हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मई दिवस विशेष ☆ हे श्रमिक तुम्हारा वंदन ‌है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

( आज  प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा मई दिवस के अवसर पर  रचित  एक कविता   “हे श्रमिक तुम्हारा वंदन ‌है”।   

 

? मई दिवस विशेष  – हे श्रमिक तुम्हारा वंदन ‌है ?

किसी राष्ट्र के विकास का घूमता पहिया, उस राष्ट्रके विकास की स्थिति का आकलन, उस राष्ट्रीय की श्रमशक्ति श्रमिक वर्ग की‌ स्थिति पर निर्भर करता है। राष्ट्रीय ‌विकास में जितना योगदान कुशल प्रबंधन का है, उससे ज्यादा संगठित कुशल श्रमिक शक्ति का‌ भी‌ है।जब कुशल प्रबंधन और श्रमशक्ति मिल कर समूह‌ भावना से कार्य करते हैं तो उस संगठन, उस संस्थान, उस राष्ट्र के विकास को कोई रोक नहीं सकता। किसी भी ‌राष्ट्र के विकास का मानक कुशल एवम् सुखी श्रमिक वर्ग ‌के आधार पर‌ तय‌ होता है।

 

हे श्रमिक तुम्हारा वंदन ‌है, वंदन है, अभिनंदन ‌है।

तुम श्रमशक्ति ‌हो दुनिया की, माथे पे‌ रोली चंदन है ।

      ।   । हे श्रमिक तुम्हारा।।1।।

 

तुम ही अपने श्रमशक्ति ‌से, बागों में फूल ‌खिलाते ‌हो।

सड़कें पुल बांध बना देश को विकास पथ पर लाते ‌हो।

अपने हुनर के‌‌ बल पर‌ सबके, तन पर वस्त्र ‌सजाते हो।

तुम ही अपनी मेहनत से, इन खेतो‌ में अन्न उगाते हो।

तुम भाग्य विधाता जग के, सबकी‌ किस्मत‌ चमकाते हो।।

।।   हे श्रमिक तुम्हारा वंदन ‌है।।2।।

 

तुम राष्ट्र पुरूष हो दुनिया में, तुमसे विकास का नारा है।

तुमसे ही दुनिया सुखी हुई, सब पे‌ अहसान तुम्हारा है।

अरमान तुम्हारे ‌दिल में है, आंखों में सपना प्यारा है।

पहचान ‌तुम्हारी ताकत है श्रम से अस्तित्व तुम्हारा है।

।। हे श्रमिक तुम्हारा वंदन है।।3।।

 

तेरी त्याग‌ तपस्या से, आलोकित यह जग सारा है।

अपनी हस्ती मिटाकर के, लाखों को दिया सहारा है।

सारी दुनिया का गम‌ पीकर, मुस्कान‌ तुम्हारे चेहरे ‌पर।

इस जहां ‌की रक्षा खातिर ही, जीवन बलिदान ‌तुम्हारा है।

।।हे श्रमिक तुम्हारा वंदन है।।4।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆  Meditation – Breathing with the Body – Meditation Learning VIDEO #4  (Hindi) ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  Meditation – Breathing with the Body ☆ 

Video Link >>>>

Meditation Learning VIDEO # 4

This is the fourth video in a series of videos – a step-by-step tutorial – to learn and practice meditation by yourself by listening to and following the instructions given in the video.

In this session, we are re-visiting and deepening what we have learned in the three earlier videos.

Instructions:

Please sit down – legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Focus your attention on the nostrils as you breathe in and as you breathe out.

In this session, we will re-visit and deepen what we have learned earlier.

Begin by simply bringing attention to the breathing.

Always mindful of your breath, breathe in; mindful, breathe out.

If you breathe in long, know: I am breathing in long. If you breathe out long, know: I breathe out long.

If you breathe in short, know: I am breathing in short. If you breathe out short, know: I breathe out short.

Don’t worry if your mind wanders away, bring it back gently. Observe your breath.

As the breathing becomes deeper, focus on the body.

Keeping a watch on your breath in the background, look inwards to the major parts of your body: head, shoulders, hands, palms, chest, stomach, upper back, lower back, legs and the feet.

Sensitive to the whole body, breathe in. Sensitive to the whole body, breathe out.

As you familiarize with your body, while keeping a watch on your breathing, relax your limbs one-by-one: forehead, eyes, cheeks, neck, shoulders, heart, stomach, upper back, lower back, thighs, calf muscles, ankles, and soles of your feet.

Calming the whole body, breathe in. Calming the whole body breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated!

Open your eyes gently and come out of meditation.

Continue your practice of meditation. When you feel, you have mastered this segment, you may proceed to the next video. Remember, meditation is a lifetime’s work.

We will be happy to have your feedback and would answer any questions that you may have. Questions may be sent to us at [email protected].

 

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – द्वादश अध्याय (5) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वादश अध्याय

(साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय)

 

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।।5।।

 

निराकार की साधना दिखती कठिन महान

क्यों कि मन को टिकाने का न कोई आधान ।।5।।

 

भावार्थ :  उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।।5।।

 

Greater is their trouble whose minds are set on the Unmanifested; for the goal-the Unmanifested-is very difficult for the embodied to reach।।5।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 44 ☆ सत्य की महिमा अपरम्पार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सत्य की महिमा अपरम्पार ।   इस आलेख का  सार उनके वाक्य  “सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है”में ही निहित है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 44 ☆

☆ सत्य की महिमा अपरम्पार

 

‘जीवन में कभी भी अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो, क्योंकि समय के साथ सत्य सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है’… कितना गहन सत्य अथवा रहस्य छिपा है, इस तथ्य में… पूर्ण जीवन-दर्शन उजागर करता है यह वाक्य कि सत्य कठोर होता है, जिस पर कोई भी आसानी से विश्वास नहीं करता। सत्य, शिव व कल्याणकारी होता है, भले ही उसे सब के समक्ष प्रकट होने में समय लग जाए, परंतु एक दिन उस रहस्य की खबर सबको लग जाती है और वह किस्सा आम हो जाता है। इस स्थिति में वह लोगों को भ्रमित होने से बचा लेता है।

‘इसीलिए यह कहा जाता है कि जीवन में अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो’ क्योंकि यदि मानव अपने कृत-कर्म, भले ही वे सत्य हों, यथार्थ से पूर्ण हों, मंगलकारी हों…से दूसरों को अवगत कराता है, तो वह आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा व स्वयं का गुणगान कहलाता है। अक्सर ऐसे लोगों की आलोचना तो होती ही है और वे उपहास के पात्र भी बन जाते हैं। इस से भी अधिक घातक है, दूसरों की हक़ीक़त को बयान करना, जिसे लोग अहंनिष्ठता अथवा आलोचना की संज्ञा देते हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों में पर-निंदा से बचने का सार्थक संदेश दिया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है, कारग़र है। कबीरदास जी ने निंदक की महिमा को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छुवाय/ बिनु साबुन,पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।’ अर्थात् निंदक वह निर्भय व नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपना सारा सारा समय व शक्ति लगा कर, आपको आपके व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराता है…आईना दिखाता है…दोषों से अवगत कराता है और उसके सद्प्रयासों से मानव का स्वभाव साबुन व पानी के बिना ही निर्मल हो जाता है। धन्य हैं ऐसे लोग, जो अपनी उपेक्षा तथा दूसरों के मंगल की सर्वाधिक कामना करते हैं। उनका सारा ध्यान अपने हित पर नहीं, आपके दोषों पर केंद्रित होता है और वे आपको गलतियों व अवगुणों से अवगत करा, उचित राह पर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को सदैव निकट रखना चाहिए, क्योंकि वे  सदैव पर-हितार्थ, निष्काम सेवा में रत रहते  हैं।

कितना विरोधाभास है…दूसरे के दोषों का बखान करने का संदेश, जहां हमें चिंतन-मनन की प्रेरणा देता है; आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि पर-निंदा को मानव का सबसे बड़ा दोष व अवगुण स्वीकारा गया है। इससे मानव की संचित शक्ति व ऊर्जा का ह्रास होता है। सो! इस संदर्भ में हमें सिक्के के दोनों पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। प्रथम है…अपनी ईमानदारी व कृत-कर्मों का बखान करना…यह आत्म-प्रवंचना रूपी दोष कहलाता है। अक्सर लोग ऐसे पात्रों को उपहासास्पद समझ उनकी आलोचना करते हैं। परंतु यह कथन सर्वथा सत्य है कि यदि आपने कुछ ग़लत किया ही नहीं, फिर स्पष्टीकरण कैसा? सत्य तो देर-सवेर सामने आ ही जाता है। हां! इसकी समय- सीमा निर्धारित नहीं होती है।

सो! सत्य कभी भी उपेक्षित नहीं होता। उदाहरणतया स्नेह, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय भाव शाश्वत हैं… जो कल भी सत्य थे, उपास्य थे, मांगलिक थे, सर्वमान्य थे… आज भी हैं और कल भी रहेंगे। ये काल-सीमा से परे हैं। इसी प्रकार झूठ, हिंसा, मार-पीट, लूट-खसोट, फ़िरौती, पर-निंदा आदि भाव कल भी त्याज्य व निंदनीय थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। इससे सिद्ध होता है कि सत्य कालातीत है; सत्य की महिमा अपरंपार है और सत्य सदैव शक्तिशाली है। इसलिए हम कहते हैं, ‘सत्यमेव जयते’ कि ‘सत्य शिव है, सुंदर है, मंगलकारी है और संसार में सदैव विजयी होता है। वह कभी भी उपेक्षित नहीं होता और सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है।’ इसे स्वीकारने- साधने की शक्तियां, जिस शख्स में भी होती हैं, वह सदैव अप्रत्याशित बाधाओं, विपत्तियों व आपदाओं के सिर पर पांव रख कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करता है और सहजता से आकाश की बुलंदियों को छू सकता है।

समय परिवर्तनशील है, कभी ठहरता नहीं। सृष्टि का क्रम निरंतर, निर्बाध चलता रहता है, जिसे देख कर मानव अवाक् अथवा अचम्भित रह जाता है। ‘दिन- रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ- साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुकून/ ग़र साथ हो सुरों का/नग़मात बदलते हैं।’ जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात, अमावस के पश्चात् पूनम व समयानुसार ऋतु-परिवर्तन होना निश्चित है, उसी प्रकार समय के साथ मानव की मन:स्थिति में परिवर्तन भी अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। सो! जीवन में ऐसे पल भी अवश्य आते हैं, जब मानव हताश-निराश होकर औचित्य-अनौचित्य का भेद त्याग व परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को नकार, निराशा रूपी अंधकार के गर्त में धंसता चला जाता है और एक अंतराल के पश्चात् अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसे सब अपने भी पराए नज़र आते हैं। इस मन:स्थिति में एक दिन वह उन तथाकथित अपनों से  किनारा कर, अपना अलग – थलग जहान बसा लेता है। कई बार परिस्थितियां इतनी भीषण व भयंकर हो जाती हैं कि उधेड़बुन में खोया इंसान, ज़माने भर की रुसवाइयों को झेलता, व्यंग्य-बाण सहन करने में स्वयं को असमर्थ पाकर सुधबुध खो बैठता है और अपने जीवन का अंत कर लेना चाहता है। उसे यह संसार व भौतिक संबंध मिथ्या भासते हैं और वह माया के इस जंजाल से स्वयं को  मुक्त नहीं कर पाता कि ‘जब उसने कुछ गलत किया ही नहीं, तो उस पर दोषारोपण क्यों?’

यदि हम सिक्के के दूसरे पक्ष का अवलोकन करें, तो यह सत्य प्रतीत होता है…फिर निरपराधी को सज़ा क्यों? उस ऊहापोह की स्थिति में वह भूल जाता है कि सत्य शक्तिशाली होता है; प्रभावी होता है; सात परदों को भेद सबके सम्मुख अवश्य प्रकट हो ही जाता है। हां! इसकी एकमात्र शर्त है– सृष्टि-नियंता व मानवता में अटूट-अथाह व असीम-बेपनाह विश्वास …क्योंकि उसकी अदालत में देर है, अंधेर नहीं तथा वह सबको उनके कर्मों के अनुसार ही फल देता है। यह विधि का विधान है कि मानव को समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कभी भी, कुछ भी नहीं मिल सकता। सब्र व संतोष का फल सदैव मीठा होता है और उतावलेपन में कृत-कर्म कभी फलदायी नहीं होता। सो! सबसे बड़ा दोष…मानव की संशय,   अनिर्णय व असमंजस की स्थिति है, जहां उसे सावन के अंधे की भांति सर्वत्र हरा ही हरा दिखाई पड़ता है

सो! मानव को परमात्म-सत्ता पर विश्वास रखते हुए सदैव आशावादी होना चाहिए, क्योंकि आशा जीवन में साहस, उत्साह व धैर्य संचरित करती है;  जिसका दारोमदार सकारात्मक सोच पर है। आइए! व्यर्थ की सोच व नकारात्मकता को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकें। अपनी आंतरिक शक्तियों व ऊर्जा को अनुभव कर जीवन का निष्पक्ष व निरपेक्ष भाव से आकलन करें तथा उसे निष्कंटक समझ, सहज रूप से स्वीकारें। परनिंदा से कभी भी विचलित हो कर अपना जीवन नरक न बनाएं, बल्कि उसे स्वर्ग बनाने का हर संभव प्रयास करें…क्योंकि निराश व अवसाद -ग्रस्त व्यक्ति के साथ कोई पल-भर का समय भी व्यतीत करना पसंद नहीं करता …सब उससे ग़ुरेज़ करते हैं, दूरी बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी ओर प्रसन्न-चित्त व्यक्ति सदैव मुस्कुराता रहता है; महफ़िलों की शोभा होता है, सब उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं।

अन्त मैं यही कहना चाहूंगी कि सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है। प्रारंभ में भले ही लोग उस पर विश्वास न करें, परंतु एक अंतराल के पश्चात् सच्चाई सबके सम्मुख प्रकट हो जाती है और विरोधी पक्ष के लोग भी उसके मुरीद हो जाते हैं। सब यही कहते हैं ‘बेचारा समय की मार झेल रहा था, जबकि वह निर्दोष था… व्यवस्था का शिकार था। कितना धैर्य दिखाया था, उसने आपदा-विपदा के समय में…उसने न तो किसी पर अंगुली नहीं उठाई और न ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे पर इल्ज़ाम लगाया व दोषारोपण किया।’ ऐसे लोग वास्तव में महान् होते हैं, जिनकी महात्मा बुद्ध, महावीर वर्द्धमान व अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के रूप में श्रद्धा-पूर्वक उपासना-आराधना होती है और वे युग-पुरुष बन जाते हैं; विश्व-विख्यात व विश्व-वंदनीय बन जाते हैं। आइए! हम भी उपरोक्त गुणों को आत्मसात् कर सर्वांगीण विकास करें तथा अपने व्यक्तित्व को सर्व-स्वीकार्य व चिर-स्मरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #47 ☆ मई दिवस विशेष – एक दिन का सम्मान ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  प्रस्तुत है मई दिवस पर विशेष कविता एक दिन का सम्मान  ।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #47 ☆

☆  मई दिवस विशेष – एक दिन का सम्मान  ☆

 

किसी ने कहा

आज तो एक मई है

मजदूर काम पर नहीं आएगें।

क्यों के उत्तर में

कहा उन्होंने –

आज छुट्टी है उनकी

दिया जाता है सम्मान उनको

यह बात मन को

कांटे की तरह चुभ गई।

समर्पित कर देते हैं जो

सम्पूर्ण जीवन हमारे लिए

जिनके बिना हम एक कदम भी

बढ़ नहीं सकते हैं आगे

प्रत्येक कार्य की उन्नति में

होता है भरपूर सहयोग जिनका

दिनचर्या में घर और कार्यालय की

हमारे साथ खड़े रहते हैं जो

कारखानें जिनके बिना

मात्र मशीनी घर हैं

रोजी-रोटी चलती है जिनसे

क्या ?

अधिकारी हैं वे केवल

एक दिन के सम्मान के

क्यों नहीं दे सकते उनको

हर एक दिन सम्मान

होते हैं भूखे वे सिर्फ प्रेम के

प्रसन्न हो जाते हैं ढाई अक्षर से

मानव हैं वे भी

दिल भी रखते हैं

टूट जाते हैं दुर्व्यवहार से

आश्रित हैं हम उन पर

ये दम खम भी उन से

मजदूर कह कर

करो न उन्हें छोटा

हमारे सहयोगी सहायक हैं वे

महल हमारे खड़े हैं उनसे

एक मई तो एक बहाना है

ऐसे राष्ट्र भक्तों को तो

हर दिन सम्मान पाना है।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शपथ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – शपथ ☆

जब भी

उबारता हूँ उन्हें,

कसकर पकड़ लेते हैं

अंग-अंग  जकड़ लेते हैं,

मिलकर डुबोने लगते हैं मुझे,

सुनो…!

डूब भी गया मैं तो

मुझे यों श्रद्धांजलि देना,

मिलकर, डूबतों को

उबारने की शपथ लेना..!

# सुरक्षित रहना है, घर में रहना है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 44 ☆ पेंशन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “पेंशन”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 44 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पेंशन ☆

“क्या हुआ तुम क्यों अम्मा को चिल्ला रही हो ?”

“अरे तुम तो ड्यूटी चले जाते हो अम्मा सुनती नहीं हैं, चलते बनता नहीं है फिर भी बर्तन मांजने बैठ जाती हैं. एक पल भी बैठने नहीं देती .”

“देखो तुमसे कितनी बार कहा अम्मा का ध्यान रखा करो. उन्हें कुछ करने नहीं दिया करो .”

वहां से अम्मा की कराहने की आवाज़  आती है ….”वे कहती है बेटा अब ऐसे जीने से अच्छा है भगवान् हमें उठा ले कितना जियेगे .”

“नहीं अम्मा ऐसा नहीं कहते आप आराम करो हम अभी आते हैं “

इतने में बहू आती है ..” कहती है क्यों अम्मा क्या शिकायत कर रही थी इनसे .”

“ नहीं हमने कुछ नहीं कहा ..”

इतने में बहू अम्मा का हाथ मरोड़ती और दबी आवाज में कहती है..” तुम्हें सिर्फ इसलिए खिला पिला रहे हैं,  क्योंकि  हर महीने तुम्हारी पेंशन जो आती है.”

अम्मा ने अपना हाथ बहू के सिर पर रख दिया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ अलविदा ऋषि कपूर – एक और अंक का पटाक्षेप ☆ श्री वसंत काशीकर और श्री सुरेश पटवा

स्व ऋषि कपूर 

जन्म – 4 सितम्बर 1952

मृत्यु – 30 अप्रैल 2020

श्री वसंत काशीकर,  वरिष्ठ  रंगकर्मी, जबलपुर  

? अलविदा ऋषि कपूर ?

ऋषि कपूर (जन्म: 4 सितंबर 1952, मृत्यु – 30 अप्रैल 2020) एक फ़िल्म अभिनेता, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। वह एक बाल कलाकार के रूप मे काम कर चुके है। उन्हें बॉबी के लिए 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और साथ ही 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका है। उन्होंने उनकी पहली फ़िल्म में शानदार भूमिका के लिए 1971 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किया। दिनांक 30/04/2020 को निधन हो गया।
कपूर का जन्म पंजाब के हिंदू परिवार में ऋषि राज कपूर के रूप में मुंबई के चेम्बूर में हुआ था। वह अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर के दूसरे पुत्र और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पोते थे। उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर; मामा प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ; और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता हैं। उनकी दो बहनें हैं, बीमा एजेंट रितु नंदा और रिमा जैन।
परम्‍परा के अनूसार उन्‍होने भी अपने दादा और पिता के नक्‍शे कदम पर चलते हूए फिल्‍मों में अभिनय किया और वे एक सफल अभिनेता के रूप में उभर आए। मेरा नाम जोकर उनकी पहली फिल्‍म है जिसमें उन्‍होने अपने पिता के बचपन का रोल किया। जो किशोर अवस्‍था में अपनी  शिक्षिका से ही प्‍यार करने लगता है। परन्‍तु बॉबी फिल्‍म में वे बतौर अभिनेता के रूप में दिखायी दिए। ऋषि कपूर और नीतू सींह की शादी 22 जनवरी 1980 में हुई थी।
इनके दो बच्चे हैं रणबीर कपूर जो की एक अभिनेता है और रिदीमा कपूर जो एक ड्रैस डिजाइन है। करिश्मा कपूर और करीना कपूर इनकी भतीजियां हैं।
भावभीनी श्रद्धांजली

सौजन्य – श्री वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर 

 

श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल

 

? स्व ऋषि कपूर – पटाक्षेप ?

 

पृथ्वी, राज, ऋषि

नाटक के किरदार

निर्देशक

खींचता डोरी

गिरता पर्दा

पटाक्षेप

****

प्यार इकरार

जोकर बाबी

प्रेम का रोग

खिंची डोर

पटाक्षेप

****

चल दिया मुसाफ़िर

सीधी डगर

अनजान नगर

लौट कर

न आने को

एक और अंक का

पटाक्षेप

कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली

– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक, भोपाल 

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मराठी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – सौंदर्याचा  आरसा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपका एक मराठी आलेख “सौंदर्याचा  आरसा” )

☆  सौंदर्याचा  आरसा ☆

गाव बदललं, गावातली माणसं बदलली, पण मनातल गाव, गावातलं घर, ते मात्र जसंच्या तसं राहिलं. आठवण झाली  . . . कुठं काहीही कार्यक्रम नसताना, कविसंमेलनाच कारण सांगून घराबाहेर पडलो, नीट तडक गावची एसटी धरली.

जवळ जवळ दहा वर्षांनंतर गावी येत होतो. गावच्या घरापर्यंत  आता टमटम जात होत्या. मला गाव पहायचा होता. गावातले बदल जवळून पहायचे होते. तेली आळीतला लाकडी घाणा. वेशीवरचा मारूती, शाळेजवळचा पिंपळाचा पार, दत्त मंदिर, राम मंदिर, बाजारपेठ, लालू शेठची पतपढी,कासार आउट, मोमीन  आउट, पोस्ट ऑफीस, ग्रामपंचायत कार्यालय, सार सार नजरेखालून घालायचं होत. गावात उतरलो अन् टवाळ पोरागत भिरभिरत्या नजरेने गाव बघू लागलो.

माणस भेटत होती. ओळखीचं हसत होती. जुजबी चौकश्या करीत  आपापल्या कामाला लागत होती. पारावरचे म्हातारेही हातची तंबाखू,  अन तोंडचा विषय सोडायला तयार नव्हते. .

”एकलाच आलासा जणू? पोराबाळांना तरी  आणायचं,  आरं, आंबे, फणसाचा सिझन हाय. . . गावचा रानमेवा तुमची पोरं खाणार कवा ?घेऊन यायचं त्यानला बी , म्होरल्या बारीला ध्यानी ठेव बर. ” असा जिव्हाळ्याचा संवाद करीत ,गावच्या मातीचा सुगंध मनात भरून घेत गावच्या घरात शिरलो.

गावाकडं एक बरं असत. . .  अचानक जाऊन भेटण्याची मजा काही औरच  असते. थोडी गडबड, धावपळ, धांदल  उडते. काहिंची थोडक्यात चुकामूक होते, त्यांना भेटण्या साठी मुक्काम वाढवण्याचा  आग्रह होतो. मी ही मुक्काम वाढवला. कार्यक्रम  उशीरा संपणार असल्याची  आणखी  एक लोणकढी थाप पचवली. अन गावी जाण अपरिहार्य  असल्याचं पटवून दिलं. अन् गावच्या माणसात हरवून गेलो. मनातल्या गावातनं ,प्रत्यक्ष वास्तवात जाताना थोड  अवघड जातं. पण जुन्या आठवणी न भेटलेल्या माणसांची  आठवण भरून काढतात.

गावातल्या घरान गावकी, भावकी जीवापाड जपली होती. वाटण्या झाल्या होत्या. वेळप्रसंगी  मन दुखावली तरी  माणस दुरावली नव्हती. माझ जाण नसल तरी भाऊ , पत्नी,  आई , वहिनी, काका, काकी, आज्जी, यांनी घरोबा जपला होता. वाडवडिलांनी राखलेली वाडी,  फुलवलेलं परसदार, आजही  सणावाराला वानवळ्याच्या रूपात भरभरून प्रतिसाद देत होतं.

भावकीतले चार हात शेतीत, फुलमळ्यात, फळबागेत, परसात, राबायचे, त्यांच्या कष्टान काळ्या मातीचं सोनं व्हायचं. ज्या मातीत लहानपणी खेळत लहानाचे मोठे झालो ती माती राबणारा हातांना भरभरून यश देत होती. माझं गावाकडं प्रत्यक्ष येणं नसलं तरी गावची भावकी संपर्कात होती. घरातले कुणी ना कुणी तरी गावाकडे फेरफटका टाकायचे. त्यामुळे ख्याली खुशाली कळायची. पण रानवारा प्रत्यक्ष श्वासात भरून घेण्याचा  आनंद काही औरच  असतो. त्याचा आनंद मी घेत होतो.  जमेल तितके गाव नजरेत साठवून ठेवण्याचा प्रयत्न करीत होतो.

शहरातील बरीचशी खरेदी माझ्याच सल्ल्याने व्हायची. कथा, कविता, जशी माणसाला जगायला शिकवते ना तसा हा निसर्ग, गावच घर जोडून ठेवण्यात यशस्वी ठरला होता. कुणी फुले, फळे, दूध, दही, ताक, लोणी, तूप, खवा, खरवस,  अंडी ,नारळ ,सुपार्माया मागायला यायचं. बाहेर पेक्षा निम्मा किमतीन परसबागेत फुलवलेलं विकलं जायचं. धार्मिक कार्यात तर सढळ हाताने हा दानधर्म व्हायचा.

साहित्यिक जसा साहित्यात रमतो ना, तसं गावच घर या निसर्गरम्य परिसरात व्यस्त झालं होत. लेखकाने कागदावर लेखणी टेकवावी अन  (मोबाईलची बटणे दाबावीत..) अन प्रतिभा शक्तीने भरभरून दान पदरात घालाव तशी गावच्या घरी चारदोन जण मशागत करायची. घरातली जुनी जाणती परसबाग फुलवायची. कुणाला रोजगार मिळाला होता. कुणाला आधार मिळाला होता. गावचा निसर्ग माझ्या आठवणींशी स्पर्धा करीत मला  एकट पाडीत होता. निसर्ग त्याच काम चोख करीत होता.  करवंद , आंबा, काजू, फणस, केळी, पेरू, नारळ, पोफळी यांची वर्णन मी जितक्या उत्स्फूर्ततेने करायचो, तितक्याच  उत्कटतेने निसर्ग त्या त्या ऋतूत भरभरून फुलायचा.

दोन दिवसांनी जेव्हा भरभरून रानमेवा घेऊन घराकडे निघालो ना, तेव्हा त्या जडावलेल्या पिशव्यांसारखच मनही भरून  आलेलं. दहा वर्षानंतर अचानक मला पाहिल्यावर आजीच डोळही असंच भरलेलं.  या गावान शब्दा शब्दातून जीवन जगायला शिकवले. माझ्यातला कवी, लेखक,कलाकार जिवंत ठेवला तो याच निसर्ग सौंदर्याने.  ह्रदयाच्या दाराला  अक्षरलेण्यांच तोरण बांधल ते इथल्याच अनुभूतीनी . निसर्गाच हे देणं , मांगल्याचं समृद्धीचं लेण अजमावून घेण्यासाठी मी ठरवल.  आता जास्तीत जास्त वेळा, वेळ काढून गावाकडे यायचंच. गावाकचं हे घर  म्हणजे  आमच्या वाडवडिलांच्या पूर्वसंचिताचा वारसा  आणि  …आणि या घरात राहणा-या माणसांच्या अंतरंगातील आणि भोवतालच्या निसर्गातील सोंदर्याचा आरसा

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 35 ☆ रिश्ते भी अब मूक हैं ….. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक कविता  “रिश्ते भी अब मूक हैं …..”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 35 ☆

☆ रिश्ते भी अब मूक हैं ..... ☆

 

मिलती सबको है सदा, कर्मों से पहिचान

जाति-धरम बौने लगें, अच्छा गर इंसान

 

जीवन जब तक आपका, कर लो कुछ शुभ काम

जाना सबको है वहाँ, बिन पैसे बिन दाम

 

जिसे करोड़ों चाहते, अंत समय बस बीस

वक्त न रहता कभी सम , कभी बीस उन्नीस

 

जब जो चाहे कीजिये, अवसर गर हो पास

कभी न कहना आप फिर, ऐसा होता काश

 

कोरोना ने खोल दी, सम्बन्धों की पोल

रिश्ते भी अब मूक हैं, रहा न इनका मोल

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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