नातिन को कहानी सुना रहा हूँ.
एक थी सिंड्रेला. अपनी सौतेली माँ की ज्यादतियों से दुखी रहती थी. एक दिन एक परी आई. उसने जादू से सिंड्रेला को सजा-धजा कर तैयार कर दिया और जादुई रथ से उसे राजमहल की दावत में भेज दिया. लौटते में सिंड्रेला का एक सेंडल महल में ही छूट गया. राजकुमार ने छूटे हुवे सेंडल के सहारे उसे ढूंढवाया. सैनिकों ने उसे ढूंढ कर राजकुमार के सामने हाज़िर किया. राजकुमार ने उससे शादी करके उसे रानी बना लिया.
‘लेकिन नानू, पाँव में सेंडल के बिना वो चली कैसे?’ जिन घरों में होती हैं बाथरूम, किचन और लॉन में जाने के अलग अलग चप्पलें, उन घरों के अबोध बच्चे पूछ ही लेते हैं ऐसे परेशान करनेवाले सवाल. पूछते पूछते नींद लग गयी है उसकी. न्यूज चैनल अब भी दिखा रहा है नंगे पाँव, पैदल घर-गाँव को जाती हुई अभागी लड़की. कहें कि अपन के देश की सिंड्रेला. सिस्टम के सौतेलेपन की मार हर तरफ से झेलती हुई. लॉकडाउन के शिकार, बेबस, लाचार बाबा के साथ निकली है.
फटी फटी सी फ्रॉक, रूखे-सूखे बिखरे बाल, जूओं की काट से सिर खुजाती, मैल की परत सी जमी है हाथ पाँव पर, गीजे आँखों में, पपड़ियाये होंठ, आंसुओं की धार से बनी लकीर गालों पर पढ़ी जा सकती है. सुबह से दो बार पिट चुकी है. वो रोटी जो सूख कर टोस्टनुमा कड़क हो चुकी है वही मांग रही है. बाबा कह रहे हैं कि ख़त्म हो गयी है तो भी जिद पाले बैठी है. सिस्टम ने चहेती संतानों को बाय-एयर एवेक्युएट करा लिया है. और, सौतेली सिंड्रेला ? तीन दिन से चल ही रही है. कभी किसी ट्रक वाले ने बैठा लिया तो कभी किसी टैंकर के उपर. थोड़ी-थोड़ी देर बाबा के कंधे पर, ज्यादातर तो बस पैदल ही. रबर की चप्पल थी पाँव में, टूट गयी है. अब सड़क और पगतलियों के बीच फूटे छालों से एक परत सी बन गई है. दर्द आदत बनता जा रहा है. छाले में घुस आता है कंकर, चीख निकल आती है. बाबा हाथ खींच खींच कर चलाते ही जा रहे हैं. पैर के छालों पर भारी जिजीविषा. मोटर दिखती है तो दौड़ा के ले जाते हैं बाबा उस ओर. मोटर है कि रुकती नहीं. दौड़ते दौड़ते गिर जाता है बाबा के सर से गिरस्ती का पोटला.
ओ परी, क्या तुम भूल गयी हो अपनी सिंड्रेला को ? तुम आज उतरतीं आकाश से और पूछतीं – ‘सिंड्रेला, मेरी बच्ची, क्या चाहिए तुम्हें?’ कहती – ‘टूटी चप्पल में दो बिरंजी ठोक दे कोई या टांका भर लगा दे’. न डिझाईनर गाउन, न ओरिओ विद फ्रूटपंच केक, न लूडो किंग या सब-वे सर्फ़र खेलने के लिये स्मार्टफोन, न मोटू पतलू से निंजा हथौड़ी के कार्टून तक का किड्स पैक. उसे न राजकुमार चाहिये न भूला हुआ वो सैंडल जिसने राजशाही के दौर में तकदीर बदल कर रख दी थी. तकदीर में पहनने लायक चप्पल हो जाये बस इतना पर्याप्त है. छोटी छोटी आँखें, उससे भी छोटे सपने.
ओ परी, तुम एक बार आ क्यों नहीं जाती मदद को. देखो सिंड्रेला चलते चलते बीच सड़क में आ जाती है. ऑडी-शेवरले के मालिकों की गालियां खाकर फिर सड़क के बांयीं ओर हो जाती है. मौत चुनना न उसके हाथ में है न उसके बाबा के. वो कैसे भी मर सकते हैं एक्सीडेंट से, भूख से, या यूं ही लगातार चलते चलते. मरने से पहले तक घर-गाँव में कम से कम नमक रोटी तो मिल जायेगी, सो चल रहे हैं बाप-बेटी. सिस्टम उन्हें कोरोना से मरने नहीं देगा. कोरोना से मरेंगे तो कहेंगे मरने को मर गये, दस को और इन्फेक्ट कर गये. सो चल रहे हैं बांयी तरफ, लेफ्ट राईट की बहस से असम्पृक्त, किसी तरह जिन्दा रहने के अलावा किसी और आईडियोलॉजी के बारे में जानते भी नहीं.
चलते चलते अब बाबा भी थक कर बैठ गये हैं जमीन पर. आकाश की ओर तक रही है सिंड्रेला. चप्पल आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ. कितनी परियां विचर रही हैं आकाश में. परियां पीडीएस की, नरेगा की, जन-धन की, डीबीटी की, नीति आयोग की, एनजीओ की, यूनिसेफ की, डब्ल्यूएचओ की, लिबरलाइजेशन की, ग्लोबलाइजेशन की. कितनी सारी परियां मगर सिंड्रेला के लिये कोई नीचे उतर नहीं रहीं. उतरेगी भी तो सिंड्रेला तक पहुंचेगी ? पता नहीं.
© शांतिलाल जैन
F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.