हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 43 – लघुकथा – विलुप्त ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक और बाल मन की उत्सुकता, भोलापन एवं  मनोविज्ञान पर आधारित  लघुकथा  “ विलुप्त ।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में हमें विचार करने हेतु बाध्य कराती है । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 43 ☆

☆ लघुकथा  – विलुप्त

आठ बरस की अवनी लगातार कई महीनों से निर्भया केस के बारे में पेपर में देख और पढ़ रही थी। मम्मी को भी टेलीविजन और पड़ोस की वकील आंटी के साथ चर्चा भी उसी के बारे में करते हुए सुनती थी। अवनी ज्यादा तो समझ नहीं सकी। पर जब भी मम्मी निर्भया का नाम लेती तो ‘दरिंदे जानवर’ कहती थी।

उसके बाल मन पर डायनासोर की छवि उभर कर आती थी, क्योंकि एक बार स्कूल में टीचर ने बताया था कि डायनासोर की उत्पत्ति संसार को विनाश कर सकती थी। अच्छा हुआ दरिन्दे डायनासोर जानवर की प्रजाति ही ईश्वर ने विलुप्त कर दी।

एक दिन वह गार्डन में मम्मी के साथ खेल रही थी। अचानक पड़ोस की सभी आंटी और वकील आंटी भी वहां पर आए, और निर्भया के बारे में बात होने लगी। फिर मम्मी ने वही शब्द बोली ‘निर्भया के दरिंदे जानवर’ !!!! बस अवनी थोड़ी देर बच्चों के साथ खेली, परंतु उसका खेल में मन नहीं लगा दौड़कर मम्मी के पास आकर बोली… “मम्मी क्या यह निर्भया के दरिंदों वाले जानवर की प्रजाति विलुप्त नहीं हो सकती। जिससे फिर कोई निर्भया नहीं बन पाए?” सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, परंतु अवनी को क्या समझाते?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 45☆ आपण सोबती ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामायिक भावप्रवण कविता  “आपण सोबती।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 45 ☆

☆ आपण सोबती☆

 

मूर्ख नाही आम्ही कसे लावणार दिवे

शतकोटी मूर्ख येथे साधतील दुवे

 

चार शहाणे बोलती येथे रोखठोक

घेती स्वतःचेच स्वतः ठेचून हे नाक

 

चंद्र नभातून पाही धर्तीचे अंगण

नऊ मिनिटांत उभे केले तारांगण

 

काय लावतात येथे लोक हे तर्कट

काही मशाली घेऊन निघाले मर्कट

 

कुठे पहातो कोरोना धर्म आणि जात

मुस्लिमाचे शव जळे हिंदू स्मशानात

 

उगा उन्मादाने देह करू नका माती

जगी हजारो देहाच्या विझल्यात वाती

 

काळ निघून जाईल काळाच्या सांगाती

काल होतो तसे राहू आपण सोबती

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – कोरोनाचा पोवाडा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी  की कोरोना विषाणु  पर  एक समसामयिक रचना  “कोरोनाचा पोवाडा ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे ☆

☆ कोरोनाचा पोवाडा ☆ 

 

अहो पहा भय़ंकर हा कोरोना !

याने जगाची केली कशी दैना !

म्हणे चीनने पाठवला नमुना !!१!!

 

कोरोनाचा विषाणु जबरदस्त!

वरुन काटेदार आतून चुस्त !

जाऊन बसतो आधी घशात !

तिथून घुसतो मग फुफ्फुसात !

नंतर घालतो धिंगाणा शरीरात !!२!

 

सोडले नाही पंतप्रधान ब्रिटन!

सौदीच्या दीडशे राजपुत्रांना  लागण !

गावेच्या गावे झाली बंदीवान !

असा हा कोरोना आहे भयाण!

रहा घरात शासनाचं आवाहन!

आम्ही सर्व घरातच राहून !

करु यशस्वी लोकडाऊन !!३!!

 

आम्ही आहोत सारे बलवान !

कोरोनाशी दोन हात करुन !

देऊ त्याला लौकर घालवून !

देऊ त्याला लौकर घालवून …

नक्की घालवून..

होऽऽऽ जी..जी…जी…जी.जी.ऽऽऽ..

 

©️®️ उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-१४-४-२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Talk on Happiness – IV जीवन में स्थायी रूप से आनंदित कैसे रहें ? – Video # 4 ☆ जगत सिंह बिष्ट

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  Talk on Happiness – IV ☆ 

जीवन में स्थायी रूप से आनंदित कैसे रहें ? इस प्रश्न का विज्ञान सम्मत उत्तर इस वीडियो में दिया गया है।

Video Link >>>>

Talk on Happiness: VIDEO #3

 

आनंद के आधुनिक विज्ञान के अनुसार, हमारे जीवन में आनंद तीन बातों पर निर्भर करता है :

  • सेट पॉइंट या निर्दिष्ट बिंदु
  • जीवन की परिस्थितियां
  • हमारी ऐच्छिक गतिविधियां

इस वीडियो में इन तीनों कारकों की व्याख्या की गयी है जिसके बाद जीवन में स्थायी रूप से आनंदित रहने का उपाय आप जान जायेंगे।

जीवन में स्थायी रूप से आनंदित कैसे रहें ?

– जगत सिंह बिष्ट

What determines HAPPINESS?

CAN YOU MAKE YOURSELF LASTINGLY HAPPIER?

This video provides you answers to these questions based on POSITIVE PSYCHOLOGY – the modern Science of Happiness.

According to Positive Psychologists, the enduring level of happiness that you experience is determined by three factors: your biological set point, the conditions of your life, and the voluntary activities you do.

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (41-42) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना)

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।। 41।।

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ।। 42 ।।

 

तव महिमा अज्ञान वश , प्रेम से था कि प्रमाद

तुम्हें कभी क्या , क्या कहा , मुझे नहीं कुछ याद  ।। 41 ।।

कभी हास परिहास में या आहार विहार

यदि कुछ अनुचित कहा हो , क्षमा करें सरकार  ।। 42 ।।

 

भावार्थ :  आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने ‘हे कृष्ण!’, ‘हे यादव !’ ‘हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात्‌ कहा है और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिए विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ॥41-42॥

 

Whatever I have presumptuously uttered from love or carelessness, addressing Thee as O  Krishna!  O  Yadava!  O  Friend!  regarding  Thee  merely  as  a  friend,  unknowing  of  this,  Thy greatness।। 41 ।।

 

In whatever way I may have insulted Thee for the sake of fun while at play, reposing, sitting or at meals, when alone (with Thee), O Achyuta, or in company—that I implore Thee, immeasurable one, to forgive!।। 42 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल ☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆ आचार्य भगवत दुबे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी की एक समसामयिक, प्रेरक एवं शिक्षाप्रद ग़ज़ल  ” कोरोना कर्मों का फल है“। आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆

 

मानव खुद विनाशकारी  है,  कोरोना कर्मों  का  फल है

पर्वत फोड़, उजाड़े जंगल, लगा दहकने अब मरुथल है।

 

केमिकल  परमाणु   बमों  की  फैली  है  दुर्गंध धरा पर

मानव ने पावन नदियों को बना दिया दूषित दलदल है।

 

फैलाया     विज्ञानविदों   ने   यह   विनाशकारी   कोरोना

महाशक्ति के अहंकार का आज स्वयं ढह रहा महल है।

 

लगभग एक करोड़ संक्रमित, मृतकों को दफनाना मुश्किल

इटली, चीन, रूस, अमरीका, पस्त हुआ इनका धन बल है।

 

वीरानी छाई सड़कों पर  आज  चतुर्दिक  भय  सन्नाटा

आपस में मिलने से डरते, छाया शंका का बादल है ।

 

मास्क   लगाएँ ,  रहें  घरों   में,  धोते रहें  हाथ  साबुन  से

केवल सामाजिक दूरी ही विकट समस्या का इक हल है।

 

इक मीटर की दूरी रखकर,  करें  लॉक  डाउन का पालन

घर में ही सीमित, बच्चों की रखना मिलकरचहल पहल है।

 

भगवत रखो भरोसा, इक दिन अंधकार यह छंट जाएगा

उत्साही साहस  वालों  को  मिला  धैर्य का मीठा फल है।

 

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ जानवर ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह समसामयिक कहानी  ‘जानवर’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । यह वास्तव में  यह विचारणीय प्रश्न है कि – वसुधैव कुटुम्बकम  एवं वैश्विक ग्राम की परिकल्पना करने वाले हम  मानवों की मानसिकता कहाँ जा रही है।  जो जंगल में रह रहे हैं वे जानवर हैं या कि हम ? बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह कहानी पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – जानवर

नंदनवन में सभी पेड़ उदास भाव से अपनी पत्तियां हिला रहे थे, दूधिया झरना भी मंदगति से बह रहा था। मुख्य वन में दो सौ साल पुराने बरगद के नीचे जंगल के सभी जानवर एकत्रित होकर चिंतित भाव से बैठे दिख रहे थे।

एक लंबी उसांस भर कर चीकू खरगोश  ने पूछा – भूरे दादा, आदमियों की इस बस्ती में इतना सन्नाटा क्यों पसरा है ? परसों, वहां से मेरे  दूर के भाई कबरा को उसके मालिक ने छोड दिया तो उसने आकर बताया कि सारे लोग अपने-अपने घरों में बंद होकर बैठे हैं। उसने कहा कि बाहर हवा इतनी साफ और नदी इतनी चमचम कि मुझे लगा मैं नंदनवन में आ गया हूं।

सरकू सांप ने बीच में ही बात छेडी कि अरे मैं भी कल चूहे खाने शहर की सीमा में गया तो मुझे देखकर कोई डरा नहीं और किसी ने भी मुझे मारने की कोशिश नहीं की।

चूहे का नाम आते ही जानवरों में शोर-शराबा शुरू  हो गया। चूहा, चमगादड़ और बंदर एक साथ बोल पड़े हां, हां शहरों में रहने वाले हमारे रिश्तेदारों ने भी हमें बताया है कि एक अत्यंत घृणित देश  में भी हमें खाने की परंपरा एकदम बंद हो गई है, इस पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा है।

इस चख-चख के चलते बूढे़ बरगद दादा ने भी बहुत धीमी आवाज में कहा- हां. . . . . . . . . . . . मैं भी देख रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से इस जंगल में भी पेड काटने कोई नहीं आया है।

उनकी बात सुनकर जंबो हाथी चाचा ने जोर जोर से सिर हिलाकर सूंड उठाकर कहा- अरे वहां तो इतना सन्नाटा है कि अब तो हमारी पत्नी और बच्चे, मेरे अड़ोसी-पड़ोसी, रोज हर की पैडी पर गंगा में नहाने जा रहे हैं। एक दिन तो हम हरिद्वार के बाजार में भी घूम आये पर हमें भगाने के लिये कोई भी आगे नहीं आया ।

यह सब सुनते हुये भूरे भालू दादा ने बडे गंभीर स्वर में कहा- सुनो-  मैं बताता हूं तुम्हें, इन सबके पीछे क्या कारण है। मनुष्यों  में इन दिनों कोई बहुत गंभीर बीमारी फैल रही है, असल में मनुष्य  भी बहुत ही गलत आदतों में डूब गया था, पर मुझे ये बिलकुल ठीक नहीं लग रहा है। मनुष्य  और हम जानवर  इस धरती पर ख़ुशी-ख़ुशी  रहने के लिये बनाये गये हैं, अगर वे हमें मारते-परेशान करते हैं तो क्या, उन्हें यह बात अब समझ आ गई है। इसलिये आओ- हम सब मिल कर वनदेवी से प्रार्थना करते हैं कि इन मनुष्यों  को इस मुसीबत से छुटकारा दिलवा दे। बेचारे बहुत ही कष्ट में हैं, इनके लिये अब  इतनी सजा ही काफी है।

भूरे दादा की बात सबको समझ आ गई और प्रार्थना करने के लिये हाथी चाचा ने सूंड लंबी कर के ऐसी जोरदार चिंघाड लगाई कि पूरा जंगल हिल गया और मैं भी पलंग से नीचे गिर पड़ा और मेरी नींद खुल गई।

थोड़ा सचेत होते ही इस सपने को याद कर के मैं यह सोचने लगा कि जंगली जानवर वे हैं या हम मनुष्य  ??

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – भोर भई ☆

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

 

# घर में रहें। सुरक्षित और स्वस्थ रहें। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ ☆ डॉ निधि जैन

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆

☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ☆

 

जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ,

न किसी के घर जाओ, ना किसी को घर बुलाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

न दोस्तों से मिलो, पर दोस्ती निभाओ, दूर रह कर प्यार को  निभाओ,  किसी के घर मत  जाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

मौसम की मार हो या बारिश की फुहार , धूप या सूरज का खुमार, जहाँ हो,  जैसे हो, वहाँ, वैसे ही खुशी मनाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

कल मिलना आज रूठना, कल रूठना आज मिलना,

तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं, तुम्हारा होना ज़रूरी है, फिर से तुम मिल जाओ, कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

रिश्तों पर संवेदनशील हो जाओ, सबकी जान की कीमत अपने जैसे  लगाओ l

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

भगवान के मंदिर के दरवाजे बंद हो गए, गरीबों  में  भगवान का रूप देख आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

गुरुद्वारों के लंगर उठ जायें , भूखों का पेट भरने के लिए दान दे आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आँखे बेहाल थमीं हुई सी ज़िन्दगी,  कोरोना का कहर चारों ओर,  जानें  बेहाल हैं कहती हैं  बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आसमान मे पंछी उड़ते, इंसानो की आजादी का सवाल है, जानवरों और प्रकृति के प्रकोप को समझो ओर समझाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

सबके  रक्त का रंग एक है, मौत का डर भी सबका एक है, भेद भाव  छोड़ कर मानवता को बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ एक सच ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

( डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक बेहद आत्मीय कहानी एक सच।  यह एक कटु सत्य है कि सेल्फ पब्लिशिंग  एक व्यापार बन गया है। यदि अपवाद स्वरुप कुछ प्रकाशकों को छोड़ दें तो अक्सर लेखक  स्वयं को लेखक-प्रकाशक-पुस्तक विक्रेता चक्रव्यूह  में स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करता है। संवेदनशीलता से लिखा हुआ साहित्य बिना पैसे खर्च किये जमीनी स्तर तक पहुँचाना  इतना आसान नहीं रहा। आज लेखक अपनी पुस्तक अपनी  परिश्रम से कमाई हुई पूँजी लगाकर प्रकाशित तो कर लेता है किन्तु ,वह उन्हें बेच नहीं पाता। इस बेबाक कहानी के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कथा-कहानी –  एक सच ☆ 

आज से दस साल पहले मोनिका अपने घर की बाल्कनी में बैठकर कुछ सोच रही थी । मंद-मंद हवा बह रही  थी । रोज़ वह हवा बहुत अच्छी लग रही थी । आज उस हवा में कुछ सूनापन नज़र आ रहा था । मोनिका को कुछ अजीब लग रहा था । आसमान में घने बादल भी छाये थे । लग रहा था कि अभी ज़ोरो की बारिश होगी । जैसे ही सोच रही थी कि बारिस भी शुरु हो गई । उस दिन घर में कोई भी नहीं था । उसके पति और बेटा दोनों काम पर गए थे । उसने सोचा कि क्यों न पकौडे खाये जाय ? यह सोचकर वह रसोईघर में गई ही थी कि दरवाज़े पर घंटी बजती है । उसे अजीब लगता है कि इतनी बारिश में कौन आया होगा ? सोचकर दरवाज़ा खोलती है । देखती है रेवती आधी भीगी हुई छाता लेकर खडी है । तुरंत उसने उसके लिए तौलिया दिया और कहा अरी! रेवती तुम इस वक्त यहाँ? बहुत ही बारिश हो रही है  । फोन पर ही हम बात कर लेते।

अच्छा तो तुम्हें मेरा इस वक्त आना पसंद नहीं आया । कहते हुए तौलिये से अपने बालों को सुखाती है ।

अरी! तुम भी ना!  हमेशा मुझे गलत समझती हो । मैंने तो इसलिए कहा था कि इतने ज़ोर की बारिश में ऐसे भीगकर आने से अच्छा होता कि हम फोन पर बातें कर लेतें । मैं वैसे भी अकेली हूँ । कुछ काम नहीं था, सोचा पकौडे बनाकर खाती हूँ । पता नहीं, आज मुझे अच्छा नहीं लग रहा है । वैसे तो अच्छा हुआ कि तुम भी आ गई, पकौडे खाने के लिए साथ मिल जाएगा । कहते हुए मोनिका रसोईघर की ओर जाती है ।

पीछे-पीछे रेवती भी जाती है और कहती है, तुमने मेरी कहानी पढी । जो मैंने तुम्हें दो दिन पहले भेजी थी ।

कौन -सी ? अरे! हाँ, वक्त ही नहीं मिलता । घर के काम से फुर्सत कहाँ रहती है । हम तो ठहरे घर में काम करनेवाले । कहते हुए वह मोनिका को प्लेट में पकौडे देती है ।

मुझसे वक्त की बात मत करो । बस आप लोगों ने अपना एक दायरा बना लिया है ।  हमेशा कहते रहना कि वक्त नहीं मिलता है । वक्त का अर्थ भी आप लोग जानते हो । हाँ, मेमसाब वक्त मिलता नहीं है, निकालना पडता है । अगर कुछ करना हो जिंदगी में तो वक्त निकालकर काम करना पडता है । मैंने कभी कोई भी काम रोते-रोते नहीं किया है । सुबह से लेकर रात तक हँसते हुए सारे काम करती हूँ । पता नहीं क्यों, आप लोग ऐसे सोचते हो कि आप सबसे अधिक काम कर रहे हो । आप ही हो जो घर को बनाती हो । अरे! हम बाहर और घर दोनों जगह काम करते है । फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं करते । आपको क्या लगता है कि हम घर पर काम नहीं करते । हम भी आप की ही तरह सारा काम करते है । सोचते है अब तक जो ज्ञान हासिल किया है वह दूसरों को दे तो अच्छा रहेगा । वैसे तो पकौडे तो अच्छे बने है । कहते हुए पकौडे की प्लेट को  सिंक में रखती है ।

तुम सही कह रही हो । शायद हम लोग ही आलसी बन गये है । करनेवाला कोई हो तो लगता है क्यों न हम भी आराम से काम करें । बाहर जाने का मात्र मर्द का काम है । यही सोचकर हम भी अपने आप को समझा लेते है । इसका मतलब यह नहीं कि हम बाहर जाकर काम करना नहीं जानते । हम भी स्वतंत्र रहना चाहते थे । हमारे पति राजेश ने मना कर दिया । शादी के बाद सारे परिवार को देखना ही तुम्हारा काम है, ऐसे अधिकार से कहा कि सब कुछ पीछे छुट गया । खैर, अब तो जिंदगी भी खत्म हो गई है । कहने का मतलब है कि आज तो सब अनुभव मांगते है, जो हमारे पास नहीं है । अच्छा तुम बताओ । तुम कुछ परेशान लग रही हो । क्षमा करना, मैंने भी तुम्हें कुछ कहकर परेशान कर दिया है । इतनी बारिश में तुम मुझसे बात करने के लिए आई हो । कहते हुए मोनिका अदरकवाली चाय अपनी दोस्त रेवती को देती है।

नहीं तो, क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए । मैंने तुम्हें नाहक ही ऐसे सवाल करके परेशान कर दिया । तुम तो जानती हो कि मैं कहानियाँ लिखती हूँ । मैं कविता भी लिखती हूँ । मेरा मन आजकल कुछ भी लिखने को नहीं कर रहा है । मुझे लगता है कि हर कोई सिर्फ व्यापार करने बैठा है । पता है जब हम समाज को कुछ लिखकर उससे चेतना जागृत करने की कोशिश करते है, तो प्रकाशक साथ नहीं देते है । यह सच है कि वे व्यापार कर रहे है । फिर भी उनको भी समझना चाहिए कि हर साहित्यकार के पास इतने पैसे नहीं होते । माना कि उनको प्रिंटिग के लिए रुपये चाहिए  । उसमें भी एथिक्स नाम की कोई भी चीज नहीं रही है । कहते हुए रेवती चाय का प्याला भी रखकर बाल्कनी में बैठ जाती है ।

तुम भी ना ऐसे ही परेशान हो रही हो । अब बता कि तुम्हारे मुँह बोले भाई भी तो प्रकाशक है । तुम अपना काम उनसे क्यों नहीं करवाती हो? उनके बच्चे कैसे है? वे तो तुम्हें बहुत पसंद करते है। जब बारिश होती है, तो मिट्टी की खुश्बू बहुत अच्छी लगती है । कहते हुए मोनिका बाहर आकर रेवती के साथ बाल्कनी में बैठती है ।

सब ठीक ही होंगे । मैंने भी उनसे बात किए बहुत दिन हो गए । पता नहीं आजकल उनसे भी बात करना अच्छा नहीं लग रहा है । वह भी तो व्यापार ही कर रहे है । उन्होंने बच्चों को भी बहुत सीखा दिया है । अरे! व्यापार ही करना था । मुझसे कह देते । उन्होंने ऐसा नहीं किया । मैं हर बार कहती रही कि भाई कुछ पैसे चाहिए, कुछ परेशानी है । उन्होंने उस वक्त कुछ नहीं कहा । फिर अचानक एक दिन फोन करके कहा कि आप पांच हज़ार रुपये भेज दिए । मेरे लिए भी रुपये जुटाने आसान नहीं थे । कहते हुए रेवती ने अपने आंसू पौंछे ।

तुरंत मोनिका पानी देती है । इस बारे में तुम ज्यादा मत सोचो । तुम्हारी सेहत  पर असर पडेगा । कहते हुए मोनिका उसे शांत करती है ।

फिर भी उसने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा,  मैंने सोचा कि शायद उनको बहुत ज़रुरत होगी । रुपये भेजने के बाद भी काम नहीं हुआ । मैं भी इंतज़ार करती रही । उनको यह लगा कि मैं जल्दी कर रही हूँ । मेरी कोई और भी परेशानी थी । वह सब मैं उनको नहीं बता सकती थी । वहां से यह सुनने को मिला कि आप मुझे बहुत परेशान कर रही हो । यह तो गलत ही है ।  मुझे उनका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा । मुझे उनको किताब छपवाने के लिए देना ही नहीं था ।

अच्छा, तो तुम किसी और प्रकाशक के पास अपनी किताब छपवा सकती हो । तुम्हारी कहानी तो बहुत अच्छी होती है, माना कि हमने दो कहानी नहीं पढी है । तुम्हारी पहली किताब की हर कहानी को मैंने पढा है । तुम सच बताने से डरती नहीं हो । जो है उसे वैसे ही प्रस्तुत करती हो । तुम्हारी वही सच बातें मुझे अच्छी  लगती है । विषय का  जानकार हर कोई रहता है । बेबाकी से उसे प्रस्तुत तुम करती हो । सच,  तुम्हारी कोई ऐसे ही तारीफ़ नहीं कर रही हूँ। अच्छा लगता है, तुम्हारी कहानी पढकर कि तुम सच बताती हो । कहते हुए रेवती के हाथ पर अपना हाथ रखती है ।

अरे! दूसरे प्रकाशक तो और भी ज्यादा मांग करते है । कई प्रकाशक तो सिर्फ जाने-माने लेखकों की ही किताब छापते है । हम जैसे उभरते नये लेखकों की किताब नहीं छापते है । मुझे सच में बहुत बुरा लगता है । एक प्रकाशक ने तो चालीस हज़ार की मांग की, दूसरे ने दस हज़ार एक पुस्तक छापने के लिए मांगा था । मुझे लगा, यह लोग कर क्या रहे है?  मेरे पास तो रुपये नहीं थे तो कहने लगे कि घर में किसी से भी लेकर दे दीजिए ।

अरे! यह भी कोई बात हुई । यह तो गलत ही है । ऐसे कोई मांगता है क्या ? सही में मुझे भी बुरा लग रहा है । कहते हुए मोनिका ने अपने बेटे रोहित को फोन किया । बेटा आप कब आ रहे हो ? जल्दी लौट आना, देर मत करना । हाँ, अब बताओ । क्या हुआ ? सॉरी, मुझे रोहित की चिंता हो गई, इसलिए कोल किया ।

कोई बात नहीं है । अरे! मैंने कहा उनसे कि, आप मुझे मत बताइए कि मुझे रुपये किससे मांगने है  । घर चलाने के लिए भी रुपये चाहिए, ऐसे कैसे उनसे मांग लू । सच में प्रकाशक का ये काम कुछ ज्यादा ही हो रहा है । ऊपर से वे लोग मार्केटिंग भी नहीं करते है । पता है, अपनी चीज हो तो खुलकर सबको बताते है । अब बात तो हमारी किताब की थी, क्यों करते मार्केटिंग ? छी, सच में किससे रिश्ता निभाए ? आज तो बाज़ार में रिश्ते भी बिक रहे    है । रिश्तों का भी व्यापार हो चुका है । अब तो लिखने का भी मन नहीं करता । हम तो बस समाज में जो सच्चाई है उसे लोगों के सामने लाने का साहस कर रहे है । कोई हमारा साथ नहीं देता । कहते हुए उसकी आवाज़ रुँध जाती है ।

तुमने सही कहा रेवती । यह भूमंडलीकरण है, यहां पर कोई अपना नहीं है । अगर तुम उनके दृष्टिकोण से देखोगी तो वह भी गलत नहीं है । मैं किसी का भी पक्ष नहीं ले रही हूं । बस, तुम्हारी बातों को सुनकर बता रही हूँ । अन्यथा, नहीं लेना । प्रकाशक के लिए भी जिंदगी जीने के लिए पैसों की ज़रुरत होती है । शायद इसी वजह से वे पैसा मांगते है । उनके पास भी कितना पैसा बचता होगा । अपना व्यापार बढाने के लिए कई प्रकाशक ज्यादा मांगते  है । हां, मानती हूँ  कि उनको भी कई बाते सोचनी  चाहिए । तुम भी उनकी कोई सगी बहिन तो हो नहीं । व्यापार में अगर वह सबको बहन बनाकर ऐसे ही रुपये कम लेते रहे तो हो चुकी उनकी जिंदगी । तुम बुरा मत मानना । आज तुम्हारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है इसलिए ऐसा सोच रही हो । वक्त आते ही सब ठीक हो जाएगा । चिंता मत करना । थोडा पानी पी लो । कहते हुए मोनिका फिर से रेवती को पानी देती है ।

कुछ ठीक नहीं होगा । सब ऐसा ही चलता रहा है, चलेगा भी । सब ऐसे ही लोगों को लूटेंगे । कहते हुए रेवती लंबी सांस लेती है । मुझे लिखना ही नहीं चाहिए । कहते हुए खुद उठकर पानी का बोतल रसोईघर में रखकर आती    है ।

अरे! ऐसे कैसे चलेगा ? तुम्हारी जैसी लेखिका कैसे निराश हो सकती है । तुम पहले एक काम करना कि अपनी कहानियों को ऑनलाइन मेगेज़ीन के लिए देना । लोग तुम्हारी लेखनी को पहचानेंगे । फिर प्रकाशक भी जानेगा । कोई तो अच्छा इन्सान होगा, जो सिर्फ तुम्हारी लिखावट को ही ध्यान देगा । कहते हुए मोनिका घर में बिखरे कपड़े ठीक करने लगती है । तभी दरवाज़े पर घंटी बजती है । रेवती की गहरी सोच टूटती है । मोनिका देखती है कि उसका बेटा रोहित काम से लौट आया है । मोनिका ने रोहित को हाथ-मुँह धोकर आने के लिए कहा ।

फिर रेवती भी घडी की ओर देखकर कहती है, अरे ! यह रात के नौ बज गये है ।  बारिश भी रुक गई है । तुम भी रोहित को खाना दे दो । यह तो चलता ही रहेगा । कभी भी प्रकाशक और साहित्यकार के बीच का यह माजरा खत्म नहीं होगा । कहते हुए रेवती वहाँ से जाने के लिए उठती है । जाते हुए मोनिका से कहती है,  तुमने जैसी सलाह दी है, मैं और भी कहानी लिखूंगी । जितना हो सके, समाज को सच से अवगत कराना चाहूँगी।

 

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

२७२, रत्नगिरि रेसिडेन्सी, जी.एफ़.-१, इसरो लेआउट, बेंगलूरु-७८

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