हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “रेल्वे फाटक के उस पार ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ 

 

 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆

 

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है, पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है. मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली, लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ. मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में, समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे, भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है.

राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है, जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो, अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता. इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है, वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है. ढ़ेरों माल वाहक, व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं, और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर, उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं.

मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है, जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है. प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है. आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है, और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये.

खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये, जब फाटक खुला हो. पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं, और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित,निकल जाने को गलत नहीं मानते.नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है, पर चर्चा करते हैं. कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है, तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है.

जैसे ही ट्रेन गुजरती है, फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते, दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर, रेडी, गेट, सेट, गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं. जैसे ही गेट उठना शुरू होता है, धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है. दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों. इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है, जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी, अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं. धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है, अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है. फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है.

फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है.

स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं. लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं. देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है. फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में, लाल, हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है, वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12 ☆ माँ तो माँ है! ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “माँ तो माँ है!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12☆

 

☆ माँ तो माँ है!☆

 

रमा अपने बेटे को छाती से चिपका कर रो पड़ी, “सुनते हो जी ! कुछ करो ना ? ” उस की बोली निकल नहीं पा रही थी.

आज शाम से ही रमा के बेटे को उलटी दस्त होने लगे थे. जो रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. उस ने डॉक्टर को दिखाया. दवा पिलाई. मगर दस्त थे कि बंद नहीं हुए. यह देख कर रमा अपने पुत्र को गोद में ले कर रात भर बैठी रही. वह अपनी सब सुधबुध खो चुकी थी.

तभी रमा के पति अविनाश की आँखें लग गई.

यह देख कर रमा चिल्लाई, “ये क्या है?” वह लगभग चीख पड़ी थी, “हमारा बेटा बीमार पड़ा है और आप नींद निकाल रहे है ?”

अविनाश हड़बड़ा कर उठ बैठा, “क्या हुआ ?”

“मेरे पुत्र की हालत देखो. इस के लिए कुछ भी करो. यह ठीक नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी.”  वह तड़फ उठी, “तुम क्या जानो. माँ क्या होती है ?”

यह सुन कर अविनाश की आँखें फटी की फटी रह गईं, “माँ अपने बच्चे के लिए इतने दुख-दर्द झेलती है ?”

“हाँ, और नहीं तो क्या?” रमा कहने को तो कह गई. मगर, जब अविनाश को उठते हुए देखा तो पूछ बैठी, “अब कहाँ चल दिए ?”

“अपनी बीमार माँ को अनाथालय से लेने,” अविनाश ने कहा और अनाथालय की ओर चल दिया,  “माँ तो माँ होती है. चाहे वह तुम जैसी माँ हो या मेरे जैसे बेटे की माँ?’’

यह सुन कर रमा की आँखों में भी आँसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प बारावे # 12 ☆ रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन  ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं आज रक्षा बंधन के इस पर्व पर इस लेखमाला की शृंखला  के अंतर्गत  आलेख रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन  को हम विशेष रूप से गुरुवार को प्रस्तुत कर रहे हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प  बारावे  # 12 ☆

 

रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन   

 

*चिंधी बांधते द्रौपदी हरीच्या बोटाला* 

किंवा 

*रेशमाच्या धाग्यांनी सजली राखी पौर्णिमा* 

*बंधुत्वाच्या बंधुतेची दे प्रेरणा मजला*. 

अशा भावस्पर्शी ओळीतून ही भावस्पंदने मनात रूजली आहे.  पौराणिक आणि ऐतिहासिक काळात  संधी, तह, सलोखा,  सामंजस्य,  राज्य विस्तार, देशरक्षण,  अशा भावनेतून सुरू झालेली ही रक्षाबंधन परंपरा एक संस्कार क्षम सण  आहे.

समाजपारावरून  हा  कौटुंबिक विषय चर्चेला घेताना मन भरून आले.  पण सध्या साजरे होत  असणारे सण पाहिले की मन विषण्ण होते.  मूळ  उद्देश समजावून न घेता केवळ मनोरंजनाचे माध्यम आणि  एकत्र  येण्याचे निमित्त म्हणून  रक्षाबंधन  या सणांकडे पाहिले जाते.

आधुनिक काळात मात्र देणे घेणे यात नवी

पिढी जास्त गुंतलेली आहे.  भावनेला दिखाऊ पणाची आणि नात्याला हिशेबी व्यवहारीकतेची जोड मिळाल्याने या सणाचे मांगल्य,  पावित्र्य कुठेतरी हरवत चालले आहे. बहिणीचे रक्षण आणि बहिणीने भावाच्या दिर्घायुष्यासाठी केलेले औक्षण ,  देवाकडे केलेली प्रार्थना  ,भाऊ बहीण यांचे स्नेहभोजन हा हेतू या सणाचा बाजूला पडून या सणाकडे फक्त  एकत्र येण्याचे निमित्त म्हणून पाहिले जात आहे.

रक्षाबंधनाचा आणखी  एक हेतू म्हणजे   बहिणीने  भावाला राखीच्या नाजूक भावबंधनात बद्ध करताना  आपल्यावर  जर एखादे संकट आले तर तै निवारण करण्यासाठी केलेली विनंती आणि भावाने  आशिर्वाद देऊन रक्षण करण्याचे दिलेले वचन  हा  आहे.  यासाठी : आपला भाऊ सदैव सावलीप्रमाणे उभा असावा आजन्म त्याचे प्रेम,  स्नेह  बहिणीला लाभावा म्हणून बहाणीने केलेले स्नेहबंधन  म्हणजे रक्षाबंधन होय ……!

कौटुंबिक मालमत्तेत बहिणीला मिळणारा वाटा यावर  आता हे नाते  आपला तोल सांभाळत  आहे.  कित्येक वेळा बहिण भावाचे रक्षण करते अशी  उदाहरणे  आपल्याला पहायला मिळत आहेत.  अशा वेळी भाऊ आणि बहिण यांच्यातील भावनिक नाते,  एकमेकांना साथ देण्याची  आश्वासक भूमिका रक्षाबंधनाचा मूळ हेतू साध्य करू शकेल  असे मला वाटते.

भावाने बहिणीला किंवा बहिणीने भावाला काय दिले यापेक्षा परस्परांनी एकमेकांना  आपल्या ह्रदयात दिलेली जागा तो चंदनी पाट,  एकमेकांची वाट पहाताना पाणावलेले डोळे,  भेट झाल्यावर  उजळलेले चेहरे  आणि रेशमी राखीने अंगभर फिरणार्‍या  मोरपिशी  आठवणी या  रक्षाबंधनाची महती जास्त प्रगल्भ करतात.

बहिण लहान की मोठी या पेक्षा बहिण  आणि भाऊ यांनी एकमेकांना बहाल केलेली  अंतरीक माया ममतेची उंची या राखीला अलौकिक उंची प्राप्त करून देते. भावाला पोटभर जेवताना पाहून दाटून  आलेला बहिणीचा स्वर,  स्वतःची काळजी घे,  येत जा  या  वाक्यातला आपलेपणा हा सण साजरा करून जातो.  भावना,  विचार आणि आचार यांच्या  त्रिसूत्रीने हे रक्षाबंधन फक्त बहिणीची नाही तर प्रत्येक व्यक्तीमत्वात दडलेल्या माणसाची,  त्याच्यातल्या माणुसकीची रक्षा करणारे  आहे.

चंद्राच्या सोळा कला ज्या प्रमाणे कला,सुख,  समृद्धी,  यांची वृद्धी  आणि दुःख, दैन्य,  दारिद्र्य यांचा क्षय करतात त्या प्रमाणे भाऊ बहीणीचे हे नाते स्वभाव, कला, स्नेह यांच्या चांदण्याने फुलत राहो अशी कवी कल्पना या सणाचे महत्त्व  अधिक संवेदनशील करते.  राखी हे निमित्त  आहे  माणूस माणसाशी जोडला जाणे ही मूळ भावना हे भावबंधन हा सण शिकवून जातो हेच खरे.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 12 – रिक्षा ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  

अक्सर हमारे रिश्तों के साथ कई क्षण, कई जीवित और अजीवित भी जुड़े होते हैं।  जो उनके जीवित रहते भी और जाने के बाद भी उनकी स्मृति दिलाते रहते हैं। मैं श्री सुजीत जी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजीत जी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “रिक्षा ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #12 ☆ 

 

☆ रिक्षा ☆ 

 

दारा समोर उभी असलेली

रिक्षा पाहीली की…

बाप आठवल्या शिवाय रहात नाही

आणि रिक्षा बरोबरच दिवस भर

राबणारा माझा बाप आजही

डोळ्यासमोरून जात नाही

कारण…

पहाटेच्या उशाला अंधार असतानाच

माझा बाप रिक्षा घेऊन घरातून

बाहेर पडायचा आणि

दिवसभराच्या खर्चाची

सारी गणित सोडवूनच

पुन्हा घराकडं परतायचा.

माझ्या खर्चा साठी त्यानं कधी

स्वतः ची मुठ आवळून धरलीच नाही

आणि माझ्या बापाकडं मी

कोणत्या गोष्टीसाठी हट्ट असा

केलाच नाही..कारण..

माझ्या मनातलं त्याला सारं काही

न बोलताच कळायचं आणि

त्याला रिक्षा चालवताना बघितलं की

माझं काळीज..

त्याच्या कपड्या सारखंच

मळकटलेलं वाटायचं…!

माझा बाप कधी कधी

रिक्षातचं अंगाची घडी करून

झोपायचा..

तेव्हा त्याच्या इतका साधा माणूस

मला दुसरा कुणीच नाही दिसायचा…!

घरासारखीच त्याला तेव्हा

रिक्षा ही जवळची वाटायची अन्

रिक्षात बसल्यावर त्याला

त्याची मायच भेटल्यासारखी वाटायची पण…

आता मात्र दारा समोर

उभी असलेली रिक्षा

दिवसेंदिवस खचत चाललीय

आणि…

बापाच्या आठवणीत ती ही आता

शेवटच्या घटका मोजू लागलीय…!

 

…©सुजित कदम

मो.7276282626

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10।।

 

फलासक्ति तज,धार जो ब्रम्ह समर्पण भाव

तो कर्मो से जल कमल सा रहता अलगाव।।10।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।।10।।

 

He who performs actions, offering them to Brahman and abandoning attachment, is not tainted by sin as a lotus leaf by water. ।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बेटा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – बेटा ⌚

(लगभग छह वर्ष पहले लिखी एक लघुकथा साझा कर रहा हूँ। – संजय भारद्वाज )
“…डाकबाबू कोई पाती आई के?’…दूर शहर बसे बेटे को अपनी बीमारी के अनेक संदेश भेज चुका कल्याण आशंकित संभावना से पूछता….! डाकबाबू पुराने परिचित थे। कल्याण के दुख को समझते थे। चिट्ठियों पर ठप्पा मारते-मारते सिर उठाकर कहते-“काकाजी बोळी चिंता करो…शहर खूब दूर है, सो उत्तर आबा मे भी टेम लागसि..’, दोनो फीकी हँसी हँस देते।
ये सिलसिला पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। डाकबाबू जानते थे कि चिट्ठी शायद ही आए। बरसों से डाक महकमे की नौकरी में थे, अच्छी तरह से मालूम था कि हर गाँव, ढाणी में एकाध कल्याण तो रहता ही है। वैसे जानता तो कल्याण भी था कि उसकी भेजी चिट्ठियों ने पदयात्रा भी की होगी तो भी अब तक सब की सब पहुँच चुकी होंगी, पर मन था कि मानता ही नहीं  था।
बेटे को देखने की चाह कल्याण के भीतर हर दिन प्रबल होती जा रही थी,”आँख मूँदबा से पेलि एक बार ओमी ने देख लेतो तो..’..”ठाकुरजी, एक बार तो भेज द्‌यो ओमी ने’, रात सोने से पहले वह रोज ठाकुरजी से प्रार्थना करता।
संतान से मिलने की इच्छा में कई रात बिना नींद निकालने के बाद एक रोज सुबह-सुबह कल्याण डाकबाबू के पास पहुँच गया…”काकाजी चिट्ठी आसि तो म्है खुद ही…’, ….. “ना-ना वा बात कोनी’…”फेर?’..”एक बिनती है’..बिनती नहीं, थे तो हुकम करो काकाजी’..”ओमी ने एक तार भेजणूँ है’…”तार? के बात है, सब-कुशल मंगल है न?’…..आशंका के भाव से पूछते-पूछते डाकबाबू ये भी सोच रहे थे कि कल्याण अकेला रहता था। परिवार में दूर बसे बेटे के अलावा कोई नहीं, फिर अमंगल समाचार होगा भी तो किसका?’
तार का कागज़ हाथ में लेकर कल्याण ने कातर भाव से डाकबाबू से कहा,”बाबूजी लिख द्‌यो ना!’…”काकाजी थे तो..?’..डाकबाबू जानते थे कि कल्याण पुराने समय के तीसरे दरजे की पढाई किए हुए है, टूटी-फूटी भाषा में ओमी को चिट्ठी भी खुद ही लिखता था। हाँ अंग्रेजी में केवल पता डाकबाबू से लिखवाता था। कारण जानना चाहते थे पर कल्याण की आँखों के भाव देखकर पूछने की हिम्मत नहीं कर सके। ..”बोलो के लिखूँ?’…”लिखजो कि ओमी, थारो बाप मरिग्यो है, फूँकबा ने जल्दी आ…बरफ पे लिटा रख्यो है..”काकाजी..?’..”भेज द्‌यो बाबूजी, मेरी मोत पे तो ओमी शरतिया आ ही लेगो’…डाकबाबू को समझ नहीं आया कि तार किसके नाम से भेजें,  कुछ विचार कर आखिर उन्होंने अपने ही नाम से तार भेज दिया।
तार का असर हुआ। अगले ही दिन गाँव के डाकघर में शहर से चार सौ रुपए का तार-मनीऑर्डर आया। ओमी ने लिखा था,..”बाप तो मर ही गया है, तो अब मैं भी आकर क्या कर लूँगा,… गाँवराम ही उसे फूँक दें। कुल मिलाकर दो-ढाई सौ का खर्च आएगा, चार सौ रुपए भेज रहा हूँ ..।’ तार पढ़कर कल्याण देर तक शून्य  में घूरता रहा। वह डाकबाबू से एम.ओ. लिए बिना ही लौट गया।
जल्दी सुबह उठनेवाले कल्याण का दरवाज़ा अगले दिन सूरज चढ़ने तक खुला नहीं था। पड़ोसियों ने ठेला तो दरवाज़ा भड़ाम से खुल गया। अंदर झाँका, देह की सिटकनी खोलकर आत्मा परलोक सिधार चुकी थी। निश्चेष्ट देह के पास दो लिफाफे रखे थे। एक में ढाई सौ रुपए रखे थे, लिफाफे पर लिखा था- “मुझे फूँकने का खर्च’….दूसरे में डाकबाबू के नाम एक पत्र था, लिखा था-“बाबूजी ओमी को तार मत करना…!’
संवेदना बनी रहे, संवेदना बची रहे। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

23.4.2013

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 10 – किसे पता था….? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “किसे पता था….?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 10 ☆

 

☆ किसे पता था….? ☆  

 

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वांस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे संवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पंखेरू उड़ जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,सांझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में

ऐसे भटकाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 1 – खुशी तुझे ढूंढ ही लिया ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी

का e-abhivyakti  में हार्दिक स्वागत है। आपकी अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आपने हमारे आग्रह पर यह साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज प्रारम्भ करना स्वीकार किया है, इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी कविता “खुशी तुझे ढूंढ ही लिया”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 1 ☆

☆ खुशी तुझे ढूँढ़ ही लिया

 

आँख खुली नींद में,

मुस्कराती माँ के आँचल में,

पिता के आदर, गुस्सा, प्यार में,

भाई की अनबन तक़रार में,

दीदी की अठखेली मुस्कान में,

हे खुशी, तू तो भरी पड़ी है,

मेरे परिवार के बागियान में।

 

पाठशाला के भरे बस्ते में,

टूटी पेन्सिल की नोक में,

फटी कापी की पात में,

दोस्त की साजी किताब में,

परीक्षा और नतीजे खेल में,

हे खूशी तू खड़ी, खड़ी रंग में,

तेरा निवास ज्ञानमंदिर में।

 

कालेज की भरी क्लास में,

यार-सहेली के शबाब में,

प्यार कली खिली उस साज में,

चिट्ठी-गुलाब-बात के अल्फ़ाज में,

गम-संगम आँसू बरसाती बरसात में,

हे खुशी, तू बसी विरहन आस में,

और पियारे मिलन के उपहास में।

 

समझौते या कहे खुशी के विवाहबंध में

पति-पत्नी आपसी मेल-जोल में,

गृहस्ती रस्में-रिवाज निभाने में,

माता-पिता बन पदोन्नति संसार में,

जिम्मेदारी एहसास और विश्वास में,

हे खुशी, तुझे तो हर पल देखा,

तालमेल करती जिंदगी तूफान में।

 

बचपन माँ के आँचल में,

मिट्ठी-पानी हुंकार में,

यौवन की चाल-ढाल में,

सँवरती जिंदगी ढलान में,

पचपन के सफेद बाल में,

हे खुशी, तू सजती हर उम्र में,

और चेहरे सूखी झुर्रियों में।

 

आँख मूँद पड़े शरीर में,

आँसू भरें जन सैलाब में,

चार कंधों की पालखी में,

रिश्तों की टूटती दीवार में,

चिता पर चढ़ते हार में,

हे खुशी, तुझे तो पाया,

जन्म से श्मशान की लौ बहार में।

 

हे खुशी, एक सवाल है मन में,

क्यों भागे हैं जीव, ख्वाइशों के वन में,

लोग कब समझेंगे तू भी है गम में,

जिस दिन ढूँढेंगे तुझे खुद एहसास में,

और औरों को बाँटते रहे प्यार में,

हे खुशी, खुशी होगी मुझे लिपटे कफन में,

और लोगों के लौटते भारी हर कदम में।

 

हे खुशी आखिर तुझे ढूँढ ही लिया,

जन्म से मृत्यु तक के अंतराल में।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल: [email protected] , [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 12 – कौतुक आणि टीका ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका आलेख कौतुक आणि टीका ।  प्रत्येक साहित्यकार को जीवन में कई क्षणों से गुजरना होता है। कुछ कौतूहल के तो कुछ आलोचनाओं के; कभी प्रशंसा तो कभी हिदायतें। सुश्री प्रभा जी ने इन सभी को बड़े सहज तरीके से अपने जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जिया है। मुझे आलेख के अंत में उनकी कविता के अंश को पढ़ कर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो उन्होने आज से लगभग 37 वर्ष पूर्व मुझे लिखा था। उन्हें मैं आपसे साझा करना चाहूँगा। “एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।” 

सुश्री प्रभा जी का  पुनः आभार अपने संस्मरण साझा करने के लिए। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 12 ☆

 

☆ कौतुक आणि टीका ☆

१९७४/७५  सालापासून मला छापील प्रसिद्धी मिळते आहे. रेडिओ सिलोन च्या श्रोतासंघांच्या रेडिओ पत्रिकेत हिंदी कविता प्रकाशित झाल्या, राजबिराज- नेपाळ हून एका वाचकाचं पत्र आलं, “आपकी रचना सबसे सुंदर है !” छान वाटलं पण फार हुरळून गेले नाही!

१९७५ मध्ये मनोरा मासिकातून पत्र आलं, “कविता स्विकारली आहे, भेटायला या ” त्यांनी काही सूचना केल्या, शुद्धलेखनाच्या चुका होता कामा नयेत वगैरे….

माझ्या बहुतेक कवितांचे वाचकांनी कौतुकच केले आहे, “लोकप्रभा” मध्ये प्रकाशित झालेल्या कवितेला सुमारे चाळीस प्रशंसा पत्रे आली!

अजूनही लोक काही वाचलं की फोन करून, व्हाटस् अप वर आवडल्याचे सांगतात, एकदा माझी एक विनोदी कथा वाचून निनावी पत्र आलं, “तुम्ही कथा लिहू नका फक्त कविताच करा” पण ह.मो.मराठे यांनी ती कथा वाचल्याचे आणि आवडल्याचे एकदा कार्यक्रमात भेटले तेव्हा सांगितलं!

आपण कसं लिहितो,याची आपल्याला साधारण कल्पना असते, मी खुप प्रयत्नपूर्वक काही लिहित नाही…सहज सुचलं म्हणून लिहिते, फार नोंद घेतली जावी असं ही काही नाही….पण रवींद्र पिंगे,लीला दीक्षित, निर्मलकुमार फडकुले,  रवींद्र शोभणे आणि मधु मंगेश कर्णिक यांनी  लेखनाचं कौतुक केलेलं खुप आनंददायी वाटलं होतं!

माझे मामा नेहमीच माझ्या कवितेची टिंगल करतात, ते “दावणी ची गाय” वगैरे ऐकवत जाऊ नकोस वगैरे, एकदा त्यांचा मला फोन आला, टीव्ही वर अमुक तमुक च्या गझल चा कार्यक्रम लागला आहे पहा तुला काही शिकता आलं तर तिच्याकडून!!!

त्यानंतर दोन वर्षांनी ती गझलकार आणि मी एका मुशाय-यात एकत्र होतो…तिच्या पेक्षा माझ्या गझल निश्चितच चांगल्या गेल्या…ही आत्मस्तुती नाही…तुलना मी मुळीच करत नाही पण…तिच्या कडून मी काही शिकावं असं काही नव्हतं, टीका करणारे करतात,आपला आवाका आपल्याला माहित असतोच टीकेचा किंवा कौतुकाचा माझ्यावर फारसा परिणाम झालेला नाही!

 

मी माणूस आहे

संत नव्हे

माझी कविता, एक वेदना

अभंग नव्हे

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (8-9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌।।8।।

 

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌।।9।।

 

स्वयं इंद्रियां कर्मरत,करता यह अनुमान

चलते,सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

 

सोते,हँसते,बोलते,करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

 

भावार्थ :  तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।।8-9।।

 

“I do nothing at all”-thus will the harmonised knower of Truth think-seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, breathing, ।।8।।

 

Speaking, letting go, seizing, opening and closing the eyes-convinced that the senses move among the sense-objects. ।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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