आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।22।।

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर , करता नये स्वीकार

त्यों ही आत्मा त्याग तन नव गहती हर बार।।22।।

      

भावार्थ :   जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।22।।

 

Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others that are new. ।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Shirsana Yogic Asana – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore



हिन्दी साहित्य – कविता – * चिट्ठियाँ * – सुश्री प्रभा सोनवणे “कात्यायनी”

सुश्री प्रभा सोनवणे “कात्यायनी”

चिट्ठियाँ 

(प्रस्तुत है ज्येष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे जी  की  भावप्रवण कविता  “चिट्ठियाँ “)

 

अक्सर हमे मिलने आती है चिट्ठियाँ

चाहत भरे नगमे गाती है चिट्ठियाँ

 

आहट तुम्हारे पैरों की जब आती है

खबर कोई मीठी लाती है चिट्ठियाँ

 

चिठ्ठी नही यह तो मेरी धडकन ही है

दर्द कितने सनम छुपाती है चिट्ठियाँ

 

छोडा हमारे ख्वाबों को तन्हाँ तुमने

यादे तुम्हारी संजोती है चिट्ठियाँ

 

वादा कभी कोई करके भुला भी दे

आँसू बहाती है रोती है चिट्ठियाँ

 

रौनक’ प्रभा’ तुमने माँगी अंधेरोंसे

किस्मत यहाँ पर चमकाती है चिट्ठियाँ

 

© प्रभा सोनवणे”कात्यायनी”

गणराज ,135/2 सोमवार पेठ पुणे 411011 (महाराष्ट्र)

मोबाईल -9270729503




मराठी साहित्य – मराठी कविता – * चार मराठी कविताएँ  * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

चार मराठी कविताएँ 

(सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की भारतीय परिवेश में स्त्री की पहचान उजागर करती हृदयस्पर्शी कविताएँ।)

 

१)

आई म्हणायची ,

आपल्या मुलींवर कधी हात  टाकू नये.

लक्ष्मी रुसते.

आज  सगळीकडे

दारिद्य्र वाढतंय,

महागाई वाढतेय,

कारण

आज  देशात ठिकठिकाणी

मुलींना मारले जातंय .

 

२)

शेजाऱ्यांच्या घरात भिंत उभी राहिली आहे आताशा .

असे वाटतंय , त्यांची  मुले  कमवू लागली आहेत आताशा .

ज्या आईवडिलांनी हौसेने बांधलं होते घर

ते  वृध्दआश्रम गले  आहेत आताशा .

शेजाऱ्यांच्या घरात भिंत उभी राहिली आहे आताशा .

असे वाटतंय , त्यांची  मुले  कमवू लागली आहेत आताशा .

 

३)

लहानपणी आईपासून

नाईलाजाने दूर राहावे लागले होते ,

तेव्हा आई मला नेहमी

पत्र पाठवत असे.

आज खूप वर्षे झाली

आई जाऊन.

तेव्हापासून तिची ती पत्रेच

बनली आहेत आई !

 

४)

पूर्वी कच्चे असायचे राखीचे धागे

पण नाती असायची पक्की.

आज अगदी मजबूत असतात राखीचे धागे

पण नाती मात्र बनत आहेत तकलादू .

जेव्हापासून आईवडिलांच्या मृत्युपत्रात

मुलीलाही मिळू  लागला वाटा

तेव्हापासून माहेरी भाऊ-वहिनीच्या प्रेमाच्या

राहून गेल्या कथा .

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 



आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌।।21।।

अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश

उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।

 

भावार्थ :   हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?।।21।।

 

Whosoever knows Him to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain? ।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Laughter Meditation – Shri Jagat Singh Bisht

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Laughter and meditation are not opposites. Laughter opens a beautiful door to transcendence. Laughter meditation is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have.

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-10 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–10

मेरे जैसे फ्रीलान्स लेखक के लिए अपने ब्लॉग के लेखकों / पाठकों की संख्या का निरंतर बढ़ना मेरे गौरवान्वित होने का नहीं अपितु,  मित्र लेखकों / पाठकों के गौरवान्वित होने का सूचक है। यह सब आप सबके प्रोत्साहन एवं सहयोग का सूचक है। साथ ही यह इस बात का भी सूचक है कि इस चकाचौंध मीडिया और दम तोड़ती  स्वस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के दौर में भी लेखकों / पाठकों की स्वस्थ साहित्य की लालसा अब भी जीवित है। लेखकों /पाठकों का एक सम्मानित वर्ग अब भी स्वस्थ साहित्य/पत्रकारिता लेखन/पठन में तीव्र रुचि रखता है।

अन्यथा इस संवाद के लिखते तक मुझे निरंतर बढ़ते आंकड़े साझा करने का अवसर प्राप्त होना असंभव था। अत्यंत प्रसन्नता  का विषय है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक 5 माह  9 दिनों में कुल 542 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 360 कमेंट्स प्राप्त हुए और  10,000 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।

प्रतिदिन इस यात्रा में नवलेखकों से लेकर वरिष्ठतम लेखकों और पाठकों का जुड़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

सबसेअधिक सौभाग्य के क्षण मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ।

इस जबलपुर प्रवास के दौरान मुझे  अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय क्षणों को सँजो कर रखने का अवसर प्राप्त हुआ।

प्रथम डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी से आशीर्वचन स्वरूप उनकी साहित्यिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ।  

दूसरा संयोग बड़ा ही अद्भुत एवं आलौकिक था।  इस संदर्भ में बेहतर होगा कि मैं उस वाकये को सचित्र आपसे साझा करूँ जो कि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की फेसबुक वाल से साभार उद्धृत करना चाहूँगा। 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार >>>>
शिक्षकीय सुख यह होता है, कल घर आये Hemant Bawankar जी वे और डॉ विजय तिवारी किसलय जी, पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी के केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक 1 जिसके संस्थापक प्राचार्य हैं पिताजी, में उनके विद्यार्थी थे । साथ मे थे डॉ विजय तिवारी किसलय ।
पिताजी का  जन्मदिन था कल , बधाई , मिठाई ,होली मिलन  आशीर्वाद सब ।

ऐसे व्यक्तिगत एवं आत्मीय क्षणों में मेरी प्रतिकृया मात्र यह थी  >>>

अपने प्रथम प्राचार्य का लगभग 53 वर्ष पश्चात अपनी सेवानिवृत्ति के उपरान्त आशीर्वाद पाना किसी भी प्रकार से ईश्वर के प्रसाद से कम नहीं है। 
इस संयोग के लिए मैं उनका एवम उनके चिरंजीव बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री विवेक रंजन जी एवम अनुज डॉ विजय तिवारी जी का हृदय से आभारी हूँ।

इन दोनों ही क्षणों में अनुज डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के साथ ने ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस अवसर को अविस्मरणीय बना दिया।

जीवन में ऐसे सुखद क्षणों की हम मात्र कल्पना ही कर पाते हैं। किन्तु, जब कभी ऐसे क्षण ईश्वर हमें देते हैं तो उन्हें अंजुरी में समेटना बड़ा कठिन लगता है । ऐसा लगता है कि ये कि ये क्षण सदैव के लिए हृदय के कैमरे में अंकित हो जाएँ। और वे हो गए।

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

24 मार्च 2019




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * अमर होने की तमन्ना * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

अमर होने की तमन्ना

(कल के अंक में आपने   डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  के व्यंग्य संकलन “एक रोमांटिक की त्रासदी” की श्री अभिमन्यु जैन जी द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी।  आज हम आपके लिए इसी व्यंग्य संकलन से एक चुनिन्दा व्यंग्य “अमर होने की तमन्ना” लेकर आए हैं।
इस सार्थक व्यंग्य से आप व्यंग्य संकलन की अन्य व्यंग्य रचनाओं की कल्पना कर सकते हैं। साथ ही यह भी स्वाकलन कर सकते हैं कि – अमर होने की तमन्ना में आप अपने आप को कहाँ पाते हैं? यह तो तय है कि इस व्यंग्य को पढ़ कर कई लोगों के ज्ञान चक्षु जरूर खुल जाएंगे।)
प्रकृति ने तो किसी को अमर बनाया नहीं। सब का एक दिन मुअय्यन है। समझदार लोग इसे प्रकृति का नियम मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग अमरत्व पाने के लिए हाथ-पाँव मारते रहते हैं। प्रकृति पर वश नहीं चलता तो अपने नाम से स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, मंदिर बनवा देते हैं, क्योंकि इमारत का जीवन आदमी के जीवन से लंबा होता है।  बहुत से लोग मंदिर की सीढ़ियों पर अपने नाम का पत्थर लगवा देते हैं। इसमें विनम्रता के साथ अमरत्व की लालसा भी होती है।
शाहजहां ने अपनी बेगम को अमर बनाने के लिए करोड़ों की लागत का ताजमहल बनवाया। मुमताज की ज़िंदगी में तो कुछ याद रखने लायक था नहीं, अलबत्ता ताजमहल उसकी याद को ज़िंदा रखे है। लेकिन यह अमरता का बड़ा मंहगा नुस्खा है,खास तौर से तब जब ग़रीब जनता का पैसा शासक को अमर बनाने के लिए लगाया जाए। ऐसी अमरता से भी क्या फायदा जहाँ आदमी अपने काम के बूते नहीं, कब्र की भव्यता के बूते अमर रहे?
समय भी बड़ा ज़ालिम होता है। वह बहुत से लोगों की अमरत्व की लालसा की हत्या कर देता है। धन्नामल जी बड़ी हसरत से अपने नाम से अस्पताल खुलवाते हैं, और लोग कुछ दिन बाद उसे डी.एम.अस्पताल कहना शुरू कर देते हैं। धन्नामल जी डी.एम.के पीछे ग़ायब हो जाते हैं।और अगर धन्नामल जी का पूरा नाम सलामत भी रहा,तो कुछ दिनों बाद लोगों को पता नहीं रहता कि ये कौन से धन्नामल थे—– नौबतपुर वाले, या ढोलगंज वाले?
जो लोग सिर्फ परोपकार और परसेवा के लिए स्कूल, अस्पताल या धर्मशाला बनवाते हैं, वे प्रशंसा के पात्र हैं। उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका नाम रहे या भुला दिया जाए। लेकिन जो लोग खालिस अमरत्व और वाहवाही के लिए इमारतें खड़ी करते हैं वे अक्सर गच्चा खा जाते हैं। ऐसे लोग ईंट-पत्थर की इमारत में तो लाखों खर्च कर देते हैं, लेकिन आदमी की सीधी मदद करने के मामले में खुद पत्थर साबित होते हैं। बहुत से लोग चींटियों को तो शकर खिलाते हैं, लेकिन आदमी को गन्ने की तरह पेरते हैं।
मंदिर मस्जिद बनवाने के पीछे शायद अमरता प्राप्त करने के साथ साथ ख़ुदा को धोखा देने की भावना भी रहती हो। सोचते हों कि मंदिर बनवाने से सब गुनाह माफ हो जाएंगे और स्वर्ग में पनाह मिल जाएगी। इसीलिए बहुत सा दो नंबर का पैसा मंदिरों अस्पतालों में लगता है। लेकिन ख़ुदा इतना भोला होगा, इस पर यकीन नहीं होता।
हमारे देश में अमर होने का एक और नुस्खा चलता है—–कुलदीपक पैदा करने का। लोग समझते हैं कि पुत्र पैदा करने से उनका वंश चलेगा।इसमें पहला सवाल तो यह उठता है कि श्री खसोटनलाल का वंश चले ही क्यों? वे कोई तात्या टोपे हैं जो उनका वंश चलना ज़रूरी है? जो सचमुच बड़े होते हैं वे अपना वंश चलाने की फिक्र नहीं करते। गांधी के वंश का आज कितने लोगों को पता है? अलबत्ता जिन्होंने ज़िंदगी भर सोने, खाने और धन बटोरने के सिवा कुछ नहीं किया, वे अपना यशस्वी वंश चलाने के बड़े इच्छुक होते हैं।
दूसरी बात यह है कि कुलदीपक अक्सर वंश चलाने के बजाय उसे डुबा देते हैं। बाप के जतन से जोड़े धन को वे दोनों हाथों से बराबर करते हैं और पिताश्री के सामने ही उनके वंश का श्राद्ध कर देते हैं। लोग पूछते हैं, ‘ये किस कुल के चिराग हैं जो पूरे मुहल्ले को फूँक रहे हैं?’ और पिताजी अपनी वंशावली बताने के बजाय कोई अँधेरा कोना ढूँढ़ने लगते हैं।
कुछ लोग वंश को पीछे से पकड़ते हैं। संयोग से किसी महापुरुष के वंशज हो गये।अपने पास उस पूर्वज की याद दिलाने वाले कोई गुण बचे नहीं, लेकिन ‘विशिष्ट’ बने रहने की इच्छा पीछा नहीं छोड़ती। दिन भर दस साहबों को सलाम करते हैं, दस जगह रीढ़ को ख़म देते हैं, लेकिन यह बखान करते नहीं थकते कि वे अमुक वीर की वंशबेल के फूलपत्र हैं।
समझदार लोग अमरता के प्रलोभन में नहीं पड़ते।वक्त के इस प्रवाह में बहुत आये और बहुत गये। जो अपनी समझ में अपने अमर होने का पुख्ता इंतज़ाम कर गये थे उनका नाम हवा में गुम हो गया। बहुत से लोगों को उनकी पुण्यतिथि पर काँख-कूँख कर याद कर लिया जाता है, और फिर उसके बाद उनकी फोटो को एक साल के लिए टांड पर फेंंक दिया जाता है। अगली पुण्यतिथि पर फिर फोटो की धूल झाड़कर श्रद्धांजलि की रस्म भुगती जाती है।ऐसी अमरता से तो विस्मृत हो जाना ही अच्छा।
इसलिए बंडू भाई, अमर होने की इच्छा छोड़ो। मामूली आदमी बने रहो,जितना बने दूसरों का कल्याण करो, और जब मरो तो इस इच्छा के साथ मरो कि दुनिया हमारे बाद और बेहतर हो। बहुत से लोग हैं जो बिना शोरगुल किये दुनिया का भला करते हैं और चुपचाप ही दुनिया से अलग हो जाते हैं।ऐसे लोग ही दुनिया के लिए ज़रूरी हैं।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ से)




हिन्दी साहित्य – कविता – * मैं लौट आऊंगा * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

मैं लौट आऊंगा

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे।)

वह ग़बरू जवान
जिसे बुला लिया गया था
मोर्चे पर आपात काल में
जो चार दिन पहले ही
बंधा था विवाह-बंधन में
जिसकी पत्नी ने उसे
आंख-भर देखा भी नहीं था
और ना ही छूटा था
उसकी मेहंदी का रंग
उसके जज़्बात
मन में हिलोरे ले रहे थे
बरसों से संजोए स्वप्न
साकार होने से पहले
वह अपनी पत्नी से
शीघ्रता से लौटने का वादा कर
भारी मन से
लौट गया था सरहद पर
परंतु,सोचो!क्या गुज़री होगी
उस नवयौवना पर
जब उसका प्रिययम
तिरंगे में लिपटा पहुंचा होगा घर
मच गया होगा चीत्कार
रो उठी होंगी दसों दिशाएं
पल-भर में राख हो गए होंगे
उस अभागिन के अनगिनत स्वप्न
उसके सीने से लिपट
सुधबुध खो बैठी होगी वह
और बह निकला होगा
उसके नेत्रों से
अजस्र आंसुओं का सैलाब
क्या गुज़री होगी उस मां पर
जिस का इकलौता बेटा
उसे आश्वस्त कर
शीघ्र लौटने का वादा कर
रुख्सत हुआ होगा
और उसकी छोटी बहन
बाट जोह रही होगी
भाई की सूनी कलाई पर
राखी बांधने को आतुर
प्यारा-सा उपहार पाने की
आस लगाए बैठी होगी
उसका बूढ़ा पिता
प्रतीक्षा-रत होगा
आंखों के ऑपरेशन के लिये
सोचता होगा अब
लौट आएगी
उसके नेत्रों की रोशनी
परंतु उसकी रज़ा के सामने
सब नत-मस्तक
मां,निढाल,निष्प्राण-सी
गठरी बनी पड़ी होगी—
नि:स्पंद,चेतनहीन
कैसे जी पाएगी वह
उस विषम परिस्थिति में
जब उसके आत्मज ने
प्राणोत्सर्ग कर दिए हों
देश-रक्षा के हित
सैनिक कई-कई दिन तक
भूख-प्यास से जूझते
साहस की डोर थामे
नहीं छोड़ते आशा का दामन
ताकि देश के लोग अमनो-चैन से
जीवन-यापन कर सकें
और सुक़ून से जी सकें

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com




मराठी साहित्य – कविता **पान** श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे
*पान*
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की  एक भावप्रवण कविता।)

 

भाव होते प्रेम होते टाळले का मी तरी ?

गाव माझ्या अंतरीचे जाळले का मी तरी ?

 

वाट माझ्या भावनांची मीच होती रोखली

आसवांचे चारमोती गाळले का मी तरी ?

 

माय-बापाची प्रतिष्ठा थोर तेव्हा वाटली

त्याच खोट्या इभ्रतीला भाळले का मी तरी

 

प्रेम का नाकारले मी ते कळेना आजही

शब्द साधे एवढे ते पाळले का मी तरी ?

 

प्रीतिच्या ग्रंथात माझे नाव नव्हते नेमके

पान माझ्या जिंदगीचे चाळले का मी तरी ?

 

अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]