योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Meditation Asanas ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Meditation Asanas 

 

Video Link : Meditation Asanas 

SUKHASANA, ARDHA PADMASANA, PADMASANA, SIDDHASANA, SIDDHA YONI ASANA, SWASTIKASANA, DHYANA VEERASANA, SIMHASANA, VAJRASANA, ANANDA MADIRASANA, PADADHIRASANA, BHADRASANA
The main purpose of the meditation asanas is to allow the practitioner to sit for extended periods of time without moving and without discomfort. Only when the body has been steady and still for some time will meditation be experienced. Deep meditation requires the spinal column to be straight and very few asanas can satisfy this condition.
Furthermore, in high stages of meditation the practitioner loses control over the muscle of the body. The meditation asana, therefore, needs to hold the body in steady position without conscious effort.
In this video, we have demonstrated how to get into the following meditation asanas:
SUKHASANA (easy pose)
ARDHA PADMASANA (half lotus pose)
PADMASANA (lotus pose)
SIDDHASANA (accomplished pose for men)
SIDDHA YONI ASANA (accomplished pose for women)
SWASTIKASANA (auspicious pose)
DHYANA VEERASANA (hero’s meditation pose)
SIMHASANA (lion pose)
VAJRASANA (thunderbolt pose)
ANANDA MADIRASANA (intoxicating bliss pose)
PADADHIRASANA (breath balancing pose)
BHADRASANA (gracious pose)
Practice note: A useful suggestion to make the above poses comfortable is to be place a small cushion under the buttocks.
Reference book: ASANA PRANAYAMA MUDRA BANDHA by Swami Satyananda Saraswati
(This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.)
Music: Oxygen Garden by Chris Zabriskie is licensed under a Creative Commons Attribution licence (https://creativecommons.org/licenses/…) Source: http://chriszabriskie.com/divider/ Artist: http://chriszabriskie.com/

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The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings. Email: [email protected]

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Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।8।।

 

अच्छों की रक्षा करने को,दुष्टों को हटवाने को

समय समय पर रक्षा करने धर्म की, पाप मिटाने को।।8।।

 

भावार्थ :  साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।।8।।

 

For the protection of the good, for the destruction of the wicked, and for the establishment of righteousness, I am born in every age. ।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #3 – तमाशा ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की तीसरी कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “तमाशा”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – तमाशा ☆

 

इस बार भी

गजब तमाशा हुआ

ईमान खरीदने वो गया।

दुकानदार ने मिलावटी

और महँगा दे दिया।

और

बर्फ की बाट से

तौल तौलकर दिया ।

 

फिर

एक और तमाशा हुआ

एक अच्छे दिन

विकास की दुकान में

एक बिझूका खड़ा मिला।

जोकर बनके हँसता रहा

चुटकी बजा के ठगता रहा।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #6 – खुशी की तलाश ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “खुशी की तलाश”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 6 ☆

☆ खुशी की तलाश ☆

 

नया साल आ गया, हमने पार्टियां मनाई, एक दूसरे को बधाई दी  नये संकल्प लिये, अपनी पुरानी उपलब्धियो का मूल्यांकन और समीक्षा भी की. खुशियाँ मनाई. दरअसल हम सब हर पल खुशी की तलाश में व्यथित हैं. खुशी की तलाश के संदर्भ में यहाँ एक दृष्टांत दोहराने और चिंतन मनन करने योग्य है. एक जंगल में एक कौआ सुख चैन से रह रहा था. एक बार उड़ते हुये उसे एक सरोवर में हंस दिखा, वह हंस के धवल शरीर को देखकर बहुत प्रभावित हुआ. उसे लगा कि वह इतना काला क्यो है ? कौआ हीन भावना से ग्रस्त हो गया. उसे लगा कि धवल पंखी हंस सबसे अधिक सुखी है. कौए ने हंस से जाकर अपने मन की बात कही, तो हंस ने जवाब दिया कि मित्र तुम सही कह रहे हो मैं स्वयं भी अपने आप को सबसे अधिक भाग्यशाली और सुखी मानता था पर कल जब मैने तोते को देखा तो मुझे लगा कि मेरे पंखो का तो केवल एक ही रंग है वह भी सफेद, जबकि तोता कितना सुखी पंछी है उसके पास तो लाल और हरा दोनो रंग हैं, और वह मधुर आवाज में बोल भी सकता है. जब से मैं तोते से मिला हूँ मुझे लगने लगा है कि तोता मुझसे कही ज्यादा भाग्यशाली और सुखी पक्षी है. हंस के मुँह से ऐसी बातें सुनकर कौआ तोते के पास जा पहुँचा और उससे सारी कथा कह सुनाई. तोते ने कौए से कहा कि यह तो ठीक है पर सच यह है कि मैं बहुत दुखी हूँ क्योंकि कल ही मेरी मुलाकात मोर से हुई थी और उसे देखकर मुझे लगता है कि भगवान ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, मुझे केवल दो ही रंग दिये हैं जबकि मोर तो सतरंगा है, वह सुंदर नृत्य भी कर पाता है. तोते से यह जानकर कि वह भी सुखी नहीं है, कौआ बड़ा व्यथित हुआ, उसने मोर से मिलने की ठानी. वह मोर से मिलने पास के चिड़ियाघर जा पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि मोर बच्चो की भीड़ से घिरा हुआ था, उसे देखकर सभी बहुत प्रसन्न हो रहे थे. कौ॓ए ने मन ही मन सोचा कि वास्तव में मोर से सुखी और कोई दूसरा पक्षी हो ही नहीं सकता. वह सोचने लगा कि  काश उसके पास भी मोर की तरह सतरंगे पंख होते तो वह कितना सुखी होता. जब मोर के पिंजड़े के पास से लोगों की भीड़ समाप्त हुई तो कौआ मोर के पास जा पहुँचा और उसने मोर को अपनी पूरी कथा सुना डाली कि कैसे वह हंस से मिला फिर तोते से और अब खुशी की तलाश में उस तक पहुँचा है. कौए की बातें सुनने के बाद मोर ने उससे कहा मैं सोचा करता था कि सचमुच मैं ही सबसे सुंदर और सुखी पक्षी हूं, पर जब मुझे कल मौका मिला तो मैने सारे चिड़ियाघर का निरीक्षण किया. मैने देखा कि यहाँ हर पक्षी छोटे या बड़े पिंजड़े में कैद करके रखा गया है. मेरी सुंदरता ही मेरी दुश्मन बन गई है और मैं यहां इस पिंजड़े में कैद करके रखा गया हूं. मोर ने कहा कि तब से मैं यही सोचता हूं कि काश मैं कौआ होता तो खुले आसमान में मन मर्जी से उड़ तो सकता, क्योंकि केवल कौआ ही एकमात्र ऐसा पक्षी है जिसे यहां चिड़ियाघर में किसी पिंजड़े में कैद नही रखा गया है. मोर के मुँह से यह सुनकर कौआ सोच में पड़ गया कि वास्तव में सुखी कौन है?

हमारी स्थितियां भी कुछ ऐसी ही हैं, हम अपने परिवेश में व्यर्थ ही किसी से स्वयं की तुलना कर बैठते हैं और फिर स्वयं को दुखी मान लेते हैं. उस जैसे सुख पाने के लिये तनाव ग्रस्त जीवन जीने लगते हैं. सचाई यह है कि हर व्यक्ति स्वयं में विशिष्ट होता है, जरूरत यह होती है कि हम अपनी विशिष्टता पहचानें और उस पर अभिमान करें न कि किसी दूसरे से व्यर्थ की तुलना करके दुखी हों. आत्म सम्मान के साथ अपनी विशेषता को निखारना हमारा उद्देश्य होना चाहिये. अपनी उस विशेषता को अपने परिवेश में सकारात्मक तरीके से फैलाकर समाज के व्यापक हित में उसका सदुपयोग करने का हमको प्रयत्न करना चाहिये. आइये नये साल के मौके पर हम सब यह निश्चित करें कि हम दूसरो से व्यर्थ ही ईर्ष्या नही करेंगे, अपने गुणो का जीवन पर्यंत  निरंतर सकारात्मक विकास करेंगे और स्वयं के व व्यापक जन हित में अपने सद्गुणो का भरपूर उपयोग करेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-6 – प्राथमिक शाळेतील समस्या ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका एक आलेख   “प्राथमिक शाळेतील समस्या” जो प्राथमिक शालाओं की समस्याओं एवं शिक्षकों  के दायित्व की विवेचना करता है। उनके जीवन में उनके प्रत्येक विद्यार्थी की शिक्षा का कितना महत्व है,आप  यह आलेख  पढ़ कर ही जान सकेंगे। मैं ऐसी शिक्षिका और उनकी लेखनी को नमन ही कर सकता हूँ। )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-6 ? 

 

? प्राथमिक शाळेतील समस्या ?

 

*शिक्षणाचा लावी लळा

माझा गुरूजी सावळा।

कलागुणांचा सोहळा

बाल गोपाळांचा मेळा*

अशा आमच्या गुरूजींच्या खांद्यावर शिक्षणाची धूरा अगदी गुरूकुल परंपरे पासून  आजपर्यंत समाजाने सोपवली आहे.

याच समाजाने गुरूला ब्रह्मा विष्णू महेशाचीही उपमा दिलेली.

विद्यार्थी जीवनात,अगदी विधात्या प्रमाणे विद्यार्थ्यांच्या उत्पत्ती, स्थिती व लय निर्मितीचे अधिकारच समाजाने आपल्याला दिलेले आहेत. आपण विद्यार्थ्यांचे भाग्यविधाता आहोत या भूमिकेतून जर आपण सर्व अडचणींकडे पाहिले तर निश्चितच सर्व अडचणी क्षुल्लक वाटायला लागतील .कारण भाग्य विधाता ही उपाधी सर्व अडचणीवर मात करण्याची स्फूर्ती नक्कीच देऊन जाते.

*माझा एक विद्यार्थी शिक्षणा पासून वंचित राहिला म्हणजेच मी एक आयुष्य लयाला नेले* ही जाणीव जेव्हा आपल्याला होईल तेव्हा शिक्षकांना कुठली अडचणच दिसणार नाही. मुख्य म्हणजे शाळेतील मुलं ही माझी मुलं आहेत ही भावना ज्या दिवशी  निर्माण होईल, त्या दिवशी आपोआपच त्यांच्या संबंधातील सारे हक्क आणि कर्तव्य आपोआपच माझ्याकडे असतीलच यात तिळमात्र  शंका नाही. तेव्हा आपण आज समोर बसलेली माझीच मुले  आहेत असे गृहीत धरून अडचणींकडे  पाहू या म्हणजे  त्यांच्या सर्व समस्या माझ्या होतील  आणि माझी समस्या कितीही कठीण असेल तरीही मी ती सोडवण्यासाठी नक्कीच समर्थ असेन कारण मुलं माझी आहेत ही भावना खूप महत्त्वाची आहे. जर क्रांतीज्योती सावित्रीबाईंना  दीडशे वर्षापूर्वी याहून कठीण समस्या कुठल्याही मदती शिवाय सोडवायला कठीण वाटल्या नसतील तर तिच्या लेकींना 21व्या शतकात त्या इतक्या कठीण का वाटाव्यात हा विचार केला की समस्या क्षुल्लक वाटायला लागतात, मार्ग नकळत सापडायला लागतात.

*विधाता बनने निश्चितच सोपे काम नाही*.

मग अडचणीच सोप्या दिसायला लागतील.

पालकांचे दारिद्रय, अज्ञान, अंधश्रद्धा, पालकांचे स्थलांतर, लहान भावंडे सांभाळणे, घरकाम करणे, इ.अडचणी

तर अपुऱ्या शालेय सुविधा, शैक्षणिक साधनांचा अभाव, अपुरे खेळाचे मैदान नियोजनाचा अभाव, अधिकाऱ्यांचा दबाव, अपुरे विषय ज्ञान, शिक्षक पालक संबंधातील तफावत, शिक्षकातील मतभेद, समाज व शाळा यांच्यातील दरी अशी अनेक कारणे गुणवत्ता विकासात अडसर निर्माण करतात परंतु कुशल शिक्षक  मनाचा पक्का निर्धार करून यातून योग्य मार्ग नक्कीच काढू शकतो यात यत्किंचितही शंका नाही. फक्त माझी 100% देण्याची तयारी हवी.  आणि जो भरभरून देतो त्याला मागण्याचा नक्कीच  हक्क असतो आणि तो कोणी  नाकारू शकत नाही, आणि खरंतर विद्यार्थी आणि पालक यांचे प्रेम जिव्हाळा आपुलकी यात तो नकळत आकंठ बुडालेला असतो.  चला तर मग नवीन शैक्षणिक वर्षाच्या सुरुवातीला  गुणवत्ता विकाचा एक दृढ निश्चय घेवून सकारात्मक सुरुवात करूयात

 

अडचणीवर करू मात

धरून बालकांचे हात।

 ज्ञान दानाचा वसा घेत

सरस ठरूया गुणवत्तेत।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ कौमार्य चाचणी… अमानुष पद्धत.. ☆ – सुश्री आरुशी अद्वैत

सुश्री आरुशी अद्वैत

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी  (सुश्री आरुशी अद्वैत जी ) का  एक सामाजिक कुप्रथा पर आधारित  आलेख। इस आलेख में उद्धृत निष्पक्ष विचार सुश्री आरुशी जी के व्यक्तिगत विचार हैं।  हम किसी भी सामाजिक कुप्रथा  जो  संविधान , समाज अथवा व्यक्ति की मनोभावना व वैचारिक स्वतन्त्रता  तथा आत्मसम्मान के विरुद्ध हो उससे कदापि सहमत नहीं हैं।   )

 

☆ कौमार्य चाचणी… अमानुष पद्धत.. ☆

 

लग्न झाले की नवऱ्या मुलीला ही चाचणी करावीच लागते, ह्यातून सुटका नाही… कंजारभाट समाजातील ह्या घृणास्पद रितिरिवाजावर काल करम प्रतिष्ठान तर्फे चर्चासत्र आणि विषयाधारीत कवितावाचन ठेवण्यात आलं होतं…

तिथे लीलाताई इन्द्रेकर ह्यांच्याकडून जी माहिती मिळाली ती ऐकल्यावर मन विषण्ण झालं, सुन्न झाले… काही वेळा अंग थरथरायला लागलं, तर कधी दगडासारखं घट्ट बनलं, तर कधी पोटात ढवळाढवळ होऊ लागली.. एकंदरीत काय रितिरिवाजांमधील फोलपणा समोर येत होताच, त्याचबरोबर त्यातील भीषणता अस्वस्थ करून मनाला डागण्या देत होते… नुसतं ऐकून आमची ही अवस्था झाली होती, तर ज्या मुलींना ह्या पद्धतीला नकार देता येत नाही आणि सगळं निमूटपणे सहन करायला लागत असेल त्या मुलींना, स्त्रियांना ह्या राक्षसी वृत्तीच्या पुरुषांची चीड आल्याशिवाय राहत नसेल… जे जे ऐकलं ते इतकं भयंकर आहे की लिहितानासुद्धा अंगावर काटा येतोय आणि लिहिण्याचं धैर्य तर अजिबात नाही…

कौमार्य चाचणी घेताना मुलीवर, तिच्या कुटुंबियांवर जे दडपण, दबाव टाकला जातो, त्यामुळे लग्नानंतर सुरू होणाऱ्या नाजूक, कोमल नात्याबद्दल स्वप्न पाहणं तर दूरच, पण ह्या चाचणीमुळे जो मनस्ताप सहन करावा लागत असेल ते शब्दात सांगणे कदापि शक्य नाही… दुर्दैवाने जर ही चाचणी फेल गेली तर त्या मुलीचे आणि कुटुंबाचे हाल हाल केले जातात, त्यांच्यावर बहिष्कार टाकला जातो, अगदी जीवनावश्यक गोष्टीही पुरवल्या जात नाहीत, मुलीला मारहाण, तिचा छळ, ह्याची परिसीमाच… मुलीला शंभर लोकांसमोर उत्तरे द्यावी लागतात… बिचारीची धिंड काढायची बाकी असते… हे सगळं तिच्या इच्छेविरुद्ध घडत असतं, आणि तिला कोणीच एक स्त्री म्हणून, एक माणूस म्हणून मदत करायला तयार नसतं… सगळं चव्हाट्यावर आणून तिला दोषी ठरवून तिच्यावर अत्याचार करतात, आणि ह्याला कोणीच विरोध करत नाही, करण जात पंचायत जे सांगेल ते बरोबर ह्या अंधश्रद्धेच्या आंधळ्या कुबड्यावर चालणं इथल्या पुरुषांना सोपं वाटतं, शिवाय जमातीत राहायचं आहे तेव्हा जमातीच्या नियमांना डावलण्याचं धाडस नसतं किंवा सोयीस्कर रित्या हे धाडस गुंडाळून ठेवलं जातं… देशातील कायद्याला धाब्यावर बसवून जात पंचायत फक्त त्यांचा इगो आणि सो कॉल्ड पद भूषवण्यात धन्यता मानतात… चर्चासत्रातून असेही निदर्शनास आले की ही पद्धत फक्त कंजार भाट समाजात नसून, इतर अनेक उचचभृ समाजातही पाळली जाते…

आज एक स्त्री म्हणून मी देवाचे आभार मानते की त्याने माझ्यावर अशी वेळ कधीच आणली नाही, तरी माझ्या तक्रारी संपत नाहीत, ह्या अवस्थेतून बाहेर पडणं अत्यावश्यक आहे… जणू दुःखाची काय किंवा सुखाची व्याख्या पडताळून पाहणे आवश्यक आहे…

इंटरनेट वर search केलं तर ह्यावर इथांभूत माहिती मिळेल.

सध्या ह्याच समाजातील काही तरुणांनी ह्या अमानुष रूढी परामपरेविरुद्ध आवाज उठवला आहे, त्यात विवेक तामचीकर आणि त्यांच्या पत्नी ऐश्वर्या भात ह्या लढ्याला सुरुवात केली आहे, शिवाय लीलाताई इन्द्रेकर ह्यांच्या पाठीशी खंबीरपणे उभ्या आहेत, हे कार्य करणाऱ्या , मुलांना त्यांच्याच समाजातूनच अनेकविध लोकांकडून धमक्या येतात, तरी ही लोकं आता थांबणार नाहीत, हे नक्की.. ही अमानुष रीत समूळ नष्ट करण्यात देव त्यांच्या प्रयत्नांना यश देवो, हीच प्रार्थना…

ह्या विषयावर कविता लिहायचं आव्हान पेलणे खूप अवघड गेले, मी एक स्फुट लिहायचा प्रयत्न केला, ते पुढे मांडते आहे…

 

लग्नाला नक्की या हं…

आणि हो, आहेर अजिबात स्वीकारला जाणार नाही…

तुमचे शुभाशीर्वाद हाच मोठा आहेर…

 

हे माझ्याही लग्न पत्रिकेवर छापलेलं पाहून थोडासा दिलासा मिळाला…

 

आई बाबांना हे पटवून देणं खरंच कठीण गेलं की

भेटवस्तूंची प्रथा मोडून

सगळ्यांच्या आशीर्वादाची गरज कशी जास्त आहे… !

 

प्रत्येक वस्तू खरेदी करताना

तिचा योग्य वापर, फायदे, नुकसान

ह्या मुद्द्यांवर चर्चा झाली आणि गॅरंटी / वॉरंटी,

ह्याची खातरजमा झाली की,

ती वस्तू खरेदी होते, हो ना !

 

आई, थोड्याच दिवसात ह्या लग्नाच्या दुकानात तू प्रेमाने, वात्सल्याने वाढवलेल्या,

ह्या संस्कारित मांसाच्या गोळ्याची अवस्था होणार आहे…

रुखवतात मांडलेल्या अनेक वस्तूंप्रमाणे माझी स्थिती होईल…

पीस खराब निघाला तर रिप्लेसमेंटही होईल कदाचित…

 

नाही म्हणजे स्वप्नरूपी माप ओलांडताना,

प्रेमाचे, लाडाचे, कौतुकाचे शब्द,

दुसऱ्या दिवशी पहाट झाल्यावर,

बहरू पाहणाऱ्या नात्याला नजर लागू नये म्हणून,

रक्ताच्या टिक्याने सुरक्षित करून,

आनंदाने स्वीकारतील, ही गॅरंटी मिळवण्यासाठी,

सर्वांच्या आशीर्वादाची गरज आहे…

 

तेव्हा,

लग्नाला नक्की या हं…

आणि हो, आहेर अजिबात स्वीकारला जाणार नाही…

तुमचे शुभाशीर्वाद हाच मोठा आहेर…

 

© आरुशी अद्वैत

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Yoga Nidra in a Sitting Posture ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Yoga Nidra in a Sitting Posture 

 

Video Link : Yoga Nidra in a Sitting Posture 

 

Yoga Nidra is a systematic method of inducing complete physical, mental and emotional relaxation. Fifteen minutes of the practice gives you the same comfort as one of sleep.

Usually the practice is done while lying down. This short version is especially designed for those who want to relax and recharge in a sitting posture at their workplace, airport or park in the quickest possible time during the course of their busy day.

Yoga nidra, in it’s present form, is a beautiful gift to humanity by Swami Satyananda Saraswati who founded the Bihar School of Yoga.

 

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Founders: LifeSkills

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Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ।।7।।

 

जब जब धर्म हृास होता है तब तब खुद को सृजता हॅू

करने नाश अधर्म बढे का, जीवन लीला रचता हूँ।।7।।

      

भावार्थ :  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।।7।।

 

Whenever there is a decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then I manifest Myself! ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 6 – व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 6 ☆

 

☆ व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆

एक निर्माणाधीन मकान की बगल से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि ऊपर एक कोने में एक पुराना जूता लटकाया गया है। जूते की तली सड़क पर चलने वालों की तरफ है। यह मकान को बुरी नज़र से बचाने का अचूक नुस्खा है। किसी अधबने मकान पर काली झंडी लहराती दिखती है तो किसी पर काली हंडी उल्टी लटकी है। मतलब यह है कि ईंट, पत्थर, सीमेंट को भी नज़र लगती है।गज़ब की होती है यह बुरी नज़र जो ईंट,पत्थर, कंक्रीट को भी भेद जाती है। क्या करती है यह बुरी नज़र? मकान में दरार कर देती है, या नींव को कमज़ोर कर देती है, या सीधे सीधे मकान को पटक देती है? आदमी पर बुरी नज़र की कारस्तानी की बात तो सुनी थी। डिठौना लगाना देखा, राई-नोन उतारना देखा। लेकिन मकानों पर बुरी नज़र का असर जानकर तो लगा कि नज़र किसी लेज़र किरण से कम नहीं।

कैसी होती है यह बुरी नज़र? क्या यह कोई स्थायी चीज़ होती है या यह ईर्ष्या या द्वेष से एकाएक उपजती है? किसी का आलीशान बंगला देखा, दिल में हूक उठी, और तीसरे नेत्र की तरह बुरी नज़र भक से चालू हो गयी। अगर यह कोई स्थायी लक्षण है तो यह कुछ खास लोगों में ही पायी जानी चाहिए। देश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कुछ स्त्रियों को ‘चुड़ैल’ मानकर मार डाला गया या मारा पीटा गया। उन पर आरोप था कि उनकी बुरी नज़र या उनके तंत्र-मंत्र से गांव में दूसरों को नुकसान हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह आरोप किसी पुरुष पर नहीं लगा क्योंकि ‘चुड़ैल’ का नाम बताने वाले ओझा जी अक्सर पुरुष होते हैं।

मकानों पर लटकी झंडियों, हंडियों और जूतियों को देखकर लगता है कि सरकार को भी लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास निजी स्तर पर ही क्यों हो? इसलिए सबसे पहले तो नेत्र-विशेषज्ञों के द्वारा सबकी आँखों की जांच कराके बुरी नज़र वालों की एक फेहरिस्त बना ली जानी चाहिए। फिर इन बुरी नज़र वालों को कानूनन कोई पहचान-चिन्ह धारण करने को बाध्य किया जाना चाहिए। हो सके तो उन्हें घर से निकलने पर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने को कहा जाए, या कोई ऐसा चश्मा बनाया जाए जिसके काँच में बुरी नज़र के घातक तत्व को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने की शक्ति हो, जैसे सिगरेट का फिल्टर निकोटिन को जज़्ब कर लेता है। जो भी हो, देश की संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना ज़रूरी है।

यह अनुसंधान का विषय है कि बुरी नज़र आँख से प्रक्षेपित कैसे होती है। विज्ञान के हिसाब से तो आँख सिर्फ एक कैमरा है, जो तस्वीर को ग्रहण तो करती है, लेकिन भेजती कुछ नहीं। लेकिन विज्ञान पर यकीन करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा। जब सयाने कहते हैं कि बुरी नज़र धनुष से छूटे बाण की तरह चलती है तो ज़रूर चलती होगी। वर्ना लोग आदमियों और घरों को बचाने का इतना पुख्ता इंतज़ाम क्यों करते? फिल्मी गीतों के हिसाब से तो आँखें विभिन्न प्रकार के घातक अस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं जो दिल को घायल करने से लेकर जान तक ले सकते हैं। नमूने हैं —-‘ना मारो नजरिया के बान’, ‘मस्त नजर की कटार, दिल के उतर गयी पार’, और ‘अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल।’ नायिका की आँखों के बारे में रीतिकालीन कवि रसलीन की पंक्ति है —–‘जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’

वैसे सब लोग बुरी नज़र के उपचार के लिए जूते की तरफ नहीं भागते। बहुत से ट्रक वाले ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ लिख कर काम चला लेते हैं। फिल्मों में नायक नायिका के लिए ‘चश्मेबद्दूर’ गाकर तसल्ली कर लेता है। लेकिन फिर भी इस बला से बचने के लिए जूते का प्रयोग बहुतायत से होता है।

इतिहास के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि जूता बद-नज़र और बददिमाग़ के इलाज का प्रभावी उपकरण रहा है। रियासतों के ज़माने में इसका प्रयोग काफी उदारता से रिआया को उसकी औकात का एहसास दिलाने के लिए किया जाता था। तब का जूता शुद्ध चमड़े का और मज़बूत होता था। उसके सामने दंड के अन्य सब उपकरण हेठे थे क्योंकि जूता चमड़ी और इज़्ज़त दोनों खींच लेता था। आजकल रबर सोल के हल्के-फुल्के जूतों का फैशन है जो सिर्फ इज़्ज़त हरने के ही काम आ सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के लिए इज़्ज़त का कोई ख़ास महत्व नहीं है उनके लिए जूता भयकारी नहीं रहा। ग़रज़ यह कि आज के ज़माने में जूते की कीमत में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन उसकी उपयोगिता में कमी हुई है। यह बात उन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए जो बुरी नज़र को निर्मूल करने के लिए जूता लटकाते हैं।

दरअसल बुरी नज़र वालों का उपयोग भी देश के हित में हो सकता है, लेकिन जैसे हम अपने शिक्षित युवकों, इंजीनियरों, डाक्टरों का उपयोग करना नहीं जानते वैसे ही हम बुरी नज़र वालों का रचनात्मक उपयोग करना नहीं जानते। बुरी नज़र वालों को लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा सकता है जहाँ उनकी नज़र का इस्तेमाल दुश्मन के बंकरों को तोड़ने, पुल उड़ाने और टैंकों को बरबाद करने के लिए किया जा सकता है। यह नुस्खा कारगर होने के साथ साथ बेहद सस्ता भी है। कुछ बुरी नज़र वालों को नगर निगम के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते में भर्ती किया जा सकता है, जहाँ वे घंटों का काम मिनटों में करेंगे। नलकूपों की बोरिंग, मकानों के लिए नींव की खुदाई और पत्थरों को तोड़ने के कामों के लिए भी बुरी नज़र बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। हमारे पास ही काम की ऐसी बढ़िया तकनीक है, और हम विदेशों से मंहगे उपकरण खरीदने में लगे हैं।

विशेषज्ञों को इस काम में तुरन्त लगा देना चाहिए कि बुरी नज़र कितने स्तरों पर और कितने तरीकों से काम में लायी जा सकती है। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या बुरी नज़र में किसी और तत्व का संयोग करके कोई और ताकतवर चीज़ पैदा की जा सकती है। मेरे खयाल से बुरी नज़र में असीमित संभावनाएं हैं, बशर्ते कि हम इन संभावनाओं की खोज-बीन के प्रति जागरूक हों।अब तक हमने इस क्षेत्र की बहुत उपेक्षा की। परिणामतः दूसरे देश कहीं से कहीं पहुंच गये और हम पीछे रह गये। अब एक क्षण भी गंवाना आत्मघाती होगा।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #3 – मोक्ष …. ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  तृतीय कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 3 ☆

☆ मोक्ष… ☆

 

मोक्ष.., ऐसा शब्द जिसकी चाह विश्व के हर मनुष्य में इनबिल्ट है। बढ़ती आयु के साथ यह एक्टिवेट होती जाती है। स्वर्ग-सी धरती पर पंचसिद्ध मनुष्य काया मिलने की उपलब्धि को भूलकर प्रायः जीव  अलग-अलग पंथों की पोशाकों, प्रार्थना पद्धति, लोकाचार आदि में मोक्ष गमन के मार्ग तलाशने लगता है। तलाश का यह सिलसिला भटकाव उत्पन्न करता है।

एक घटना सुनाता हूँ। मोक्ष के राजमार्ग की खोज में अपने ही संभ्रम में शहर की एक सड़क पर से जा रहा था। वातावरण में किसी कुत्ते के रोने का स्वर रह-रहकर गूँज रहा था पर आसपास कुत्ता कहीं दिखाई नहीं देता था। एकाएक एक कठोर वस्तु पैरों से टकराई। पीड़ा से व्यथित मैंने देखा यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। गेंद मेरे पैरों से टकराकर कुछ आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई।

आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। गेंद उठाता कि कुत्ते के रोने का स्वर फिर गूँजा। उसने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और शायद मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गंवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

मैं बच्चे से कुछ पूछता कि एकाएक उसकी टोली में से किसी ने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट गया था। मोक्ष की राह मिल गई थी।

धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का परमानंद मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

©  संजय भारद्वाज , पुणे

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