पुष्प तरूवर वाटिका,

चाहे लतिका वन-कंटिका;

तृण-शिशु और पल्लवित पर,

सहला रहे हैं मारूत्य-कर।

फल फूल मुखरित कंठ से,

सेवा आगाध आकंठ से।

नव-शाख पुलकित हरिताभ पट-धर और पुष्पित डोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

उन्माद गिरि का निर्झर है,

उल्लास नदी का प्रखर है;

संसृति कूल-किनारें सिंचित,

नानाविधि जीवन संरक्षित।

पथ दुर्गमों को कर पार,

लहरें हैं नाची बारंबार।

जीवन प्रदत्त अस्थिर चपलता द्रुत गति अघोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

दिन-रैन संग में सन्निहित,

काल-भाल पट्टिका पर उद्धृत।

हो बाल रवि या नव निशा,

हो तुच्छ प्राणी या वसुन्धरा;

वायु पतझड़ कोकिला स्वर,

द्वंद्व संगम लीन कर।

फिर कहाँ कैसी प्रतीक्षा प्रलाप का है शोर!

चलें गंतव्य की ओर॥.

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #17 – पाचोळा… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की   सत्रहवीं कड़ी  पाचोळा…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। एक पान  के पत्ते से  नवजीवन की परिकल्पना को जोड़ना एवं अंत में दी हुई कविता दोनों ही अद्भुत हैं। सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #17 ?

 

☆ पाचोळा… ☆

 

पाचोळा, पानांचा… पानगळ… निष्पर्ण… एका सुरुवातीचा शेवट?
कदाचित शेवट… म्हणून भकास?

कदाचित?

की नव्याची सुरुवात?

अनेक विचार आपल्यालाच डाचत राहतात… पण पाचोळा कोणालाच नको असतो हे नक्की… पायदळी तुडवले जाण्याची शक्यताच जास्त असते… दुर्लक्षित होणे, ह्या सारखी भावना सुखावह नक्कीच नाही… पण मग अजून एक विचार मनात येतो… पाचोळा ही पूर्णत्वाची स्थिती तर नाही? समर्पणाची तयारी तर नाही? आयुष्यावर मात करत असताना झेललेल्या अनेक घावांचे व्रण नाहीसे करण्यासाठी ही धडपड नसावी ना? का सर्व जबाबदऱ्यांमधून बाहेर पडून हलक्या झालेल्या जीवनाचा वाऱ्याच्या झुळकी बरोबर सुरू झालेला प्रवास तर नाही? ह्या पानगळीबरोबर अनेक अयोग्य गोष्टीचा ऱ्हास होत असेल,  नाही का !

ह्याची उत्तरं प्रत्येकासाठी नक्कीच वेगळी असणार, ह्यात नवल नाही… पण उत्तरं शोधायचा प्रयत्न प्रगल्भतेच्या मार्गातील मैलाचा दगड ठरू शकतो… कारण ज्याची सुरुवात व्हावी वाटत असते, त्यासाठी कशाचातरी शेवट होणे ह्याला पर्याय नाही, हा निसर्गाचा नियम विसरून चालणार नाही…

कोंब होतो मी अवखळ,
पानापानातील सळसळ,
श्रुंगारलो सजलो देही,
जाणवे झाडाची कळकळ…

ऋतूंच्या बहरण्या साजे,
अनोखे चित्र सकळ,
खोडाखोडात अवतरे,
जगण्यासाठी पाठबळ…

वसंताच्या आगमनाने,
मिळाली माया सोज्वळ,
ग्रीष्माची उष्ण झळ,
नक्कीच होईल पानगळ,

जगरहाटी ठरलेली,
बाणवली जन्मभर,
निर्मिती, स्थिती, लय,
घडले सारे भरभर…

म्हणूनच म्हणतो,

आज पाचोळा जरी,
अनुभवले कोवळे क्षण,
पुलकित होत होतो,
पिऊन नाविन्याचे कण…

तुडवू नको पायदळी,
गळलो जरी अवकाळी,
सृष्टीचा एक भाग होतो,
आयुष्याच्या सकाळी…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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