( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )
( काम के निरोध का विषय )
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
अतः बुद्धि से श्रेष्ठ समझकर आत्मा को अपने बल से
अर्जुन!दुर्जय काम शत्रु का हनन करो श्रम निश्चल से।।43।।
भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥
Thus, knowing Him who is superior to the intellect and restraining the self by the Self, slay thou, O mighty-armed Arjuna, the enemy in the form of desire, hard to conquer! ।।43।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 5 ☆
☆ दो पिताओं की कथा☆
कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।
बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।
रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’
रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’
समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।
यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये, हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’
वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।
( “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की द्वितीय कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 2 ☆
मनुष्य चंचलमना है। एक काम निरंतर नहीं कर सकता। उत्सवधर्मी तो होना चाहता है पर उत्सव भी रोज मना नहीं पाता।
वस्तुतः वासना अल्पजीवी है। उपासना शाश्वत है। कुछ क्षण, कुछ घंटे, कुछ दिन, महीने या धन की हो तो जीवन का एक कालखंड, इससे अधिक नहीं ठहर पाती मनुष्य की वासना। उपासना जन्म-जन्मांतर तक चल सकती है।
उपासना अर्थात धूनि रमाना भर नहीं है। सच्ची धूनि रमाना बहुत बड़ी बात है, हर किसीके बस की नहीं।
उपासक होने का अर्थ है-जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हो अथवा जिस कर्म के प्रति रुचि है, उसमे डूब जाओ, उसके लिए समर्पित हो जाओ। अपने क्षेत्र में अनुसंधान करो। उसमें नया और नया तलाशो, उसे अधिक और अधिक आनंददायी करने का मार्ग ढूँढ़ो।
हमारी हाउसिंग सोसायटी में हर घर से कूड़ा एकत्र कर सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने का काम करनेवाला स्वच्छताकर्मी अपने साथ गत्ते के टुकड़े लेकर चलता है। डस्टबिन में नीचे गत्ता या मोटा कागज़ लगाता है। कुछ दिनों में कचरे से गत्ता या कागज़ जब गल जाता है, उसे बदलता है। यह उसके निर्धारित काम का हिस्सा नहीं है पर धूनि ऐसे भी रमाई जाती है।
उपासना ध्यानस्थ करती है। ध्यान आत्मसाक्षात्कार कराता है। स्वयं से साक्षात्कार परिष्कार करता है। परिष्कार चिंतन को दिशा देता है। चिंतन, चेतना में रूपांतरित होता है। चेतना, दिव्यता का आविष्कार करती है। दिव्यता जीवन को सच्चे उत्सव में बदलती है। साँस-साँस उत्सव मनाने लगता है मनुष्य।
आज संकल्प करो, न करो। बस उपासना के पथ पर डग भरो। आवश्यक नहीं कि इस जन्म में उत्सव तक पहुँचो ही। पर जो राह उत्सव तक ले जाए, उस पर पाँव रखना क्या किसी उत्सव से कम है?
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी उतार चढ़ाव भरी रहस्यमयी जीवन यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। उनके साहित्य पर उनके जीवन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। श्री आशीष कुमार की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’ पढ़ने के पूर्व एक बार उनकी जीवन यात्रा अवश्य पढ़ें। श्री आशीष जी की जीवन यात्रा किसी रहस्यमय उपन्यासिका से कम नहीं है। )
मेरा जन्म 18 सितंबर 1980 को एक छोटे पवित्र शहर हरिद्वार के मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था । एक परिवार में, जो जानता है कि जीवन का अर्थ है दूसरों की मदद करना और जितना हो सके उतना सरल जीवन जीना । मेरे पिता ने PSU, BHEL में काम किया । मैंने अपनी बुनियादी शिक्षा पब्लिक स्कूलों से की, जिनकी मासिक फीस 10 रुपये के आसपास होती थी । मेरे पिता एक मेहनती व्यक्ति हैं और उन्होंने हमारी स्थिति से परे अपने बच्चों को हर संभव विलासिता प्रदान की । मुझे बचपन से ही विज्ञान के प्रति रुचि थी। रात में, मैं ब्रह्मांड के रहस्य को समझने के लिए घंटों आकाश की ओर देखता था । मुझे स्कूल के बाद खुद से भौतिकी और रसायन विज्ञान के प्रयोग करना पसंद था । जिसमें से मैं केवल 50 प्रतिशत प्रयोग ही सही ढंग से कर पाता था ।
बचपन से ही मेरा दूसरा प्यार हिंदू पौराणिक कथाएँ और दर्शन थे । यहां तक कि मैं उस समय उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता था लेकिन उन्होंने मुझे आकर्षित किया । इसका अर्थ है कि मेरा दिमाग सामाजिक जीवन के दो चरम ध्रुवीकरणों के बीच झूलता रहता था । उस समय मैं हमेशा आश्चर्य में रहा कि दोनों मार्ग एक दूसरे के इतना विपरीत क्यों दिखते हैं ।
मैंने भेल हरिद्वार के एक पब्लिक स्कूल से वर्ष 1998 में 12 वीं की है । 12 वीं के बाद मैंने भारत में उच्च प्रौद्योगिकी के IIT और इसी तरह के कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए एक साल का ब्रेक लेने का फैसला किया ।
अगर मैं पीछे मुड़कर देखूं तो मेरे जीवन के फुट प्रिंट आसानी से देखे जा सकते हैं कि 12 वीं तक मेरा जीवन एक बेचैन दिमाग वाला व्यक्तित्व था जो बहुत भाग्यशाली था । हां, मैं अपनी किशोरावस्था तक बहुत भाग्यशाली व्यक्ति था, और मेरे चाहने से पहले ही मुझे सब कुछ मिल जाता था । मुझे पूरा यकीन था कि मैं IIT की प्रवेश परीक्षा पास करूंगा । यहां तक कि मेरे शिक्षक भी इस बारे में बहुत आश्वस्त थे । मैं रातों की नींद हराम करके IIT की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था ।
फरवरी 1999 के अंत में, अचानक मैं बीमार पड़ जाता हूं और मेरा शरीर बुखार से पीड़ित होने लगता है । पास के चिकित्सक के साथ प्राथमिक परामर्श के बाद भी मुझे राहत नहीं मिली । इसलिए आखिरकार मुझे भेल के अस्पताल में भर्ती कराया गया । रोगियों के उस डोरमेट्री हॉल में, मैंने मृत्यु को बहुत करीब से देखा और मनाया है । हर 3 या 4 दिनों में मेरे डॉरमेटरी हॉल के एक मरीज की मृत्यु हो जाती थी । कुछ लोग विशाल दर्द के साथ मर जाते हैं और कुछ लोग शांति से । एक रात जब मेरे पिता उस स्थिति में मेरी मदद करने के लिए वहां रह रहे थे, तो मैंने देखा कि रात के 2:00 बजे के आसपास मेरे बगल के एक मरीज ने बहुत अजीब तरह से बात करना शुरू कर दिया है और मैं जल्द ही नींद से जाग गया और मैंने देखा कि उस मरीज का शरीर कांपने लगा है और फिर वह एक तरफ गिर पड़ता है । मुझे उस समय बहुत डर लग रहा था । फिर मेरे पिता ने वार्ड बॉय और नर्स को बुलाया ।
प्रत्येक बीतते दिनों के साथ मेरा स्वास्थ्य खराब होता जा रहा था । अस्पताल में 10 दिनों के बाद, मैं अपने आप को एक स्थान से दूसरे में स्थानांतरित करने में असमर्थ था क्योंकि मेरे अंगों के जोड़ों में भारी दर्द महसूस हो रहा था । मेरा वजन कम हो गया और लगभग 40 किलो रह गया । हां, 19 साल के लड़के के लिए 40 किलो वजन है, जिसकी ऊंचाई लगभग 5 फीट 11 इंच हो । मेरे पिता मुझे वॉशरूम ले जाने के लिए व्हील चेयर का इस्तेमाल करते थे । हर दिन मेरी स्थिति और ज्यादा खराब होती जा रही थी । मेरे शरीर की दिनचर्या कुछ इस तरह की थी कि हर सुबह 5:00 बजे के आसपास बुखार मेरे शरीर पर कब्जा करना शुरू कर देता था, फिर डॉक्टर मेरे शरीर में कुछ दवा का इंजेक्शन लगाते थे, जो लगभग दो घंटे तक बुखार के प्रभाव को दूर रखता था । और दो घंटो के बाद बुखार फिर से मेरे शरीर पर कब्जा करने लगता था । मैं अपने हाथो और पैरो को हिलने डुलाने में असमर्थ हो गया था । हर दिन मेरे रिश्तेदार मुझे अस्पताल में देखने आते थे । मेरे परिवार के सदस्य बहुत चिंतित थे । अब मुझे अस्पताल में भर्ती हुए लगभग 17 दिन हो गए थे लगने लगा था कि मैं हर गुजरते पल के साथ खुद को मरता हुआ देख रहा हूँ । 19 वें दिन डॉक्टर ने मेरे पिता से कहा कि अब क्षमा करें, हम कुछ नहीं कर सकते है । आप चाहें तो अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं। उस समय, मेरे पिता ने डॉक्टरों से अनुरोध किया था कि वे मुझे दिल्ली में अपने सहयोगी अस्पताल में रेफर करें। अगले दिन भेल हरिद्वार अस्पताल में 21 दिन रुकने के बाद मुझे सबसे खराब स्थिति में दिल्ली जाना है । उस रात जब मैं उस अस्पताल के हॉल को छोड़ रहा था जहाँ मैं नियमित रूप से मृत्यु देख रहा था, मेरी भावनाएँ पूरी तरह से बदल गई थीं । मुझे लग रहा था कि यह मेरे छोटे से जीवन का अंत है । जिसमें मैंने कुछ अनोखा या विशेष या कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे कि लोग एक अच्छे व्यक्ति के रूप में मेरा नाम याद रखें ।
उस रात मेरा घर लोगों से भरा था । अगली सुबह हम एक टैक्सी से दिल्ली गए मेरे पिता, मेरे बड़े भाई, एक चचेरे भाई, और एक चाचा मेरे साथ दिल्ली गए । हरिद्वार से दिल्ली तक पूरे 6 से 7 घंटे के सफर में मैं भगवान से कह रहा था कि अगर मैं इस बीमारी के कारण नहीं मरूंगा, तो मैं दूसरों के लिए अपना जीवन जीऊंगा ।
दिल्ली के अस्पताल में भी, मैं लगभग 21 दिन रहा । उन 21 दिनों में, मैंने प्रतिदिन लगभग 5-6 इंजेक्शन, 25-30 गोलियां लीं और अस्पताल वाले विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के लिए रोजाना मेरा 30 मिली खून चूसते थे । मैंने वहां हर संभव दर्द का सामना किया है । उन्होंने अप्रैल 1999 के अंत में मुझे छुट्टी दे दी और मुझे लगभग 2 महीने तक बिस्तर पर आराम करने का सुझाव दिया ।
जब मैं दिल्ली से अपने घर लौटा तो सभी प्रवेश परीक्षाओं की तारीख पहले ही निकल चुकी थी । मैं अपने अध्ययन कक्ष में गया और अपने अध्ययन की पुस्तकों पर मकड़ी के जाले देखे । मैं उस अलमारी के पास गया और जब मैंने अपनी किताबें देखीं तो मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे ।
किसी भी तरह से दिन गुजर रहे थे और वह वर्ष 1999 में दिसंबर का महीना था । मैं पूरी तरह से शारीरिक रूप से ठीक हो गया था और फिर मैंने अगले साल 2000 में केवल यूपी इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा देने का फैसला किया ।
मुझे इसमें अच्छा रैंक मिला और फिर मैंने बरेली यूपी के इंजीनियरिंग कॉलेज की सूचना प्रौद्योगिकी शाखा में प्रवेश लिया । बी.टेक के अपने चार वर्षों के दौरान मैं ज्यादातर समय खोया रहा । अन्य सभी छात्रों की सोच मुझसे बहुत अलग थी । उन चार सालों में भी, मुझे कई बार शारीरिक रूप से पीड़ित होना पड़ा । अध्ययन में, मेरे इंजीनियरिंग के पूरे आठ सेमेस्टर मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण थे । सभी विषयों में, मैं औसत था और किसी तरह सिर्फ औसत अंक प्राप्त करने का प्रबंधन करता था, लेकिन प्रत्येक सेमेस्टर में, मैं एक विषय में टॉपर रहा वो भी पूरे यू पी में और मैंने उस विषय पर पूरे सेमेस्टर में गहन शोध किया । वर्ष 2004 में मैं एक भ्रमित स्नातक था ।
मैं हरिद्वार में अपने घर लौटता हूं और मुझे नौकरी की चिंता नहीं थी, जैसे की मेरे कॉलेज के सभी छात्रों को थी । पूरा 2004 साल बीत गया और मैं अपने घर पर कुछ नहीं कर रहा था । अगस्त 2005 में मैं कंप्यूटिंग में अग्रिम प्रोग्रामिंग सीखने के लिए, सी-डैक में शामिल हो गया । अध्यन केंद्र दक्षिण दिल्ली में था ।
हमारे C-DAC पाठ्यक्रम के छह महीनों में मेरी B.Tech अवधि के विपरीत मैंने कंप्यूटर तकनीकों, सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग आदि के विषय में बहुत अध्ययन किया और सीखा और मैंने उस सीखने का आनंद भी लिया । उस दौरान, मैं बहुत कम सोता था और मेरी पूरी एकाग्रता मेरे सीखने पर थी ।
फरवरी 2006 में हमारे पूरे बैच के छात्र जो परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे, वे सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम में बैठने के पात्र थे, जो पुणे शहर में C-DAC द्वारा आयोजित किया गया था । पूरे भारत में सभी C-DAC केंद्रों के सभी छात्र सामान्य प्लेसमेंट के लिए उपस्थित थे । उन्होंने प्रत्येक उम्मीदवारों को आई टी कंपनियों के प्लेसमेंट कार्यक्रमों में बैठने के लिए दस मौके दिए थे । सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम की शुरुआत से एक दिन पहले, उन्होंने सभी छात्रों के लिए एक आई कार्ड जारी किया और आई कार्ड के सत्यापन के बाद कोई भी छात्र विभिन्न कंपनियों के लिए सामान्य प्लेसमेंट दौर में भाग ले सकता था ।
उन्होंने विभिन्न सी-डैक केंद्रों के लिए संख्याओं की एक श्रृंखला निर्धारित की । हमारी C-DAC केंद्र संख्या श्रृंखला 100+ से बताई गई थी जिसका अर्थ है कि हमारे दिल्ली C-DAC केंद्र के लिए छात्र की क्रमांक संख्या 102,103 … .etc जैसी थी । इसी तरह हैदराबाद सी-डैक सेंटर के लिए 201, 202… . आदि आदि अन्यो के लिए भी ।
प्लेसमेंट शुरू होने से एक रात पहले, हमारे C-DAC केंद्र समन्वयक ने I-Cards वितरित किये । मेरे नाम का आई-कार्ड जारी नहीं किया गया । जब मैंने उनसे पूछा । तब उन्होंने पुष्टि की कि कुछ गलती के कारण मेरा आई कार्ड नहीं बनेगा और अगले दिन बनाया जाएगा । अगले दिन उन्होंने मुझे रोल नंबर 1121 का आई कार्ड दिया । पूरे भारत के सभी C-DAC केन्द्रो के छात्रों में से में अकेला था जिसके साथ ये हुआ था। कई कंपनियों के इंटरव्यू में मुझे इसलिए भी नहीं बुलाया गया क्योंकि वे रोल नंबर के अनुसार इंटरव्यू ले रहे थे, पहले 1,2,3… ..100, फिर 101, 102… फिर… .801, …… .1101 इत्यादि । मेरे आई-कार्ड अनुक्रम संख्या आने से पहले ही कई कंपनियों ने उनकी आवश्यकता के अनुसार छात्रों का साक्षात्कार लेकर उन्हें चुन लिया था ।
किसी भी तरह से मैं 10 कंपनियों की भर्ती प्रक्रिया के अलग-अलग दौर में गया । मैं पूरे भारत के सभी सी-डैक केंद्रों में एकमात्र छात्र था जिसने सभी 10 कंपनियों के लिखित चरणों को पास किया । इसके अलावा, मैं एकमात्र छात्र था जिसे अंतिम दौर में किसी कंपनी द्वारा नहीं चुना गया था । हमारा सी-डैक सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम समाप्त हो गया था और मैं अभी भी बेरोजगार था । फिर मैं पुणे और मुंबई की आईटी कंपनियों से संपर्क करने की कोशिश करने लगा । मैं अपना C.V. जमा किसी आईटी कंपनी में जमा करने के लिए पुरे दिन बिना भोजन किया इधर-उधर घूमता रहता था । कुछ कंपनियों में गार्ड मेरा C.V. लेकर रख लेते थे और मुझे वही से वापस जाने को बोल देते थे अन्य कुछ में वो मुझे अंदर जाने देते थे ।
यहां तक कि एक या दो अवसरों पर, मैं लगभग कंपनियों द्वारा चुना जा चूका था, लेकिन मेरा भाग्य अलग था । एक उदाहरण है कि मैंने शुक्रवार को मुंबई में साक्षात्कार दिया और उन्होंने मुझे बताया कि आप चयनित हैं तो अब आपको HR दौर और अन्य औपचारिकताओं के लिए सोमवार को आना पड़ेगा । मैं बहुत खुश था और जैसे ही मैं मुंबई में अपने दोस्त के फ्लैट पर पहुंचा, मेरे पेट में दर्द शुरू हो गया । मेरे दोस्त मुझे अस्पताल ले गए और फिर उन्होंने मुझे अस्पताल में भर्ती कराया । सोमवार को, मुझे उसी कंपनी का फोन आया, जिसके HR चरण के साक्षात्कार के लिए मुझे जाना था । मैं अस्पताल में था और अस्पताल से छुट्टी के बाद डॉक्टर ने मुझे कम से कम दो महीने का बेड रेस्ट करने का सुझाव दिया । कुछ अन्य घटनाएं हैं जिनमें मैं नौकरी पाने के बहुत करीब था लेकिन एक कारण या अन्य के कारण प्रकृति की इच्छा से मुझे नौकरी नहीं मिल सकी ।
कई संघर्षों के बाद, मुझे पुणे में नौकरी मिल गई जहाँ उन्होंने मुझे छह महीने की शुरुआत के लिए पैसे नहीं दिए । मैं बिखरा हुआ था जैसा कि समय हो सकता है । मैं उस समय सोचता था कि मैं बहुत बुद्धिमान और प्रतिभाशाली हूं लेकिन मैं एक छोटी सी नौकरी के लिए पीड़ित था । यही कुंठा मुझे भगवद गीता की ओर मोड़ देती है । भगवद गीता पढ़ने के अलावा उस समय मैंने अपनी भावनाओं को भी पेपर पर उतरना शुरू कर दिया था। । अथार्त मैंने अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी कविताएं और गीत लिखना शुरू कर दिया था। । मैं आईटी जॉब इस तरह से कर रहा था जैसे कि वह मेरे लिए अत्याचार हो और मैं पूरी तरह से उसका आनंद नहीं ले रहा था । इसलिए मैंने वह नौकरी छोड़ दी और कॉपीराइटर के एक पद पर एक ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगा । मुझे वह रचनात्मक क्षेत्र पसंद है । जल्द ही विज्ञापन की वह ग्लैमरस दुनिया मुझे धूल की तरह लग रही थी । मुझे नौकरी का रचनात्मक पक्ष बहुत पसंद आया लेकिन जैसा ही मैंने पेज 3 पार्टियां पर जाना शुरू किया, मुझे उस माहौल की आभा काटने लगी । शुरू में, वह माहौल मेरे लिए काल्पनिक दुनिया जैसा लग रहा था लेकिन कुछ समय बाद मैं सोचने लगा कि इसके बाद क्या है? इसका मतलब है कि मैं सभी संभावित विलासिता को देख रहा था, लेकिन वो माहौल मुझे मुझे सूखी बर्फ की तरह देखा, जो शांत दिखती हैं लेकिन वास्तव में सब कुछ जला सकती हैं । इसलिए, यह मेरा संतृप्ति बिंदु था ।
उसके बाद मैंने वेदों, पुराणों आदि जैसे सभी हिंदू धर्मग्रंथों को पढ़ना शुरू किया । मैंने 4 वेदों, 18 पुराणों, 108 उपनिषदों समेत सभी संभावित उपलब्ध ग्रंथों को पढ़ा, जिनमें भगवद-गीता, रामायण, महाभारत के सभी उपलब्ध संस्करण शामिल हैं । , उप वेद, वास्तु-शास्त्र, ज्योतिष, हस्तरेखा, संगीत, आयुर्वेद, पौराणिक कथा, दर्शन, आगम और बहुत कुछ । आध्यात्मिकता का विषय एक संतुष्ट इच्छा नहीं है । यह ऐसा है, मान लीजिए, आप बहुत प्यासे हैं और पानी की सख्त तलाश कर रहे हैं, कुछ समय बाद आपको पानी मिलता है, लेकिन पीने के बाद आपको पता चलता है कि यह नमकीन पानी था जो आपकी प्यास को पहले से अधिक बढ़ा देता है, कुछ समय बाद, आपको एक और गिलास पानी मिलता है जैसे ही आप पीते हैं, यह पहले की तुलना में अधिक नमकीन था इस तरह से आपकी प्यास कभी भी संतुष्ट नहीं होगी । यह धर्म या अधिक सही ढंग से आध्यात्मिक या धर्म के दार्शनिक भाग के विषय में पूर्ण सत्य है । मैं खुद को खोजने के लिए पूरी तरह से खो गया था ।
मैंने रात में करीब साढ़े ग्यारह बजे ध्यान करना शुरू किया । जो रात्रि 02:00 बजे तक जारी रहता था । मेरे रूममेट सोचते थे कि मैं पागल हो गया हूँ । धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या ने मेरी नौकरी में खलल डालना शुरू कर दिया । मैं पूरी तरह से शास्त्र पढ़ने और उनके व्यावहारिक उपयोग के लिए बाध्य था । इसने मेरे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया । मेरे फ्लैट में, मैं केवल दो काम करता था । शास्त्र पढ़ने और उनके अभ्यास और विभिन्न प्रकार के गैर-मादक पेय बनाने के लिए प्रयोग ।
एक दिन मुझे मुंबई की लोकेशन बोरिवली में एक साझेदारी में कॉफी शॉप खोलने का अवसर मिला । उस दिन मैंने अपनी कॉपी राइटिंग जॉब से इस्तीफा दे दिया । फरवरी 2009 को सभी तैयार थे, एक निर्धारित तारीख पर हमारे कॉफी सह अन्य पेय की दुकान खोलने का फैसला किया गया था । जनवरी 2009 में मैं अपने कॉफी शॉप पार्टनर को बिना बताए अपने गृह नगर हरिद्वार लौट आया । जनवरी 2009 के महीने के अंत में मैं हिमाचल प्रदेश में अपने एकांत समय का आनंद ले रहा था जब मेरा कॉफी शॉप पार्टनर मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा था । मैं अगम्य था । फिर उन्होंने अकेले कॉफी शॉप शुरू की । मेरी आविष्कार की गई कॉफी मेरे साथी का व्यवसाय आज भी बढ़ा रही है क्योकि मैं अपने पार्टनर को अपनी सबसे अच्छी कॉफी के बनाने का तरीका सीखा चुका था ।
जुलाई 2009 में मैं वापस पुणे लौट आया और नौकरी खोजने लगा । मैंने फिर से आईटी क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया । मेरे सभी दोस्त सदमे में थे उन्होंने कहा कि आप आईटी प्रौद्योगिकी से दूर हैं और लगभग एक वर्ष से अधिक समय बीत चुका है । आपको नौकरी कैसे मिलेगी? फिर मुझे IT में ही बहरीन देश में काम मिला ।
21 अगस्त 2009 को मैं बहरीन की धरती पर उतरा । अगले दिन मैं अपने कार्यालय गया जहाँ उन्होंने मुझे मेरा काम समझाया । फिर उन्होंने मुझे तकनीक के विषय में बताया, जिसमें मुझे कोड विकसित करना था लेकिन मैंने पहले उस तकनीक में काम नहीं किया था । मेरा मैनेजर चिंतित था । फिर मैंने उनसे एक सप्ताह का समय देने का अनुरोध किया ताकि मैं उस तकनीक के अनुसार अपडेट हो पाऊ जिसमें मुझे काम करना था । मैने वही करा भी । मैं अपनी नौकरी में बहरीन में अच्छा कर रहा था लेकिन आंतरिक शांति अभी भी गायब थी । इसलिए, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 4 महीने बाद भारत लौट आया । फिर मैंने फरवरी अंत तक हरिद्वार में अपने घर पर समय बिताया ।
ये वह समय था जब मुझे नहीं पता था कि हर शाम मेरी आंखों का क्या हो जाता था । उन्हें हर चीज की धुंधली छवि दिखाई देने लगती थी और मेरे दिमाग में तेज दर्द शुरू हो जाता था । उस समय मैंने तंत्र शास्त्र पढ़ना शुरू किया और शाम और रात में, मैं गंगा घाटों और श्मशान घाटों में जाकर साधना करता था । 2010 के जनवरी और फरवरी के वो दो महीने मेरे जीवन के लिए बहुत रहस्यमय थे । मैं अपने गृहनगर हरिद्वार में था और रोज हिन्दू शास्त्र पढ़ता था, आँखों की समस्या और सिरदर्द से पीड़ित था और रात में मैं आमतौर पर श्मशान घाट या ऐसी जगहों पर 1-2 घंटे बिताता था जो अधिकांश धार्मिक लोगों के लिए वर्जित हैं पर जहां असीम शांति होती है । एक रात जब मैं दोपहर 1:45 बजे के आसपास अपने कमरे में सो रहा था, मैं उठा और उच्च-स्तर के ध्यान में चला गया, जहां एक समय मुझे लगा कि मेरी सीमित चेतना ब्रह्मांड की अनंत चेतना के साथ विलय कर रही है । संचार की किसी भी विधा से आनंदित होने वाला वो अहसास अवर्णनीय है ।
उन दो महीनों में, मैंने उस आनंद को दो बार अनुभव किया । इसके अतरिक्त, मैंने अनुभव किया कि कुछ उच्च शक्ति मुझे वापस जाने की आज्ञा दे रही है और कह रही है कि आपको लोगों को बहुत कुछ देना होगा इसलिए यह आपका मार्ग नहीं है । उन दो घटनाओं के बाद, मैंने आज तक उस आनंद को अपने अंदर अनुभव नहीं किया है ।
उस समय मेरी आँखों की समस्या भी बढ़ रही थी और मेरा परिवार चिंतित था । उन्होंने आंखों और नसों के कई डॉक्टरों से सलाह ली लेकिन कोई भी मेरी समस्या का निदान नहीं कर पाया । फरवरी के अंत में मेरा परिवार और मैं निराश थे और ऐसा लग रहा था कि अब मुझे अपना शेष जीवन एक शाम के अंधे व्यक्ति के रूप में बिताना होगा । फिर, एक चमत्कार हुआ और अंत में मेरे पिता मुझे एक बहुत ही सामान्य चिकित्सक के पास ले गए । उन्होंने कहा कि मस्तिष्क तक आँखों से जुड़ने वाली मेरी कोशिकाएँ कमज़ोर थीं और फिर उन्होंने मुझे एक दिन में एक दस दिनों तक दस इंजेक्शन लगाने की सलाह दी । पहले इंजेक्शन से ही मेरी आँखों की समस्या कम होने लगी और दस दिनों के बाद मैं पूरी तरह से फिट हो गया ।
मार्च 2010 में मैं फिर से पुणे में आईटी कंपनी से जुड़ गया । मैंने वह काम एक साल तक आराम से किया । यही वह समय था जब मैंने कर्मों के नियम और उनके शरीर और मन पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश की । 2011 के मार्च में, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और फिर से अपने घर वापस आ गया । उस समय मैंने संन्यास (त्याग) लेने का फैसला किया । दूसरी ओर मेरे माता-पिता और भाई- बहन चाहते थे कि मैं शादी करूँ क्योंकि मेरी उम्र 30+ थी । मेरे लिए यह बहुत ही उलझन भरा समय था । एक तरफ मैं 2-3 महीनों के लिए गहन ध्यान के लिए हिमालय जाने की योजना बना रहा था । दूसरी तरफ जब भी मैं अपने घर में प्रवेश करता, मेरे परिवार के सभी सदस्य मेरी शादी के विषय में चर्चा करते । उस समय मैं हरिद्वार में एक छोटी कंपनी में नौकरी करने लगा ।
क्योंकि मैं ज्यादा भौतिक चीजें नहीं चाहता था । उस नौकरी में मैंने कई दोस्त बनाए जो नौकर वर्ग के थे और देखा कि भारत में निम्न वर्ग के लोग कैसे दैनिक आधार पर पीड़ित हैं । अब मेरे माता-पिता मेरे करियर और मेरे लिए बहुत चिंतित थे । दिसंबर 2011 में मैंने एक साक्षात्कार दिया और JNNURM के तहत भारत सरकार की एक परियोजना में चुना गया । दिसंबर 2011 में मैं 6-7 महीने के लिए नैनीताल में कार्यालय में शामिल हो गया, उसके बाद उन्होंने मुझे देहरादून स्थानांतरित कर दिया । मेरे लिए यह अच्छा था क्योंकि देहरादून मेरे घर हरिद्वार से लगभग 2 घंटे की दूरी पर है । मैं अपने घर से कार्यालय तक बस या ट्रैकर के माध्यम से दैनिक यात्रा करता था उस यात्रा में मैंने बस और ट्रैकर के दैनिक यात्रियों और ड्राइवरों के जीवन का बारीकी से अवलोकन किया । अब मेरा ध्यान योग, ध्यान, हिंदू धर्म में विज्ञान की खोज से लेकर आम लोगों की पीड़ा तक पर पर केंद्रित होने लगा था ।
फरवरी 2013 में मैंने इस उम्मीद में शादी की कि मेरा जीवनसाथी भी मेरी यात्रा में सच्चाई की खोज करने और उन लोगों की मदद करने में मदद करेगा जिन्हे उसकी आवश्यकता है । लेकिन हमारे विचार पथ और गंतव्य अलग थे । और मुझे वर्ष 2014 में मानसिक रूप से टूटना पड़ा । 2014 में मेरे नवजात बेटे के रूप में मेरे जीवन में खुशी लौट आयी । वर्ष 2014 में मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी और यह एक प्रेम कहानी थी जिसका शीर्षक ‘Love Incomplete’ था । 2015 में मेरी दूसरी किताब हिंदी में ‘क्या है हिंदुस्तान में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी
यदि मैं 1999 की घटना से पहले अपने जीवन का विश्लेषण करता हूं जब डॉक्टरों ने मुझे मृत घोषित कर दिया था और उसके बाद जब मैं ठीक हो गया । मेरे लिए लोग, प्रकृति, पर्यावरण पूरी तरह से बदल गए थे । जो चीजें मुझे पहले आसानी से मिल जाती थी, अब हर कदम पर मुझे प्रताड़ित कर रही थीं । उस घटना से पहले, मैं इतना खुशकिस्मत था कि मुझे लगता था कि मैं एक राजा हूँ और उस घटना के बाद मैं जो चाहता था, वह मुझे केवल शारीरिक और मानसिक पीड़ा के बाद ही मिला वो भी बहुत कम मात्रा में । मुझे ऐसा लगता है कि यह ईश्वर ने मुझे सारे आराम के बदले में एक मौका दिया है ।
मैं विज्ञान पर सामान्य काम और शोध कर रहा था । एक बार जब मैं क्वांटम भौतिकी पर एक लेख पढ़ रहा था और इसकी अनिश्चितता ने जल्द ही मेरे मन में एक पुराने हिंदू दर्शन के बारे में एक विचार उत्पन्न किया जिसे ‘सांख्य’ कहा जाता है और तब मैं सब कुछ भूल गया और ‘सांख्य’ दर्शन और क्वांटम भौतिकी के बीच की कड़ी को समझने और खोजने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । दिसंबर 2015 में इस विषय में मेरा शोध पत्र इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक एंड इंजीनियरिंग रिसर्च ’में थ्योरी ऑफ एनीथिंग – सांख्य दर्शन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । लेकिन मैं बेचैन था क्योंकि यह मुझे आम लोगों के लिए एक सार मात्र लगता था । इसलिए मैंने अपने शोध पत्र की सामग्री को समझाने के लिए एक पुस्तक लिखना शुरू किया । वर्ष 2016 में इस संबंध में मेरी पुस्तक ‘Detail Geography of Space’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । यह मेरी तीसरी पुस्तक थी, लेकिन मुझे मार्केटिंग की जानकारी नहीं थी । इसलिए मेरी किताब की पहुंच बहुत सीमित थी । मैंने अपनी पुस्तक और पत्र की एक प्रति प्रधानमंत्री और भारत के राष्ट्रपति को भी भेजी जिसमें मैंने बताया कि मैंने अपना शोध करने के लिए कितना दर्द उठाया है । लकिन किसी ने भी मेरी मेहनत को ध्यान नहीं दिया ।
फिर मैंने अपने तरीके बदल दिए और एक और पुस्तक ‘The Ruiner’ लिखी, जिसमें मैंने हिंदू पौराणिक कथाओं के रहस्यों और हिंदू शास्त्रों के अनुष्ठानों और दर्शन को बहुत वैज्ञानिक तरीके से और कहानी के रूप में हल करने की कोशिश की । 2018 में मेरी एक और किताब हिंदी में ‘सच्ची सच्चाई कुछ पन्नो में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई ।
एक दिन मैं अपनी जिंदगी के पथ का विश्लेषण कर रहा था तो मुझे क्या मिला । मेरे बचपन से मेरी रुचि विज्ञान और अग्रिम गणित थी à मैं लगभग मृत हो गया था और भगवान की कृपा के बाद जीवन में वापस आ गया –à मैंने B.tech किया है -à और उसके बाद कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र से अध्ययन किया -à मैंने अपने लेखन को बेहतर बनाने के लिए एक रचनात्मक लेखक के रूप में काम किया और कुछ किताबें भी लिखीं -à सभी हिंदू शास्त्रों का अभ्यास और अध्ययन –àइस संबंध में हिंदू दर्शन को आधुनिक विज्ञान और –àमेरे प्रकाशित हिंदू दर्शन से विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए एवं एक पुस्तक लिखी ।
जनवरी 2019 में मेरा दूसरा शोध पत्र अंतरष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक ‘स्पन्दकारिका – थ्योरी ऑफ़ नथिंग’ था जिसमे मैंने हमारे सौरमंडल के सारे बलों और विकिरणो को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है
मई 2109 में मेरी छठी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक ‘कुछ अनोखे स्वाद और बातें’ है जिसमे मैंने अपने द्वारा खोजी और बनायीं गयी खाने-पीने की चीजों और उन से जुड़ी रोचक बातो का जिक्र किया है।
मेरी आने वाली सातवीं पुस्तक “पूर्ण विनाशक” है जिसके विषय में कुछ बाते निम्न है :
वर्तमान युग के दो लड़के और दो लड़कियां हिंदू धर्मग्रंथों के पौराणिक इतिहास की खोज में हैं । उनके उद्देश्य और शौक अलग-अलग हैं । यहां तक कि उनके पेशे भी अलग हैं । वे दुनिया की सबसे आकर्षक कहानी का पता लगाने के लिए एक साथ आए हैं । हां, वे श्रीलंका में भगवान राम और लक्ष्मण के पदचिन्हों पर चलने के लिए एक साथ आए हैं । वहां वे अपने मार्गदर्शक से मिलते हैं, एक व्यक्ति जो उन्हें समझाता है और उन्हें रामायण के स्थानों की यात्रा भी कराता है, जैसे वे सभी उस युग का भाग हैं । उन्हें कुछ तथ्यों के उत्तर भी मिले, जिन्हें पहले कोई नहीं जानता था, जैसे कि: रावण क्लोन विज्ञान जानता था और अपने बेटों के 1 लाख क्लोन और अपने पोते के 1.25 लाख क्लोन बनाता हैं वे अब कहाँ हैं? रावण भोजन तैयार करने के लिए चंद्रमा की ऊर्जा का उपयोग करने का विज्ञान जानता था । कैसे? भगवान स्वयं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे स्थान्तरित कर सकते थे? रावण ने इस लोक से स्वर्ग को कैसे जोड़ा था? इन्द्रजाल, मोहिनी अस्त्र, लक्ष्मण रेखा आदि के पीछे क्या विज्ञान है? देवी सीता ने स्वर्ण मृग की मांग क्यों की? भगवान हनुमान ने बाली को क्यों नहीं मारा? सीता की गीता क्या है? श्रीलंका का नाम ‘श्रीलंका’ कैसे पड़ा? दक्षिणमुखी और पंचमुखी हनुमान का क्या महत्व है? चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा 15 दिनों के अंतराल के साथ क्यों कर रहा है? कालनेमि भगवान हनुमान से तेज कैसे उड़ सकता था? हथियार शक्ति, ब्रह्मास्त्र के पीछे क्या विज्ञान है? संजीवनी चिकित्सा के पीछे विज्ञान क्या है? पुष्पक विमन एक अलग अलग गति से कैसे उड़ सकता था? क्या महाभारत के युद्ध के पीछे का कारण भगवान कृष्ण है? क्या हम अपने DNA में हेरफेर करके अपनी उम्र को बढ़ने से रोक सकते हैं? कर्म कैसे काम करते हैं? क्या शाप और वरदान हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं? प्राण, चेतना और आत्मा एक ही हैं या अलग-अलग हैं? अमावस्या के पीछे क्या विज्ञान है? चंद्रमा के चरण की चरणो की देवियाँ कौन कौन सी है? बलिदानों के पीछे का विज्ञान क्या है? क्या कोई अन्य सूत्र E = mc2 से अधिक शक्तिशाली है? यदि हाँ, तो वह क्या है? क्या हमारे समाज में अपराध और भ्रष्टाचार के लिए अंतरजातीय विवाह जिम्मेदार है? भावनाओं का हमारे मन और शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की नौवीं कड़ी पणती । जीवन में कुछ घटनाएँ किसी अन्य घटना का संकेत देती है। हम अक्सर उन्हें समझने की कोशिश नहीं करते और वास्तव में कई बार समझ ही नहीं पाते। 9 जून को गुजरे हुए मात्र कुछ ही दिन हुए हैं किन्तु 14 वर्ष पूर्व की घटना जैसे आँखों के सामने चलचित्र की तरह गुजर गई और नेत्र नम हो गए। बस बोझिल हृदय से एक ही शब्द कह सकता हूँ – “नमन”। सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #9
☆ पणती ☆
आली आली दिवाळी आली, पणती लावायची वेळ झाली… खरंच, पणती लावल्याशिवाय दिवाळीची सुरुवात होऊच शकत नाही…
गेली चार पाच वर्षे भरपूर पणत्या रंगवून विकल्या, अनेकांनी त्या दिवाळीत लावल्या असतील, त्यांची घरं उजळून गेली असतील ह्यात शंकाच नाही… अंधारावर मात करणारे हे तेज हवेहवेसे वाटते… उत्साहाची, चैतन्याची उधळण असते… पण…
पण काय?
आज एका वेगळ्याच पणातीची आठवण येत आहे, का ते माहीत नाही… आनंदी वातावरण असताना हा प्रसंग सतत डोळ्यासमोर येतो आहे… सुरुवातीला तो विचार झटकण्याचा बराच प्रयत्न केला, मग म्हटलं असू दे ह्या विचारांची सोबत, कदाचित तेच योग्य असेल… पणातीलाही नशिबात असेल तेच करावं लागतं, ह्याची जाणीव झाली, आणि प्रत्यय आला…
१० जुन २००५… एक दिवा विझला होता, म्हणून एक पणती मिणमिणत होती… आमच्या आयुष्यातील अंधार दूर करू पहात होती…
अजूनही तो कोपरा डोळ्यासमोर येतो… ९ जून २००५ ला रात्री १० वाजता माझ्यासमोर बाप (माझा बाबा बाप माणूसच होता) नावाचा दिवा कायमचा विझला, अचानक… आमच्या आयुष्यातील तेज त्या दिवशी लोपले होते… दादा पुण्याहून बंगलोरला येणार म्हणून बाबांना शीत पेटित ठेवले गेले… हॉस्पिटलमधील सर्व सोपस्कार संपवून आम्ही माझ्या घरी आलो, कारण मी आईच्या घरी जायचं धाडस करू शकले नाही… मग दुसऱ्यादिवशी सकाळी आईच्या घरी गेलो, दादापण 12 वाजेपर्यंत पोचला… शेवटचं दर्शन घेतलं आणि त्यांना उचलण्यात आलं आणि तिथे एक पणती लावली गेली, दोऱ्याची वात शांतपणे जळत होती…
आजही आठवलं तरी अंगावर शहारा येतो… प्रत्येक पणातीच्या ज्योतिमध्ये त्यांना शोधलं जातं, ते जवळपास असल्याचा भास होतो…. अशा प्रसंगी त्या पणातीची भावना नक्की काय असेल, तिच्या मनातील तगमग माझ्या मनासारखीच असेल का? तिला हे प्रसंग असहनीय होत असतील का? कोणी ह्या बाबत विचार करत असेल का? एक ना अनेक प्रश्नांच्या उत्तरांची वाट पहात ती शांत, मंद तेवत राहते, जणू स्वतःच्या जळण्यातून इतरांना थोडा प्रकाश द्यायचा प्रयत्न करते… दुःखावर फुंकर घालता येत नाहीच, पण स्वतः त्या दुःखात जळून घरच्या इतर मंडळींना प्रकाशवाटेवर न्यायचा प्रयत्न करते… अर्थातच ती तिचे कार्य निरपेक्षपणे पार पाडत असते… दिवाळी असो किंवा तेरावा असो… तीसुद्धा तिचं नशीब घेऊन येते, पण ती तिचे कर्तव्य विसरत नाही… असे प्रसंग तिच्यावर येऊ नयेत हीच मागणी त्या विधात्याकडे करू शकते… शेवटी सगळं त्याच्या हातात !
Practice these exercises daily to be healthy, happy and wise.
Laughter yoga is usually practised in groups in the parks.
But we need to laugh daily for health and happiness.
This is a learning video – a tutorial – for laughing alone every day.
It demonstrates the following exercises:
Hoho haha warming up, tapping body and laughing, vowel breathing, pendulum breathing,aloha greeting, milk shake laughter, mobile laughter, just laugh, deep breathing, laughter cream, hearty laughter, silent laughter, laugh at yourself, mental floss, no AC in the room laughter,laughter meditation, humming and laughter yoga closing ritual.
( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )
( काम के निरोध का विषय )
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।42।।
तन से श्रेष्ठ इंद्रियाँ हैं, इंद्रिय से मन,मन से बुद्धि
और बुद्धि से श्रेष्ठ है वह आत्मा जिससे अंतर्शुद्धि।।42।।
भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
They say that the senses are superior (to the body); superior to the senses is the mind; superior to the mind is the intellect; and one who is superior even to the intellect is He—the Self. ।।42।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। आज के साप्ताहिक स्तम्भ में प्रस्तुत है एक अत्यन्त भावुक एवं मार्मिक संस्मरण “आँसू ”।)
(कल के अंक में पढ़िये श्री आशीष कुमार जी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’ की पृष्ठभूमि जो कि उनके रहस्यमयी जीवन यात्रा से किसी न किसी रूप से जुड़ी हुई है। श्री आशीष कुमार की जीवन यात्रा भी किसी रहस्यमयी उपन्यासिका से कम नहीं है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #5 ☆
☆ आँसू☆
इंसान जब विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में बहार किसी नए शहर में जाता है तो बहुत कुछ सीखता है उसे अलग अलग प्रान्त और धर्म के लोगो के साथ घुलना पड़ता है तब वह समझता है की सब अपने ही भाई है और सबकी जिंदगी में दिक्कते (problems) है । पुणे में मुझे भी कई अलग अलग तरह के दोस्तों का साथ मिला किसी का खान पान अलग था, किसी की सोच, किसी की दिनचर्या आदि आदि । पुणे में काफी समय तक मुझे दिल्ली के एक साथी रोहित गुप्ता के साथ भी रहने का सौभाग्य मिला रोहित की सोच और शौक मेरे से बिलकुल ही अलग थे पर फिर भी हम अच्छे मित्र थे । मैं और मेरे बाकी दो कमरा साथियो ने रोहित गुप्ता का नाम U.G. रख रखा था U.G. का मतलब अंकल जी क्योकि वो बेटा बेटा बोल कर बहुत बात करते थे तो हमने सोचा वो हमे बेटा बोलते है तो हम उनको अंकल जी या छोटे रूप में U.G. बोलेंगे ।
हम लोग रात का खाना कभी बाहर खा लेते थे, कभी टिफ़िन कमरे पर ही मंगवा लिया करते थे बाद में जब केवल मैं और गुरु (जयदीप, जिसके बारे में आप लोग कहानी नंबर 3 mystery में पढ़ चुके है) ही कमरा साथी रह गए थे तब हमने एक अम्मा को खाना बनाने के लिए लगा लिया था । एक रात जब हम चारो मित्र चाट सेंटर पर पराठे खा रहे थे तब U.G. का फ़ोन आया, वो फ़ोन पर एकदम से ही तेज आवाज़ में बात करने लगे और बोलने लगे ‘क्या आपको पता नहीं अभी ऑफिस से आया हूँ, फ़ोन कर कर के परेशान कर दिया’
मैने काफी हल्के मन से कहा ‘अरे भाई किसको आप अपने गंदे वचनो से नवाज़ रहे है ?’ U.G. बोले ‘कुछ नहीं यार ये पापा ने परेशान कर के रख दिया जैसे उन्हें पता ही नहीं की मैं ऑफिस से कितना थक कर आता हूँ’ । मुझे तो जैसे सदमा ही लग गया ये सुनकर कि U.G. अपने पापा से इतनी गन्दी तरह बात कर रहे थे । मैने U.G. से कहा ‘यार बड़ी हैरानी की बात है कि आप अपने पापा से इतनी गन्दी तरह से बात कर रहे थे । कितनी उम्मीद के साथ उन्होंने आपको फ़ोन किया होगा केवल ये जानने के लिए कि मेरा बेटा ठीक है या नहीं, उसने खाया या नहीं। अरे उन्होंने तो ये सोचकर फ़ोन किया होगा कि अपने बेटे से थोड़ी देर बात करके उसकी सारी थकान और पेरशानी मिटा देता हूँ पर क्या बीती होगी उनपर आपकी बातें सुनकर। सोचो अगर आप परेशान हो भी तो आपकी बातें सुनकर आपके पापा कितने परेशान हो गए होंगे? अरे आप माँ बाप के बाकी सब एहसान तो भूल ही जाओ केवल ये एहसान कि उन्होंने आपको जन्म दिया है, उतारने के लिए आपकी जिंदगी भी कम है, क्योकि ना वो आपको जन्म देते ना ही वो एक भी पल आपकी जिंदगी मे आता जिसमे आप जरा भी हँसे हैं सोचो आपने अपने पापा से कितनी गन्दी तरह बात की है। उनके दिमाग में जो आपसे हुई आखरी बाते है उनकी स्मृति कितनी गन्दी होगी और वो स्मृति हमेशा के लिए उनके दिमाग में बस गयी होगी।’
फिर उस रात U.G. ज्यादा कुछ नहीं बोले ।
दो दिनों बाद मैने देखा की U.G. किसी से फ़ोन पर बात कर रहे हैं डॉक्टर और हॉस्पिटल आदि की । इन दो दिनों में U.G. ने मेरे से कोई बात नहीं की थी । मैंने U.G. से पूछा ‘क्यों भाई कौन हॉस्पिटल में है?’ U.G. ने बस इतना कहा ‘पापा’ और मेरे से ज्यादा बात नहीं की । अगले दिन मुझे जयदीप ने बताया की U.G. घर गया है क्योकि उसके पापा हॉस्पिटल में है और गंभीर अवस्था में है । दो दिन बाद U.G. घर से वापस आ गए मैने पूछा की ‘अंकल का स्वास्थ्य अब कैसा है ?’ तो वो बोले ‘यार वो बेहोश जैसे है मैं बस उन्हें देख पाया पर उनसे बात नहीं हो पायी, यार पापा का बचना मुश्किल है’ मैं थोड़ा हैरान था और मन में सोच रहा था की U.G. भावनात्मक रूप से बहुत मजबूत है और बिलकुल भी विचलित नहीं है । दो दिन बाद की सुबह, मेरे तीनो कमरा साझा करने वाले मित्र अपने काम पर गए थे वो लोग करीब सुबह 9:00 बजे जाते थे और मैं करीब सुबह 10:00 बजे । करीब सुबह 9:30 पर मुझे जयदीप का फ़ोन आया उस समय मैं नहा रहा था । जयदीप ने बोला ‘यार तुरंत एक टैक्सी यहाँ से मुंबई एयरपोर्ट तक बुक कर दो और हो सके तो तुम उसमें बैठकर हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर तक आ जाओ’ मैंने पूछा ‘क्यों क्या हुआ?’ तो जयदीप बोला ‘यार U.G. के पापा गुजर गये है उनकी 3:30 घंटे बाद मुंबई से फ्लाइट है समय बहुत कम है तुम उधर से टैक्सी लेकर आओ मैं U.G. को बाइक से लेकर हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर तक आता हूँ’। करीब 30 मिनट बाद हम तीनो हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर के नीचे खड़े थे । टैक्सी और जयदीप की मोटर साइकिल एक तरफ खड़े थे हम लोग U.G. को सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे । U.G. अब भी बिना विचलित हुए खड़े थे और बिना एक भी आँसू के बात कर रहे थे । फिर मैंने U.G. को कहा ‘ठीक है यार ध्यान रखना अब जाओ वरना फ्लाइट छूट जायगी’ U.G. ने टैक्सी का दवाजा खोला मेरी तरफ देखा और भागकर मेरे गले लग गये उनकी आँखों के आंसू से मेरा कन्धा थोड़ा गीला हो गया था बस वो इतना बोले ‘ यार तेरी बात सच हो गयी मेरी जो पापा से आखरी बात हुई वो बहुत गन्दी थी अब मुझे कभी अपने पापा से बात करने का मौका नहीं मिलेगा’
उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक म्हणुन लेखकाची ख्याती आहे. विविध सामाजिक कार्यक्रमात सक्रिय सहभाग. पाणीटंचाई, वाढत चाललेली बेरोजगारी, विविध सामाजिक प्रश्न व हल्लीची राजकारणाची स्थिती यावर लेखक आपले स्वतंत्र मत मांडतात. लेखकाने अनेक कथा लिहील्या असुन. त्यांच्या लेखन शैली आणि कविता पाहुन ” *काव्य स्पंदनी माझी कविता*” या प्रातिनिधिक काव्य संग्रहात प्रकाशकांनी त्यांच्या कवितांची दखल घेतली आहे. विविध कवी संमेलन, विद्रोही साहीत्य संमेलन यातुन लेखकांनी कविता सादर करतांना लेखकांनी आपले विचार व्यक्त केले आहेत. येत्या अल्प काळात ते आपला कविता संग्रह प्रकाशित करण्याच्या मार्गावर आहेत.
☆ पबजी ☆
“अरे मार त्याला मार मार” रोहित जोरात ओरडला. सकाळची वेळ होती. सगळेजण अजुन झोपलेले होते. रोहित पलंगावर तर आई बाबा आणि समिर खाली जमीनीवर झोपले होते. त्याच्या अशा ओरडण्याने आई बाबा आणि समिरही झोपेतून झटकन उठले. आईचं ह्रदय त्या आरोळीने हादरलं होतं. ती उठताच त्याच्या जवळ गेली. आणि त्याच्या अंगावरचे पांघरून हळुच काढले.” काय झालं बाळं” अस काळजीपूर्वक विचारले. पण त्याच्या हातात मोबाईल आणि कानात इयरफोन होते. तो पबजी खेळण्यात दंग होता. त्याच्या अंगावरचं पांघरून काढलं म्हणुन तो आईवर चिडला. “अगं आई तुला काय गरज आहे पांघरून काढण्याची. तुला तुझं काम नाही करता येत का?” त्याचं असं रागावून बोलणं पाहुन ती बिचारी मागे झाली. तो आपल्या पबजी खेळण्यात दंग झाला.
झोपमोड झाली म्हणुन समिरही आईवर रागावला. “आई याला सांग हं असं ओरडत जाऊ नको म्हणुन विनाकारण ओरडतो आणि दुस-या लोकांना परेशान करतो” ती बिचारी शांतपणे ऐकत होती. “बस रे झोप आता गुमानं. मोठा आहे तो तुझ्यापेक्षा” बाबांनी त्याला दम भरला.” मोठा आहे तर मग मोठ्यासारखं वागायला लावा ना. कशाला लहान लेकरावाणी ओरडतंय” समिर हळू आवाजात अंगावर गोदडे ओढत म्हटला. त्याचंही बोलणं खरं होतं म्हणुन बाबा काही बोलले नाहीत. त्यांनी आईकडे पाहीले. तिच्याही डोळ्यांत तक्रार दिसत होती. ती स्वयंपाक घरात चालली गेली.
बाबा उठले आणि तिच्याजवळ गेले. ते जवळ आलेले पाहुन आई म्हटली “अहो तुम्ही त्याला काही म्हणत का नाही. मोठा झालाय तो आता. शिकला नाही तरी काय झाले. काहीतरी चांगल्या कामाधंदयाला लावा ना त्याला. दिवसभर नुसता पबजी खेळत बसतो. आणि तो धाकटा टिकटाॅकवर व्हीडीओ बनवत असतो. कंटाळा आला त्याचा. काय मिळतं त्यांना त्यात देव जाणे” “मी बोलतो त्याच्याशी. तु काळजी करू नकोस” बाबानी तिला धीर दिला. आणि रुमाल घेउन अंघोळीला चालले गेले. ते अंघोळ करून बाहेर आले. तोपर्यंत चहा बनला होता. ते पलंगावर जाऊन बसले. रोहित अजुनही पबजी खेळत होता. आईने बाबांना चहा दिला. आणि रोहितला म्हटले “रोहित उठ आणि चहा घे लवकर” रोहितने मोबाईल उशावर ठेवला. आणि कंटाळून उठला आणि तसाच आवाजात बोलला “हो आई” आणि उठून ब्रश करायला गेला. आई समिरलाही म्हटली “तुला काय वेगळं आमंत्रण द्यावं लागेल का रे उठ तु पण. दिवसभर मोबाईल मध्ये अडकून राहता. आणि सकाळी दहा वाजेपर्यंत झोपता.” असं म्हणुन ती स्वयंपाक घरात गेली. रोहित ब्रश करून आला. आईने त्यालाही चहा दिला. आणि भिंतीजवळ उभी राहीली. बाबा चहा घेत होते. आईने त्यांना डोळ्यांनीच इशारा केला. बाबा तिचा इशारा समजले. आणि चहाचा एक घोट घेत रोहितला म्हटले. “किती दिवस चालणार हे सगळं” रोहितला ते कळलं नाही. “काय” तो उद्गारला. बाबा “रोहित तु आता मोठा झाला आहेस. काही घराची काळजी घेणार आहेस कि नाही. किती दिवस ते मोबाईल मध्ये बोटं खुपसणार आहेस” रोहितला बाबांच्या बोलण्यातला सार कळला. बाबा बोलत होते “तु शिकला तर नाहीच. पण आता एखादं काम बघुन घरखर्चाला मदत करणार आहेस कि नाही. तुझं लग्नही करायचेय पुढे त्यासाठी थोडी बचत नको का करायला. दिवसभर नुसता पबजी, टिकटाॅक काही कळत नाही मला तुमचं. तो लहान आहे तो काय आदर्श घेईल तुझा” रोहितला डिस्टर्ब केलं म्हणुन तो आधीच चिडलेला होता. त्यावर अजुन सकाळी सकाळी रामायण म्हणुन तो अधिकच चिडला. “काही पण घेऊ दे आदर्श. तो कुठे एकतो माझं काही. काही बोललं तर उलट फिरून बोलतो तो. मला काही सांगू नका आणि हे असं टोमणे मारणं बंद करा.”
बाबांनी पुन्हा त्याला समजावले. “अरे बाबा. तुला टोमणे नाही मारत आहोत. तुला घरची जबाबदारीची जाणीव करून देत आहोत. तो लहान आहे त्याला काय सांगणार मी.” बाबांचा चहा संपला होता. त्यानी हातातला कप बाजूला करत म्हटले. रोहित- “मग मी काही काम शोधत नाहीये का? मी काय रिकामा बसुन आहे. काम मिळत नाही त्याला मी काय करणार?” आणि रागातच त्याने अर्धवट पिलेला चहाचा कप जोरात खाली ठेवला. आणि झपाटयात बाहेर निघुन गेला. बाबा त्याच्या या अगतिक वागण्याकडे बघतच राहिले. ज्यांच्या खांद्यावर जबाबदारीचे ओझे टाकायचे होते. जे हात त्यांना मदतीला हवे होते त्या हातांवर मोबाईलने कधीच कब्जा जमवून घेतला होता. ते पाहून त्यांचे डोळे पाणावले. पण त्यांनी ते कसेबसे लपवले. पण आईच्या नजरेतून सुटले नाहीत. ती ही अधिर होऊन बघत राहिली.
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं। आप कविता की विभिन्न विधाओं में दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपने कविता के साप्ताहिक स्तम्भ के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया, इसके लिए हम हृदय से आपके आभारी हैं। हम आपका “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना की कवितायें “ शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं। वर्षा ऋतु ने हमारे द्वार पर दस्तक दी है। सुश्री स्वप्ना जी के ही शब्दों में “पावसाळ्याची सुरुवात आहे.. आता सगळ्या कवींचे, लेखकांचे मन जागे होते लिखाणासाठी .. म्हणून ह्या वेळेसचे साहित्य “ । इस शृंखला में प्रथम पाँच कवितायें वर्षा ऋतु पर आधारित हैं जो आप प्रत्येक शनिवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की कविता “शिडकावा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -2 ☆